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रुद्राक्षमाहात्म्यवर्णनम् -
विभिन्न प्रकारके रुद्राक्ष और उनके अधिदेवता -
श्रीनारायण उवाच एवं नारद षड्वक्त्रो गिरिशेन विबोधितः । रुद्राक्षमहिमानं च ज्ञात्वासीत्स कृतार्थकः ॥ १ ॥ इत्थं भूतानुभावोऽयं रुद्राक्षो वर्णितो मया । सदाचारप्रसङ्गेन शृणु चान्यत्समाहितः ॥ २ ॥
श्रीनारायण बोले-हे नारद ! इस प्रकार गिरिशायी भगवान् शिवने षडाननको रुद्राक्षके विषयमें बताया और इस रुद्राक्षमहिमाको जानकर वे भी कृतार्थ हो गये । इस प्रकारके माहात्म्यवाले रुद्राक्षके विषयमें मैंने आपसे वर्णन कर दिया । अब सदाचारके प्रसंगमें रुद्राक्षसम्बन्धी अन्य बातें एकाग्रचित्त होकर सुनिये ॥ १-२ ॥
यथा रुद्राक्षमहिमा वर्णितोऽनन्तपुण्यदः । लक्षणं मन्त्रविन्यासं तथाहं वर्णयामि ते ॥ ३ ॥
जिस प्रकार मैंने अनन्त पुण्य प्रदान करनेवाली रुद्राक्ष-महिमाका वर्णन किया है, उसी प्रकार मैं रुद्राक्षके लक्षण तथा मन्त्र-विन्यासका वर्णन आपसे करूँगा ॥ ३ ॥
विद्वानोंने बेरके फलके परिमाणवाले रुद्राक्षको मध्यम तथा चनेके परिमाण-तुल्य रुद्राक्षको अधम कहा है; यह एक सिद्धान्त है, जिसका वर्णन मैंने आपसे किया है । ॥ ७ ॥
शिवजीकी आज्ञासे पृथ्वीतलपर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र-भेदानुसार उन-उन जातियोंवाले रुद्राक्षके श्रेष्ठ वृक्ष उत्पन्न हुए । श्वेत रुद्राक्षोंको ब्राह्मण, रक्त वर्णके रुद्राक्षोंको क्षत्रिय तथा पीले वर्णके रुद्राक्षोंको वैश्य जानना चाहिये । इसी प्रकार काले रंगके रुद्राक्ष शूद्र कहे जाते हैं ॥ ८-९ ॥
ब्राह्मणो बिभृयाच्छ्वेतान् रक्तान् राजा तु धारयेत् । पीतान्वैश्यस्तु बिभृयात्कृष्णान् शूद्रस्तु धारयेत् ॥ १० ॥
ब्राह्मणको श्वेत वर्ण तथा राजा (क्षत्रिय)-को लाल वर्णके रुद्राक्ष धारण करने चाहिये । इसी तरह वैश्यको पीले वर्ण तथा शूद्रको काले वर्णके रुद्राक्ष धारण करने चाहिये ॥ १० ॥
जिस रुद्राक्षमें स्वयं ही छिद्र बना हो, वह उत्तम रुद्राक्ष होता है और जिसमें मनुष्यके प्रयत्नसे छिद्र किया गया हो, वह मध्यम रुद्राक्ष होता है । सब ओरसे समान, चिकने, मजबूत और गोल रुद्राक्षोंको रेशमके डोरेमें पिरोकर धारण करना चाहिये । शरीरके सभी (पूर्वोक्त) अंगोंपर उन्हें समानरूपसे धारण करना चाहिये । जिस रुद्राक्षको घिसनेसे समान तथा अति विलक्षण स्वर्ण-रेखाकी आभाके समान रेखा दिखायी दे, वह उत्तम रुद्राक्ष होता है । उसे शिवभक्तोंको अवश्य धारण करना चाहिये ॥ १२-१४.५ ॥
एक रुद्राक्ष शिखामें, तीस रुद्राक्ष सिरपर, छत्तीस रुद्राक्ष गलेमें, दोनों भुजाओंपर सोलह-सोलह, मणिबन्धमें बारह तथा कन्धेपर पचास रुद्राक्ष धारण करना चाहिये ॥ १५-१६ ॥
अष्टोत्तरशतैर्मालोपवीतं च प्रकल्पयेत् । द्विसरं त्रिसरं वापि बिभृयात्कण्ठदेशतः ॥ १७ ॥
एक सौ आठ रुद्राक्षोंकी मालाका यज्ञोपवीत धारण करना चाहिये और दो लड़ी या तीन लड़ीवाली रुद्राक्षकी माला गलेमें पहननी चाहिये ॥ १७ ॥
कुण्डले मुकुटे चैव कर्णिकाहारकेषु च । केयूरे कटके चैव कुक्षिवंशे तथैव च ॥ १८ ॥ सुप्ते पीते सर्वकालं रुद्राक्षं धारयेन्नरः ।
मनुष्यको कुण्डलमें, मुकुटमें, कर्णिकामें, हारमें, केयूरमें, कटकमें तथा करधनीमें, शयन तथा भोजनपानादि सभी कालोंमें रुद्राक्ष धारण करना चाहिये ॥ १८.५ ॥
तीन सौ रुद्राक्षोंका धारण करना अधम तथा पाँच सौ रुद्राक्षोंका धारण करना मध्यम कहा जाता है और एक हजार रुद्राक्षोंका धारण करना उत्तम कहा गया है । इस प्रकार उत्तम, मध्यम तथा अधमभेदसे रुद्राक्ष धारण करना चाहिये ॥ १९.५ ॥
शिरसीशानमन्त्रेण कर्णे तत्पुरुषेण च ॥ २० ॥ अघोरेण ललाटे तु तेनैव हृदयेऽपि च । अघोरबीजमन्त्रेण करयोर्धारयेत्पुनः ॥ २१ ॥ पञ्चाशदक्षग्रथितां वामदेवेन चोदरे । पञ्चब्रह्मभिरङ्गैश्चाप्येवं रुद्राक्षधारणम् ॥ २२ ॥ ग्रथितान्मूलमन्त्रेण सर्वानक्षांस्तु धारयेत् ।
पचास रुद्राक्षोंकी माला बनाकर ईशानमन्त्रसे सिरपर, तत्पुरुषमन्त्रसे कानमें, अघोरमन्त्रसे ललाट तथा हदयपर और अघोरबीजमन्त्रसे दोनों हाथोंपर और वामदेवमन्त्रसे उदरपर धारण करना चाहिये । इस प्रकार ईशान आदि पाँच ब्रह्ममन्त्र तथा छः षडंग मन्त्रसे रुद्राक्ष धारण करना चाहिये । मूलमन्त्रका उच्चारण करके गूंथे गये सभी रुद्राक्षोंको धारण करना चाहिये । २०-२२.५ ॥
एकवक्त्रस्तु रुद्राक्षः परतत्त्वप्रकाशकः ॥ २३ ॥ परतत्त्वधारणाच्च जायते तत्प्रकाशनम् ।
एकमुखी रुद्राक्ष परमतत्त्वका प्रकाशक है । अतः इस परमतत्त्वमय एकमुखी रुद्राक्षके धारणसे उस ब्रह्मका साक्षात्कार हो जाता है ॥ २३.५ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! दो मुखवाला रुद्राक्ष अर्धनारीश्वर होता है । इसे धारण करनेसे उस व्यक्तिपर भगवान् अर्धनारीश्वर सदा प्रसन्न रहते हैं ॥ २४.५ ॥
त्रिवक्त्रस्त्वनलः साक्षात्स्त्रीहत्यां दहति क्षणात् ॥ २५ ॥
तीनमुखी रुद्राक्ष साक्षात् अग्निस्वरूप होता है । यह स्त्री-हत्याके पापको क्षणभरमें भस्म कर देता है । यह तीनमुखी रुद्राक्ष अग्नित्रय (गार्हपत्य, आहवनीय, दक्षिणाग्नि)-के भी स्वरूपवाला है । उसे धारण करनेसे उस व्यक्तिपर अग्निदेवता सदा प्रसन्न रहते हैं ॥ २५-२६ ॥
चतुर्मुखी रुद्राक्ष ब्रह्मास्वरूप है । उसे धारण करनेसे महान् वैभव, अत्यन्त उत्तम आरोग्य तथा विशद ज्ञान-सम्पदाकी प्राप्ति होती है । मनुष्यको आत्मशुद्धिके लिये इसे धारण करना चाहिये ॥ २७.५ ॥
छ: मुखी रुद्राक्षके अधिदेवता कार्तिकेय हैं और कुछ मनीषिगण विनायक गणेशको भी इस रुद्राक्षके देवतारूपमें बताते हैं ॥ २९.५ ॥
सप्तवक्त्रस्तु रुद्राक्षः सप्तमात्राधिदैवतः ॥ ३० ॥ सप्ताश्वदैवतश्चैव मुनिसप्तकदैवतः । तद्धारणान्महाश्रीः स्यान्महदारोग्यमुत्तमम् ॥ ३१ ॥ महती ज्ञानसम्पत्तिः शुचिर्वै धारयेन्नरः ।
सातमुखी रुद्राक्षकी अधिदेवी सात मातृकाएँ हैं । इसके अधिदेवता सूर्य तथा सप्तर्षि भी हैं । इसे धारण करनेसे विपुल सम्पदा, उत्तम आरोग्य तथा महान् ज्ञान-राशिकी प्राप्ति होती है । पवित्र होकर ही मनुष्यको इसे धारण करना चाहिये ॥ ३०-३१.५ ॥
आठमुखी रुद्राक्षके अधिदेवता अष्टमातृकाएँ हैं । यह शुभ रुद्राक्ष आठों वसुओं तथा गंगाके लिये प्रीतिकर है । उसे धारण करनेसे ये सत्यवादी देवता प्रसन्न हो जाते हैं । ३२-३३ ॥
तेरह मुखवाला रुद्राक्ष समस्त मनोरथोंको पूर्ण करनेवाला, सिद्धियाँ प्रदान करनेवाला तथा कल्याण करनेवाला है । उसे धारण करनेमात्रसे कामदेव प्रसन्न हो जाते हैं ॥ ३८ ॥
चौदह मुखवाला रुद्राक्ष भगवान् शंकरके नेत्रसे उत्पन्न हुआ है । यह सभी प्रकारकी व्याधियोंको नष्ट करनेवाला तथा सर्वविध आरोग्य प्रदान करनेवाला है ॥ ३९ ॥
मद्यं मांसं च लशुनं पलाण्डुं शिग्रुमेव च । श्लेष्मातकं विड्वराहं भक्षणे वर्जयेत्ततः ॥ ४० ॥
रुद्राक्ष धारण करनेवालेको मद्य, मांस, लहसुन, प्याज, सहिजन, लिसोडा तथा विड्वराहका आहारमें त्याग कर देना चाहिये । ग्रहणके समय, सूर्यके विषुवत् रेखापर, संक्रमणकालमें, उत्तरायण तथा दक्षिणायनके संक्रान्तिकालमें, अमावास्या तथा पूर्णिमाके समय तथा अन्यान्य पुण्य दिवसोंमें रुद्राक्ष धारण करनेसे मनुष्य शीघ्र समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ ४०-४१ ॥
ग्रहणे विषुवे चैव सङ्क्रमे त्वयने तथा । दर्शे च पौर्णमासे च पुण्येषु दिवसेष्वपि । रुद्राक्षधारणात्सद्यः सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ४१ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायामेकादशस्कन्धे रुद्राक्षमाहात्म्यवर्णनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां एकादशस्कन्धे रुद्राक्षमाहात्म्यवर्णनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥