श्रीनारायण बोले-जो द्विजातिगण शिरोव्रत (मस्तकपर भस्म धारण करनेके नियम)-का पालन करते हैं, उन्हींको अज्ञानको नष्ट करनेवाली पराविद्याके विषयमें बताना चाहिये ॥ १ ॥
विधिवच्छ्रद्धया सार्धं न चीर्णं यैः शिरोव्रतम् । श्रौतस्मार्तसमाचारस्तेषामनुपकारकः ॥ २ ॥
जो लोग भलीभाँति श्रद्धापूर्वक शिरोव्रतका पालन नहीं करते, उनके लिये श्रुतियों तथा स्मृतियोंमें प्रतिपादित सदाचार व्यर्थ सिद्ध होता है ॥ २ ॥
शिरोव्रतसमाचारादेव ब्रह्मादिदेवताः । देवता अभवन्विद्वन् खलु नान्येन हेतुना ॥ ३ ॥
हे विद्वन् ! ब्रह्मा आदि देवता शिरोव्रतके सदाचारसे ही देवत्वको प्राप्त हुए हैं । इसमें कोई अन्य हेतु नहीं था ॥ ३ ॥
जो मनुष्य विधिपूर्वक इस शिरोव्रतका अनुष्ठान करता है, वह सभी प्रकारके पातकोंसे युक्त होनेपर भी उन सभी पातकोंसे मुक्त हो जाता है-विद्वानोंने ऐसा कहा है ॥ ५ ॥
शिरोव्रतमिदं नाम शिरस्याथर्वणश्रुतेः । यदुक्तं तद्धि नैवान्यत्तत्तु पुण्येन लभ्यते ॥ ६ ॥
अथर्ववेदके शिरोभागमें इस व्रतका उल्लेख होनेसे यह शिरोवत नामवाला है । इसके विषयमें जो वर्णन वहाँ मिलता है, वैसा अन्यत्र कहीं नहीं मिलता । यह पुण्यसे ही प्राप्त होता है ॥ ६ ॥
शाखाभेदेषु नामानि व्रतस्यास्य विभेदतः । पठ्यन्ते मुनिशार्दूल शाखास्वेकव्रतं हि तत् ॥ ७ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! विभिन्न शाखाओंमें इस व्रतके भिन्न-भिन्न नाम कहे गये हैं, किंतु नामभेद होनेपर भी यही एक व्रत सभी शाखाओंमें वर्णित है ॥ ७ ॥
सर्वशाखासु वस्त्वेकं शिवाख्यं सत्यचिद्घनम् । तथा तद्विषयं ज्ञानं तथैव च शिरोतव्रतम् ॥ ८ ॥
सभी शाखाओंमें मात्र एक शिव नामक सत्चित्-घनरूपवाला पदार्थ है और इस पदार्थ (तत्त्व)का ज्ञान तथा शिरोव्रत भी वैसा ही है ॥ ८ ॥
शिरोव्रतविहीनस्तु सर्वधर्मविवर्जितः । अपि सर्वासु विद्यासु सोऽधिकारी न संशयः ॥ ९ ॥
सभी प्रकारकी विद्याओंमें पारंगत होनेपर भी यदि कोई मनुष्य शिरोव्रतसे विहीन है, तो वह सभी धर्मोंसे विहीन है । इसमें कोई सन्देह नहीं है ॥ ९ ॥
शिरोव्रतमिदं कार्यं पापकान्तारदाहकम् । साधनं सर्वविद्यानां यतस्तत्सम्यगाचरेत् ॥ १० ॥
यह शिरोव्रत पापरूपी वनको दाध करनेवाला तथा समस्त विद्याओंका साधन है, अतः इसका सम्यक् पालन करना चाहिये ॥ १० ॥
आथर्वण श्रुति अत्यन्त सूक्ष्म है तथा सूक्ष्म अर्थका प्रकाशन करनेवाली है । उसमें इस शिरोव्रतके विषयमें जो कहा गया है, उसका भलीभाँति प्रेमपूर्वक नित्य आचरण करना चाहिये ॥ ११ ॥
अग्निरित्यादिभिर्मन्त्रैः षड्भिः शुद्धेन भस्मना । सर्वाङ्गोद्धूलनं कुर्याच्छिरोव्रतसमाह्वयम् ॥ १२ ॥
'अग्निरिति भस्म' आदि इन छ: आथर्वण मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए शरीरके सभी अंगोंमें शुद्ध भस्म लगाना चाहिये, यह शिरोव्रत कहा गया है ॥ १२ ॥
एतच्छिरोव्रतं कुर्यात्सन्ध्याकालेषु सादरम् । यावद्विद्योदयस्तावत्तस्य विद्या खलूत्तमा ॥ १३ ॥
सभी सन्ध्याकालोंमें इस शिरोव्रतको तबतक करना चाहिये, जबतक ब्रह्मविद्याका उदय न हो । उसकी विद्या उत्तम है ॥ १३ ॥
द्वादशाब्दमथाब्दं वा तदर्धं च तदर्धकम् । प्रकुर्याद्द्वादशाहं वा सङ्कल्पेन शिरोव्रतम् ॥ १४ ॥
बारह वर्षतक या एक वर्षतक या छः मासतक या तीन मासतक अथवा कम-से-कम बारह दिनोंतक संकल्पके साथ इस शिरोव्रतका पालन करना चाहिये ॥ १४ ॥
शिरोव्रतेन यः स्नातस्तं तु नोपदिशेत्तु यः । तस्य विद्या विनष्टा स्यान्निर्घृणः स गुरुः खलु ॥ १५ ॥
शिरोव्रतके स्नातकको जो गुरु ब्रह्मविद्याका उपदेश नहीं देता, वह अत्यन्त निर्दयी होता है और उसकी विद्याका नाश हो जाता है ॥ १५ ॥
जिस प्रकार भगवान् सर्वेश्वर कोमलचित्त तथा परम कारुणिक होते हैं, उसी प्रकार ब्रह्मविद्याका उपदेश करनेवाला गुरु भी साक्षात् मुनि तथा दयावान् होता है ॥ १६ ॥
जन्मान्तरसहस्रेषु नरा ये धर्मचारिणः । तेषामेव खलु श्रद्धा जायते न कदाचन ॥ १७ ॥ प्रत्युताज्ञानबाहुल्याद्द्वेष एव विजायते । अतः प्रद्वेषयुक्तस्य न भवेदात्मवेदनम् ॥ १८ ॥
जो मनुष्य हजारों जन्म-जन्मान्तरोंमें निरन्तर धर्माचरण करते रहते हैं, उन्हींके हृदयमें शिरोव्रतके प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है, दूसरोंके हृदयमें कभी भी नहीं; अपितु उनके हृदयमें अज्ञानकी अधिकताके कारण विद्वेष उत्पन्न होता है । अतएव विद्वेषभावनासे युक्त मनुष्यको आत्मबोध नहीं हो पाता ॥ १७-१८ ॥
ब्रह्मविद्योपदेशस्य साक्षादेवाधिकारिणः । त एव नेतरे विद्वन् ये तु स्नाताः शिरोव्रतैः ॥ १९ ॥
हे विद्वन् ! ब्रह्मविद्याके उपदेशके सच्चे अधिकारी वे ही हैं जो शिरोव्रतमें स्नातक हो चुके हैं, अन्य लोग नहीं ॥ १९ ॥
जिन द्विजोंने आदरपूर्वक इस पाशुपत शिरोव्रतका अनुष्ठान किया है, उन्हींको ब्रह्मविद्याका उपदेश करना चाहिये-ऐसा वेदोंका आदेश है ॥ २० ॥
यः पशुस्तत्पशुत्वं च व्रतेनानेन सन्त्यजेत् । तान्हत्वा न स पापीयान्भवेद्वेदान्तनिश्चयः ॥ २१ ॥
देहाभिमानी पशुतुल्य प्राणियोंको इस शिरोव्रतके पालनसे अपने पशुत्वका नाश करना चाहिये । वेदान्तशास्त्रका ऐसा निश्चय है कि इस व्रतके द्वारा पशुत्वनाशसे कोई हिंसाजन्य पाप भी नहीं होता ॥ २१ ॥
त्रिपुण्ड्रधारणं प्रोक्तं जाबालैरादरेण तु । त्रियम्बकेन मन्त्रेण सतारेण शिवेन च ॥ २२ ॥ त्रिपुण्ड्रं धारयेन्नित्यं गहस्थाश्रममाश्रितः । ओङ्कारेण त्रिरुक्तेन सहंसेन त्रिपुण्ड्रकम् ॥ २३ ॥ धारयेद्भिक्षुको नित्यमिति जाबालिकी श्रुतिः । त्रियम्बकेन मन्त्रेण प्रणवेन शिवेन च ॥ २४ ॥ गृहस्थश्च वानप्रस्थो धारयेच्च त्रिपुण्ड्रकम् । मेधावीत्यादिना वापि ब्रह्मचारी दिने दिने ॥ २५ ॥
जाबालश्रतिके अवलम्बियोंद्वारा आदरपूर्वक त्रिपुण्ड-धारणका विधान बताया गया है । गृहस्थाश्रमका आचरण करनेवालेको त्रियम्बक मन्त्र अथवा तारकमन्त्र (ॐ)-के साथ 'नमः शिवाय' मन्त्रका उच्चारण करके प्रतिदिन आदरपूर्वक त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये । संन्यासीको ॐकारके साथ हंसमन्त्रका तीन बार उच्चारण करके प्रतिदिन त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये-ऐसा जाबालोपनिषद्का कथन है । गृहस्थ तथा वानप्रस्थको त्रियम्बक-मन्त्रसे अथवा प्रणवसहित पंचाक्षरमन्त्रसे त्रिपुण्ड्र लगाना चाहिये । इसी प्रकार ब्रह्मचर्यका पालन करनेवालेको 'मेधावी०' इत्यादि मन्त्रसे प्रतिदिन त्रिपुण्ड धारण करना चाहिये ॥ २२-२५ ॥
भस्मना सजलेनापि धारयेच्च त्रिपुण्ड्रकम् । ब्राह्मणो विधिनोत्पन्नस्त्रिपुण्ड्रभस्मनैव तु ॥ २६ ॥ ललाटे धारयेन्नित्यं तिर्यग्भस्मावगुण्ठनम् । (महादेवस्य सम्बन्धात्तद्धर्मेऽप्यस्ति सङ्गतिः ।) सम्यक् त्रिपुण्ड्रधर्मं च ब्राह्मणो नित्यमाचरेत् ॥ २७ ॥ आदिब्राह्मणभूतेन त्रिपुण्ड्रं भस्मना धृतम् । यतोऽत एव विप्रस्तु त्रिपुण्ड्रं धारयेत्सदा ॥ २८ ॥
भस्ममें जल मिलाकर त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये । विधिपूर्वक त्रिपुण्ड भस्म लगानेसे ही ब्राह्मणका ब्राह्मणत्व प्रकट होता है । अतः उसे प्रतिदिन तिरछी रेखाओंवाला त्रिपुण्ड्र अपने ललाटपर धारण करना चाहिये । (शिवजीद्वारा अपने शरीरमें भस्म धारण करनेके कारण उनके अनुयायियोंको भी भस्म धारण करना युक्तियुक्त है) । ब्राह्मणको प्रतिदिन त्रिपुण्डधारणव्रतका विधिपूर्वक पालन करना चाहिये । आदिब्राहाणस्वरूप ब्रह्माजीने भी भस्मसे त्रिपुण्ड धारण किया था, अतः ब्राह्मणको सदा त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये ॥ २६-२८ ॥
भस्मना वेदसिद्धेन त्रिपुण्ड्रं देहगुण्ठनम् । रुद्रलिङ्गार्चनं वापि मोहतोऽपि च न त्यजेत् ॥ २९ ॥
वेदप्रतिपादित भस्मसे शरीरमें अनुलेपन करना चाहिये तथा त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये और नित्य शिवलिंगकी पूजा करनी चाहिये, भूलकर भी इनका परित्याग नहीं करना चाहिये ॥ २९ ॥
त्रियम्बकेन मन्त्रेण सतारेण तथैव च । पञ्चाक्षरेण मन्त्रेण प्रणवेन तथैव च ॥ ३० ॥ ललाटे हृदये चैव दोर्द्वन्द्वे च महामुने । त्रिपुण्ड्रं धारयेन्नित्यं संन्यासाश्रममाश्रितः ॥ ३१ ॥
हे महामुने ! संन्यास-आश्रममें स्थित व्यक्तिको तारक मन्त्रके साथ त्रियम्बकमन्त्र और प्रणव (ॐ)के साथ पंचाक्षरमन्त्रका उच्चारण करते हुए अपने ललाट, हृदयदेश तथा दोनों भुजदण्डोंपर नित्य त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये ॥ ३०-३१ ॥
ब्रह्मचारीको व्यायुषमन्त्रसे अथवा मेधावी० इत्यादि मन्त्रसे गौण भस्मसे त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये । निरन्तर सेवाकार्यमें तत्पर शूद्रको 'शिवाय नमः' मन्त्रसे श्रद्धापूर्वक अपने पूरे शरीरमें भस्म लगाना चाहिये तथा त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये । हे मुने ! हे सुव्रत ! इसी प्रकार अन्य सभी लोगोंको भी बिना मन्त्रका उच्चारण किये ही अपने शरीरमें भक्तिपूर्वक भस्म लगाना चाहिये तथा त्रिपुण्ड धारण करना चाहिये । ३२-३४ ॥
अग्निहोत्रजन्य भस्म तथा विरजाग्निजन्य भस्मको अत्यन्त आदरपूर्वक लेकर उसे किसी शुद्ध पात्रमें रखकर पुनः दोनों हाथ तथा पैर धोकर दो बार आचमन करके हाथमें भस्म लेकर एकाग्रचित्त हो धीरे-धीरे पाँच ब्रह्ममन्त्रों (सद्योजातं प्रपद्यामि आदि)का उच्चारण करना चाहिये । तत्पश्चात् तीन बार प्राणायाम करके 'अग्निरिति भस्म' आदि [छ: आथर्वण मन्त्रों तथा बृहज्जाबालोपनिषद्के तेजो भस्मेति] कुल सात मन्त्रोंसे उसे तीन बार अभिमन्त्रित करना चाहिये । तदनन्तर 'ॐ आपो ज्योती रसोऽमृतम्' ऐसा उच्चारण करके शिवजीका ध्यानकर उन सात मन्त्रोंका उच्चारण करना चाहिये । इस श्वेत भस्मको पूरे शरीरमें लगाकर मनुष्य पापसे रहित तथा विशुद्ध हो जाता है; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३६-३९ ॥
तत्पश्चात् जगत्के स्वामी जलाधिपति महाविष्णुका ध्यान करके भस्ममें जल मिलाकर पुनः 'अग्निरिति' आदि मन्त्रोंके द्वारा उसका संस्कार करके साम्ब सदाशिवका ध्यानकर उस भस्मको ऊर्ध्व मस्तकपर लगा लेना चाहिये । उस भस्ममें शिवजीकी भावना करके सभी आश्रमोंके लोगोंको अपने-अपने आश्रमके लिये विहित मन्त्रोंका उच्चारणकर ललाटपर, वक्षःस्थलपर तथा कन्धेपर उस ब्रह्मस्वरूप श्वेत भस्मसे मध्यमा-अनामिका तथा अंगूठेसे अनुलोम-विलोमक्रमसे प्रतिदिन तीनों कालों (प्रातः, मध्याहू, सायं)-में भक्तिपूर्वक त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये ॥ ४०-४३ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां एकादशस्कन्धे सशिरोव्रतं त्रिपुण्डधारणवर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्रयां संहितायामेकादशस्कन्धे सशिरोव्रतं त्रिपुण्डधारणवर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥