ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य-ये सब द्विज कहे गये हैं । अत: द्विजोंको प्रतिदिन प्रयत्नपूर्वक त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये ॥ २ ॥
यस्योपनयनं ब्रह्मन् स एव द्विज उच्यते । तस्माच्छ्रौतं द्विजैः कार्यं त्रिपुण्ड्रस्य च धारणम् ॥ ३ ॥
हे ब्रह्मन् ! जिसका उपनयन हो गया है, उसीको द्विज कहा जाता है । अतः द्विजोंको श्रुतिविहित त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये ॥ ३ ॥
विभूतिधारणं त्यक्त्वा यः सत्कर्म समाचरेत् । तत्कृतं चाकृतप्रायं भवत्येव न संशयः ॥ ४ ॥
जो मनुष्य भस्म-धारणका त्याग करके कुछ भी सत्कृत्य करता है, उसका सब किया हुआ न कियेके बराबर हो जाता है । इसमें सन्देह नहीं है ॥ ४ ॥
न गायत्र्युपदेशोऽपि भस्मनो धारणं विना । ततो धृत्वैव भस्माङ्गे गायत्रीजपमाचरेत् ॥ ५ ॥
बिना भस्म धारण किये गायत्रीमन्त्रका उपदेश सार्थक नहीं होता है, अतः अपने शरीरमें भस्म लगाकर ही गायत्रीजप करना चाहिये ॥ ५ ॥
गायत्रीं मूलमेवाहुर्ब्राह्मण्ये मुनिपुङ्गव । सा भस्मधारणाभावे न केनाप्युपदिश्यते ॥ ६ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! गायत्रीको ही ब्राह्मणत्वका मूल कहा गया है । भस्म धारण न करनेपर कोई भी उस गायत्रीका उपदेश देनेका अधिकारी नहीं हो सकता है ॥ ६ ॥
न तावदधिकारोऽस्ति गायत्रीग्रहणे मुने । यावन्न भस्म भालादौ धृतमग्निसमुद्भवम् ॥ ७ ॥
हे मुने ! उसी प्रकार जबतक अग्निहोत्रजनित भस्म ललाट आदि अंगोंमें धारण नहीं किया जाता, तबतक किसीको भी गायत्रीमन्त्र लेनेका अधिकार नहीं होता ॥ ७ ॥
भस्महीनललाटत्वं न ब्रह्मण्यानुमापकम् । एवमेव मया ब्रह्मन् हेतुरुक्तः सुपुण्यदः ॥ ८ ॥
किसीके भस्मरहित ललाटसे उसके ब्राह्मणत्वका अनुमान नहीं किया जा सकता है । इसीलिये हे ब्रह्मन् ! मैंने भस्मको अत्यन्त पुण्यदायक हेतु बतलाया है ॥ ८ ॥
मन्त्रपूतं सितं भस्म ललाटे परिवर्तते । स एव ब्राह्मणो विद्वान्सत्यं सत्यं मयोच्यते ॥ ९ ॥
जिसके ललाटपर मन्त्रसे पवित्र किया गया श्वेत भस्म विद्यमान रहता है, वस्तुतः वही विद्वान् ब्राह्मण है । ऐसा मैं सत्य कह रहा हूँ ॥ ९ ॥
यस्यास्ति सहजा प्रीतिर्मणिवद्भस्मसंग्रहे । स एव ब्राह्मणो ब्रह्मन् सत्यं सत्यं मयोच्यते ॥ १० ॥ न यस्य सहजा प्रीतिर्मणिवद्भस्मसंग्रहे । स चाण्डाल इति ज्ञेयो जन्मजन्मान्तरे ध्रुवम् ॥ ११ ॥
हे ब्रह्मन् ! मणिसंग्रह करनेकी भाँति भस्मसंग्रह करनेमें जिसकी स्वाभाविक प्रीति रहती है, वस्तुतः वही ब्राह्मण है; ऐसा मैं सत्य कह रहा हूँ, किंतु मणिसंग्रह करनेकी भाँति भस्मसंग्रह करनेमें जिसकी स्वाभाविक प्रीति न हो तो ऐसा जान लेना चाहिये कि वह जन्म-जन्मान्तरमें निश्चित ही चाण्डाल रहा होगा ॥ १०-११ ॥
न यस्य सहजा प्रीतिस्त्रिपुण्ड्रोद्धूलनादिषु । स चाण्डाल इति ज्ञेयः सत्यं सत्यं मयोच्यते ॥ १२ ॥
त्रिपुण्ड्रधारण तथा भस्मोद्धूलन आदिमें जिसकी सहज निष्ठा नहीं होती, उसे चाण्डाल समझना चाहिये, ऐसा मैं सत्य कह रहा हूँ ॥ १२ ॥
ये भस्मधारणं त्यक्त्वा भुञ्जन्ते च फलादिकम् । ते सर्वे नरकं घोरं प्राप्नुवन्ति न संशयः ॥ १३ ॥ (विभूतिधारणं त्यक्त्वा यः शिवं पूजयिष्यति । स दुर्भगः शिवद्वेष्टा स द्वेषो नरकप्रदः । सर्वकर्मबहिर्भूतो भस्मधारणवर्जितः ॥) विभूतिधारणं त्यक्त्वा कुर्वन् हेमतुलामपि । न तत्फलमवाप्नोति पतितो हि भवेद्धि सः ॥ १४ ॥
जो लोग भस्म-धारणका त्याग करके फल आदिका भक्षण करते हैं, वे सब घोर नरकको प्राप्त होते हैं, इसमें सन्देह नहीं है; (विभूतिधारणका त्याग करके जो शिवकी पूजा करता है, वह भाग्यहीन शिवसे द्वेष करनेवाला होता है और वह द्वेष उसके लिये नरकप्रदायक होता है । भस्म न धारण करनेवाला मनुष्य सभी प्रकारके कर्माका अनधिकारी होता है । ) विभूतिधारणका त्याग करके स्वर्णका तुलादान करनेवाला भी उस दानका फल प्राप्त नहीं कर पाता और वह अपने धर्मसे भ्रष्ट हो जाता है । १३-१४ ॥
यथोपवीतरहितैः सन्ध्या न क्रियते द्विजैः । तथा सन्ध्या न कर्तव्या विभूतिरहितैरपि ॥ १५ ॥
जिस प्रकार यज्ञोपवीतसे विहीन द्विज सन्ध्या नहीं करते, उसी प्रकार भस्मविहीन रहनेपर भी द्विजोंको सन्ध्या नहीं करनी चाहिये ॥ १५ ॥
गतोपवीतैः सन्ध्यायां कार्यः प्रतिनिधिः क्वचित् । जपादिकं तु सावित्र्यास्तथैवोपोषणादिकम् ॥ १६ ॥ विभूतिधारणे त्वन्यो नास्ति प्रतिनिधिः क्वचित् । विभूतिधारणं त्यक्त्वा यदि सन्ध्यां करोति यः ॥ १७ ॥ प्रत्यवैत्येव येनासौ नाधिकारी तदा द्विजः । यथा श्रुत्वान्त्यजो वेदान्प्रत्यवैति तथा द्विजः ॥ १८ ॥ प्रत्यवैति न सन्देहः सन्ध्याकृद्भस्मवर्जितः ।
यज्ञोपवीतके च्युत हो जानेपर सन्ध्यामें गायत्रीजप आदि करनेके लिये तथा उसी प्रकार व्रत-उपवास आदिमें किसीको प्रतिनिधिके रूपमें नियुक्त किया जा सकता है, किंतु विभूतिधारणमें कोई दूसरा व्यक्ति प्रतिनिधिके रूपमें नहीं हो सकता । यदि विभूतिधारणका परित्याग करके कोई द्विज सन्ध्या करता है तो वह पापका भागी होता है । क्योंकि वह उस समय सन्ध्या करनेका अधिकारी ही नहीं है । जैसे अन्त्यजको वेदोंका श्रवण करनेसे पाप लगता है, उसी प्रकार भस्म न लगाकर सन्ध्या करनेवाले द्विजको भी पाप लगता है । इसमें सन्देह नहीं है ॥ १६-१८ ॥
सम्पादनीय यत्नेन श्रौतं भस्म सदा द्विजैः ॥ १९ ॥ स्मार्तं वा तदभावे तु लौकिकं वा समाहितैः । यादृशं तादृशं वास्तु पवित्रं भस्म सन्ततम् ॥ २० ॥ धारणीयं प्रयत्नेन द्विजैः सन्ध्यादिकर्मसु । न संविशन्ति पापानि भस्मनिष्ठे ततः सदा ॥ २१ ॥ कर्तव्यमपि यत्नेन ब्राह्मणैर्भस्मधारणम् ।
द्विजोंको सदैव यत्नपूर्वक श्रौताग्निजन्य या स्मार्ताग्निजन्य भस्म अथवा उनके अभावमें लौकिकाग्निजन्य भस्म ही अत्यन्त समाहितचित्त होकर धारण करना चाहिये । भस्म चाहे जैसा हो, वह सदा पवित्र होता है । अतः द्विजोंको चाहिये कि वे सन्ध्या आदि कर्मोमें उसे प्रयत्नके साथ धारण करें । भस्मनिष्ठ मनुष्यमें पाप प्रविष्ट नहीं हो सकते, अतः ब्राह्मणोंको यत्नपूर्वक सदा भस्म धारण किये रहना चाहिये ॥ १९-२१.५ ॥
मध्याङ्गुलित्रयेणैव स्वदक्षिणकरस्य तु ॥ २२ ॥ षडङ्गुलायतं मानमपि चाधिकमानकम् । नेत्रयुग्मप्रमाणेन भाले दीप्तं त्रिपुण्ड्रकम् ॥ २३ ॥ कदाचिद्भस्मना कुर्यात्स रुद्रो नात्र संशयः । अकारोऽनामिका प्रोक्त उकारो मध्यमाङ्गुलिः ॥ २४ ॥ मकारस्तर्जनी तस्मात् त्रिपुण्ड्रं त्रिगुणात्मकम् । त्रिपुण्ड्रं मध्यमातर्जन्यनामाभिरनुलोमतः ॥ २५ ॥
यदि कोई अपने दाहिने हाथकी तीनों मध्यकी अंगुलियों (तर्जनी, मध्यमा तथा अनामिका)-से छः अंगुलतक अथवा इससे भी अधिक लम्बे परिमाणका अथवा एक नेत्रसे लेकर दूसरे नेत्रतक लम्बा देदीप्यमान त्रिपुण्ड भस्मसे अपने ललाटपर लगाये तो वह साक्षात् रुद्ररूप हो जाता है; इसमें सन्देह नहीं है । अनामिका अँगुलीको अकार, मध्यमाको उकार तथा तर्जनीको मकार कहा गया है । अतएव त्रिपुण्ड त्रिगुणात्मक है । तर्जनी, मध्यमा तथा अनामिका अंगुलियोंसे अनुलोमक्रमसे त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये ॥ २२-२५ ॥
अत्र ते कथयाम्येनमितिहासं पुरातनम् । कदाचिदथ दुर्वासाः पितृलोकं गतोऽभवत् ॥ २६ ॥ भस्मसन्दिग्धसर्वाङ्गो रुद्राक्षाभरणान्वितः । शिव शङ्कर सर्वात्मञ्छ्रीमातर्जगदम्बिके ॥ २७ ॥ नामानीति गृणन्नुच्चैस्तापसानां शिखामणिः ।
इस सम्बन्धमें आपसे एक प्राचीन इतिहासका वर्णन कर रहा हूँ । किसी समय तपस्वियोंके शिरोमणि ऋषि दुर्वासा अपने सर्वांगमें भस्म धारण किये हुए तथा रुद्राक्षके आभूषण पहने हुए 'हे शिव ! हे शंकर ! हे सर्वात्मन् ! हे श्रीमातः ! हे जगदम्बिके !'- इन नामोंका उच्च स्वरसे उच्चारण करते हुए पितृलोक गये हुए थे ॥ २६-२७.५ ॥
कव्यवाडादयस्ते तु प्रत्युत्थानाभिवादनैः ॥ २८ ॥ आसनाद्युपचारैश्च सम्मानं बहु चक्रिरे । नानाकथाभिरन्योन्यं सम्भाषाञ्चक्रिरे तदा ॥ २९ ॥
उन्हें देखकर कव्यवाट् (अनल, सोम, यम, अर्यमा, अग्निष्वात्ता, बर्हिषद, सोमपा) आदि पितरोंने उठकर अभिवादनके द्वारा तथा आसन आदि उपचारोंसे उनका अत्यधिक सम्मान किया । तब वे अनेक प्रकारकी कथाओंके माध्यमसे परस्पर वार्तालाप करने लगे ॥ २८-२९ ॥
तस्मिंस्तु समये कुम्भीपाकस्थानां तु पापिनाम् । घोरः समभवच्छब्दो हा हताः स्मेतिवादिनाम् ॥ ३० ॥ मृताः स्मेति वदन्त्येके दग्धाः स्मेति परे जगुः । छिन्नाः स्मेति विभिन्नाः स्मेत्येवं रोदनकारिणः ॥ ३१ ॥
उसी समय कुम्भीपाकनरकमें पड़े हुए पापियोंका भयंकर चीत्कार हुआ । 'हाय ! हमलोग मारे जा रहे हैं'-वे ऐसा बोल रहे थे । उनमें कुछ चिल्ला रहे थे 'हम मर गये', दूसरे कह रहे थे 'हम जल गये', कुछ चीत्कार कर रहे थे 'हम कट गये' तथा कुछ चिल्ला रहे थे 'हम छेदे जा रहे हैं । इस प्रकार कहकर वे रुदन कर रहे थे ॥ ३०-३१ ॥
उनमें सबसे मुख्य कुम्भीपाक नामक एक विशाल कुण्ड है । उस नरककुण्डमें मिलनेवाली यातनाओंका वर्णन कोई भी सैकड़ों वर्षों में भी नहीं कर सकता ॥ ३६.५ ॥
ये शिवद्रोहिणः सन्ति तथा देवीविनिन्दकाः ॥ ३७ ॥ ये विष्णुद्रोहिणः सन्ति पतन्त्यत्रैव ते मुने ।
हे मुने ! जो शिव तथा विष्णुके द्रोही हैं और देवीके निन्दक हैं, वे लोग इसी कुण्डमें गिरते हैं ॥ ३७.५ ॥
ये वेदनिन्दकाः सन्ति सूर्यस्य च गणेशितुः ॥ ३८ ॥ ब्राह्मणानां द्रोहिणो ये पतन्त्यत्रैव ते मुने ।
जो वेदके निन्दक हैं एवं सूर्य, गणेश तथा ब्राह्मणोंके द्रोही हैं, हे मुने ! वे लोग इसी कुण्डमें गिरते हैं ॥ ३८.५ ॥
कामाचाराश्च ये सन्ति तप्तमुद्राङ्किताश्च ये ॥ ३९ ॥ त्रिशूलधारिणो ये च पतन्त्यत्रैव ते मुने ।
जो लोग स्वेच्छाचारी हैं तथा जो तप्तमुद्रासे अंकित हैं तथा जो त्रिशूल धारण करते हैं, हे मुने ! वे इसी 'कुम्भीपाक' नरककुण्डमें गिरते हैं ॥ ३९.५ ॥
मातृपितृगुरुज्येष्ठपुराणस्मृतिनिन्दकाः ॥ ४० ॥ ये धर्मदूषकाः सन्ति पतन्त्यत्रैव ते मुने ।
जो लोग माता, पिता, गुरु, श्रेष्ठजनों, पुराणों तथा स्मृतियोंके निन्दक हैं और धर्मको दूषित करनेवाले हैं, हे मुने ! वे लोग इसी कुण्डमें पड़ते हैं ॥ ४०.५ ॥
[हे मुने !] सुननेमें अत्यन्त दारुण तथा महाभयानक यह ध्वनि उन्हीं लोगोंकी है । हमलोग यह ध्वनि नित्य सुनते रहते हैं, जिसके सुननेसे वैराग्य उत्पन्न हो जाता है । ४१.५ ॥
उन पितृगणोंकी यह बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा उन पापियोंको देखनेकी इच्छासे वहाँसे उठकर चल दिये और शीघ्र ही कुम्भीपाक नरककुण्डके पास पहुँच गये । ४२.५ ॥
[श्रीनारायण कहते हैं-] हे मुने ! मुख झुकाकर जब दुर्वासामुनि नीचेकी ओर देखने लगे, उसी समय उस कुण्डमें स्थित पापियोंको स्वर्गसे भी अधिक सुखका अनुभव होने लगा ॥ ४३.५ ॥
यह देखकर मुनि दुर्वासा आश्चर्यचकित हो गये और यमदूत भी अत्यन्त विस्मयमें पड़ गये । वे यमदूत सर्वज्ञ धर्मराजके पास शीघ्र पहुँचकर उनसे कहने लगे-हे महाराज ! हे विभो ! अभी-अभी एक अत्यन्त आश्चर्यजनक घटना घटी है । कुम्भीपाकमें स्थित पापियोंको स्वर्गसे भी अधिक सुख प्राप्त हो रहा है । हे विभो ! यह कैसे हो गया, इसका कारण हम नहीं जानते । हे देव ! इस घटनासे हम सभी लोग चकित हैं और आपके पास आये हुए हैं । ४७-४९ ॥
निशम्य दूतवाणीं तां धर्मराट् शीघ्रमुत्थितः । महामहिषमारूढो ययौ ते यत्र पापिनः ॥ ५० ॥
दूतोंकी वह बात सुनकर धर्मराज शीघ्र ही उठ खड़े हुए और एक विशाल महिषपर आरूढ़ होकर उस कुम्भीपाक नरककुण्डके लिये प्रस्थित हुए, जहाँ वे पापी पड़े हुए थे ॥ ५० ॥
उन्होंने अपने दूतोंद्वारा वह सन्देश अमरावती (इन्द्रपुरी)-में भेज दिया । उस सन्देशको सुनकर देवराज इन्द्र भी देवताओंके साथ वहाँ आ गये । इसी प्रकार ब्रह्मलोकसे ब्रह्मा, वैकुण्ठलोकसे विष्णु तथा अपने-अपने लोकोंसे समस्त दिक्पाल अपने गणोंसहित वहाँ आ गये ॥ ५१-५२ ॥
वे सभी कुम्भीपाकको इधर-उधरसे घेरकर खड़े हो गये । उन्होंने वहाँपर स्थित जीवोंको स्वर्गसे भी अधिक सुखी देखा । विस्मयमें पड़े हुए वे सभी देवता उसका कारण नहीं जान पाये । वे कहने लगे'अहो ! यह कुण्ड तो पाप भोगनेके निमित्त है । जब यहाँपर ऐसा सुख प्राप्त हो रहा है तो फिर लोगोंको पापसे क्या भय रहेगा ? परमेश्वरके द्वारा बनायी गयी वेदमर्यादा कैसे विनष्ट हो गयी ? भगवान्ने अपने ही संकल्पको मिथ्या कैसे कर दिया ? यह तो आश्चर्य है, यह तो आश्चर्य है'-ऐसा कहते हुए वे सभी देवता उदास हो गये; वे उस घटनाका कारण नहीं जान सके ॥ ५३-५६.५ ॥
इसी बीच भगवान् विष्णु देवताओं आदिसे मन्त्रणा करके कुछ देवगणों के साथ शंकरजीके निवास-स्थानपर गये । वहाँपर उन्होंने पार्वतीके साथ विराजमान, करोड़ों कामदेवके समान सुन्दर, परम रमणीय अंगोंवाले, लावण्यकी खान, अद्भुत, सदा सोलह वर्षकी अवस्थावाले, अनेकविध अलंकारोंसे सुशोभित, विविध गणोंसे घिरे हुए तथा परा शिवाको प्रमुदित करते हुए चतुर्वेदस्वरूप चन्द्रशेखर भगवान् शिवको देखा और उन्हें प्रणाम किया । तत्पश्चात् उन्होंने अत्यन्त स्पष्ट वाणीमें उस आश्चर्यजनक घटनाको बताया-'हे देव ! हम इस घटनाका कुछ भी कारण नहीं समझ पा रहे हैं । हे देव ! इसका जो कारण हो, उसे आप बताइये; क्योंकि हे प्रभो ! आप सर्वज्ञ हैं' ॥ ५७-६१.५ ॥
तब विष्णुका कथन सुनकर प्रसन्न मुखारविन्दवाले भगवान् शिवने मेघके समान गम्भीर वाणीमें यह मधुर वचन कहा-'हे विष्णो ! उसका कारण सुनिये । ' इस विषयमें कोई आश्चर्य नहीं है । यह भस्मकी महिमा है । भस्मसे क्या नहीं हो सकता है ? ॥ ६२-६३.५ ॥
शैवसम्मत होकर अर्थात् भस्म तथा त्रिपुण्ड्र आदि धारण करके दुर्वासामुनि कुम्भीपाक देखने गये थे । हे हरे ! वे मुख झुकाकर नीचेकी ओर देखने लगे, तभी उनके ललाटपर स्थित भस्मके कुछ कण दैवयोगसे वायुके प्रभावसे उस कुण्डमें गिर पड़े । उसीसे यह सारी घटना हुई है; यह तो भस्मकी ही महिमा है ॥ ६४-६५.५ ॥
अबसे यह कुम्भीपाक पितृलोकमें निवास करनेवालोंके लिये तीर्थ बन जायगा, जिसमें स्नान करके सुख प्राप्त होगा; इसमें सन्देह नहीं है । आजसे उन्हींके नामसे यह 'पितृतीर्थ' नामवाला होगा । हे श्रेष्ठ ! आप वहाँपर मेरे लिंग तथा देवीकी मूर्तिकी स्थापना करें, जिससे पितृलोकमें रहनेवाले हमारी पूजा कर सकें । तीनों लोकोंमें जितने तीर्थ हैं, उनमें यह श्रेष्ठ तीर्थ होगा । वहाँपर स्थापित पित्रीश्वरीकी पूजामात्रसे तीनों लोकोंकी पूजा हो जायगी ॥ ६६-६९ ॥
श्रीनारायण बोले-हे नारद ! महादेवजीकी यह बात सुनकर विष्णुजीने सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया और उनसे आज्ञा लेकर वे देवताओंके पास चले गये । वहाँ पहुँचकर भगवान् विष्णुने शंकरजीद्वारा बतायी गयी समस्त बातें उनसे कहीं, जिसपर वे सभी देवता सिर हिलाकर साधु-साधु'-ऐसा कहने लगे ॥ ७०-७१ ॥
अपने पापकर्मोका फल भोगनेके लिये उस कुण्डमें जितने भी जीव थे, वे सब विमानपर आरूढ होकर कैलासमण्डलको चले गये । वे इस समय भी वहाँ भद्रगण नामसे निवास करते हैं; और फिर वहाँसे दूर अन्य स्थानपर 'कुम्भीपाक' निर्मित हुआ और उसी दिनसे देवताओंने भस्म तथा त्रिपुण्ड्रधारी शैवोंका कुम्भीपाक नरककुण्ड जाना निरुद्ध कर दिया ॥ ७४-७५.५ ॥
हे मुनिशार्दूल ! वैष्णवशास्त्रोंके अवलोकनसे प्राप्त ज्ञानके अनुसार अब अधिकार-भेदसे ऊर्ध्वपुण्ड्रकी विधिका भी वर्णन करूँगा ॥ ७७.५ ॥
ऊर्ध्वपुण्ड्रप्रमाणानि दिव्यान्यङ्गुलिभेदतः ॥ ७८ ॥ वर्णाभिमन्त्रदेवांश्च प्रवक्ष्यामि फलानि च ।
हे मुने ! अंगलिके नापसे दिव्य ऊर्ध्वपुण्ड्रके प्रमाण, उसके रंग, उसके मन्त्र, उसके देवता तथा उसके फलोंका वर्णन करूँगा ॥ ७८.५ ॥
पर्वताग्रे नदीतीरे शिवक्षेत्रे विशेषतः ॥ ७९ ॥ सिन्धुतीरे च वल्मीके तुलसीमूलमाश्रिते । मृद एतास्तु सङ्ग्राह्या वर्जयेदन्यमृत्तिकाः ॥ ८० ॥
इसके लिये पर्वतकी चोटी, नदीके तट, विशेष रूपसे शिवक्षेत्र, समुद्रके तट, वल्मीक (बाँबी) और तुलसीके वृक्षकी जड़-इन्हीं स्थानोंकी मिट्टियोंको लेना चाहिये, इसके अतिरिक्त अन्य मिट्टियाँ नहीं लेनी चाहिये ॥ ७९-८० ॥
श्यामवर्णकी मिट्टी शान्तिदायिनी कही गयी है तथा रक्तवर्णकी मिट्टी वशमें करनेवाली होती है । इसी प्रकार पीली मिट्टी श्रीदायिनी तथा श्वेत मिट्टी धर्मकी ओर प्रवृत्त करनेवाली कही गयी है । ८१ ॥
अँगूठा पुष्टि देनेवाला कहा गया है । मध्यमा अँगुली आयु प्रदान करनेवाली है । अनामिका नित्य अन्न देनेवाली तथा तर्जनी मुक्तिदायिनी कही गयी है । अँगुलिभेदसे इन्हींसे ही ऊर्ध्वपुण्ड लगाये तथा लगाते समय नखोंसे स्पर्श न करे । दीपककी बत्तीकी लोके आकारका, बाँसके पत्तेके आकारका, कमलकी कलीकी आकृतिका, मत्स्यके आकारका, कछुएके आकारका अथवा शंखके आकारका ऊर्ध्वपुण्ड्र प्रयत्नपूर्वक धारण करना चाहिये ॥ ८२-८४ ॥
दस अंगुल परिमाणवाला ऊर्ध्वपुण्ड्र उत्तम कोटिमें उत्तम कहा जाता है । नौ अंगुल परिमाणवाला ऊर्ध्वपुण्ड उत्तम कोटिमें मध्यम तथा आठ अंगुल परिमाणवाला ऊर्ध्वपुण्ड्र उत्तम कोटिमें कनिष्ठ होता है ॥ ८५ ॥
इसी प्रकार सात, छ. तथा पाँच अंगुल परिमाणवाला मध्यम कोटिका ऊर्ध्वपुण्ड्र भी [क्रमश: उत्तम, मध्यम तथा कनिष्ठ]-तीन प्रकारका कहा गया है और चार, तीन तथा दो अंगुल परिमाणवाला कनिष्ठ कोटिका ऊर्ध्वपुण्ड भी [क्रमशः उत्तम, मध्यम तथा कनिष्ठ] तीन प्रकारका होता है ॥ ८६ ॥
विशुद्ध आत्मावाले तथा मेरे स्वरूपको जाननेवाले महाभाग्यशाली ऐकान्तिक वैष्णवजन भगवान् विष्णुके चरणके आकारवाले तथा बीचमें रिक्त स्थानसे युक्त ऊर्ध्वपुण्ड्र धारण करते हैं । इसी प्रकार एकमात्र मेरे चरणोंके प्रति परायणता रखनेवाले परम ऐकान्तिक भक्त निर्मल, शूलकी आकृतिवाले ऊर्ध्वपुण्डको हल्दीके चूर्णसे धारण करते हैं ॥ ९४-९५ ॥
अन्य वैष्णवजनोंको भक्तिपूर्वक दीपककी बत्तीकी तरह, कमलकी तरह अथवा बाँसके पत्तेकी आकृतिके सदृश तथा रेखाओंके मध्य रिक्तस्थानरहित ऊर्ध्वपुण्ड्र धारण करना चाहिये । साधारण वैष्णव गृहस्थ अच्छिद्र (रेखाओंके बीच रिक्त स्थानसे रहित) अथवा सच्छिद्र (रेखाओंके बीच रिक्त स्थानयुक्त) कोई भी त्रिपुण्ड्र धारण कर सकते हैं । अच्छिद्र ऊर्ध्वपुण्ड्र लगानेसे उन्हें पाप नहीं लगता है । किंतु प्रपन्न ऐकान्तिक तथा परम ऐकान्तिक वैष्णवोंको अच्छिद्र ऊर्ध्वपुण्ड्र धारण करनेपर महान् पाप लगता है ॥ ९६-९८ ॥
ऊर्ध्वपुण्ड्रं तु यः कुर्याद्दण्डाकारं तु शोभनम् । मध्ये छिद्रं वैष्णवाश्च नमोऽन्तैः केशवादिभिः ॥ ९९ ॥ विमलान्यूर्ध्वपुण्ड्राणि सान्तरालानि यो नरः । करोति विपुलं तत्र मन्दिरं मे करोति सः ॥ १०० ॥
जो वैष्णव दण्डके आकारके, सुन्दर, रेखाओंके बीच में रिक्त स्थान छोड़कर पूर्वोक्त केशव' आदिके साथ 'नमः' जोड़कर विभिन्न अंगोंमें विमल ऊर्ध्वपुण्ड्रोंको धारण करता है, वह उन-उन स्थानोंपर मानो मेरा विशाल मन्दिर ही बनाता है । ९९-१०० ॥
द्विजको शिखा और यज्ञोपवीतकी भाँति ऊर्ध्वपुण्ड्र धारण करना चाहिये । हे महामुने ! इसे धारण किये बिना किये गये समस्त कर्म निष्फल हो जाते हैं । अत: बुद्धिमान् ब्राह्मणको समस्त कर्मोंमें त्रिशूलके आकारका गोल अथवा चौकोर ऊर्ध्वपुण्ड्र धारण करना चाहिये ॥ १०५-१०६ ॥
वेदनिष्ठ ब्राह्मणको अर्धचन्द्रके आकारका तिलक नहीं लगाना चाहिये । जन्मसे ब्राह्मणजातिमें उत्पन्न तथा वैदिकपन्थके अनुयायी व्यक्तिको भूलकर भी अपने ललाटपर ऊर्ध्वपुण्ड्के अतिरिक्त अन्य पुण्ड्र नहीं धारण करना चाहिये । श्रौत तिर्यक् त्रिपुण्ड छोड़कर प्रसिद्धि अथवा शारीरिक कान्ति आदिकी प्राप्तिके लिये वैष्णवशास्त्रादिमें वर्णित दूसरे प्रकारके पुण्ड्र वैदिक व्यक्तिको भूलकर भी नहीं धारण करने चाहिये ॥ १०७-१०९ ॥
ललाटे भस्मना तिर्यक्त्रिपुण्ड्रस्य च धारणम् । विना पुण्ड्रान्तरं मोहाद्धारयन्नारकी भवेत् ॥ ११० ॥ वेदमार्गैकनिष्ठस्तु मोहेनाप्यङ्कितो यदि । पतत्येव न सन्देहस्तथा पुण्ड्रान्तरादपि ॥ १११ ॥
ललाटपर भस्मसे तिर्यक् त्रिपुण्ड्र धारण न करके अज्ञानवश अन्य प्रकारका त्रिपुण्ड धारण करनेवाला वैदिक ब्राह्मण नरकगामी होता है । एकमात्र वेदमार्गका अनुयायी व्यक्ति यदि अज्ञानवश भी भिन्न प्रकारका पुण्ड्र शरीरपर धारण कर लेता है तो वह नरकमें अवश्य ही पड़ता है । इसमें संशय नहीं है ॥ ११०-१११ ॥
वैदिक धर्मावलम्बी मनुष्यको अपने शरीरपर किसी प्रकारका चिह्न नहीं करना चाहिये । वैदिक धर्मका पालन करनेवालोंके लिये एकमात्र वैदिक चिह्न त्रिपुण्ड्र ही है । अत्रौत धर्ममें निष्ठ लोगोंके लिये अश्रौत चिह्न बताया गया है ॥ ११२.५ ॥
देवता वेदसिद्धा यास्तासां लिङ्गं तु वैदिकम् ॥ ११३ ॥ अश्रौततन्त्रनिष्ठा यास्तासामश्रौतमेव हि ।
वेदोंमें जो-जो देवता वर्णित हैं, उनके चिह्न वैदिक ही हैं । अश्रौततन्त्रमें निष्ठा रखनेवाले जो लोग हैं, उनके चिह्न अश्रौत ही हैं ॥ ११३.५ ॥
सर्वागमें भस्म लगाने तथा त्रिपुण्ड्र धारण करनेको वैदिक चिह्न समझना चाहिये । ऊर्ध्वपुण्ड्र आदि अश्रौत चिह्न हैं, तिर्यक् त्रिपुण्ड्र अश्रौत नहीं है ॥ ११६.५ ॥
एकमात्र वेदमार्गका अनुगमन करनेवालेको वेदोक्त पद्धतिसे भस्मद्वारा ललाटपर तिर्यक् त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये । जो भगवान् नारायणके शरणागत हो तथा उनके परमपदका अभिलाषी हो, उसे गन्धद्रव्य-युक्त जलसे अपने ललाटपर शूलकी आकृति धारण करनी चाहिये ॥ ११७-११८ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां एकादशस्कन्धे त्रिपुण्ड्रोर्ध्वपुण्ड्रधारणविधिवर्णनं नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रया संहितायामेकादशस्कन्धे त्रिपुण्ड्राध्वपुण्डधारणविधिवर्णनं नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥