श्रीनारायण बोले-हे ब्रह्मन् ! अब आप मध्याह्नकालीन पुण्यदायिनी सन्ध्याके विषयमें सुनिये, जिसका अनुष्ठान करनेसे अद्भुत तथा अति श्रेष्ठ फल प्राप्त होता है ॥ १ ॥
सावित्रीं युवतीं श्वेतवर्णां चैव त्रिलोचनाम् । वरदां चाक्षमालाढ्यां त्रिशूलाभयहस्तकाम् ॥ २ ॥ वृषारूढां यजुर्वेदसंहितां रुद्रदेवताम् । तमोगुणयुतां चैव भुवर्लोकव्यवस्थिताम् ॥ ३ ॥ आदित्यमार्गसंचारकर्त्रीं मायां नमाम्यहम् । आदिदेवीमथ ध्यात्वाऽऽचमनादि च पूर्ववत् ॥ ४ ॥
युवावस्थावाली, श्वेत वर्णवाली, तीन नेत्रोंवाली, हाथोंमें वरदमुद्रा-अक्षमाला-त्रिशूल तथा अभयमुद्रा धारण करनेवाली, वृषभपर विराजमान, यजुर्वेदसंहितास्वरूपिणी, रुद्रके द्वारा उपास्य, तमोगुणसे सम्पन्न, भूवर्लोकमें स्थित रहनेवाली तथा सूर्यको उनके मार्गपर संचरण करानेवाली, महामाया गायत्रीको मैं प्रणाम करता है-इस प्रकार आदिदेवीका ध्यान करके आचमन आदि सभी क्रियाएँ पूर्वकी भांति करनी चाहिये ॥ २-४ ॥
अथ चार्घ्यप्रकरणं पुष्पाणि चिनुयात्ततः । तदलाभे बिल्वपत्रं तोयेन मिश्रयेत्ततः ॥ ५ ॥ ऊर्ध्वं च सूर्याभिमुखं क्षिप्त्वार्घ्यं प्रतिपादयेत् । प्रातःसन्ध्यादिवत्सर्वमुपसंहारपूर्वकम् ॥ ६ ॥
अब अर्घ्यका प्रकरण बताता है । इसके लिये पुष्प चुनना चाहिये । पुष्पके अभावमें बिल्वपत्रको जलमें मिला लेना चाहिये और सूर्यकी ओर मुख करके ऊपरकी ओर जल छोड़कर अर्घ्य प्रदान करना चाहिये । आदिसे लेकर अन्ततक सभी नियम प्रात:कालीन सन्ध्याके ही समान हैं ॥ ५-६ ॥
कुछ लोग मध्याह्नसन्ध्यामें गायत्रीमन्त्र 'तत्सवितुः०' पढ़कर अर्घ्य प्रदान करनेकी सम्मति देते हैं, किंतु वह कर्म परम्पराविरुद्ध है और इससे कार्यकी हानि होती है ॥ ७ ॥
कारणं सन्ध्ययोश्चात्र मन्देहा नाम राक्षसाः । भक्षितुं सूर्यमिच्छन्ति कारणं श्रुतिचोदितम् ॥ ८ ॥ अतस्तु कारणाद्विप्रः सन्ध्यां कुर्यात्प्रयत्नतः । सन्ध्ययोरुभयोर्नित्यं गायत्र्या प्रणवेन च ॥ ९ ॥ अम्भस्तु प्रक्षिपेत्तेन नान्यथा श्रुतिघातकः । आकृष्णेनेति मन्त्रेण पुष्पैर्वाम्बुविमिश्रितम् ॥ १० ॥ अलाभे बिल्वदूर्वादिपत्रेणोक्तेन पूर्वकम् । अर्ध्यं दद्यात्प्रयत्नेन साङ्गं सन्ध्याफलं लभेत् ॥ ११ ॥
[प्रातः तथा सायं] दोनों सन्ध्याओंको करनेका वेदोक्त कारण यह है कि मन्देहा नामवाले राक्षस सूर्यका भक्षण करना चाहते हैं । अतएव उन राक्षसोंके निवारणके निमित्त ब्राह्मणको प्रयत्नपूर्वक सन्ध्या करनी चाहिये । प्रातः तथा सायंकालकी दोनों सन्ध्याओंमें नित्य प्रणवसहित गायत्रीमन्त्रसे [अय॑के निमित्त] जलका प्रक्षेप करना चाहिये, अन्यथा वह श्रुतिघातक होता है । [मध्याह्नकालकी सन्ध्यामें] जलमिश्रित पुष्पोंसे और यदि पुष्प न मिल सके तो बिल्व और दूर्वा आदिके पत्रसे पूर्वमें बतायी गयी विधिके अनुसार प्रयत्नपूर्वक 'आकृष्णेन.' इस मन्त्रसे सूर्यको अर्घ्य प्रदान करना चाहिये । ऐसा करनेवाला सांगोपांग सन्ध्याका फल प्राप्त करता है ॥ ८-११ ॥
अत्रैव तर्पणं वक्ष्ये शृणु देवर्षिसत्तम । भुवः पुनः पूरुषं तु तर्पयामि नमो नमः ॥ १२ ॥ यजुर्वेदं तर्पयामि मण्डलं तर्पयामि च । हिरण्यगर्भं च तथान्तरात्मानं तथैव च ॥ १३ ॥ सावित्रीं च ततो देवमातरं साङ्कृतिं तथा । सन्ध्यां तथैव युवतीं रुद्राणीं नीमृजां तथा ॥ १४ ॥ सर्वार्थानां सिद्धिकरीं सर्वमन्त्रार्थसिद्धिदाम् । भूर्भुवः स्वः पूरुषं तु इति मध्याह्नतर्पणम् ॥ १५ ॥
हे देवर्षिसत्तम ! अब इसी प्रकरणमें तर्पणकी विधि बता रहा हूँ, उसे सुनिये । 'भुवः पूरुष तर्पयामि नमो नमः', 'यजुर्वेदं तर्पयामि नमो नमः', 'मण्डलं तर्पयामि नमो नमः'-इसी प्रकार हिरण्यगर्भ, अन्तरात्मा, सावित्री, देवमाता, सांकृति, सन्ध्या, युवती, रुद्राणी, नीमजा, सर्वार्थसिद्धिकरी, सर्वार्थमन्त्रसिद्धिदा और भूर्भुवः स्वः पूरुष-इन नामोंके साथ 'तर्पयामि नमो नमः' जोड़कर तर्पण करना चाहिये । यह मध्याह्न-तर्पण है ॥ १२-१५ ॥
उदुत्यमिति सूक्तेन सूर्योपस्थानमेव च । चित्रं देवानामिति च सूर्योपस्थानमाचरेत् ॥ १६ ॥ ततो जपं प्रकुर्वीत मन्त्रसाधनतत्परः । जपस्यापि प्रकारं तु वक्ष्यामि शृणु नारद ॥ १७ ॥
तदनन्तर 'उदुत्यम्' तथा 'चित्रं देवानाम्'इन मन्त्रोंसे सूर्योपस्थान करना चाहिये । तत्पश्चात् मन्त्र-साधनमें तत्पर रहनेवाले साधकको जप करना चाहिये । हे नारद ! अब मैं जपका भी प्रकार बताऊँगा; सुनिये ॥ १६-१७ ॥
कृत्वोत्तानौ करौ प्रातः सायं चाधः करौ तथा । मध्याह्ने हृदयस्थौ तु कृत्वा जपमुदीरयेत् ॥ १८ ॥
प्रात:काल दोनों हाथोंको उत्तान करके, सायंकालमें हाथोंको नीचेकी ओर करके तथा मध्याह्न कालमें उन्हें हृदयके पास करके जप करना चाहिये ॥ १८ ॥
पर्वद्वयमनामिक्याः कनिष्ठादिक्रमेण तु । तर्जनीमूलपर्यन्तं करमाला प्रकीर्तिता ॥ १९ ॥
अनामिका अँगुलीके दूसरे पर्व (मध्य पोर)-से आरम्भ करके कनिष्ठिका आदिके क्रमसे तर्जनी अँगुलीके मूलपर्यन्त करमाला कही गयी है ॥ १९ ॥
गोघ्नः पितृघ्नो मातृघ्नो भ्रूणहा गुरुतल्पगः । ब्रह्मस्वक्षेत्रहारी च यश्च विप्रः सुरां पिबेत् ॥ २० ॥ स गायत्र्या सहस्रेण पूतो भवति मानवः । मानसं वाचिकं पापं विषयेन्द्रियसङ्गजम् ॥ २१ ॥ तत्किल्बिषं नाशयति त्रीणि जन्मानि मानवः । गायत्रीं यो न जानाति वृथा तस्य परिश्रमः ॥ २२ ॥
जो गोहत्यारा, माता-पिताकी हत्या करनेवाला, भ्रूणघाती, गुरुपत्नीके साथ गमन करनेवाला, ब्राह्मणका धन तथा भूमि हरनेवाला है और जो विप्र सुरापान करता है, वह गायत्रीके एक हजार जपसे पवित्र हो जाता है । गायत्री-जप तीन जन्मोंके मानसिक तथा वाचिक पाप और विषयेन्द्रियोंके संयोगसे उत्पन्न होनेवाले पापको विनष्ट कर देता है । जो मनुष्य गायत्रीमन्त्र नहीं जानता, उसका सम्पूर्ण परिश्रम व्यर्थ है ॥ २०-२२ ॥
मनुष्य एक ओर चारों वेदोंको पढ़े तथा दूसरी ओर गायत्रीजप करे. इनमें वेदोंकी आवृत्तिसे गायत्रीजप उत्तम है । यह मैंने आपको मध्याह्नसन्ध्याकी विधि बतायी और अब ब्रह्मयज्ञकी विधिका क्रम बताऊँगा ॥ २३-२४ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां एकादशस्कन्धे मध्याह्नसंध्यावर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायामेकादशस्कन्धे मध्याह्नसंध्यावर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥