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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
एकादशः स्कन्धः
अष्टमोऽध्यायः

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भूतशुद्धिवर्णनम् -
भूतशुद्धि -


श्रीनारायण उवाच
भूतशुद्धिप्रकारं च कथयामि महामुने ।
मूलाधारात्समुत्थाय कुण्डलीं परदेवताम् ॥ १ ॥
सुषुम्णामार्गमाश्रित्य ब्रह्मरन्ध्रगतां स्मरेत् ।
जीवं ब्रह्मणि संयोज्य हंसमन्त्रेण साधकः ॥ २ ॥
पादादिजानुपर्यन्तं चतुष्कोणं सवज्रकम् ।
लं बीजाख्यं स्वर्णवर्णं स्मरेदवनिमण्डलम् ॥ ३ ॥
श्रीनारायण बोले-हे महामुने ! अब मैं भूतशुद्धिका प्रकार बता रहा हूँ । सर्वप्रथम मूलाधारसे उठकर सुषुम्नामार्गपर होती हुई ब्रह्मरन्ध्रतक देवी परदेवता कुण्डलिनीके पहुँचनेकी भावना करे । तत्पश्चात् साधक हंसमन्त्रसे जीवका ब्रह्ममें संयोजन करके अपने शरीरमें पैरोंसे लेकर घुटनोंतकके भागमें चतुष्कोण (चौकोर), वज्रचिह्नसे युक्त, पीतवर्णवाले तथा 'लं' बीजसे अंकित पृथ्वीमण्डलकी कल्पना करे ॥ १-३ ॥

जान्वाद्यानाभिचन्द्रार्धनिभं पद्मद्वयाङ्‌कितम् ।
वं बीजयुक्तं श्वेताभमम्भसो मण्डलं स्मरेत् ॥ ४ ॥
घुटनोंसे लेकर नाभितकके भागमें अर्धचन्द्रतुल्य आकृतिवाले, दो कमलोंसे युक्त, शुक्लवर्ण तथा 'वं' बीजमन्त्रसे अंकित जलमण्डलका स्मरण करना चाहिये ॥ ४ ॥

नाभेर्हृदयपर्यन्तं त्रिकोणं स्वस्तिकान्वितम् ।
रं बीजेन युतं रक्तं स्मरेत्पावकमण्डलम् ॥ ५ ॥
इसके बाद नाभिसे लेकर हृदयतकके भागमें त्रिकोणाकार, स्वस्तिक चिह्नसे अंकित, रक्तवर्णवाले तथा '' बीजमन्त्रसे युक्त अग्निमण्डलका स्मरण करना चाहिये ॥ ५ ॥

हृदो भूमध्यपर्यन्तं वृत्तं षड्‌बिन्दुलाञ्छितम् ।
यं बीजयुक्तं धूम्राभं नभस्वन्मण्डलं स्मरेत् ॥ ६ ॥
पुनः हदयसे ऊपर धूमध्यतकके भागमें गोल, छः बिन्दुओंसे अंकित, धूम्रवर्णवाले तथा 'यं' बीजसे युक्त वायुमण्डलका स्मरण करना चाहिये ॥ ६ ॥

आब्रह्मरन्ध्रं भ्रूमध्याद्‌वृत्तं स्वच्छं मनोहरम् ।
हं बीजयुक्तमाकाशमण्डलं च विचिन्तयेत् ॥ ७ ॥
इसके बाद भूमध्यसे लेकर ब्रह्मरन्ध्रतकके भागमें वृत्ताकार, स्वच्छ, परम मनोहर तथा 'हं' बीजसे अंकित आकाशमण्डलका ध्यान करना चाहिये ॥ ७ ॥

एवं भूतानि सञ्चिन्त्य प्रत्येकं संविलापयेत् ।
भुवं जले जलं वह्नौ वह्निं वायौ नभस्यमुम् ॥ ८ ॥
विलाप्य खमहङ्‌कारे महत्तत्त्वेऽप्यहङ्‌कृतिम् ।
महान्तं प्रकृतौ मायामात्मनि प्रविलापयेत् ॥ ९ ॥
इस प्रकारसे पंचभूतोंकी भावना करके प्रत्येकका अपने कारणरूप दूसरे भूतमें लय करे । पृथ्वीको जलमें, जलको अग्निमें, अग्निको वायुमें, वायुको आकाशमें विलीन करनेका ध्यान करके पुनः आकाशको अहंकारमें, अहंकारको महत्तत्त्वमें, महत्तत्त्वको प्रकृतिमें और मायारूपी प्रकृतिको आत्मामें विलीन करना चाहिये ॥ ८-९ ॥

शुद्धसंविन्मयो भूत्वा चिन्तयेत्पापपूरुषम् ।
वामकुक्षिस्थितं कृष्णमङ्‌गुष्ठपरिमाणकम् ॥ १० ॥
ब्रह्महत्याशिरोयुक्तं कनकस्तेयबाहुकम् ।
मदिरापानहृदयं गुरुतल्पकटीयुतम् ॥ ११ ॥
तत्संसर्गिपदद्वन्द्वमुपपातकमस्तकम् ।
खड्गचर्मधरं कृष्णमधोवक्त्रं सुदुःसहम् ॥ १२ ॥
इस प्रकार निर्मल ज्ञानसे सम्पन्न होकर अपने शरीरमें पापपुरुषकी कल्पना करनी चाहिये कि यह मेरी बायीं कुक्षिमें स्थित है, यह काले रंगका है तथा अंगूठेके परिमाणवाला है, ब्रह्महत्या ही इसका सिर है, स्वर्णकी चोरी ही इसके बाहु हैं, सुरापान ही इसका हृदय है, गुरुतल्प (गुरुपत्नीगमन) ही इसका कटिप्रदेश है, इन महापातकोंसे संसर्ग ही इसके दोनों चरण हैं, उपपातक इसका मस्तक है, यह ढालतलवार लिये रहता है, यह कृष्णवर्णवाला है, सदा नीचेकी ओर मुख किये रहता है और अत्यन्त दुःसह है ॥ १०-१२ ॥

वायुबीजं स्मरन्वायुं सम्पूर्यैनं विशोषयेत् ।
स्वशरीरयुतं मन्त्रो वह्निबीजेन निर्दहेत् ॥ १३ ॥
तत्पश्चात् वायुबीज 'यं का स्मरण करते हुए पूरक प्राणायामसे वायुको भरकर उसके द्वारा इस पापपुरुषको सुखा देना चाहिये । पुन: 'र' अग्निबीजमन्त्रके द्वारा अपने शरीरसे लगे हुए उस पापपुरुषको भस्म कर देना चाहिये ॥ १३ ॥

कुम्भके परिजप्तेन ततः पापनरोद्‍भवम् ।
बहिर्भस्म समुत्सार्य वायुबीजेन रेचयेत् ॥ १४ ॥
कुम्भकके जपसे दग्ध किये गये पापपुरुषकी भस्मको वायुबीज 'य'के जपसे रेचक प्राणायामद्वारा बाहर निकाल देना चाहिये ॥ १४ ॥

सुधाबीजेन देहोत्थं भस्म संप्लावयेत्सुधीः ।
भूबीजेन घनीकृत्य भस्म तत्कनकाण्डवत् ॥ १५ ॥
तदनन्तर विद्वान् पुरुष अपने शरीरसे उत्पन्न हुए भस्मको सुधाबीज 'वं के उच्चारणसे उत्पन्न अमृतसे आप्लावित करे । पुनः भू-बीजमन्त्र 'लं'से उस द्रवीभूत भस्मको घनीभूत करके उसके सोनेके अण्डजैसा बन जानेकी कल्पना करे ॥ १५ ॥

विशुद्धमुकुराकारं जपन्बीजं विहायसः ।
मूर्धादिपादपर्यन्तान्यङ्‌गानि रचयेत्सुधीः ॥ १६ ॥
इसके बाद आकाशबीज 'हं'का जप करते हुए उस सुवर्ण-अण्डकी एक स्वच्छ दर्पणकी तरह कल्पना करके बुद्धिमान् साधकको उसमें मस्तकसे लेकर चरणपर्यन्त सभी अंगोंकी मानसिक रचना करनी चाहिये ॥ १६ ॥

आकाशादीनि भूतानि पुनरुत्पादयेच्चितः ।
सोऽहं मन्त्रेण चात्मानमानयेद्धृदयाम्बुजे ॥ १७ ॥
पुनः चित्तमें आकाश आदि पाँचों भतोंकी कल्पना करे और 'सोऽहम्' मन्त्रके द्वारा आत्माको अपने हृदयकमलपर विराजित करे ॥ १७ ॥

कुण्डलीजीवमादाय परसङ्‌गात्सुधामयम् ।
संस्थाप्य हृदयाम्भोजे मूलाधारगतां स्मरेत् ॥ १८ ॥
तत्पश्चात् जीवको ब्रह्ममें संयोजित करनेवाली कुण्डलिनीको तथा परमात्माके संसर्गसे सुधामय जीवको हृदयरूपी कमलपर स्थापित करके मूलाधारमें विराजनेवाली देवी कुण्डलिनीका [इस प्रकार] ध्यान करना चाहिये ॥ १८ ॥

रक्ताम्भोधिस्थपोतोल्लसदरुण-
     सरोजाधिरूढा कराब्जैः
शूलं कोदण्डमिक्षूद्‍भवमणिगुण-
     मप्यङ्‌कुशं पञ्चबाणान् ।
बिभ्राणासृक्कपालं त्रिनयन-
     लसिता पीनवक्षोरुहाढ्या
देवी बालार्कवर्णा भवतु
     सुखकरी प्राणशक्तिः परा नः ॥ १९ ॥
रक्तवर्णवाले जलका एक समुद्र है । उसमें एक पोत है, जिसपर एक अरुणवर्णका कमल खिला हुआ है । उस कमलपर विराजमान, अपने छ: करकमलोंमें त्रिशूल, इक्षुधनुष, रत्नमय पाश, अंकुश, पाँच बाण तथा रक्तपूरित खप्पर धारण करनेवाली, तीन नेत्रोंसे सुशोभित होनेवाली, स्थूल वक्षःस्थलवाली तथा बालसूर्यके समान वर्णवाली प्राणशक्तिस्वरूपा पराभगवती कुण्डलिनी हमें सुख प्रदान करनेवाली हों ॥ १९ ॥

एवं ध्यात्वा प्राणशक्तिं परमात्मस्वरूपिणीम् ।
विभूतिधारणं कार्यं सर्वाधिकृतिसिद्धये ॥ २० ॥
इस प्रकार परमात्मस्वरूपिणी प्राणशक्ति देवी कुण्डलिनीका ध्यान करके समस्त कार्यों में अधिकार प्राप्त करनेके लिये विभूति धारण करना चाहिये ॥ २० ॥

विभूतेर्विस्तरं वक्ष्ये धारणे च महाफलम् ।
श्रुतिस्मृतिप्रमाणोक्तं भस्मधारणमुत्तमम् ॥ २१ ॥
विभूति धारण करनेसे महान् फल प्राप्त होता है; श्रुति तथा स्मृतिके प्रमाणके अनुसार भस्मधारण अतीव उत्तम है । अब मैं विभूतिके विषयमें विस्तारपूर्वक वर्णन करूँगा ॥ २१ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां एकादशस्कन्धे भूतशुद्धिवर्णनं नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्रया संहितायामेकादशस्कन्धे भूतशुद्धिवर्णनं नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥


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