Menus in CSS Css3Menu.com



श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
एकादशः स्कन्धः
सप्तमोऽध्यायः

[ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ]


रुद्राक्षमाहात्म्यवर्णनम् -
विभिन्न प्रकारके रुद्राक्ष और उनके अधिदेवता -


श्रीनारायण उवाच
एवं नारद षड्वक्त्रो गिरिशेन विबोधितः ।
रुद्राक्षमहिमानं च ज्ञात्वासीत्स कृतार्थकः ॥ १ ॥
इत्थं भूतानुभावोऽयं रुद्राक्षो वर्णितो मया ।
सदाचारप्रसङ्‌गेन शृणु चान्यत्समाहितः ॥ २ ॥
श्रीनारायण बोले-हे नारद ! इस प्रकार गिरिशायी भगवान् शिवने षडाननको रुद्राक्षके विषयमें बताया और इस रुद्राक्षमहिमाको जानकर वे भी कृतार्थ हो गये । इस प्रकारके माहात्म्यवाले रुद्राक्षके विषयमें मैंने आपसे वर्णन कर दिया । अब सदाचारके प्रसंगमें रुद्राक्षसम्बन्धी अन्य बातें एकाग्रचित्त होकर सुनिये ॥ १-२ ॥

यथा रुद्राक्षमहिमा वर्णितोऽनन्तपुण्यदः ।
लक्षणं मन्त्रविन्यासं तथाहं वर्णयामि ते ॥ ३ ॥
जिस प्रकार मैंने अनन्त पुण्य प्रदान करनेवाली रुद्राक्ष-महिमाका वर्णन किया है, उसी प्रकार मैं रुद्राक्षके लक्षण तथा मन्त्र-विन्यासका वर्णन आपसे करूँगा ॥ ३ ॥

लक्षं तु दर्शनात्युण्यं कोटिस्तत्स्पर्शनाद्‍भवेत् ।
तस्य कोटिगुणं पुण्यं लभते धारणान्नरः ॥ ४ ॥
रुद्राक्षके दर्शनसे एक लाख गुना तथा स्पर्शसे करोड़ गुना पुण्य होता है । रुद्राक्ष धारण कर लेनेपर मनुष्य उसका करोड़ गुना पुण्य प्राप्त करता है ॥ ४ ॥

लक्षकोटिसहस्राणि लक्षकोटिशतानि च ।
तज्जपाल्लभते पुण्यं नरो रुद्राक्षधारणात् ॥ ५ ॥
रुद्राक्ष धारण करनेकी अपेक्षा उसके द्वारा जपसे मनुष्य एक सौ लाख करोड़ गुना और हजार लाख करोड़ गुना पुण्य प्राप्त करता है ॥ ५ ॥

रुद्राक्षाणां तु भद्राक्षधारणात्स्यान्महाफलम् ।
धात्रीफलप्रमाणं यच्छ्रेष्ठमेतदुदाहृतम् ॥ ६ ॥
भद्राक्ष धारण करनेकी अपेक्षा रुद्राक्ष धारण करनेका महान् फल होता है । जो रुद्राक्ष आँवलेके फलके परिमाणका होता है, वह श्रेष्ठ माना गया है ॥ ६ ॥

बदरीफलमात्रं तु प्रोच्यते मध्यमं बुधैः ।
अधमं चणमात्रं स्यात्प्रतिज्ञैषा मयोदिता ॥ ७ ॥
विद्वानोंने बेरके फलके परिमाणवाले रुद्राक्षको मध्यम तथा चनेके परिमाण-तुल्य रुद्राक्षको अधम कहा है; यह एक सिद्धान्त है, जिसका वर्णन मैंने आपसे किया है । ॥ ७ ॥

ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्चेति शिवाज्ञया ।
वृक्षा जाताः पृथिव्यां तु तज्जातीयाः शुभाक्षकाः ॥ ८ ॥
श्वेतास्तु ब्राह्मणा ज्ञेयाः क्षत्रिया रक्तवर्णकाः ।
पीता वैश्यास्तु विज्ञेयाः कृष्णाः शूद्राः प्रकीर्तिताः ॥ ९ ॥
शिवजीकी आज्ञासे पृथ्वीतलपर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र-भेदानुसार उन-उन जातियोंवाले रुद्राक्षके श्रेष्ठ वृक्ष उत्पन्न हुए । श्वेत रुद्राक्षोंको ब्राह्मण, रक्त वर्णके रुद्राक्षोंको क्षत्रिय तथा पीले वर्णके रुद्राक्षोंको वैश्य जानना चाहिये । इसी प्रकार काले रंगके रुद्राक्ष शूद्र कहे जाते हैं ॥ ८-९ ॥

ब्राह्मणो बिभृयाच्छ्वेतान् रक्तान् राजा तु धारयेत् ।
पीतान्वैश्यस्तु बिभृयात्कृष्णान् शूद्रस्तु धारयेत् ॥ १० ॥
ब्राह्मणको श्वेत वर्ण तथा राजा (क्षत्रिय)-को लाल वर्णके रुद्राक्ष धारण करने चाहिये । इसी तरह वैश्यको पीले वर्ण तथा शूद्रको काले वर्णके रुद्राक्ष धारण करने चाहिये ॥ १० ॥

समाः स्निग्धा दृढास्तद्वत्कण्टकैः संयुताः शुभाः ।
कृमिदष्टाञ्छिन्नभिन्नान्कण्टकैरहितांस्तथा ॥ ११ ॥
व्रणयुक्तानावृतांश्च षड्‌रुद्राक्षांस्तु वर्जयेत् ।
समरूप, चिकने, दृढ़ तथा स्पष्टरूपसे कंटक (काँटों)-की रेखाओंसे युक्त रुद्राक्ष श्रेष्ठ होते हैं; किंतु कीड़ोंद्वारा खाये गये, टूटे हुए, फूटे हुए, काँटोंकी रेखाओंसे रहित, व्रणयुक्त तथा परतसे आवृत-इन छ: तरहके रुद्राक्षोंको नहीं धारण करना चाहिये ॥ ११.५ ॥

स्वयमेव कृतद्वारो रुद्राक्षः स्यादिहोत्तमः ॥ १२ ॥
यत्तु पौरुषयत्‍नेन कृतं तन्मध्यमं भवेत् ।
समान्स्निग्धान्दृढान्वृत्तान्क्षौमसूत्रेण धारयेत् ॥ १३ ॥
सर्वगात्रेषु साम्येन समानातिविलक्षणा ।
निर्घर्षे हेमलेखाभा यत्र लेखा प्रदृश्यते ॥ १४ ॥
तदक्षमुत्तमं विद्यात्स धार्यः शिवपूजकैः ।
जिस रुद्राक्षमें स्वयं ही छिद्र बना हो, वह उत्तम रुद्राक्ष होता है और जिसमें मनुष्यके प्रयत्नसे छिद्र किया गया हो, वह मध्यम रुद्राक्ष होता है । सब ओरसे समान, चिकने, मजबूत और गोल रुद्राक्षोंको रेशमके डोरेमें पिरोकर धारण करना चाहिये । शरीरके सभी (पूर्वोक्त) अंगोंपर उन्हें समानरूपसे धारण करना चाहिये । जिस रुद्राक्षको घिसनेसे समान तथा अति विलक्षण स्वर्ण-रेखाकी आभाके समान रेखा दिखायी दे, वह उत्तम रुद्राक्ष होता है । उसे शिवभक्तोंको अवश्य धारण करना चाहिये ॥ १२-१४.५ ॥

शिखायामेकरुद्राक्षं त्रिंशद्वै शिरसा वहेत् ॥ १५ ॥
षट्‌त्रिंशच्च गले धार्या बाह्वोः षोडश षोडश ।
मणिबन्धे द्वादशाक्षान्स्कन्धे पञ्चाशतं भवेत् ॥ १६ ॥
एक रुद्राक्ष शिखामें, तीस रुद्राक्ष सिरपर, छत्तीस रुद्राक्ष गलेमें, दोनों भुजाओंपर सोलह-सोलह, मणिबन्धमें बारह तथा कन्धेपर पचास रुद्राक्ष धारण करना चाहिये ॥ १५-१६ ॥

अष्टोत्तरशतैर्मालोपवीतं च प्रकल्पयेत् ।
द्विसरं त्रिसरं वापि बिभृयात्कण्ठदेशतः ॥ १७ ॥
एक सौ आठ रुद्राक्षोंकी मालाका यज्ञोपवीत धारण करना चाहिये और दो लड़ी या तीन लड़ीवाली रुद्राक्षकी माला गलेमें पहननी चाहिये ॥ १७ ॥

कुण्डले मुकुटे चैव कर्णिकाहारकेषु च ।
केयूरे कटके चैव कुक्षिवंशे तथैव च ॥ १८ ॥
सुप्ते पीते सर्वकालं रुद्राक्षं धारयेन्नरः ।
मनुष्यको कुण्डलमें, मुकुटमें, कर्णिकामें, हारमें, केयूरमें, कटकमें तथा करधनीमें, शयन तथा भोजनपानादि सभी कालोंमें रुद्राक्ष धारण करना चाहिये ॥ १८.५ ॥

त्रिशतं त्वधमं पञ्चशतं मध्यममुच्यते ॥ १९ ॥
सहस्रमुत्तमं प्रोक्तं चैवं भेदेन धारयेत् ।
तीन सौ रुद्राक्षोंका धारण करना अधम तथा पाँच सौ रुद्राक्षोंका धारण करना मध्यम कहा जाता है और एक हजार रुद्राक्षोंका धारण करना उत्तम कहा गया है । इस प्रकार उत्तम, मध्यम तथा अधमभेदसे रुद्राक्ष धारण करना चाहिये ॥ १९.५ ॥

शिरसीशानमन्त्रेण कर्णे तत्पुरुषेण च ॥ २० ॥
अघोरेण ललाटे तु तेनैव हृदयेऽपि च ।
अघोरबीजमन्त्रेण करयोर्धारयेत्पुनः ॥ २१ ॥
पञ्चाशदक्षग्रथितां वामदेवेन चोदरे ।
पञ्चब्रह्मभिरङ्‌गैश्चाप्येवं रुद्राक्षधारणम् ॥ २२ ॥
ग्रथितान्मूलमन्त्रेण सर्वानक्षांस्तु धारयेत् ।
पचास रुद्राक्षोंकी माला बनाकर ईशानमन्त्रसे सिरपर, तत्पुरुषमन्त्रसे कानमें, अघोरमन्त्रसे ललाट तथा हदयपर और अघोरबीजमन्त्रसे दोनों हाथोंपर और वामदेवमन्त्रसे उदरपर धारण करना चाहिये । इस प्रकार ईशान आदि पाँच ब्रह्ममन्त्र तथा छः षडंग मन्त्रसे रुद्राक्ष धारण करना चाहिये । मूलमन्त्रका उच्चारण करके गूंथे गये सभी रुद्राक्षोंको धारण करना चाहिये । २०-२२.५ ॥

एकवक्त्रस्तु रुद्राक्षः परतत्त्वप्रकाशकः ॥ २३ ॥
परतत्त्वधारणाच्च जायते तत्प्रकाशनम् ।
एकमुखी रुद्राक्ष परमतत्त्वका प्रकाशक है । अतः इस परमतत्त्वमय एकमुखी रुद्राक्षके धारणसे उस ब्रह्मका साक्षात्कार हो जाता है ॥ २३.५ ॥

द्विवक्त्रस्तु मुनिश्रेष्ठ अर्धनारीश्वरो भवेत् ॥ २४ ॥
धारणादर्धनारीशः प्रीयते तस्य नित्यशः ।
हे मुनिश्रेष्ठ ! दो मुखवाला रुद्राक्ष अर्धनारीश्वर होता है । इसे धारण करनेसे उस व्यक्तिपर भगवान् अर्धनारीश्वर सदा प्रसन्न रहते हैं ॥ २४.५ ॥

त्रिवक्त्रस्त्वनलः साक्षात्स्त्रीहत्यां दहति क्षणात् ॥ २५ ॥
तीनमुखी रुद्राक्ष साक्षात् अग्निस्वरूप होता है । यह स्त्री-हत्याके पापको क्षणभरमें भस्म कर देता है । यह तीनमुखी रुद्राक्ष अग्नित्रय (गार्हपत्य, आहवनीय, दक्षिणाग्नि)-के भी स्वरूपवाला है । उसे धारण करनेसे उस व्यक्तिपर अग्निदेवता सदा प्रसन्न रहते हैं ॥ २५-२६ ॥

त्रिमुखश्चैव रुद्राक्षोऽप्यग्नित्रयस्वरूपकः ।
तद्धारणाच्च हुतभुक् तस्य तुष्यति नित्यशः ॥ २६ ॥
चतुर्मुखस्तु रुद्राक्षः पितामहस्वरूपकः ।
तद्धारणान्महाश्रीमान्महदारोग्यमुत्तमम् ॥ २७ ॥
महती ज्ञानसम्पत्तिः शुद्धये धारयेन्नरः ।
चतुर्मुखी रुद्राक्ष ब्रह्मास्वरूप है । उसे धारण करनेसे महान् वैभव, अत्यन्त उत्तम आरोग्य तथा विशद ज्ञान-सम्पदाकी प्राप्ति होती है । मनुष्यको आत्मशुद्धिके लिये इसे धारण करना चाहिये ॥ २७.५ ॥

पञ्चमुखस्तु रुद्राक्षः पञ्चब्रह्मस्वरूपकः ॥ २८ ॥
तस्य धारणमात्रेण सन्तुष्यति महेश्वरः ।
पंचमुखी रुद्राक्ष साक्षात् पंचब्रह्म-स्वरूप है । उसके धारणमात्रसे ही महेश्वर शिव उस व्यक्तिपर प्रसन्न हो जाते हैं ॥ २८.५ ॥

षड्वक्त्रश्चैव रुद्राक्षः कार्तिकेयाधिदैवतः ॥ २९ ॥
विनायकं चापि देवं प्रवदन्ति मनीषिणः ।
छ: मुखी रुद्राक्षके अधिदेवता कार्तिकेय हैं और कुछ मनीषिगण विनायक गणेशको भी इस रुद्राक्षके देवतारूपमें बताते हैं ॥ २९.५ ॥

सप्तवक्त्रस्तु रुद्राक्षः सप्तमात्राधिदैवतः ॥ ३० ॥
सप्ताश्वदैवतश्चैव मुनिसप्तकदैवतः ।
तद्धारणान्महाश्रीः स्यान्महदारोग्यमुत्तमम् ॥ ३१ ॥
महती ज्ञानसम्पत्तिः शुचिर्वै धारयेन्नरः ।
सातमुखी रुद्राक्षकी अधिदेवी सात मातृकाएँ हैं । इसके अधिदेवता सूर्य तथा सप्तर्षि भी हैं । इसे धारण करनेसे विपुल सम्पदा, उत्तम आरोग्य तथा महान् ज्ञान-राशिकी प्राप्ति होती है । पवित्र होकर ही मनुष्यको इसे धारण करना चाहिये ॥ ३०-३१.५ ॥

अष्टवक्त्रस्तु रुद्राक्षोऽप्यष्टमात्राधिदैवतः ॥ ३२ ॥
वस्वष्टकप्रीतिकरो गङ्‌गाप्रीतिकरः शुभः ।
तद्धारणादिमे प्रीता भवेयुः सत्यवादिनः ॥ ३३ ॥
आठमुखी रुद्राक्षके अधिदेवता अष्टमातृकाएँ हैं । यह शुभ रुद्राक्ष आठों वसुओं तथा गंगाके लिये प्रीतिकर है । उसे धारण करनेसे ये सत्यवादी देवता प्रसन्न हो जाते हैं । ३२-३३ ॥

नववक्त्रस्तु रुद्राक्षो यमदेव उदाहृतः ।
तद्धारणाद्यमभयं न भवत्येव सर्वथा ॥ ३४ ॥
नौमुखी रुद्राक्ष साक्षात् यमदेवके तुल्य माना गया है । उसे धारण करनेसे यमका कोई भय नहीं रहता ॥ ३४ ॥

दशवक्त्रस्तु रुद्राक्षो दशाशादैवतः स्मृतः ।
दशाशाप्रीतिजनको धारणे नात्र संशयः ॥ ३५ ॥
दसमुखी रुद्राक्षके देवता दसों दिशाएँ कही गयी हैं । उसे धारण करनेसे मनुष्य दसों दिशाओंके लिये प्रीतिजनक होता है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३५ ॥

एकादशमुखस्त्वक्षो रुद्रैकादशदैवतः ।
तमिन्द्रदैवतं चाहुः सदा सौख्यविवर्धनम् ॥ ३६ ॥
ग्यारहमुखी रुद्राक्षके अधिदेवता एकादश रुद्र हैं । कुछ लोग इन्द्रको भी निरन्तर सौख्यकी वृद्धि करनेवाले इस रुद्राक्षका देवता कहते हैं ॥ ३६ ॥

रुद्राक्षो द्वादशमुखो महाविष्णुस्वरूपकः ।
द्वादशादित्यदैवश्च बिभर्त्येव हि तत्परः ॥ ३७ ॥
बारहमुखी रुद्राक्ष महाविष्णुका स्वरूप है । इसके अधिदेवता बारह सूर्य हैं । ये देवगण उसे धारण करनेवालेका सदा भरण-पोषण करते हैं ॥ ३७ ॥

त्रयोदशमुखश्चाक्षः कामदः सिद्धिदः शुभः ।
तस्य धारणमात्रेण कामदेवः प्रसीदति ॥ ३८ ॥
तेरह मुखवाला रुद्राक्ष समस्त मनोरथोंको पूर्ण करनेवाला, सिद्धियाँ प्रदान करनेवाला तथा कल्याण करनेवाला है । उसे धारण करनेमात्रसे कामदेव प्रसन्न हो जाते हैं ॥ ३८ ॥

चतुर्दशमुखश्चाक्षो रुद्रनेत्रसमुद्‍भवः ।
सर्वव्याधिहरश्चैव सर्वारोग्यप्रदायकः ॥ ३९ ॥
चौदह मुखवाला रुद्राक्ष भगवान् शंकरके नेत्रसे उत्पन्न हुआ है । यह सभी प्रकारकी व्याधियोंको नष्ट करनेवाला तथा सर्वविध आरोग्य प्रदान करनेवाला है ॥ ३९ ॥

मद्यं मांसं च लशुनं पलाण्डुं शिग्रुमेव च ।
श्लेष्मातकं विड्वराहं भक्षणे वर्जयेत्ततः ॥ ४० ॥
रुद्राक्ष धारण करनेवालेको मद्य, मांस, लहसुन, प्याज, सहिजन, लिसोडा तथा विड्वराहका आहारमें त्याग कर देना चाहिये । ग्रहणके समय, सूर्यके विषुवत् रेखापर, संक्रमणकालमें, उत्तरायण तथा दक्षिणायनके संक्रान्तिकालमें, अमावास्या तथा पूर्णिमाके समय तथा अन्यान्य पुण्य दिवसोंमें रुद्राक्ष धारण करनेसे मनुष्य शीघ्र समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ ४०-४१ ॥

ग्रहणे विषुवे चैव सङ्‌क्रमे त्वयने तथा ।
दर्शे च पौर्णमासे च पुण्येषु दिवसेष्वपि ।
रुद्राक्षधारणात्सद्यः सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ४१ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायामेकादशस्कन्धे रुद्राक्षमाहात्म्यवर्णनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां एकादशस्कन्धे
रुद्राक्षमाहात्म्यवर्णनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥

GO TOP