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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
एकादशः स्कन्धः
सप्तदशोऽध्यायः

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सन्ध्यादिकृत्यवर्णनम् -
गायत्री-महिमा -


श्रीनारायण उवाच
भिन्नपादा तु गायत्री ब्रह्महत्याप्रणाशिनी ।
अभिन्नपादा गायत्री ब्रह्महत्यां प्रयच्छति ॥ १ ॥
अच्छिन्नपादागायत्रीजपं कुर्वन्ति ये द्विजाः ।
अथोमुखाश्च तिष्ठन्ति कल्पकोटिशतानि च ॥ २ ॥
श्रीनारायण बोले-हे नारद ! भिन्न पादवाली गायत्री ब्रह्महत्याका शमन करनेवाली है तथा अभिन्न पादवाली गायत्रीके जपसे ब्रह्महत्याका पाप लगता है । जो द्विज अभिन्न पादवाली गायत्रीका जप करते हैं, वे कई सौ करोड़ कल्पोंतक नीचे मुख करके लटके हुए रहते हैं ॥ १-२ ॥

सम्पुटैका षडोङ्‌कारा गायत्री विविधा मता ।
धर्मशास्त्रपुराणेषु इतिहासेषु सुव्रत ॥ ३ ॥
पञ्चप्रणवसंयुक्तां जपेदित्यनुशासनम् ।
जपसंख्याष्टभागान्ते पादो जप्यस्तुरीयकः ॥ ४ ॥
स द्विजः परमो ज्ञेयः परं सायुज्यमाप्नुयात् ।
अन्यथा प्रजपेद्यस्तु स जपो विफलो भवेत् ॥ ५ ॥
हे सुव्रत ! धर्मशास्त्रों, पुराणों और इतिहासोंमें गायत्री विविध प्रकारकी मानी गयी है; यथा-प्रणवसे सम्पुटित तथा छः ॐकारसे संयुक्त । पाँच प्रणववाली गायत्रीका जप करना चाहिये, ऐसा भी शास्त्रोंका आदेश है । जितनी जप-संख्या करना अभीष्ट हो, उसके आठवें-आठवें भागके अन्तमें गायत्रीके चौथे पदका जप करना चाहिये । इस तरहसे जप करनेवाले उस द्विजको परम ज्ञानी समझना चाहिये; वह द्विज परम सायुज्य प्राप्त कर लेता है । जो इसके विपरीत गायत्रीका जप करता है, वह जप व्यर्थ हो जाता है ॥ ३-५ ॥

सम्पुटैका षडोङ्‌कारा भवेत्सा ऊर्ध्वरेतसाम् ।
गृहस्थो ब्रह्मचारी वा मोक्षार्थी तुरीयां जपेत् ॥ ६ ॥
तुरीयपादो गायत्र्याः परोरजसे सावदोम् ।
ध्यानमस्य प्रवक्ष्यामि जपसाङ्‌गफलप्रदम् ॥ ७ ॥
एक सम्पुटवाली तथा छः ॐकारवाली जो गायत्री है, वह केवल एकनिष्ठ ब्रह्मचारियोंके लिये है । गृहस्थ, ब्रह्मचारी अथवा मोक्षकी कामना करनेवालेको तुरीया गायत्रीका जप करना चाहिये । गायत्रीका तुरीय पाद 'परोरजसे सावदोम्' यही है । हे नारद ! अब मैं इसके ध्यानके विषय में बता रहा हूँ, जो जपके सांगोपांग फलको देनेवाला है ॥ ६-७ ॥

हृदि विकसितपद्मं सार्कसोमाग्निबिम्बं
     प्रणवमयमचिन्त्यं यस्य पीतं प्रकल्प्यम् ।
अचलपरमसूक्ष्मं ज्योतिराकाशसारं
     भवतु मम मुदेऽसौ सच्चिदानन्दरूपः ॥ ८ ॥
हृदयदेशमें सूर्य-चन्द्र तथा अग्निमण्डलसे युक्त, प्रणवमय तथा अचिन्त्य विकसित कमल ही जिनका आसन है-वे ब्रह्म अचल, परम सूक्ष्म, ज्योतिस्वरूप तथा आकाशके साररूप हैं । वे सच्चिदानन्दस्वरूप परमेश्वर मेरी प्रसन्नताके हेतु बनें ॥ ८ ॥

त्रिशूलयोनी सुरभिमक्षमालां च लिङ्‌गकम् ।
अम्बुजं च महामुद्रामिति सप्त प्रदर्शयेत् ॥ ९ ॥
त्रिशूल, योनि, सुरभि, अक्षमाला, लिंग, अम्बुज तथा महामुद्रा-ये सात मुद्राएँ गायत्रीको प्रदर्शित करनी चाहिये ॥ ९ ॥

या सन्ध्या सैव गायत्री सच्चिदानन्दरूपिणी ।
भक्त्या तां ब्राह्मणो नित्यं पूजयेच्च नमेत्ततः ॥ १० ॥
जो सन्ध्या हैं, वे ही सच्चिदानन्दस्वरूपिणी गायत्री हैं । ब्राह्मणको उन गायत्रीका नित्य पूजन तथा नमन करना चाहिये ॥ १० ॥

ध्यातस्य पूजां कुर्वीत पञ्चभिश्चोपचारकैः ।
लं पृथिव्यात्मने गन्धमर्पयामि नमो नमः ॥ ११ ॥
हमाकाशात्मने पुष्पं चार्पयामि नमो नमः ।
यं च वाय्वात्मने धूपं चार्पयामि ततो वदेत् ॥ १२ ॥
रं च वह्न्यात्मने दीपमर्पयामि ततो वदेत् ।
वममृतात्मने तस्मै नैवेद्यमपि चार्पयेत् ॥ १३ ॥
ध्यान किये गये देवताकी पाँच उपचारोंसे [मानसिक] पूजा करनी चाहिये । 'लं' पृथ्वीस्वरूपिणी देवीको गन्ध अर्पित करता हूँ, उन्हें बार-बार नमस्कार है । है' आकाशस्वरूपिणी देवीको पुष्प अर्पित करता हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है । तत्पश्चात् 'यं' वायुस्वरूपिणी देवीको धूप अर्पित करता हूँ-ऐसा कहना चाहिये । तदनन्तर 'ई' अग्निस्वरूपिणी देवीको दीपक अर्पित करता हूँ-ऐसा बोलना चाहिये । पुनः 'वं' अमृतस्वरूपिणी देवीको नैवेद्य भी (उसी प्रकार) अर्पित करना चाहिये ॥ ११-१३ ॥

यं रं लं वं हमिति च पुष्पाञ्जलिमथार्पयेत् ।
एवं पूजां विधायाथ चान्ते मुद्राः प्रदर्शयेत् ॥ १४ ॥
अन्तमें यं, रं, लं, वं, हं-ऐसा उच्चारण करके पुष्पांजलि अर्पित करनी चाहिये । इस प्रकार मानसिक पूजन करनेके उपरान्त मुद्राएँ दिखानी चाहिये ॥ १४ ॥

ध्यायेत्तु मनसा देवीं मन्त्रमुच्चारयेच्छनैः ।
न कम्पयेच्छिरो ग्रीवा दन्तान्नैव प्रकाशयेत् ॥ १५ ॥
मनसे देवीका ध्यान करना चाहिये और मन्त्रका उच्चारण धीरे-धीरे करना चाहिये । इस समय सिर तथा गर्दन नहीं हिलाना चाहिये और दाँत नहीं दिखाने चाहिये ॥ १५ ॥

विधिनाष्टोत्तरशतमष्टाविंशतिरेव वा ।
दशवारमशक्तो वा नातो न्यूनं कदाचन ॥ १६ ॥
एक सौ आठ बार या अट्ठाईस बार अथवा अशक्त होनेकी स्थितिमें दस बार ही विधिपूर्वक गायत्रीका जप करना चाहिये, किंतु इससे कम जप कभी नहीं करना चाहिये ॥ १६ ॥

तत उद्वासयेद्देवीमुत्तमेत्यनुवाकतः ।
न गायत्रीं जपेद्विद्वाञ्जलमध्ये कथञ्चन ॥ १७ ॥
यतः साग्निमुखी प्रोक्तेत्याहुः केचिन्महर्षयः ।
सुरभिर्ज्ञानशूर्पं च कूर्मो योनिश्च पङ्‌कजम् ॥ १८ ॥
लिङ्‌गं निर्वाणकं चैव जपान्तेऽष्टौ प्रदर्शयेत् ।
यदक्षरपदभ्रष्टं स्वरव्यञ्जनवर्जितम् ॥ १९ ॥
तत्सर्वं क्षम्यतां देवि कश्यपप्रियवादिनि ।
गायत्रीतर्पणं चातः करणीयं महामुने ॥ २० ॥
इसके बाद 'उत्तमः' इत्यादि अनुवाक मन्त्र उच्चारण करके देवीका विसर्जन करना चाहिये । विद्वान् व्यक्तिको चाहिये कि जलमें स्थित रहकर गायत्रीमन्त्रका जप कभी भी न करे: क्योंकि वे अग्निमुखी कही गयी हैं-ऐसा कुछ महर्षियोंने कहा है । जपके अनन्तर सुरभि, ज्ञान, शूर्प, कूर्म, योनि, पंकज, लिंग और निर्वाण-ये आठ मुद्राएँ प्रदर्शित करनी चाहिये । इसके बाद इस प्रकार क्षमा-प्रार्थना करे-कश्यपके प्रति प्रिय सम्भाषण करनेवाली हे देवि ! मेरे उच्चारणमें अक्षरों तथा पदोंका जो विचलन हुआ हो और स्वर तथा व्यंजनसम्बन्धी जो दोष रहा हो; उन सबको आप क्षमा कीजिये । हे महामुने ! इसके बाद गायत्री-तर्पण करना चाहिये ॥ १७-२० ॥

गायत्री छन्द आख्यातं विश्वामित्रऋषिः स्मृतः ।
सविता देवता प्रोक्ता विनियोगश्च तर्पणे ॥ २१ ॥
भूरित्युक्त्वा च ऋग्वेदपुरुषं तर्पयामि च ।
भुव इत्येतदुक्त्वा च यजुर्वेदमथो वदेत् ॥ २२ ॥
स्वर्व्याहृतिं समुक्त्वा च सामवेदं समुच्चरेत् ।
मह इत्येतदुक्त्वान्तेऽथर्ववेदं च तर्पयेत् ॥ २३ ॥
जनः पदान्त इतिहासपुराणमितीरयेत् ।
तपः सर्वागमं चैव पुरुषं तर्पयामि च ॥ २४ ॥
सत्यं च सत्यलोकाख्यपुरुषं तर्पयामि च ।
ॐ भूर्भूर्लोकपुरुषं तर्पयामि ततो वदेत् ॥ २५ ॥
भुवश्चेति भुवर्लोकपुरुषं तर्पयामि च ।
स्वः स्वर्गलोकपुरुषं तर्पयामि ततः परम् ॥ २६ ॥
ॐभूरेकपदा नाम गायत्रीं तर्पयामि च ।
भुवो द्विपदां गायत्रीं तर्पयामीति कीर्तयेत् ॥ २७ ॥
स्वश्च त्रिपदां गायत्रीं तर्पयामि ततो वदेत् ।
ॐभूर्भुवः स्वश्चेति तथा गायत्रीं च चतुष्पदाम् ॥ २८ ॥
'गायत्री' इसका छन्द कहा गया है, 'विश्वामित्र' इसके ऋषि कहे गये हैं और 'सविता' इसके देवता कहे गये हैं । तर्पणक्रियामें इसका विनियोग किया जाता है । 'भूः' ऐसा बोलकर ऋग्वेद-पुरुषका तर्पण करता हूँ और 'भुवः' ऐसा उच्चारण करके यजुर्वेदका तर्पण करता हूँ-ऐसा कहे । स्वः' व्याहतिका उच्चारण करके सामवेदका तर्पण करता हूँ-ऐसा कहे और 'महः' ऐसा बोलकर अथर्ववेदका तर्पण करे । पुनः 'जनः' पदके साथ इतिहास-पुराणका तर्पण करता हूँ-ऐसा कहे । 'तपः' से सम्पूर्ण आगमस्वरूप पुरुषका और 'सत्यं' से सत्यलोकाख्य पुरुषका तर्पण करता हूँ-ऐसा बोलना चाहिये । तदनन्तर 'ॐ भूः' से भूलॊकपुरुषका तर्पण करता हूँ, 'भुवः' से भुवाकपुरुषका तर्पण करता हूँ तथा 'स्वः' से स्वर्गलोकपुरुषका तर्पण करता हूँ-ऐसा कहना चाहिये । इसके बाद 'ॐ भूः' से एकपदा नामवाली गायत्रीका तर्पण कर रहा हूँ और 'भवः' से द्विपदा गायत्रीका तर्पण कर रहा हूँ-ऐसा बोलना चाहिये । 'स्वः' से त्रिपदा गायत्रीका तर्पण कर रहा हूँ और 'ॐ भूर्भुवः स्वः' से चतुष्पदा गायत्रीका तर्पण कर रहा हूँ-इस प्रकार बोलना चाहिये ॥ २१-२८ ॥

उषसीं चैव गायत्रीं सावित्रीं च सरस्वतीम् ।
वेदानां मातरं पृथ्वीमजां चैव तु कौशिकीम् ॥ २९ ॥
साङ्‌कृतिं वै सार्वजितिं गायत्रीं तर्पणे वदेत् ।
तर्पणान्ते च शान्त्यर्थं जातवेदसमीरयेत् ॥ ३० ॥
मानस्तोकेति मन्त्रं च शान्त्यर्थं प्रजपेत्सुधीः ।
ततोऽपि त्र्यम्बको मन्त्रः शान्त्यर्थः परिकीर्तितः ॥ ३१ ॥
तच्छंयोरिति मन्त्रं च जपेच्छान्त्यर्थमेव तु ।
अतो देवा इति द्वाभ्यां सर्वाङ्‌गस्पर्शनं चरेत् ॥ ३२ ॥
स्योनापृथिविमन्त्रेण भूम्यै कुर्यात्प्रणामकम् ।
यथाविधि च गोत्रादीनुच्चरेद्‌द्विजसत्तमः ॥ ३३ ॥
एवं विधानं सन्ध्यायाः प्रातःकाले प्रकीर्तितम् ।
सन्ध्याकर्म समाप्यान्तेऽप्यग्निहोत्रं स्वयं हुनेत् ॥ ३४ ॥
तदनन्तर उषसी, गायत्री, सावित्री, सरस्वती, वेदमाता, पृथ्वी, अजा, कौशिकी, सांकृति और सार्वजिति–इन नामोंको उच्चारित करके गायत्रीदेवीका तर्पण करना चाहिये । तर्पणके अन्तमें शान्तिके लिये 'जातवेदसम्०'-इस ऋचाका पाठ करना चाहिये । इसी प्रकार विद्वान् पुरुषको चाहिये कि शान्तिके लिये 'मानस्तोके०'-इस मन्त्रका भी पाठ करे । तत्पश्चात् शान्तिके लिये 'त्र्यम्बकम्'-इस मन्त्रका भी पाठ करना बताया गया है । शान्तिहेतु 'तच्छंयो०' इस मन्त्रका भी जप करना चाहिये । इसके बाद 'देवा गातु०' इस मन्त्रके द्वारा अपने दोनों हाथोंसे सम्पूर्ण अंगोंका स्पर्श करना चाहिये और 'स्योना पथिवी०' मन्त्रके द्वारा पृथ्वीको प्रणाम करना चाहिये । प्रणाम करते समय द्विजश्रेष्ठको विधिके अनुसार अपने गोत्र आदिका उच्चारण कर लेना चाहिये । प्रात:कालीन सन्ध्या-सम्बन्धी इस प्रकारका विधान कहा गया है । सन्ध्याकर्म समाप्त करनेके उपरान्त स्वयं अग्निहोत्र भी करना चाहिये ॥ २९-३४ ॥

पञ्चायतनपूजां च ततः कुर्यात्समाहितः ।
शिवां शिवं गणपतिं सूर्यं विष्णुं तथार्चयेत् ॥ ३५ ॥
पौरुषेण तु सूक्तेन व्याहृत्या वा समाहितः ।
मूलमन्त्रेण वा कुर्याद्‌ह्रीश्च ते इति मन्त्रतः ॥ ३६ ॥
तत्पश्चात् एकाग्रचित्त हो पंचायतनपूजा करनी चाहिये; इसमें शिवा, शिव, गणेश, सूर्य तथा विष्णुकी अर्चना करनी चाहिये । पुरुषसूक्त, व्याहति, मूल मन्त्र अथवा 'ह्रीश्च ते०' इस मन्त्रसे समाहितचित्त होकर पूजन करना चाहिये ॥ ३५-३६ ॥

भवानीं तु यजेन्मध्ये तथैशान्यां तु माधवम् ।
आग्नेय्यां गिरिजानाथं गणेशं रक्षसां दिशि ॥ ३७ ॥
वायव्यामर्चयेत्सूर्यमिति देवस्थितिक्रमः ।
षोडशानुपचारांश्च षोडशर्ग्भिर्हरेन्नरः ॥ ३८ ॥
देवीकी पंचायतनपूजामें मण्डलके मध्यमें भवानीका पूजन करना चाहिये । मण्डलके ईशानकोणमें माधव, अग्निकोणमें पार्वतीपति शंकर, नैऋत्य-कोणमें गणेश और वायव्यकोणमें सूर्यका अर्चन करना चाहिये । देवी-पंचायतनमें देवताओंकी स्थापनाका यही क्रम है । मनुष्य सोलह ऋचाओंका पाठ करके सोलह प्रकारके पूजनोपचार अर्पित करे ॥ ३७-३८ ॥

देवीमभ्यर्च्य पुरतो यजेदन्याननुक्रमात् ।
न देवीपूजनात्पुण्यमधिकं क्वचिदीक्ष्यते ॥ ३९ ॥
सर्वप्रथम देवीकी पूजा करके ही क्रमशः अन्य देवताओंकी पूजा करनी चाहिये । देवीके पूजनसे बढ़कर अधिक पुण्यप्रद कुछ भी दिखायी नहीं पड़ता ॥ ३९ ॥

अत एव तु सन्ध्यासु सन्ध्योपास्तिः श्रुतीरिता ।
नाक्षतैरर्चयेर्द्विष्णुं न तुलस्या गणेश्वरम् ॥ ४० ॥
दूर्वाभिर्नार्चयेद्दुर्गां केतकैर्न महेश्वरम् ।
मल्लिकाजातिकुसुमं कुटजं पनसं तथा ॥ ४१ ॥
किंशुकं बकुलं कुन्दं लोध्रं तु करवीरकम् ।
शिंशपाऽपराजितापुष्पं बब्धूकागस्त्यपुष्पके ॥ ४२ ॥
मदन्तं सिन्दुवारं च पालाशकुसुमं तथा ।
दूर्वाङ्कुरं बिल्वदलं कुशमञ्जरिकां तथा ॥ ४३ ॥
शल्लकीमाधवीपुष्पमर्कमन्दारपुष्पकम् ।
केतकीं कर्णिकारं च कदम्बकुसुमं तथा ॥ ४४ ॥
पुन्नागश्चम्पकस्तद्वद्यूथिकातगरौ तथा ।
एवमादीनि पुष्पाणि देवीप्रियकराणि च ॥ ४५ ॥
इसीलिये सन्ध्याकालोंमें सन्ध्या (गायत्री)-की उपासना श्रुतियोंमें कही गयी है । अक्षतसे भगवान् विष्णुकी, तुलसीसे गणेशकी, दुर्वासे दुर्गाकी तथा केतकी-पुष्पसे शंकरकी पूजा नहीं करनी चाहिये । मल्लिका, जातिपुष्प, कुटज, पनस, किंशुक, बकुल, कुन्द, लोध्र, करवीर, शिंशपा, अपराजिता, बन्धूक, अगस्त्य, मदंत, सिन्दुवार, पलाश-पुष्प, दूर्वाकुर, बिल्वदल, कुश-मंजरी, शल्लकी, माधवी, अर्क, मन्दार, केतकी, कर्णिकार, कदम्ब, नागकेसर, चम्पा, जूही और तगर आदि-ये पुष्प देवीको प्रसन्नता प्रदान करनेवाले हैं ॥ ४०-४५ ॥

गुग्गुलस्य भवेद्धूपो दीपः स्यात्तिलतैलतः ।
कृत्वेत्थं देवतापूजां ततो मूलमनुं जपेत् ॥ ४६ ॥
एवं पूजां समाप्यैव वेदाभ्यासं चरेद्‌बुधः ।
ततः स्ववृत्त्या कुर्वीत पोष्यवर्गार्थसाधनम् ।
तृतीयदिनभागे तु नियमेन विचक्षणः ॥ ४७ ॥
भवानीके लिये गुग्गुलका धूप तथा तिलके तेलका दीपक अर्पित करना चाहिये । इस प्रकार देवताओंका पूजन करके मूल मन्त्रका जप करना चाहिये । इस रीतिसे पूजा समाप्त करनेके अनन्तर ही विद्वान् व्यक्तिको वेदाभ्यासमें प्रवृत्त होना चाहिये । इसके बाद बुद्धिमान् पुरुषको दिनके तीसरे भागमें नियमपूर्वक अपनी वृत्तिके अनुसार अपने आश्रितवर्गके भरण-पोषणहेतु प्रयत्न करना चाहिये । ४६-४७ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां एकादशस्कन्धे
सन्ध्यादिकृत्यवर्णनं नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥
इति श्रीमदेवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रया संहितायामेकादशस्कन्धे सन्ध्यादिकत्यवर्णनं नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥


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