श्रीनारायण बोले-हे देवर्षे ! समस्त आपदाओंको दूर करनेवाले तथा साक्षात् भुक्तिमुक्ति प्रदान करनेवाले श्रीमाताके पूजनका क्रम मैं बता रहा हूँ । आप इसे सुनिये ॥ २ ॥
वासंयमीको सर्वप्रथम आचमन करके संकल्प करनेके बाद भूतशुद्धि आदि करनी चाहिये । पुन: पहले मातृकान्यास करके षडंगन्यास करना चाहिये ॥ ३ ॥
शङ्खस्य स्थापनं कृत्वा सामान्यार्घ्यं विधाय च । पूजाद्रव्याणि चास्त्रेण प्रोक्षयेन्मतिमान्नरः ॥ ४ ॥ गुरोरनुज्ञामादाय ततः पूजां समारभेत् । पीठपूजां पुरा कृत्वा देवीं ध्यायेत्ततः परम् ॥ ५ ॥
तत्पश्चात् बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि शंखकी स्थापना करके कलश-स्थापन करनेके अनन्तर अस्त्रमन्त्रसे समस्त पूजाद्रव्योंका प्रोक्षण करे । इसके बाद गुरुसे आदेश प्राप्त करके पूजा आरम्भ करनी चाहिये । पहले पीठ-पूजन करके बादमें देवीका ध्यान करना चाहिये ॥ ४-५ ॥
आसनाद्युपचारैश्च भक्तिप्रेमयुतः सदा । स्नापयेत्परदेवीं तां पञ्चामृतरसादिभिः ॥ ६ ॥ पौण्ड्रेक्षुरसपूर्णैस्तु कलशैः शतसंख्यकैः । स्तापयेद्यो महेशानीं न स भूयोऽभिजायते ॥ ७ ॥
भगवतीको भक्ति तथा प्रेमसे युक्त होकर आसन आदि उपचार अर्पण करनेके पश्चात् पंचामृत तथा रस आदिसे उन्हें स्नान कराना चाहिये । जो मनुष्य पौण्ड नामक गन्नेके रससे भरे हुए सौ कलशोंद्वारा भगवती महेश्वरीको स्नान कराता है, वह पुनः जन्म ग्रहण नहीं करता ॥ ६-७ ॥
यश्च चूतरसैरेवं स्नापयेज्जगदम्बिकाम् । वेदपारायणं कृत्वा रसेनेक्षूद्भवेन वा ॥ ८ ॥ तद्गेहं न त्यजेन्नित्यं रमा चैव सरस्वती । यस्तु द्राक्षारसेनैव वेदपारायणं चरन् ॥ ९ ॥ अभिषिञ्चेन्महेशानीं सकुटुम्बो नरोत्तमः । रसरेणुप्रमाणं च देवीलोके महीयते ॥ १० ॥
इसी प्रकार जो पुरुष वेदका पारायण करके आमके रससे तथा ईखके रससे जगदम्बिकाको स्नान कराता है, लक्ष्मी तथा सरस्वती उसके घरका त्याग कभी नहीं करतीं । जो श्रेष्ठ मानव वेदपारायण करते हुए द्राक्षारससे भगवती महेश्वरीका अभिषेक करता है, वह अपने कुटुम्ब-सहित उस रसमें विद्यमान रेणुओंकी संख्याके बराबर वर्षांतक देवीलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है ॥ ८-१० ॥
कर्पूरागुरुकाश्मीरकस्तूरीपङ्कपङ्किलैः । सलिलैः स्नापयेद्देवीं वेदपारायणं चरन् ॥ ११ ॥ भस्मीभवन्ति पापानि शतजन्मार्जितानि च । यो दुग्धकलशैर्देवीं स्तापयेद्वेदपाठतः ॥ १२ ॥ आकल्पं स वसेन्नित्यं तस्मिन् वै क्षीरसागरे । यस्तु दध्नाभिषिञ्चेत्तां दधिकुल्यापतिर्भवेत् ॥ १३ ॥
वेद-पारायण करते हुए जो पुरुष कपूर, अगुरु, केसर, कस्तूरी और कमलके जलसे भगवतीको स्नान कराता है । उसके सैकड़ों जन्मोंके अर्जित पाप भस्म हो जाते हैं । जो पुरुष वेदमन्त्रोंका पाठ करते हुए दुग्धसे पूर्ण कलशोंसे देवीको स्नान कराता है, वह क्षीरसागरमें कल्पपर्यन्त निरन्तर वास करता है । जो उन भगवतीको दधिसे स्नापित करता है, वह दधिकुल्या नदीका स्वामी होता है ॥ ११-१३ ॥
मधुना च धृतेनैव तथा शर्करयापि च । स्नापयेन्मधुकुल्यादिनदीनां स पतिर्भवेत् ॥ १४ ॥
इसी प्रकार जो मनुष्य मधुसे, घृतसे तथा शर्करासे भगवतीको स्नान कराता है, वह मधुकुल्या आदि नदियोंका अधिपति होता है ॥ १४ ॥
भक्तिमें तत्पर होकर हजार कलशोंसे देवीको स्नान करानेवाला मनुष्य इस लोकमें सुखी होकर परलोकमें भी सुखी होता है ॥ १५ ॥
क्षौमं वस्त्रद्वयं दत्त्वा वायुलोकं स गच्छति । रत्ननिर्मितभूषाणां दाता निधिपतिर्भवेत् ॥ १६ ॥
भगवतीको एक जोड़ा रेशमी वस्त्र प्रदान करके वह पुरुष वायुलोकमें जाता है । इसी प्रकार रत्नोंसे निर्मित आभूषण प्रदान करनेवाला निधिपति हो जाता है ॥ १६ ॥
काश्मीरचन्दनं दत्त्वा कस्तूरीबिन्दुभूषितम् । तथा सीमन्तसिन्दूरं चरणेऽलक्तपत्रकम् ॥ १७ ॥ इन्द्रासने समारूढो भवेद्देवपतिः परः ।
देवीको कस्तूरीकी बिन्दीसे सुशोभित केसरका चन्दन, ललाटपर सिन्दूर तथा उनके चरणोंमें महावर अर्पित करनेसे वह व्यक्ति इन्द्रासनपर विराजमान होकर दूसरे देवेन्द्रके रूपमें सुशोभित होता है ॥ १७.५ ॥
साधुपुरुषोंने पूजाकर्ममें प्रयुक्त होनेवाले अनेक प्रकारके पुष्पोंका वर्णन किया है; यथोपलब्ध उन पुष्पोंको देवीको अर्पण करके मनुष्य स्वयं कैलासधाम प्राप्त कर लेता है ॥ १८.५ ॥
बिल्वपत्राण्यमोघानि यो दद्यात्परशक्तये ॥ १९ ॥ तस्य दुःखं कदाचिच्च क्वचिच्च न भविष्यति ।
जो मनुष्य पराशक्ति जगदम्बाको अमोघ बिल्वपत्र अर्पित करता है, उसे कभी किसी भी परिस्थितिमें दुःख नहीं होता है ॥ १९.५ ॥
बिल्वपत्रत्रये रक्तचन्दनेन तु संल्लिखेत् ॥ २० ॥ मायाबीजत्रयं यत्नात्सुस्फुटं चातिसुन्दरम् । मायाबीजादिकं नाम चतुर्थ्यन्तं समुच्चरेत् ॥ २१ ॥ नमोऽन्तं परया भक्त्या देवीचरणपङ्कजे । समर्पयेन्महादेव्यै कोमलं तच्च पत्रकम् ॥ २२ ॥ य एवं कुरुते भक्त्या मनुत्वं लभते हि सः । यस्तु कोटिदलैरेवं कोमलैरतिनिर्मलैः ॥ २३ ॥ पूजयेद्भुवनेशानीं ब्रह्माण्डाधिपतिर्भवेत् ।
तीन पत्तेवाले बिल्वदलपर लाल चन्दनसे यत्नपूर्वक अत्यन्त स्पष्ट एवं सुन्दर अक्षरोंमें मायाबीज (ह्रीं) तीन बार लिखे । मायाबीज जिसके आदिमें हो, भुवनेश्वरी इस नामके साथ चतुर्थी विभक्तिका उच्चारण करके उसके अन्तमें 'नमः' जोड़कर (ॐ ह्रीं भुवनेश्वर्य नमः) इस मन्त्रसे महादेवी भगवतीके चरणकमलमें परम भक्तिपूर्वक वह कोमल बिल्वपत्र समर्पित करे । जो इस प्रकार भक्तिपूर्वक करता है, वह मनुत्व प्राप्त कर लेता है और जो अत्यन्त कोमल तथा निर्मल एक करोड़ बिल्वपत्रोंसे भुवनेश्वरीकी पूजा करता है, वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका अधिपति होता है ॥ २०-२३.५ ॥
कुन्दपुष्पैर्नवीनैस्तु लुलितैरष्टगन्धतः ॥ २४ ॥ कोटिसङ्ख्यैः पूजयेत्तु प्राजापत्यं लभेद्ध्रुवम् । मल्लिकामालतीपुष्पैरष्टगन्धेन लोलितैः ॥ २५ ॥ कोटिसङ्ख्यैः पूजया तु जायते स चतुर्मुखः ।
अष्टगन्धसे चर्चित एक करोड़ नवीन तथा सुन्दर कुन्द-पुष्पोंसे जो उनकी पूजा करता है, वह निश्चितरूपसे प्रजापतिका पद प्राप्त करता है । इसी प्रकार अष्टगन्धसे चर्चित एक करोड़ मल्लिका तथा मालतीके पुष्पोंसे भगवतीकी पूजाके द्वारा वह चतुर्मुख ब्रह्मा हो जाता है ॥ २४-२५.५ ॥
हे मुने ! इसी तरह दस करोड़ उन्हीं पुष्पोंसे भगवतीका अर्चन करके मनुष्य विष्णुत्व प्राप्त कर लेता है, जो देवताओंके लिये भी दुर्लभ है । अपना विष्णुपद प्राप्त करनेके लिये भगवान् विष्णुने भी पूर्वकालमें यह व्रत किया था । सौ करोड़ पुष्पोंसे देवीकी पूजा करनेवाला मनुष्य सूत्रात्मत्व (सूक्ष्म ब्रह्मपद) अवश्य ही प्राप्त कर लेता है । भगवान् विष्णुने भी पूर्व कालमें प्रयत्नपूर्वक भक्तिके साथ सम्यक् प्रकारसे इस व्रतको अनुष्ठित किया था, उसी व्रतके प्रभावसे वे हिरण्यगर्भ हुए । २६-२८.५ ॥
जपाकुसुमपुष्पस्य बन्धूककुसुमस्य च ॥ २९ ॥ दाडिमीकुसुमस्यापि विधिरेष उदीरितः । एवमन्यानि पुष्पाणि श्रीदेव्यै विधिनार्पयेत् ॥ ३० ॥ तस्य पुण्यफलस्यान्तं न जानातीश्वरोऽपि सः ।
जपाकुसुम, बन्धूक और दाडिमका पुष्प भी देवीको अर्पित किया जाता है-ऐसी विधि कही गयी है । इसी प्रकार अन्य पुष्प भी श्रीदेवीको विधिपूर्वक अर्पित करने चाहिये । उसके पुण्यफलकी सीमा वे ईश्वर भी नहीं जानते ॥ २९-३०.५ ॥
तत्तदृतूद्भवैः पुष्पैर्नामसाहस्रसंख्यया ॥ ३१ ॥ समर्पयेन्महादेव्यै प्रतिवर्षमतन्द्रितः । य एवं कुरुते भक्त्या महापातकसंयुतः ॥ ३२ ॥ उपपातकयुक्तोऽपि मुच्यते सर्वपातकैः ।
जिस-जिस ऋतुमें जो-जो पुष्प उपलब्ध हो सकें, सहस्रनामकी संख्याके अनुसार उन पुष्पोंको प्रमादरहित होकर प्रत्येक वर्ष भगवतीको समर्पित करना चाहिये । जो भक्तिपूर्वक ऐसा करता है, वह महापातकों तथा उपपातकोंसे युक्त होनेपर भी सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ ३१-३२.५ ॥
हे मुने ! ऐसा श्रेष्ठ साधक देहावसानके पश्चात् श्रेष्ठ देवताओंके लिये भी दुर्लभ श्रीदेवीके चरणकमलको प्राप्त कर लेता है । इसमें कोई सन्देह नहीं है ॥ ३३.५ ॥
कृष्ण अगुरु, कपूर, चन्दन, सिल्हक (लोहबान), घृत और गुग्गुलसे संयुक्त धूप महादेवीको समर्पित करना चाहिये, जिससे मन्दिर धूपित हो जाय; इससे प्रसन्न होकर देवेश्वरी तीनों लोक प्रदान कर देती हैं ॥ ३४-३५.५ ॥
देवीको कर्पूर-खण्डोंसे युक्त दीपक निरन्तर अर्पित करना चाहिये । ऐसा करनेवाला उपासक सूर्यलोक प्राप्त कर लेता है । इसमें संशय नहीं करना चाहिये । समाहितचित्त होकर एक सौ अथवा हजार दीपक देवीको प्रदान करने चाहिये ॥ ३६-३७ ॥
देवीके सम्मुख पर्वतकी आकृतिके रूपमें नैवेद्यराशि स्थापित करे; जिसमें लेहा, चोष्य, पेय तथा पड़ोंवाले पदार्थ हों । अनेक प्रकारके दिव्य, स्वादिष्ट तथा रसमय फल एवं अन्न स्वर्णपात्रमें रखकर भगवतीको निरन्तर अर्पित करे ॥ ३८-३९ ॥
तृप्तायां श्रीमहादेव्यां भवेत्तृप्तं जगत्त्रयम् । यतस्तदात्मकं सर्वं रज्जौ सर्पो यथा तथा ॥ ४० ॥
श्रीमहादेवीके तृप्त होनेपर तीनों लोक तृप्त हो जाते हैं । क्योंकि सम्पूर्ण जगत् उन्हींका आत्मरूप है; जिस प्रकार रज्जुमें सर्पका आभास मिथ्या है, उसी प्रकार जगत्का आभास भी मिथ्या है ॥ ४० ॥
तत्पश्चात् कर्पूरके छोटे-छोटे टुकड़ों, लवंग तथा इलायचीसे युक्त और मुखको सुगन्धि प्रदान करनेवाला ताम्बूल अत्यन्त भक्तिपूर्वक देवीको अर्पित करे, जिससे देवी प्रसन्न हो जायें । इसके बाद मृदंग, वीणा, मुरज, ढक्का तथा दुन्दुभि आदिकी ध्वनियोंसे; अत्यन्त मनोहर गीतोंसे; वेदपारायणोंसे; स्तोत्रोंसे तथा पुराण आदिके पाठसे जगतको धारण करनेवाली भगवतीको सन्तुष्ट करना चाहिये ॥ ४२-४४ ॥
छत्रं च चामरे द्वे च दद्याद्देव्यै समाहितः । राजोपचारान् श्रीदेव्यै नित्यमेव समर्पयेत् ॥ ४५ ॥
तदनन्तर समाहितचित्त होकर देवीको छत्र तथा दो चँवर अर्पण करे । उन श्रीदेवीको नित्य राजोचित उपचार समर्पित करना चाहिये ॥ ४५ ॥
आकाशमें घूमते हुए वह पक्षी मन्दिरकी एक प्रदक्षिणा करके मुक्तिदायिनी काशीको छोड़कर किसी अन्य देशमें चला गया ॥ ५२ ॥
कालान्तरे ममारासौ गतः स्वर्गपुरीं प्रति । बुभुजे विषयान्सर्वान् दिव्यरूपधरो युवा ॥ ५३ ॥
कालान्तरमें वह मृत्युको प्राप्त हो गया और स्वर्ग चला गया । वहाँ एक दिव्य रूपधारी युवक होकर वह समस्त सुखोंका भोग करने लगा ॥ ५३ ॥
कल्पद्वयं तथा भुक्त्वा पुनः प्राप भुवं प्रति । क्षत्रियाणां कुले जन्म प्राप सर्वोत्तमोत्तमम् ॥ ५४ ॥ बृहद्रथेति नाम्नाभूत्प्रसिद्धः क्षितिमण्डले । महायज्वा धार्मिकश्च सत्यवादी जितेन्द्रियः ॥ ५५ ॥ त्रिकालज्ञः सार्वभौमो यमी परपुरञ्जयः । पूर्वजन्मस्मृतिस्तस्य वर्तते दुर्लभा भुवि ॥ ५६ ॥
इस प्रकार दो कल्पतक वहाँ सुखोपभोग करनेके बाद वह पुनः पृथ्वीलोकमें आया । क्षत्रियोंके कुलमें उसने सर्वोत्तम जन्म प्राप्त किया और पृथ्वीमण्डलपर बृहद्रथ नामसे प्रसिद्ध हुआ । वह महान् यज्ञनिष्ठ, धर्मपरायण, सत्यवादी, इन्द्रियजयी, त्रिकालज्ञ, सार्वभौम, संयमी और शत्रु-राज्योंको जीतनेवाला राजा हुआ । उसे पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण था, जो पृथ्वीपर दूसरोंके लिये दुर्लभ है ॥ ५४-५६ ॥
तत्पश्चात् सभी मुनियोंने पूछा-हे राजन् ! हमलोगोंको इस बातका महान् सन्देह है कि किस पुण्यके प्रभावसे आपको पूर्वजन्मकी स्मृति हो जाती है और किस पुण्यके प्रभावसे आपको तीनों कालों (भूत, भविष्य, वर्तमान)-का ज्ञान है ? आपके उस ज्ञानके विषयमें जाननेके लिये हमलोग आपके पास आये हुए हैं । आप निष्कपट भावसे यथार्थरूपमें उसे हमें बतायें ॥ ५८-५९.५ ॥
श्रीनारायण उवाच इति तेषां वचः श्रुत्वा राजा परमधार्मिकः ॥ ६० ॥ उवाच सकलं ब्रह्मन् त्रिकालज्ञानकारणम् ।
श्रीनारायण बोले-हे ब्रह्मन् ! उनकी यह बात सुनकर परम धार्मिक राजा अपने त्रिकालज्ञानका सारा रहस्य बताने लगे ॥ ६०.५ ॥
हे मुनिगणो ! आपलोग मेरे इस ज्ञानका कारण सुनिये । मैं पूर्वजन्ममें चक्रवाक पक्षी था । नीच योनिमें जन्म लेनेपर भी मैंने अज्ञानपूर्वक भगवती अन्नपूर्णाकी प्रदक्षिणा कर ली थी । हे सुव्रतो ! उसी पुण्यप्रभावसे मैंने दो कल्पपर्यन्त स्वर्गमें निवास किया और उसके बाद इस जन्ममें भी मुझमें त्रिकालज्ञता विद्यमान है । ६१-६३ ॥
जगदम्बाके चरणोंके स्मरणका कितना फल होता है-इसे कौन जान सकता है ? उनकी महिमाका स्मरण करते ही मेरी आँखोंसे निरन्तर अश्रु गिरने लगते हैं । ६४ ॥
धिगस्तु जन्म तेषां वै कृतघ्नानां तु पापिनाम् । ये सर्वमातरं देवीं स्वोपास्यां न भजन्ति हि ॥ ६५ ॥
किंतु उन कृतघ्न तथा पापियोंके जन्मको धिक्कार है, जो सभी प्राणियोंकी जननी तथा अपनी उपास्य भगवतीकी आराधना नहीं करते ॥ ६५ ॥
न शिवोपासना नित्या न विष्णूपासना तथा । नित्योपास्तिः परा देव्या नित्या श्रुत्यैव चोदिता ॥ ६६ ॥
न तो शिवकी उपासना नित्य है और न तो विष्णुकी उपासना नित्य है । एकमात्र परा भगवतीकी उपासना ही नित्य है; क्योंकि श्रुतिद्वारा वे नित्या कही गयी हैं ॥ ६६ ॥
श्रीनारायण बोले-उन धार्मिक राजर्षिका यह वचन सुनकर प्रसन्न हदयवाले वे सभी मुनि अपनेअपने स्थानपर चले गये ॥ ६९ ॥
एवंप्रभावा सा देवी तत्पूजायाः फलं कियत् । अस्तीति केन प्रष्टव्यं वक्तव्यं वा न केनचित् ॥ ७० ॥
वे भगवती जगदम्बा इस प्रकारके प्रभाववाली हैं तथा उनकी पूजाका कितना फल होता है-इस विषयमें न कोई पूछनेमें समर्थ है और न कोई बतानेमें समर्थ है ॥ ७० ॥
येषां तु जन्मसाफल्यं तेषां श्रद्धा तु जायते । येषां तु जन्मसाङ्कर्यं तेषां श्रद्धा न जायते ॥ ७१ ॥
जिनका जन्म सफल होनेको होता है, उन्हीं लोगोंके मनमें देवीके प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है । जो लोग वर्णसंकर जन्मवाले हैं, उनके मनमें देवीके प्रति श्रद्धा नहीं उत्पन्न होती ॥ ७१ ॥