श्रीनारायण बोले-[हे नारद !] मैंने आपसे भस्म धारण करनेके माहात्म्यका विस्तारपूर्वक वर्णन कर दिया; अब आप पुण्यदायक तथा उत्तम सन्ध्योपासनके विषयमें सुनिये ॥ १ ॥
प्रातःसन्ध्याविधानं च कथयिष्यामि तेऽनघ । प्रातःसन्ध्यां सनक्षत्रां मध्याह्ने मध्यभास्कराम् ॥ २ ॥ ससूर्यां पश्चिमां सन्ध्यां तिस्रः सन्ध्या उपासते । तद्भेदानपि वक्ष्यामि शृणु देवर्षिसत्तम ॥ ३ ॥
हे अनघ ! मैं सर्वप्रथम आपसे प्रात:कालीन सन्ध्याका विधान कह रहा हूँ । प्रातःकालकी सन्ध्या आकाशमें तारोंके रहते-रहते, मध्याह्नकी सन्ध्या सूर्यके मध्य-आकाशमें आनेपर और सायंकालकी सन्ध्या सूर्यके पश्चिम दिशामें रहनेपर करनेका विधान है । इस प्रकार इन तीनों सन्ध्याओंको करना चाहिये । हे देवर्षिश्रेष्ठ ! अब मैं उनके भेद भी बताऊँगा, आप सुनिये ॥ २-३ ॥
तारोंके आकाशमें विद्यमान रहते की जानेवाली प्रातःसन्ध्या उत्तम, तारोंके लुप्त होनेसे लेकर सूर्योदयके बीचकी अवधिमें की जानेवाली सन्ध्या मध्यम और सूर्यके उदय हो जानेपर की जानेवाली सन्ध्या अधम-यह तीन प्रकारकी प्रातःसन्ध्या कही गयी है । सायंकालमें सूर्यके विद्यमान रहते की गयी सायंसन्ध्या उत्तम, सूर्यके अस्त होने तथा तारोंके उदयके पूर्व की गयी सन्ध्या मध्यम और तारोंके उदयके पश्चात् की गयी सन्ध्या अधम-यह तीन प्रकारकी सायंसन्ध्या कही गयी है ॥ ४-५ ॥
विप्रो वृक्षो मूलकान्यत्र सन्ध्या वेदः शाखा धर्मकर्माणि पत्रम् । तस्मान्मूलं यत्नतो रक्षणीयं छिन्ने मूले नैव वृक्षो न शाखा ॥ ६ ॥
विप्र वृक्ष है, ये सन्ध्याएँ ही उसकी जड़ें हैं, वेद उसकी शाखाएँ हैं और सभी धर्म-कर्म उसके पत्ते हैं । अतएव प्रयत्नके साथ मूल अर्थात् सन्ध्याकी ही रक्षा करनी चाहिये क्योंकि मूलके कट जानेपर न तो वृक्ष रहता है और न शाखा ॥ ६ ॥
सन्ध्या येन न विज्ञाता सन्ध्या येनानुपासिता । जीवमानो भवेच्छूद्रो मृतः श्वा चैव जायते ॥ ७ ॥
जिसने सन्ध्याका ज्ञान नहीं किया तथा जिसने सन्ध्योपासन नहीं किया, वह जीते-जी शूद्रके समान होता है और मृत्युके अनन्तर कुत्तेकी योनिमें जन्म लेता है ॥ ७ ॥
तस्मान्नित्यं प्रकर्तव्यं सन्ध्योपासनमुत्तमम् । तदभावेऽन्यकर्मादावधिकारी भवेन्न हि ॥ ८ ॥
अतः द्विजको नित्य उत्तम सन्ध्या करनी चाहिये । उसे न करनेवाला अन्य किसी भी शुभ कर्मको करनेका अधिकारी नहीं है ॥ ८ ॥
उदयास्तमयादूर्ध्वं यावत्स्याद्घटिकात्रयम् । तावत्सन्ध्यामुपासीत प्रायश्चित्तं ततः परम् ॥ ९ ॥
सूर्यके उदय होने तथा अस्त होनेके तीन-तीन घड़ी बादतक सन्ध्योपासना कर लेनी चाहिये । उसके बाद सन्ध्या करनेपर प्रायश्चित्त करना पड़ता है ॥ ९ ॥
कालातिक्रमणे जाते चतुर्थार्घ्यं प्रदापयेत् । अथवाष्टशतं देवीं जप्त्वादौ तां समाचरेत् ॥ १० ॥
समय बीत जानेपर यदि सन्ध्या की जाय, तो [तीन अय॑के अतिरिक्त] चौथा अर्घ्य देना चाहिये अथवा आरम्भमें एक सौ आठ बार गायत्रीका जप करके सन्ध्या करनी चाहिये ॥ १० ॥
यस्मिन्काले तु यत्कर्म तत्कालाधीश्वरीं च ताम् । सन्ध्यामुपास्य पश्चात्तु तत्कालीनं समाचरेत् ॥ ११ ॥
जिस समय जो कर्म करना हो, उस समयकी अधीश्वरी उस गायत्री स्वरूपिणी सन्ध्याकी उपासना करनेके अनन्तर ही उस कार्यमें प्रवृत्त होना चाहिये ॥ ११ ॥
घरमें की गयी सन्ध्या साधारण कही गयी है, गोशालामें की गयी सन्ध्या मध्यम कोटिकी होती है, नदीके तटपर की गयी सन्ध्या उत्तम होती है और देवीमन्दिरमें की गयी सन्ध्या उससे भी उत्तम कही गयी है ॥ १२ ॥
सन्ध्योपासन देवीकी उपासना है, अतः देवीकी सन्निधिमें ही तीनों कालों (प्रातः, मध्याहू, सायं)की सन्ध्या करनी चाहिये, वह उन्हें अनन्त फल प्रदान करती है ॥ १३ ॥
एतस्या अपरं दैवं ब्राह्मणानां च विद्यते । न विष्णूपासना नित्या न शिवोपासना तथा ॥ १४ ॥ यथा भवेन्महादेव्या गायत्र्याः श्रुतिचोदिता । सर्ववेदसारभूता गायत्र्यास्तु समर्चना ॥ १५ ॥
ब्राह्मणोंके लिये इन गायत्रीदेवीके अतिरिक्त अन्य देवता नहीं है । विष्णु तथा शिवकी उपासना भी वैसी नित्य नहीं है, जैसी महादेवी गायत्रीकी वेदप्रतिपादित सन्ध्या नित्य है । गायत्रीदेवीकी आराधना सम्पूर्ण वेदोंका सार-स्वरूप है ॥ १४-१५ ॥
ब्रह्मादयोऽपि सन्ध्यायां तां ध्यायन्ति जपन्ति च । वेदा जपन्ति तां नित्यं वेदोपास्या ततः स्मृता ॥ १६ ॥
ब्रह्मा आदि देवता भी सन्ध्योपासनाके समय उन गायत्रीदेवीका ध्यान तथा जप करते हैं । वेद उन गायत्रीका नित्य जप करते हैं, अतएव वे 'वेदोपास्या' कही गयी हैं ॥ १६ ॥
तस्मात्सर्वे द्विजाः शाक्ता न शैवा न च वैष्णवाः । आदिशक्तिमुपासन्ते गायत्रीं वेदमातरम् ॥ १७ ॥
इसीलिये सभी द्विज शाक्त हैं, वे न शैव हैं न वैष्णव । वे सभी वेदमाता आदिशक्ति गायत्रीकी उपासना करते हैं ॥ १७ ॥
आचान्तः प्राणमायम्य केशवादिकनामभिः । केशवश्च तथा नारायणो माधव एव च ॥ १८ ॥ गोविन्दो विष्णुरेवाथ मधुसूदन एव च । त्रिविक्रमो वामनश्च श्रीधरोऽपि ततः परम् ॥ १९ ॥ हृषीकेशः पद्मनाभो दामोदर अतः परम् । सङ्कर्षणो वासुदेवः प्रद्युम्नोऽप्यनिरुद्धकः ॥ २० ॥ पुरुषोत्तमाधोक्षजौ च नारसिंहोऽप्युतस्तथा । जनार्दन उपेन्द्रश्च हरिः कृष्णोऽन्तिमस्तथा ॥ २१ ॥ ॐकारपूर्वकं नाम चतुर्विंशतिसङ्ख्यया । स्वाहान्तैः प्राशयेद्वारि नमोऽन्तैः स्पर्शयेत्तथा ॥ २२ ॥
केशव आदि नामोंसे आचमन करनेके बाद प्राणायाम करनेके अनन्तर सन्ध्योपासनमें प्रवृत्त होना चाहिये । केशव, नारायण, माधव, गोविन्द, विष्णु, मधुसूदन, त्रिविक्रम, वामन, श्रीधर, हषीकेश, पद्मनाभ, दामोदर, संकर्षण, वासुदेव, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, पुरुषोत्तम, अधोक्षज, नरसिंह, अच्युत, जनार्दन, उपेन्द्र, हरि तथा श्रीकृष्ण-इन चौबीस नामोंके पूर्व 'ॐकार' तथा अन्तमें 'स्वाहा' जोड़कर जलका प्राशन (आचमन) और इन्हीं नामोंके पूर्व 'ॐकार' तथा अन्तमें 'नमः' लगाकर शरीरके विभिन्न अंगोंका स्पर्श करना चाहिये ॥ १८-२२ ॥
केशवादित्रिभिः पीत्वा द्वाभ्यां प्रक्षालयेत्करौ । मुखं प्रक्षालयेद्द्वाभ्यां द्वाभ्यामुन्मार्जनं तथा ॥ २३ ॥
'ॐ केशवाय स्वाहा' आदि (ॐ केशवाय स्वाहा, ॐ माधवाय स्वाहा, ॐ नारायणाय स्वाहा) तीन नाम-मन्त्रोंसे आचमन करके 'ॐ गोविन्दाय नमः', 'ॐ विष्णवे नमः'-इन दो नाम-मन्त्रोंसे दोनों हाथोंका प्रक्षालन करना चाहिये । पुनः 'मधुसूदन' तथा 'त्रिविक्रम'-इन दो नामोंसे अंगूठेके मूलद्वारा दोनों ओष्ठोंका प्रक्षालन और 'वामन' तथा ' श्रीधर'इन नामोंसे मुखका सम्मान करना चाहिये ॥ २३ ॥
एकेन पाणिं सम्प्रोक्ष्य पादावपि शिरोऽपि च । सङ्कर्षणादिदेवानां द्वादशाङ्गानि संस्पृशेत् ॥ २४ ॥
'हृषीकेश'- इस नामसे बायें हाथका, 'पद्मनाभ' नामसे दोनों पैरोंका, तथा 'दामोदर' नामसे सिरका प्रोक्षण करना चाहिये । इसी प्रकार 'संकर्षण' आदि देवनामोंसे बारह अंगोंका स्पर्श करना चाहिये । ('संकर्षण' नामसे परस्पर मिली हुई बीचकी तीन अँगुलियोंद्वारा मुखका, 'वासुदेव' तथा प्रद्युम्न'-इन दो नामोंसे अंगूठे और तर्जनी अंगुलियोंद्वारा दोनों नासापुटोंका, 'अनिरुद्ध' तथा 'पुरुषोत्तम' से अंगूठे और अनामिकाद्वारा दोनों नेत्रोंका, 'अधोक्षज' और 'नारसिंह' नामोंद्वारा दोनों कानोंका, 'अच्युत' से कनिष्ठिका और अंगूठेद्वारा नाभिका, 'जनार्दन' से करतलद्वारा हदयका, 'उपेन्द्र' से सिरका एवं 'ॐ हरये नमः' तथा 'ॐ कृष्णाय नम:'-इन दो नाम-मन्त्रोंसे दाहिनी और बायीं भुजाका स्पर्श करना चाहिये) ॥ २४ ॥
दक्षिणेनोदकं पीत्वा वामेन संस्पृशेद्बुध: । तावन्न शुध्यते तोयं यावद्वामेन न स्पृशेत् ॥ २५ ॥
बुद्धिमान् व्यक्तिको चाहिये कि दाहिने हाथसे जल पीते समय बायें हाथसे उसे स्पर्श किये रहे; क्योंकि वह जल तबतक शुद्ध नहीं होता जबतक बायें हाथका स्पर्श नहीं होता ॥ २५ ॥
हाथकी मुद्रा गायके कानके आकारकी बनाकर उससे मात्र एक माष जलसे आचमन करना चाहिये । उससे अधिक या कम जलसे आचमन करनेवाला द्विज सुरापान करनेवालेके समान होता है ॥ २६ ॥
नासिकाके दाहिने छिद्रसे वायुका रेचन करना चाहिये, बायें छिद्रसे वायुको उदरमें भरना चाहिये तथा उस वायुको उदरमें भरकर कुम्भरूपसे धारण किये रहना चाहिये-इसीको विद्वानोंने प्राणायाम कहा है ॥ २९ ॥
[वायुको खींचते समय] नासिकाके दाहिने छिद्रको अँगूठेसे दबाये । तत्पश्चात् कनिष्ठिका तथा अनामिका अँगुलियोंसे बायें नासिका-छिद्रको बन्द कर ले । इसमें मध्यमा तथा तर्जनीका प्रयोग नहीं करना चाहिये ॥ ३० ॥
पहले प्रणव (ॐ)-का उच्चारण करके गायत्रीकी ऋचा (तत्सवितुः आदि) तथा पदके आदिमें तीनों व्याहृतियोंसे युक्त गायत्री मन्त्रको पढ़कर किया गया आचमन 'श्रौत-आचमन' कहा जाता है ॥ ३८ ॥
गायत्रीके पूर्व तीनों व्याहृतियाँ लगाकर तथा प्रत्येक व्याहतिमें प्रणव (ॐ) जोड़कर शिरोभागके साथ गायत्री मन्त्रका जप करना चाहिये । पूरक, कुम्भक तथा रेचक करते समय इसका तीन बार जप ही प्राणायाम है (अब लक्षणसहित प्राणायामका वर्णन किया जा रहा है । यह प्राणायाम नानाविध पापोंका शमन करनेवाला तथा महान् पुण्यफल प्रदान करनेवाला है) । गृहस्थ तथा वानप्रस्थको प्रणवमन्त्रसे पाँचों अंगुलियोंद्वारा नासिकाके अग्रभागको दबाना चाहिये । यह मुद्रा सभी प्रकारके पापोंका हरण करनेवाली है । ब्रह्मचारी और संन्यासी कनिष्ठिका, अनामिका तथा अंगूठा-इन अँगुलियोंसे प्राणायाम करें । ३९-४०.५ ॥
आपो हि ष्ठेति तिसृभिः प्रोक्षणं स्यात्कुशोदकैः ॥ ४१ ॥ ऋगन्ते मार्जनं कुर्यात्पादान्ते वा समाहितः । नवप्रणवयुक्तेन आपो हि ष्ठेत्यनेन तु ॥ ४२ ॥ नश्येदघं मार्जनेन संवत्सरसमुद्भवम् ।
'आपो हि ष्ठा०' इत्यादि तीन ऋचाओंसे कुशाके जलद्वारा शरीरका प्रोक्षण करे अथवा समाहित चित्तसे इन तीन ऋचाओंमें विद्यमान नौ पदोंके आदिमें प्रणवका उच्चारण करके उनसे मार्जन करे । इस मार्जनसे वर्षभरमें किया गया समस्त पाप मिट जाता है । ४१-४२.५ ॥
दाहिने हाथको गायके कानके समान बनाकर उसमें जल भरे और उसे नासिकाके अग्रभागपर ले जाकर अपनी वामकुक्षिमें कृष्णवर्णवाले पुरुषरूप पापकी भावना करनी चाहिये और इसके बाद 'ऋतञ्च सत्यं०'-इस ऋचाका पाठ करना चाहिये ॥ ४५-४६ ॥
द्रुपदां वा ऋचं पश्चाद्दक्षनासापुटेन च । श्वासमार्गेण तं पापमानयेत्करवारिणि ॥ ४७ ॥ नावलोक्यैव तद्वारि वामभागेऽश्मनि क्षिपेत् । निष्पापं तु शरीरं मे सञ्जातमिति भावयेत् ॥ ४८ ॥
तत्पश्चात् 'द्रुपदा०' इस ऋचाका पाठ करके नासिकाके दाहिने पुटसे श्वासमार्गद्वारा उस पापको दाहिने हाथके जलमें लाये और उस जलपर दृष्टिपात न करते हुए उसे अपने वामभागमें भूमिपर फेंक दे और यह भावना करे कि मेरा शरीर अब पापरहित हो गया है ॥ ४७-४८ ॥
इसके बाद उठकर दोनों पैरोंको सीधा करके मिला ले । पुनः तर्जनी तथा अँगूठेको अलग रखते हुए अंजलिमें जल लेकर सूर्यकी ओर देखकर गायत्रीमन्त्रसे अभिमन्त्रित करके तीन बार सूर्यको जलांजलि अर्पित करे । हे मुनिश्रेष्ठ ! सूर्याय-अर्पणकी यही विधि है ॥ ४९-५० ॥
तदनन्तर उस उपासकको आदित्य-मन्त्रसे सूर्यकी प्रदक्षिणा करनी चाहिये । मध्याह्नमें एक बार और प्रातः तथा सायंकालकी दोनों सन्ध्याओंमें तीन-तीन बार अर्घ्यदान देना चाहिये ॥ ५१ ॥
हे नारद ! सूर्यको जलका अर्पण क्यों किया जाता है, उसका कारण अब सुनिये । मन्देहा नामके महापराक्रमी तीस करोड़ राक्षस हैं । वे कृतघ्न, भयंकर तथा कर राक्षस सूर्यको खा जाना चाहते हैं । ऐसी स्थितिमें सभी देवता तथा तपोधन ऋषिगण भगवती महासन्ध्याकी उपासना करते हैं और जलांजलि प्रदान करते हैं । इस प्रकार वज्रके समान हो जानेवाले उस जलसे वे दैत्य भस्म हो जाते हैं । इसी कारणसे विप्रगण नित्य सन्ध्याकी उपासना करते हैं । सन्ध्योपासन महापुण्यका जनक कहा गया है ॥ ५३-५६ ॥
वह सूर्य मैं ही हैं, मैं ही आत्मज्योति हूँ, मैं ही शिव-सम्बन्धी ज्योति हूँ, आत्मज्योति भी मेरा ही रूप है, मैं सर्वशुक्ल ज्योति हूँ और मैं रसस्वरूप हूँ ॥ ५८ ॥
हे वरदे ! हे देवि ! हे गायत्रि ! हे ब्रह्मस्वरूपिणि ! आप आइये और मेरे जप-अनुष्ठानकी सिद्धिहेतु मेरे हदयमें प्रवेश कीजिये । हे देवि ! उठिये और पुनः आगमनके लिये यहाँसे प्रस्थान कीजिये और हे देवि ! इसी अय॑के जलमें स्थित होइये तथा पुनः मेरे हृदयदेशमें विराजमान होइये ॥ ५९-६० ॥
तत्पश्चात् विद्वान् पुरुष पवित्र स्थानपर अपना आसन लगाये और उसपर बैठकर वेदमाता गायत्रीका जप करे ॥ ६१ ॥
अत्रैव खेचरी मुद्रा प्राणायामोत्तरं मुने । प्रातःसन्ध्याविधाने च कीर्तिता मुनिपुङ्गव ॥ ६२ ॥ तन्नामार्थं प्रवक्ष्यामि सादरं शृणु नारद । चित्तं चरति खे यस्माज्जिह्वा चरति खे गता ॥ ६३ ॥ भ्रुवोरन्तर्गता दृष्टिर्मुद्रा भवति खेचरी । न चासनं सिद्धसमं न कुम्भसदृशोऽनिलः ॥ ६४ ॥ न खेचरीसमा मुद्रा सत्यं सत्यं च नारद । घण्टावत्पणवोच्चाराद्वायुं निर्जित्य यत्नतः ॥ ६५ ॥ स्थिरासने स्थिरो भूत्वा निरहङ्कारनिर्ममः । लक्षणं नारद मुने शृणु सिद्धासनस्य च ॥ ६६ ॥
हे मुने ! इसी समय प्राणायामके पश्चात् खेचरी मुद्रा करनी चाहिये । हे मुनिश्रेष्ठ ! प्रातःकालीन सन्ध्याके विधानमें इस मुद्राको बताया गया है । हे नारद ! अब मैं इसके नामका अर्थ बता रहा हूँ, आदरपूर्वक सुनिये । जिसके प्रभावसे चित्त आकाशमें विचरण करता है, जिह्वा भी आकाशमें जाकर संचरण करती है और दृष्टि दोनों भौंहोंके अन्तर्गत स्थिर रहती है, वही खेचरी मुद्रा होती है । हे नारद ! सिद्धासनके समान कोई आसन नहीं है, कुम्भक वायुके समान कोई वायु नहीं है और खेचरी मुद्राके समान कोई मुद्रा नहीं है, यह ध्रुव सत्य है । घण्टा-ध्वनिके समान प्लुत स्वरसे प्रणवका उच्चारण करते हुए श्वासको यत्नपूर्वक रोककर अहंकार तथा ममतासे रहित होकर स्थिर भावसे स्थिरासनपर बैठना चाहिये । हे नारद ! हे मुने ! अब आप सिद्धासनका लक्षण सुनिये ॥ ६२-६६ ॥
सिद्धासनमें एक पैरका मूल लिंगके मूलस्थानपर करके दूसरे पैरका मूल अण्डकोशके नीचे दृढ़तापूर्वक टिकाना चाहिये । हृदय आदि तथा शरीरको सीधा रखते हुए स्थाणुके रूपमें तथा संयमित इन्द्रियोंवाला होकर दोनों भौंहोंके बीच में अचल दृष्टिसे देखते हुए स्थिर रहना चाहिये । योगियोंके लिये अत्यन्त सुखदायक इस आसनको सिद्धासन कहा जाता है । ६७ ॥
हे नारद ! अब मैं देवीके आवाहन तथा नमस्कारका मन्त्र बताता हूँ]-हे छन्दोंकी माता ! आप वर प्रदान करनेवाली भगवती गायत्री हैं । आप अक्षरब्रह्मरूप हैं । हे ब्रह्मस्वरूपिणि ! आप यहाँ आइये और मुझपर प्रसन्न होइये । मनुष्य दिनमें जो पाप करता है, वह पाप सायंकालीन उपासनासे नष्ट हो जाता है और जो पाप रातमें करता है, वह प्रात:कालीन उपासनासे मिट जाता है । हे सर्ववर्णस्वरूपिणि ! हे महादेवि ! हे सन्ध्याविद्ये ! हे सरस्वति ! हे अजरे ! हे अमरे ! हे देवि ! हे सर्वदेवि ! आपको नमस्कार है ॥ ६८-७० ॥
तेजोऽसीत्यादिमन्त्रेण देवीमावाहयेत्ततः । यत्कृतं त्वदनुष्ठानं तत्सर्वं पूर्णमस्तु मे ॥ ७१ ॥
तदनन्तर 'तेजोऽसीति०' आदि मन्त्रसे देवीका आवाहन करना चाहिये । पुनः इस प्रकार क्षमाप्रार्थना करे कि मैंने जो कुछ भी आपका अनुष्ठान किया है, मेरा वह सब कार्य पूर्ण हो ॥ ७१ ॥
तत्पश्चात् शापसे मुक्त होनेके लिये सम्यक प्रकारसे यत्न करना चाहिये । ब्रह्मशाप, विश्वामित्रशाप तथा वसिष्ठशाप-यह तीन प्रकारका शाप है । ब्रह्माका स्मरण करनेसे ही ब्रह्मशाप मिट जाता है । इसी प्रकार विश्वामित्रका स्मरण करनेसे विश्वामित्रके शापसे तथा वसिष्ठका स्मरण करनेसे वसिष्ठके शापसे निवृत्ति हो जाती है ॥ ७२-७४ ॥
[हे नारद ! परमात्माका इस प्रकार ध्यान करे]मैं पुरुषाकार, सत्यात्मक, सम्पूर्ण जगत्के साक्षात् विग्रह, अद्वितीय, चिद्रूप, वाणीसे अगम्य, शाश्वत तथा परमात्मा संज्ञावाले परमेश्वरका अपने हृदयकमलमें नित्य ध्यान करता हूँ ॥ ७५ ॥
हे नारद ! अब मैं सन्ध्याके प्रधान अंगस्वरूप न्यासकी विधिका वर्णन करूँगा । सभी मन्त्रोंके पूर्व ॐकार लगाना चाहिये, इसके बाद उन मन्त्रोंका उच्चारण करना चाहिये ॥ ७६ ॥
हे महामुने ! अब इसके आगे मैं अक्षरन्यास बता रहा हूँ । गायत्रीके वर्णोसे किया जानेवाला यह न्यास श्रेष्ठ तथा सभी पापोंका नाश करनेवाला है । पहले प्रणवका उच्चारण करके वर्णन्यास करनेकी विधि बतायी गयी है । आरम्भमें 'तत्'कारका उच्चारण करके पैरके दोनों अंगूठोंमें न्यास करना चाहिये । 'स'कारका उच्चारण करके दोनों गुल्फोंमें तथा 'वि'कारका उच्चारण करके दोनों जंघोंमें न्यास करना चाहिये । तत्पश्चात् 'तु'कारका उच्चारण करके दोनों जानुओंमें न्यास करके 'व'कारका दोनों उरुओंमें, 'रे'कारका गुदामें, 'णि 'कारका लिंगमें, 'य'कारका कटिभागमें, 'भ'कारका नाभिमण्डलमें, 'गो'कारका हृदयमें, 'दे'कारका दोनों स्तनोंमें, 'व'कारका हृदयमें, 'स्य कारका कण्ठकूपमें, 'धी कारका मुखमें, 'म'कारका तालुदेशमें, 'हि'कारका नासिकाके अग्रभागमें, 'धि'कारका नेत्रमण्डलमें, 'यो कारका भ्रूमध्यमें, 'यो कारका ललाटमें, 'न'कारका मुखके पूर्व भागमें, 'प्रकारका मुखके दक्षिण भागमें, 'चो'कारका मुखके पश्चिम भागमें, 'द'कारका मुखके उत्तर भागमें, 'या'कारका मस्तक तथा 'त'कारका सम्पूर्ण शरीरमें न्यास करना चाहिये ॥ ८४-९१ ॥
जपमें तत्पर रहनेवाले कुछ लोग न्यासकी इस विधिको अभीष्ट नहीं मानते हैं । न्यासके पश्चात् जगत्को उत्पन्न करनेवाली महाभगवती अम्बिकाका इस प्रकार ध्यान करना चाहिये-इन परमेश्वरीका विग्रह तेजोमय जपाकुसुमकी आभाके तुल्य है, ये कुमारी हैं, ये रक्त-कमलके आसनपर अवस्थित हैं, इनका श्रीविग्रह रक्त चन्दनसे अनुलिप्त है, ये रक्तवर्णकी माला तथा वस्त्र धारण किये हुई हैं, ये चार मुखों तथा चार भुजाओंवाली हैं, इनके प्रत्येक मुखमें दोदो नेत्र हैं । इन्होंने अपने हाथोंमें उक्, सुवा, जपमाला तथा कमण्डलु धारण कर रखा है, ये सभी प्रकारके आभूषणोंसे प्रकाशित हैं, ये परा भगवती ऋग्वेदका पारायण कर रही हैं, ये हंसके वाहनपर विराजमान हैं, ये आहवनीय अग्निके मध्य स्थित हैं, ये ब्रह्माजीकी उपास्य देवता हैं, चारों वेद (ऋक्, यजुः, साम, अथर्व) ही इनके चार पद हैं, आठ दिशा (पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व, अधः, अन्तरिक्ष तथा अवान्तर)रूपी कुक्षियोंसे ये शोभायमान हैं, सात सिरों (व्याकरण, शिक्षा, कल्प, निरुक्त, ज्योतिष, इतिहास-पुराण तथा उपनिषद्)-से मण्डित हैं, ये अग्निरूप मुख; रुद्ररूप शिखा तथा विष्णुरूप चित्तवाली हैं-ऐसे स्वरूपवाली परमेश्वरी भगवतीकी भावना करनी चाहिये । ब्रह्मा जिनके कवच हैं तथा सांख्यायन जिनका गोत्र कहा गया है, आदित्यमण्डलमें विराजमान ऐसी भगवती महेश्वरीका ध्यान करना चाहिये ॥ ९२-९७ ॥
इस प्रकार विधिपूर्वक वेदमाता गायत्रीका ध्यान करनेके अनन्तर भगवतीको प्रसन्न करनेवाली कल्याणकारी मुद्राएँ प्रदर्शित करनी चाहिये ॥ ९८ ॥
सुमुखं सपुटं चैव विततं विस्तृतं तथा । द्विमुखं त्रिमुखं चैव चतुष्कं पञ्चकं तथा ॥ ९९ ॥ षण्मुखाधोमुखं चैव व्यापकाञ्जलिकं तथा । शकटं यमपाशं च ग्रथितं सन्मुखोन्मुखम् ॥ १०० ॥ विलम्बं मुष्टिकं चैव मत्स्यं कूर्मं वराहकम् । सिंहाक्रान्तं महाक्रान्तं मुद्गरं पल्लवं तथा ॥ १०१ ॥ चतुर्विंशतिमुद्राश्च गायत्र्याः सम्प्रदर्शयेत् । शताक्षरां च गायत्रीं सकृदावर्तयेत्सुधीः ॥ १०२ ॥
सुमुख, सम्पुट, वितत, विस्तृत, द्विमुख, त्रिमुख, चतुर्मुख, पंचमुख, षण्मुख, अधोमुख, व्यापकांजलि, शकट, यमपाश, ग्रथित, सम्मुखोन्मुख, विलम्ब, मुष्टिक, मत्स्य, कूर्म, वराह, सिंहाक्रान्त, महाक्रान्त, मुद्गर और पल्लव-इन चौबीस मुद्राओंको गायत्रीके समक्ष प्रदर्शित करना चाहिये । पुनः विद्वान् पुरुषको चाहिये कि सौ अक्षरोंवाली गायत्रीकी एक आवृत्ति करे ॥ ९९-१०२ ॥
चतुर्विंशत्यक्षराणि गायत्र्या कीर्तितानि हि । जातवेदसनाम्नीं च ऋचमुच्चारयेत्ततः ॥ १०३ ॥ त्र्यम्बकस्यर्चमावृत्य गायत्री शतवर्णका । भवतीयं महापुण्या सकृज्जप्या बुधैरियम् ॥ १०४ ॥ ॐकारं पूर्वमुच्चार्य भूर्भुवः स्वस्तथैव च । चतुर्विंशत्यक्षरां च गायत्रीं प्रोच्चरेत्ततः ॥ १०५ ॥ एवं नित्यं जपं कुर्याद्ब्राह्मणो विप्रपुङ्गवः । स समग्रं फलं प्राप्य सन्ध्यायाः सुखमेधते ॥ १०६ ॥
गायत्रीके चौबीस अक्षर तो बताये ही गये हैं । उसके बाद 'जातवेदस' नामक ऋचाका तथा त्र्यम्बक ऋचा (त्र्यम्बकं यजामहे०)-की आवृत्ति करनेसे यह सौ अक्षरोंवाली गायत्री होती है । विद्वानोंको एक बार इस महापुण्यदायिनी गायत्रीका जप करना चाहिये । तत्पश्चात् पहले ॐकारका उच्चारण करके 'भूर्भुवः स्वः' के बाद चौबीस अक्षरोंवाली गायत्रीका जप करना चाहिये । इस प्रकार ब्राह्मणको नित्य जप करना चाहिये । ऐसा करनेसे वह विप्रश्रेष्ठ सन्ध्याका सम्पूर्ण फल प्राप्त करके सुखी हो जाता है ॥ १०३-१०६ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां एकादशस्कन्धे सन्ध्योपासननिरूपणं नाम षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायामेकादशस्कन्धे सन्ध्योपासननिरूपणं नाम षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥