ईश्वर बोले-हे षडानन ! अब मैं जपमालाका लक्षण बताऊँगा, उसे सुनो । रुद्राक्षके मुखको ब्रह्मा तथा बिन्दु (ऊपरी भाग) को रुद्र कहा गया है । रुद्राक्षका पुच्छ (नीचेका भाग) विष्णुरूप है, यह भोग तथा मोक्षका फल प्रदान करता है ॥ १.५ ॥
पञ्चविंशतिभिश्चाक्षैः पञ्चवक्त्रैः सकण्टकैः ॥ २ ॥ रक्तवर्णैः सितैर्मिश्रैः कृतरन्ध्रविदर्भितैः । अक्षसूत्रं प्रकर्तव्यं गोपुच्छवलयाकृति ॥ ३ ॥
श्वेतवर्ण या रक्तवर्ण या मिश्रित वर्णवाले, छिद्रयुक्त, अखण्डित तथा काँटेदार पाँच मुखवाले पच्चीस रुद्राक्षोंसे गायकी पूँछके आकारकी एक अक्षमाला बनानी चाहिये ॥ २-३ ॥
[माला बनानेके लिये एक दानेका मुख दूसरे दानेके मुखसे संयोजित करते हुए एक दानेका पुच्छ (नुकीला भाग) दूसरे दानेके पुच्छसे जोड़ते जाना चाहिये । सुमेरुका मुख ऊपरकी तरफ और नागपाश उसके ऊपर करना चाहिये ॥ ४ ॥
एवं संग्रथितां मालां मन्त्रसिद्धिप्रदायिनीम् । प्रक्षाल्य गन्धतोयेन पञ्चगव्येन चोपरि ॥ ५ ॥ ततः शिवाम्भसाऽऽक्षाल्य ततो मन्त्रगणान्न्यसेत् । स्पृष्ट्वा शिवास्त्रमन्त्रेण कवचेनावगुण्ठयेत् ॥ ६ ॥
इस प्रकार गूंथी गयी मन्त्र-सिद्धिप्रदायिनी मालाको पहले गन्धोदक और बादमें पंचगव्यसे विधिवत् प्रक्षालित करके तथा पुनः शिवाभिषिक्त जलसे स्नान करानेके पश्चात् इसमें मन्त्रोंका न्यास करना चाहिये । शिवास्त्रमन्त्रसे स्पर्श करके कवच-मन्त्र (हुम्)-से अवगुंठन करना चाहिये ॥ ५-६ ॥
मूलमन्त्रं न्यसेत्पश्चात्पूर्ववत्कारयेत्तथा । सद्योजातादिभिः प्रोक्ष्य यावदष्टोत्तरं शतम् ॥ ७ ॥ मूलमन्त्रं समुच्चार्य शुद्धभूमौ निधाय च । तस्योपरि न्यसेत्साम्बं शिवं परमकारणम् ॥ ८ ॥
इसके बाद मूलमन्त्रसे पूर्ववत् न्यास करे तथा गुरु आदिसे न्यास कराये । पुनः सद्योजात आदि मन्त्रोंसे एक सौ आठ बार उसपर जलसे प्रोक्षण करनेके पश्चात् मूलमन्त्रका उच्चारण करके उसे शुद्ध भूमिपर रखकर उसके ऊपर जगत्के परम कारण साम्बसदाशिवका न्यास करना चाहिये ॥ ७-८ ॥
प्रतिष्ठिता भवेन्माला सर्वकामफलप्रदा । यस्य देवस्य यो मन्त्रस्तां तेनैवाभिपूजयेत् ॥ ९ ॥
इस प्रकार प्रतिष्ठित की गयी माला समस्त कामनाओंका फल प्रदान करनेवाली होती है । जिस देवताका जो मन्त्र सिद्ध करना हो, उसी मन्त्रसे उस मालाका पूजन करना चाहिये ॥ ९ ॥
जपमालाको मस्तकपर, गलेमें अथवा कानपर धारण करना चाहिये और संयतचित्त होकर रुद्राक्षमालासे ही जप करना चाहिये । परम श्रद्धासे युक्त होकर रुद्राक्षकी माला कण्ठमें, मस्तकपर, हृदयपर, पार्श्वभागमें, कानमें तथा दोनों भुजाओंपर नित्य धारण करनी चाहिये ॥ १०-११ ॥
किमत्र बहुनोक्तेन वर्णनेन पुनः पुनः । रुद्राक्षधारणं नित्यं तस्मादेतत्प्रशस्यते ॥ १२ ॥ स्नाने दाने जपे होमे वैश्वदेवे सुरार्चने । प्रायश्चित्ते तथा श्राद्धे दीक्षाकाले विशेषतः ॥ १३ ॥
रुद्राक्षके सम्बन्धमें अधिक कहने तथा बार-बार वर्णन करनेसे क्या लाभ ? अतः नित्य रुद्राक्ष धारण करना श्रेयस्कर है । विशेष करके स्नान, दान, जप, होम, बलिवैश्वदेव, देवपूजन, प्रायश्चित्त कर्म, श्राद्ध तथा दीक्षाके समय इसे अवश्य धारण करना चाहिये ॥ १२-१३ ॥
सुवर्ण अथवा मणिसे जटित रुद्राक्ष मस्तक, कण्ठ, यज्ञोपवीत अथवा हाथमें धारण करना चाहिये । अन्य व्यक्तिके द्वारा धारण किया हुआ रुद्राक्ष अपने लिये शुद्ध तथा कल्याणकारी नहीं होता है ॥ १५ ॥
नाशुचिर्धारयेदक्षं सदा भक्त्यैव धारयेत् । रुद्राक्षतरुसम्भूतवातोद्भूततृणान्यपि ॥ १६ ॥ पुण्यलोकं गमिष्यन्ति पुनरावृत्तिदुर्लभम् ।
अपवित्र अवस्थामें रुद्राक्ष नहीं धारण करना चाहिये; सर्वदा पवित्र अवस्थामें ही इसे भक्तिपूर्वक धारण करना चाहिये । रुद्राक्षके वृक्षसे चली हुई वायुके सम्पर्कमें आकर उगे हुए तृण भी पुण्यलोकमें जाते हैं और वहाँसे पुनः वे इस लोकमें नहीं आते ॥ १६.५ ॥
रुद्राक्षं धारयन्पापं कुर्वन्नपि च मानवः ॥ १७ ॥ सर्वं तरति पाप्मानं जाबालश्रुतिराह हि । पशवो हि च रुद्राक्षधारणाद्यान्ति रुद्रताम् ॥ १८ ॥ किमु ये धारयन्ति स्म नरा रुद्राक्षमालिकाम् । रुद्राक्षः शिरसा ह्येको धार्यो रुद्रपरैः सदा ॥ १९ ॥ ध्वंसनं सर्वदुःखानां सर्वपापविमोचनम् । व्याहरन्ति च नामानि ये शम्भोः परमात्मनः ॥ २० ॥ रुद्राक्षालङ्कृता ये च ते वै भागवतोत्तमाः । रुद्राक्षधारणं कार्यं सर्वश्रेयोऽर्थिभिर्नृभिः ॥ २१ ॥ कर्णपाशे शिखायां च कण्ठे हस्ते तथोदरे ।
रुद्राक्ष धारण करनेवाला मनुष्य पाप करके भी सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है-ऐसा जाबालोपनिषद्में कहा गया है । रुद्राक्षधारणसे पशु भी रुद्रत्वको प्राप्त हो जाते हैं । फिर मनुष्य होकर जो लोग रुद्राक्षकी माला धारण करते हैं, उनकी बात ही क्या ! शिवभक्तोंको एक रुद्राक्ष सिरपर सर्वदा अवश्य धारण करना चाहिये, इससे उनके सभी दुःखोंका नाश हो जाता है तथा सभी पापोंकी समाप्ति हो जाती है । जो लोग परमात्मा शिवके नामोंका उच्चारण करते हैं तथा जो रुद्राक्षसे अलंकृत रहते हैं, वे ही भगवानके श्रेष्ठ भक्त होते हैं । अपने समस्त कल्याणकी कामना करनेवाले मनुष्यको कर्णपाशमें, शिखामें, कण्ठमें, हाथमें तथा उदरपर रुद्राक्ष धारण करना चाहिये ॥ १७-२१.५ ॥
महादेवश्च विष्णुश्च ब्रह्मा तेषां विभूतयः ॥ २२ ॥ देवाश्चान्ये तथा भक्त्या खलु रुद्राक्षधारिणः । गोत्रर्षयश्च सर्वेषां कूटस्था मूलरूपिणः ॥ २३ ॥ तेषां वंशप्रसूताश्च मुनयः सकला अपि । श्रौतधर्मपराः शुद्धाः खलु रुद्राक्षधारिणः ॥ २४ ॥
ब्रह्मा, विष्णु, महेश, उनकी विभूतियाँ तथा सभी देवता भक्तिपूर्वक अवश्य ही रुद्राक्ष धारण करते हैं । गोत्रप्रवर्तक ऋषिगण, सभीके कूटस्थ मूल पुरुष, उनके वंशज तथा शुद्ध आत्मावाले श्रौतधर्मावलम्बी लोग भी रुद्राक्ष अवश्य धारण करते हैं ॥ २२-२४ ॥
श्रद्धा न जायते साक्षाद्वेदसिद्धे विमुक्तिदे । बहूनां जन्मनामन्ते महादेवप्रसादतः ॥ २५ ॥ रुद्राक्षधारणे वाञ्छा स्वभावादेव जायते । रुद्राक्षस्य तु माहात्म्यं जाबालैरादरेण तु ॥ २६ ॥ पठ्यते मुनिभिः सर्वैर्मया पुत्र तथैव च । रुद्राक्षस्य फलं चैव त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् ॥ २७ ॥
यदि आरम्भमें साक्षात् वेद-प्रतिपादित तथा मुक्तिदायक रुद्राक्षको धारण करनेमें श्रद्धा न उत्पन्न हो, तो भी अनेक जन्मोंके बाद भगवान् शिवके अनुग्रहसे रुद्राक्ष धारण करनेके प्रति स्वाभाविक रूपसे इच्छा उत्पन्न हो जाती है । जाबालशाखाके सभी मुनिलोग अत्यन्त आदरपूर्वक रुद्राक्षके माहात्म्यका पाठ करते हैं और मैंने भी रुद्राक्ष-माहात्म्यके विषयमें पढ़ा है । हे पुत्र ! रुद्राक्ष-धारणका फल तीनों लोकोंमें विख्यात है ॥ २५-२७ ॥
फलस्य दर्शने पुण्यं स्पर्शात्कोटिगुणं भवेत् । शतकोटिगुणं पुण्यं धारणाल्लभते नरः ॥ २८ ॥ लक्षकोटिसहस्राणि लक्षकोटिशतानि च । जपाच्च लभते नित्यं नात्र कार्या विचारणा ॥ २९ ॥
रुद्राक्ष-फलके दर्शनसे महान् पुण्य मिलता है, इसके स्पर्शसे करोड़ गुना अधिक पुण्य होता है तथा इसे धारण कर लेनेपर मनुष्य सौ करोड़ गुना पुण्य प्राप्त करता है । रुद्राक्ष-मालासे नित्य जप करनेसे वह सैकड़ों लाख करोड़ गुना तथा हजारों लाख करोड़ गुना पुण्य प्राप्त करता है, इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ २८-२९ ॥
हस्ते चोरसि कण्ठे च कर्णयोर्मस्तके तथा । रुद्राक्षं धारयेद्यस्तु स रुद्रो नात्र संशयः ॥ ३० ॥ अवध्यः सर्वभूतानां रुद्रवद्धि चरेद्भुवि । सुराणामसुराणां च वन्दनीयो यथा शिवः ॥ ३१ ॥
जो अपने हाथमें, वक्षःस्थलपर, कण्ठमें, दोनों कानोंमें तथा मस्तकपर रुद्राक्ष धारण करता है, वह साक्षात् रुद्र है । इसमें सन्देह नहीं है । वह सभी प्राणियोंसे अवध्य रहते हुए इस पृथ्वीपर रुद्रकी भांति निर्भय होकर विचरण करता है और शिवजीकी तरह समस्त देवता तथा दानवोंके लिये वन्दनीय हो जाता है ॥ ३०-३१ ॥
रुद्राक्षधारी सततं वन्दनीयस्तथा नरैः । उच्छिष्टो वा विकर्मस्थो युक्तो वा सर्वपातकैः ॥ ३२ ॥ मुच्यते सर्वपापेभ्यो रुद्राक्षस्य तु धारणात् । कण्ठे रुद्राक्षमाबध्य श्वापि वा म्रियते यदि ॥ ३३ ॥ सोऽपि मुक्तिमवाप्नोति किं पुनर्मानुषोऽपि सः ।
सभी मनुष्य भी रुद्राक्ष धारण करनेवालेकी निरन्तर बन्दना करते हैं । उच्छिष्टकी भाँति त्याज्य, निषिद्ध कर्मोंमें रत तथा सभी प्रकारके पापोंसे युक्त मनुष्य भी रुद्राक्ष धारण करनेपर सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है । गलेमें रुद्राक्ष बँधा हुआ कुत्ता भी यदि मर जाय तो वह भी मुक्ति प्राप्त कर लेता है, फिर मनुष्यकी बात ही क्या ? ॥ ३२-३३.५ ॥
जप तथा ध्यानसे विहीन रहता हुआ भी यदि कोई मनुष्य रुद्राक्ष धारण कर ले तो वह समस्त पापोंसे मुक्त होकर परम गतिको प्राप्त होता है । यदि कोई एक भी रुद्राक्ष प्रयत्नपूर्वक धारण करता है तो वह अपनी इक्कीस पीढ़ियोंका उद्धार करके अन्तमें रुद्रलोकमें प्रतिष्ठित होता है । इसके बाद अब मैं रुद्राक्षकी और भी विधिका वर्णन करूँगा ॥ ३४-३६ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायामेकादहस्कन्धे रुद्राक्षजपमालाविधानवर्णनं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्रषां संहितायामेकादशस्कन्धे रुद्राक्षजपमालाविधानवर्णनं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥