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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
एकादशः स्कन्धः
षष्ठोऽध्यायः

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रुद्राक्षमाहात्म्ये गुणनिधिमोक्षवर्णनम् -
रुद्राक्षधारणकी महिमाके सन्दर्भ में गुणनिधिका उपाख्यान जपमालाका स्वरूप तथा रुद्राक्ष धारणका विधान -


ईश्वर उवाच
महासेन कुशग्रन्थिपुत्राजीवादयः परे ।
रुद्राक्षस्य तु नैकोऽपि कलामर्हति षोडशीम् ॥ १ ॥
ईश्वर बोले-हे महासेन ! कुश-ग्रन्थि, पुत्रजीव (जियापोती) आदिसे निर्मित तथा अन्य वस्तुसे बनी हुई मालाओंमेंसे कोई एक भी रुद्राक्ष मालाकी सोलहवीं कलाके बराबर भी नहीं हो सकती ॥ १ ॥

पुरुषाणां यथा विष्णुर्ग्रहाणां च यथा रविः ।
नदीनां तु यथा गङ्‌गा मुनीनां कश्यपो यथा ॥ २ ॥
उच्चैःश्रवा यथाश्वानां देवानामीश्वरो यथा ।
देवीनां तु यथा गौरी तद्वच्छ्रेष्ठमिदं भवेत् ॥ ३ ॥
जैसे पुरुषों में विष्णु, ग्रहोंमें सूर्य, नदियोंमें गंगा, मुनियोंमें कश्यप, घोड़ोंमें उच्चैःश्रवा, देवताओंमें महेश्वर, देवियोंमें गौरी श्रेष्ठ हैं; उसी प्रकार यह रुद्राक्ष श्रेष्ठ है ॥ २-३ ॥

नातः परतरं स्तोत्रं नातः परतरं व्रतम् ।
अक्षय्येषु च दानेषु रुद्राक्षस्तु विशिष्यते ॥ ४ ॥
रुद्राक्षसे बढ़कर न कोई स्तोत्र है और न कोई व्रत है । सभी प्रकारके अक्षय दानोंकी तुलनामें रुद्राक्ष-दान विशेष महिमावाला है ॥ ४ ॥

शिवभक्ताय शान्ताय दद्याद्‌रुद्राक्षमुत्तमम् ।
तस्य पुण्यफलस्यान्तं न चाहं वक्तुमुत्सहे ॥ ५ ॥
जो मनुष्य किसी शान्त स्वभाववाले शिवभक्तको उत्तम रुद्राक्षका दान करता है, उसके पुण्यफलकी सीमाका वर्णन करनेमें मैं समर्थ नहीं हूँ ॥ ५ ॥

धृतरुद्राक्षकण्ठाय यस्त्वन्नं सम्प्रयच्छति ।
त्रिसप्तकुलमुद्धृत्य रुद्रलोकं स गच्छति ॥ ६ ॥
जो मनुष्य कण्ठमें रुद्राक्ष धारण किये हुए किसी व्यक्तिको अन्न प्रदान करता है, वह अपने इक्कीस कुलोंका उद्धार करके रुद्रलोकको जाता है ॥ ६ ॥

यस्य भाले विभूतिर्न नाङ्‌गे रुद्राक्षधारणम् ।
न शम्भोर्भवने पूजा स विप्रः श्वपचाधमः ॥ ७ ॥
जो ब्राह्मण अपने मस्तकपर भस्म नहीं लगाता, शरीरपर रुद्राक्ष नहीं धारण करता और शिवमन्दिरमें पूजा नहीं करता, वह चाण्डालोंमें भी अधम है ॥ ७ ॥

खादन्मांसं पिबन्मद्यं सङ्‌गच्छन्नन्त्यजानपि ।
पातकेभ्यो विमुच्येत रुद्राक्षं शिरसि स्थिते ॥ ८ ॥
मांस खानेवाला, सुरापान करनेवाला तथा अन्त्यजोंके सान्निध्यमें रहनेवाला भी सिरपर रुद्राक्ष धारण करनेपर तज्जन्य पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ ८ ॥

सर्वयज्ञतपोदानवेदाभ्यासैश्च यत्फलम् ।
तत्फलं लभते सद्यो रुद्राक्षस्य तु धारणात् ॥ ९ ॥
सभी प्रकारके यज्ञ, तप, दान तथा वेदाध्ययन करनेसे जो फल प्राप्त होता है, वह फल मात्र रुद्राक्षधारणसे शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है ॥ ९ ॥

वेदैश्चतुर्भिर्यत्पुण्यं पुराणपठनेन च ।
यत्तीर्थसेवनेनैव सर्वविद्यादिभिस्तथा ॥ १० ॥
चारों वेदोंका स्वाध्याय करने, पुराणोंको पढ़ने, तीर्थोंका सेवन करने तथा सभी विद्याओंका अध्ययन करनेके फलस्वरूप जो पुण्य होता है, वह पुण्य मनुष्य केवल रुद्राक्षधारणसे तत्काल प्राप्त कर लेता है ॥ १० ॥

तत्पुण्यं लभते सद्यो रुद्राक्षस्य तु धारणात् ।
प्रयाणकाले रुद्राक्षं बन्धयित्वा म्रियेद्यदि ॥ ११ ॥
प्रयाणकालमें रुद्राक्ष धारण करके यदि कोई मृत्युको प्राप्त होता है, तो वह रुद्रत्वको प्राप्त हो जाता है और उसका पुनर्जन्म नहीं होता ॥ ११ ॥

स रुद्रत्वमवाप्नोति पुनर्जन्म न विद्यते ।
रुद्राक्षं धारयेत्कण्ठे बाह्वोर्वा म्रियते यदि ॥ १२ ॥
यदि मनुष्य कण्ठमें या दोनों भुजाओंपर रुद्राक्ष धारण किये हुए मर जाता है तो वह अपनी इक्कीस पीढ़ियोंको तारकर अन्तमें रुद्रलोकमें निवास करता है ॥ १२ ॥

कुलैकविंशमुत्तार्य रुद्रलोके वसेन्नरः ।
ब्राह्मणो वापि चाण्डालो निर्गुणः सगुणोऽपि च ॥ १३ ॥
भस्मरुद्राक्षधारी यः स देवत्वं शिवं व्रजेत् ।
शुचिर्वाप्यशुचिर्वापि तथाभक्ष्यस्य भक्षकः ॥ १४ ॥
म्लेच्छो वाप्यथ चाण्डालो युतो वा सर्वपातकैः ।
रुद्राक्षधारणादेव स रुद्रो नात्र संशयः ॥ १५ ॥
जो भस्म तथा रुद्राक्ष धारण करता है; वह महादेव शिवके लोकमें पहुँच जाता है, चाहे वह ब्राह्मण हो या चाण्डाल और गुणवान् हो अथवा गुणसे रहित । पवित्र हो अथवा अपवित्र तथा चाहे वह अभक्ष्य पदार्थोंका भक्षण करनेवाला ही क्यों न हो । म्लेच्छ हो अथवा चाण्डाल हो या सभी पातकोंसे युक्त ही क्यों न हो, वह केवल रुद्राक्षधारणसे ही रुद्रस्वरूप हो जाता है, इसमें संशय नहीं है ॥ १३-१५ ॥

शिरसा धारिते कोटिः कर्णयोर्दशकोटयः ।
शतकोटिर्गले बद्धो मूर्ध्नि कोटिसहस्रकम् ॥ १६ ॥
अयुतं चोपवीते तु लक्षकोटिर्भुजे स्थिते ।
मणिबन्धे तु रुद्राक्षो मोक्षसाधनकः परः ॥ १७ ॥
सिरपर रुद्राक्ष धारण करनेसे करोड़ गुना, दोनों कानोंमें पहननेसे दस करोड़ गुना, गलेमें धारण करनेसे सौ करोड़ गुना, मस्तकपर धारण करनेसे हजार करोड़ गुना, यज्ञोपवीतमें धारण करनेसे इससे भी दस हजार गुना तथा दोनों भुजाओंपर धारण करनेसे लाख करोड़ गुना फल मिलता है और मणिबन्धमें धारण करनेपर यह रुद्राक्ष मोक्षका परम साधन बन जाता है ॥ १६-१७ ॥

रुद्राक्षधारको भूत्वा यत्किञ्चित्कर्म वैदिकम् ।
कुर्वन्विप्रः सदा भक्त्या महदाप्नोति तत्फलम् ॥ १८ ॥
कोई ब्राह्मण रुद्राक्ष धारण करके भक्तिपूर्वक जो कुछ भी वैदिक कर्म करता है, उसे उसका महान् फल प्राप्त होता है ॥ १८ ॥

रुद्राक्षमालिकां कण्ठे धारयेद्‍भक्तिवर्जितः ।
पापकर्मा तु यो नित्यं स मुक्तः सर्वबन्धनात् ॥ १९ ॥
श्रद्धारहित होकर भी यदि कोई गलेमें रुद्राक्ष धारण कर ले तो नित्य पापकर्ममें रत रहनेपर भी वह सभी बन्धनोंसे छूट जाता है ॥ १९ ॥

रुद्राक्षार्पितचेता यो रुद्राक्षस्तु न वै धृतः ।
असौ माहेश्वरो लोके नमस्यः स तु लिङ्‌गवत् ॥ २० ॥
जो अपने मनमें रुद्राक्ष धारण करनेकी भावना रखता है, किंतु उसे धारण नहीं कर पाता, तो भी वह महेश्वर-स्वरूप है और इस लोकमें शिवलिंगकी भाँति नमस्कारके योग्य है ॥ २० ॥

अविद्यो वा सविद्यो वा रुद्राक्षस्य तु धारणात् ।
शिवलोकं प्रपद्येत कीकटे गर्दभो यथा ॥ २१ ॥
कोई व्यक्ति चाहे विद्यासम्पन्न हो अथवा विद्यारहित, वह रुद्राक्ष धारण कर लेनेमात्रसे ही शिवलोकको प्राप्त हो जाता है, जैसे कीकट नामक स्थानविशेषमें एक गर्दभ शिवलोक चला गया था ॥ २१ ॥

स्कन्द उवाच
रुद्राक्षान्सन्दधे देव गर्दभः केन हेतुना ।
कीकटे केन वा दत्तस्तद्‌ब्रूहि परमेश्वर ॥ २२ ॥
स्कन्द बोले-हे देव ! उस गर्दभने कीकटदेशमें किस कारणसे रुद्राक्षोंको धारण किया था और किसने उसे रुद्राक्ष दिया था ? हे परमेश्वर ! वह सारा वृत्तान्त आप मुझे बताइये ॥ २२ ॥

श्रीभगवानुवाच
शृणु पुत्र पुरावृत्तं गर्दभो विन्ध्यपर्वते ।
धत्ते रुद्राक्षभारं तु वाहितः पथिकेन तु ॥ २३ ॥
श्रान्तोऽसमर्थस्तद्‍भारं वोढुं पतितवान्भुवि ।
प्राणैस्त्वक्तस्त्रिनेत्रस्तु शूलपाणिर्महेश्वरः ॥ २४ ॥
मत्प्रसादान्महासेन मदन्तिकमुपागतः ।
श्रीभगवान् बोले-हे पुत्र ! अब तुम एक प्राचीन वृत्तान्त सुनो । एक गर्दभ विन्ध्यपर्वतपर रुद्राक्षका बोझा ढोया करता था । एक समय पथिक अधिक बोझा लादकर उसे हाँकने लगा, जिससे अत्यधिक थका हुआ वह गर्दभ उस बोझको ढोनेमें असमर्थ होकर भूमिपर गिर पड़ा और उसने प्राण त्याग दिये । हे महासेन ! इसके बाद मेरे अनुग्रहसे वह हाथमें त्रिशूल धारण किये हुए तथा त्रिनेत्रधारी होकर महेश्वररूपमें मेरे पास आ गया ॥ २३-२४.५ ॥

यावद्वक्त्रस्य संख्यानं रुद्राक्षाणां सुदुर्लभम् ॥ २५ ॥
तावद्युगसहस्राणि शिवलोके महीयते ।
रुद्राक्षके मुखोंकी जितनी दुर्लभ संख्या होती है, उतने हजार युगोंतक रुद्राक्ष धारण करनेवाला शिवलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है ॥ २५.५ ॥

स्वशिष्येभ्यस्तु वक्तव्यं नाशिष्येभ्यः कदाचन ॥ २६ ॥
अभक्तेभ्योऽपि मूर्खेभ्यः कदाचिन्न प्रकाशयेत् ।
अपने शिष्यको ही रुद्राक्ष-माहात्म्य बताना चाहिये, जो शिष्य न हो उसे कभी नहीं बताना चाहिये, साथ ही अभक्तों तथा मूखोंके समक्ष इसे प्रकट नहीं करना चाहिये ॥ २६.५ ॥

अभक्तो वास्तु भक्तो वा नीचो नीचतरोऽपि वा ॥ २७ ॥
रुद्राक्षान्धारयेद्यस्तु मुच्यते सर्वपातकैः ।
चाहे कोई भक्तिपरायण हो अथवा भक्तिरहित हो, नीच हो अथवा नीचसे भी बढ़कर हो, यदि वह रुद्राक्ष धारण कर ले तो सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ २७.५ ॥

रुद्राक्षधारणं पुण्यं केन वा सदृशं भवेत् ॥ २८ ॥
महाव्रतमिदं प्राहुर्मुनयस्तत्त्वदर्शिनः ।
रुद्राक्ष धारण करनेसे होनेवाले पुण्यकी तुलना भला किसके साथ की जा सकती है ? तत्त्वदर्शी मुनिगण इस रुद्राक्षधारणको महाव्रतकी संज्ञा देते हैं ॥ २८.५ ॥

सहस्रं धारयेद्यस्तु रुद्राक्षाणां धृतव्रतः ॥ २९ ॥
जिस व्यक्तिने एक हजार रुद्राक्षके धारण करनेका नियम बना रखा है, सभी देवता उसे नमस्कार करते हैं, जैसे रुद्र हैं वैसे ही वह भी है ॥ २९ ॥

तं नमन्ति सुराः सर्वे यथा रुद्रस्तथैव सः ।
अभावे तु सहस्रस्य बाह्वोः षोडश षोडश ॥ ३० ॥
एकं शिखायां करयोर्द्वादश द्वादशैव तु ।
द्वात्रिंशत्कण्ठदेशे तु चत्वारिंशच्च मस्तके ॥ ३१ ॥
एकैकं कर्णयोः षट् षट् वक्षस्यष्टोत्तरं शतम् ।
यो धारयति रुद्राक्षान् रुद्रवत्स तु पूज्यते ॥ ३२ ॥
जो मनुष्य एक हजार रुद्राक्षके अभावकी स्थितिमें दोनों भुजाओंपर सोलह-सोलह, शिखामें एक, दोनों हाथोंमें बारह-बारह, गलेमें बत्तीस, मस्तकपर चालीस, प्रत्येक कानमें छ:-छः तथा वक्षःस्थलपर एक सौ आठ रुद्राक्ष धारण करता है; वह रुद्रके समान पूजित होता है ॥ ३०-३२ ॥

मुक्ताप्रवालस्कटिकरौप्यवैदूर्यकाञ्चनैः ।
समेतान्धारयेद्यस्तु रुद्राक्षान्स शिवो भवेत् ॥ ३३ ॥
जो व्यक्ति मोती, मूंगा, स्फटिक, रौप्य, वैदूर्य तथा सुवर्ण आदिसे जटित रुद्राक्ष धारण करता है । वह साक्षात् शिवस्वरूप हो जाता है ॥ ३३ ॥

केवलानपि रुद्राक्षान्यद्यालस्याद्‌बिभर्ति यः ।
तं न स्पृशन्ति पापानि तमांसीव विभावसुम् ॥ ३४ ॥
जो आलस्यवश केवल रुद्राक्षोंको ही धारण करता है, उस व्यक्तिको पाप उसी तरह स्पर्श नहीं कर सकते, जैसे अन्धकार सूर्यको स्पर्श नहीं कर पाता ॥ ३४ ॥

रुद्राक्षमालया मन्त्रो जप्तोऽनन्तफलप्रदः ।
यस्याङ्‌गे नास्ति रुद्राक्ष एकोऽपि बहुपुण्यदः ॥ ३५ ॥
तस्य जन्म निरर्थं स्यात्त्रिपुण्ड्ररहितं यथा ।
रुद्राक्षकी मालासे जपा गया मन्त्र अनन्त फल प्रदान करता है । जिसके शरीरपर अत्यन्त पुण्यदायक एक भी रुद्राक्ष नहीं रहता, उसका जन्म उसी भाँति निरर्थक है, जैसे त्रिपुण्ड्र धारण न करनेवालेका जीवन अर्थहीन होता है ॥ ३५.५ ॥

रुद्राक्षं मस्तके धृत्वा शिरःस्नानं करोति यः ॥ ३६ ॥
गङ्‌गास्नानफलं तस्य जायते नात्र संशयः ।
जो अपने मस्तकपर रुद्राक्ष धारण करके शिरःस्नान करता है, उसे गंगास्नान करनेका फल प्राप्त होता है; इसमें संशय नहीं है ॥ ३६.५ ॥

एकवक्त्रः पञ्चवक्त्र एकादशमुखाः परे ॥ ३७ ॥
चतुर्दशमुखाः केचिद्‌रुद्राक्षा लोकपूजिताः ।
एकमुखी, पंचमुखी, ग्यारहमुखी, चौदहमुखी तथा और भी कुछ रुद्राक्षोंकी लोकमें पूजा की जाती है ॥ ३७.५ ॥

भक्त्या संपूज्यते नित्यं रुद्राक्षः शङ्‌करात्मकः ॥ ३८ ॥
दरिद्रं वापि पुरुषं राजानं कुरुते भुवि ।
साक्षात् शंकरके आत्मस्वरूप इस रुद्राक्षकी यदि नित्य भक्तिपूर्वक पूजा की जाय तो यह दरिद्र व्यक्तिको भी पृथ्वीपर राजा बना देता है ॥ ३८.५ ॥

अत्र ते कथयिष्यामि पुराणं मतमुत्तमम् ॥ ३९ ॥
कोसलेषु द्विजः कश्चिद्‌गिरिनाथ इति श्रुतः ।
महाधनी च धर्मात्मा वेदवेदाङ्‌गपारगः ॥ ४० ॥
यज्ञकृद्दीक्षितस्तस्य तनयः सुन्दराकृतिः ।
नाम्ना गुणनिधिः ख्यातस्तरुणः कामसुन्दरः ॥ ४१ ॥
अब इस सम्बन्धमें मैं तुमसे एक प्राचीन उत्तम आख्यानका वर्णन करूँगा । ऐसा सुना जाता है कि कोसल-देशमें गिरिनाथ नामक एक ब्राहाण रहता था । वह महाधनी, धर्मात्मा, वेद वेदांगमें पारंगत, यज्ञपरायण तथा दीक्षायुक्त था । उसका गुणनिधि नामसे विख्यात एक पुत्र था, जो युवा, मनोहर आकृतिवाला तथा कामदेवके समान सुन्दर था ॥ ३९-४१ ॥

गुरोः सुधिषणस्याथ पत्‍नीं मुक्तावलीमथ ।
मोहयामास रूपेण यौवनेन मदेन च ॥ ४२ ॥
उसने अपने रूप तथा मदयुक्त यौवनसे सुधिषण नामक अपने गुरुकी मुक्तावली नामवाली भार्याको मोहित कर लिया ॥ ४२ ॥

सङ्‌गतस्तु तया सार्धं कञ्चित्कालं ततो भिया ।
विषं ददौ च गुरवे येभे पश्चात्तु निर्भयः ॥ ४३ ॥
कुछ दिनोंतक मुक्तावलीके साथ उसका सम्पर्क रहा, किंतु बादमें गुरुसे भयके कारण उसने उन्हें विष दे दिया और वह निर्भय होकर सहवासपरायण हो गया ॥ ४३ ॥

यदा माता पिता कर्म किञ्चिज्जानाति यत्क्षणे ।
मातरं पितरं चापि मारयामास तद्विषात् ॥ ४४ ॥
जब उसके माता-पिताको इस कर्मके विषयमें कुछ ज्ञात हुआ, तब उसने माता-पिताको भी उसी क्षण विष देकर मार डाला ॥ ४४ ॥

नानाविलासभोगैश्च जाते द्रव्यव्यये ततः ।
ब्राह्मणानां गृहे चौर्यं चकार स तदा खलः ॥ ४५ ॥
तत्पश्चात् अनेक प्रकारके भोग-विलासोंमें सम्पूर्ण धनके व्यय हो जानेपर उस दुष्टने ब्राह्मणों के घरमें चोरी करना आरम्भ कर दिया ॥ ४५ ॥

सुरापानमदोन्मत्तस्तदा ज्ञातिबहिष्कृतः ।
ग्रामान्निष्कासितः सर्वैस्तदा सोऽभूद्वनेचरः ॥ ४६ ॥
सुरापानसे निरन्तर मदोन्मत्त रहनेके कारण वह जातिसे बहिष्कृत कर दिया गया तथा सभी लोगोंने उसे गाँवसे बाहर निकाल दिया । तब वह वनमें विचरण करने लगा ॥ ४६ ॥

मुक्तावल्या तया सार्धं जगाम गहनं वनम् ।
मार्गे स्थितो द्रव्यलोभाज्जघान ब्राह्मणान्बहून् ॥ ४७ ॥
उस मुक्तावलीको साथमें लेकर वह घने जंगलमें चला गया । वहाँ मार्गमें स्थित होकर उसने [आनेजानेवाले] अनेक ब्राह्मणोंको धनके लोभसे मार डाला ॥ ४७ ॥

एवं बहुगते काले ममार स तदाधमः ।
नेतुं तं यमदूताश्च समाजग्मुः सहस्रशः ॥ ४८ ॥
इस प्रकार बहुत समय बीत जानेके बाद वह नीच प्राणी मृत्युको प्राप्त हुआ और उसे लेनेके लिये हजारों यमदूत आये ॥ ४८ ॥

शिवलोकाच्छिवगणास्तथैव च समागताः ।
तयोः परस्परं वादो बभूव गिरिजासुत ॥ ४९ ॥
उसी समय शिवके गण शिवलोकसे वहाँ आ पहुँचे और फिर हे गिरिजानन्दन ! उन दोनों (यमदूतों तथा शिवदूतों)-में परस्पर विवाद होने लगा ॥ ४९ ॥

यमदूतास्तदा प्रोचुः पुण्यमस्य किमस्ति हि ।
ब्रुवन्तु सेवकाः शम्भोर्यद्येनं नेतुमिच्छथ ॥ ५० ॥
तब यमदूतोंने कहा-हे शम्भुके सेवको ! आपलोग बतायें कि इसका कौन-सा पुण्य है, जो आपलोग इसे शिवलोक ले जाना चाहते हैं ? ॥ ५० ॥

शिवदूतास्तदा प्रोचुरयं यस्मिन्स्थले मृतः ।
दशहस्तादधो भूमे रुद्राक्षस्तत्र चास्ति हि ॥ ५१ ॥
तत्प्रभावेण हे दूता नेष्यामः शिवसन्निधिम् ।
इसपर शिवदूत कहने लगे कि यह जिस स्थानपर मृत्युको प्राप्त हुआ है, उस भूमिके दस हाथ नीचे रुद्राक्ष विद्यमान है । हे यमदूतो ! उसी रुद्राक्षके प्रभावसे इसे हमलोग शिवके पास ले जायेंगे ॥ ५१.५ ॥

ततो विमानमारुह्य दिव्यरूपधरो द्विजः ॥ ५२ ॥
गतो गुणनिधिर्दूतैः सहितः शङ्‌करालयम् ।
इति रुद्राक्षमाहात्म्यं कथितं तव सुव्रत ॥ ५३ ॥
एवं रुद्राक्षमहिमा समासात्कथितो मया ।
सर्वपापक्षयकरो महापुण्यफलप्रदः ॥ ५४ ॥
तत्पश्चात् वह गुणनिधि नामक ब्राह्मण दिव्य रूप धारण करके विमानपर आरूढ़ होकर शिवदूतोंके साथ शिवलोक चला गया । हे सुव्रत ! मैंने तुमसे रुद्राक्षका यह माहात्म्य कह दिया । इस प्रकार मेरे द्वारा संक्षेपमें वर्णित यह रुद्राक्षमाहात्म्य सभी पापोंका नाश करनेवाला तथा महान् पुण्यफल प्रदान करनेवाला है । ५२-५४ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां एकादशस्कन्धे रुद्राक्षमाहात्म्ये
गुणनिधिमोक्षवर्णनं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्रयां संहितायामेकादशस्कन्धे रुजाक्षमाहात्ये गुणनिधिमोक्षवर्णनं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥


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