श्रीनारायण बोले-हे ब्रह्मन् ! इसके बाद अब आप देवीके पापनाशक, पुण्यप्रद और यथेष्ट फल देनेवाले पुरश्चरणके विषयमें सुनिये ॥ १ ॥
पर्वताग्रे नदीतीरे बिल्वमूले जलाशये । गोष्ठे देवालयेऽश्वत्थे उद्याने तुलसीवने ॥ २ ॥ पुण्यक्षेत्रे गुरोः पार्श्वे चित्तैकाग्र्यस्थलेऽपि च । पुरश्चरणकृन्मन्त्री सिध्यत्येव न संशयः ॥ ३ ॥
पर्वतके शिखरपर, नदीके तटपर, बिल्ववृक्षके नीचे, जलाशयके किनारे, गोशालामें, देवालयमें, पीपलके नीचे, उद्यानमें, तुलसीवनमें, पुण्यक्षेत्रमें अथवा गुरुके पास अथवा जहाँ भी चित्तकी एकाग्रता बनी रहे-उस स्थानपर मन्त्रका पुरश्चरण करनेवाला व्यक्ति सिद्धि प्राप्त कर लेता है । इसमें सन्देह नहीं है ॥ २-३ ॥
क्षत्रियको बाहुबलसे, वैश्यको धनसे, शूद्रको द्विजातियोंकी सेवासे और श्रेष्ठ ब्राह्मणको जप तथा होमसे अपनी आपदाओंका निवारण करना चाहिये ॥ ११ ॥
अतएव तु विप्रेन्द्र तपः कुर्यात्प्रयत्नतः । शरीरशोषणं प्राहुस्तापसास्तप उत्तमम् ॥ १२ शोधयेद्विधिमार्गेण कृच्छ्रचान्द्रायणादिभिः । अथान्नशुद्धिकरणं वक्ष्यामि शृणु नारद ॥ १३
अतएव हे विप्रेन्द्र ! प्रयत्नपूर्वक तपस्या करनी चाहिये । तपस्वियोंने शरीर सुखानेको ही उत्तम तप बतलाया है । विहित मार्गसे कृच्छू तथा चान्द्रायण आदि व्रतोंके द्वारा शरीरका शोधन करना चाहिये । हे नारद ! अब मैं अन्नशुद्धिका प्रकरण बताऊँगा; उसे सुनिये ॥ १२-१३ ॥
अयाचितोञ्छशुक्लाख्यभिक्षावृत्तिचतुष्टयम् । तान्त्रिकैर्वैदिकैश्चैवं प्रोक्तान्नस्य विशुद्धता ॥ १४ भिक्षान्नं शुद्धमानीय कृत्वा भागचतुष्टयम् । एकं भागं द्विजेभ्यस्तु गोग्रासस्तु द्वितीयकः ॥ १५
अयाचित, उच्छ, शुक्ल तथा भिक्षा-ये आजीविकाके चार मुख्य साधन हैं । तान्त्रिकों और वैदिकोंके द्वारा इन वृत्तियोंसे प्राप्त अन्नकी विशुद्धता कही गयी है ॥ १४ ॥
भिक्षासे प्राप्त शुद्ध अन्न लाकर उसके चार भाग करके एक भाग द्विजोंके लिये, दूसरा भाग गोग्रासके रूपमें गौके लिये, तीसरा भाग अतिथियोंके लिये तथा चौथा भाग भार्यासहित अपने लिये व्यवस्थित करे । जिस आश्रममें ग्रासकी जो विधि निश्चित है, उसी क्रमसे उसका पालन करना चाहिये ॥ १५-१६ ॥
आरम्भमें उस अन्नपर शक्ति तथा क्रमके अनुसार गोमूत्रका छींटा देकर वानप्रस्थी तथा गृहस्थाश्रमीको ग्रासकी संख्या निर्धारित करनी चाहिये ॥ १७ ॥
कुक्कुटाण्डप्रमाणं तु ग्रासमानं विधीयते । अष्टौ ग्रासा गृहस्थस्य वनस्थस्य तदर्धकम् ॥ १८ ब्रह्मचारी यथेष्टं च गोमूत्रं विधिपूर्वकम् । प्रोक्षणं नववारं च षड्वारं च त्रिवारकम् ॥ १९ निश्छिद्रं च करं कृत्वा सावित्रीं च तदित्यृचम् । मन्त्रमुच्चार्य मनसा प्रोक्षणे विधिरुच्यते ॥ २०
ग्रासका परिमाण मुर्गीके अण्डेके बराबर होना चाहिये । गृहस्थको आठ ग्रास, वानप्रस्थीको उसका आधा (चार ग्रास) तथा ब्रह्मचारीको यथेष्ट ग्रास लेनेका विधान है । सर्वप्रथम गोमूत्रकी विधि सम्पन्न करके नौ, छ: अथवा तीन बार अन्नका प्रोक्षण करना चाहिये । अँगुलियोंको परस्पर छिद्ररहित करके 'तत्सवितुः०' इस गायत्री-ऋचाके साथ प्रोक्षण होना चाहिये । मन्त्रका मन-ही-मन उच्चारण करते हुए प्रोक्षण करनेकी विधि कही गयी है ॥ १८-२० ॥
चौरो वा यदि चाण्डालो वैश्यः क्षत्रस्तथैव च । अन्नं दद्यात्तु यः कश्चिदधमो विधिरुच्यते ॥ २१
चोर, चाण्डाल, वैश्य तथा क्षत्रिय-इनमेंसे कोई भी यदि अन्न प्रदान करता है तो अन्न-प्राप्तिकी इस विधिको अधम कहा गया है । २१ ॥
शूद्रान्नं शूद्रसम्पर्कं शूद्रेण च सहाशनम् । ते यान्ति नरकं घोरं यावच्चन्द्रदिवाकरौ ॥ २२
जो विप्र शूद्रका अन्न खाते हैं, शूद्रके साथ सम्पर्क स्थापित करते हैं तथा शूद्रके साथ भोजन करते हैं; वे तबतक घोर नरकमें वास करते हैं जबतक सूर्य तथा चन्द्रमाका अस्तित्व रहता है ॥ २२ ॥
गायत्रीच्छन्दो मन्त्रस्य यथासंख्याक्षराणि च । तावल्लक्षाणि कर्तव्यं पुरश्चरणकं तथा ॥ २३
गायत्रीछन्दवाले मन्त्रमें अक्षरोंकी जितनी संख्या है, उतने लाख अर्थात् चौबीस लाख जपसे पुरश्चरण सम्पन्न करना चाहिये ॥ २३ ॥
द्वात्रिंशल्लक्षमानं तु विश्वामित्रमतं तथा । जीवहीनो यथा देहः सर्वकर्मसु न क्षमः ॥ २४
विश्वामित्रका मत है कि बत्तीस लाख जप होना चाहिये । जिस प्रकार प्राणरहित शरीर समस्त कार्योंको करनेमें समर्थ नहीं होता, उसी प्रकार पुरश्चरणसे हीन मन्त्र भी फल देने में असमर्थ कहा गया है ॥ २४ ॥
पुरश्चरणहीनस्तु तथा मन्त्रः प्रकीर्तितः । ज्येष्ठाषाढौ भाद्रपदं पौषं तु मलमासकम् ॥ २५ अङ्गारं शनिवारं च व्यतीपातं च वैधृतिम् । अष्टमीं नवमीं षष्ठीं चतुर्थीं च त्रयोदशीम् ॥ २६ चतुर्दशीममावास्यां प्रदोषं च तथा निशाम् । यमाग्निरुद्रसर्पेन्द्रवसुश्रवणजन्मभम् ॥ २७ ॥ मेषकर्कतुलाकुम्भान्मकरं चैव वर्जयेत् । सर्वाण्येतानि वर्ज्यानि पुरश्चरणकर्मणि ॥ २८
चन्द्रतारानुकूले च शुक्लपक्षे विशेषतः । पुरश्चरणकं कुर्यान्मन्त्रसिद्धिः प्रजायते ॥ २९
चन्द्रमा तथा नक्षत्रोंके अनुकूल रहनेपर और मुख्यरूपसे शुक्ल पक्षमें पुरश्चरण आरम्भ करना चाहिये । ऐसा करनेसे मन्त्रसिद्धि होती है ॥ २९ ॥
स्वस्तिवाचनकं कुर्यान्नान्दीश्राद्धं यथाविधि । विप्रान्सन्तर्प्य यत्नेन भोजनाच्छादनादिभिः ॥ ३० आरभेत्तु ततः पश्चादनुज्ञानपुरःसरम् । प्रत्यङ्मुखः शिवस्थाने द्विजश्चान्यतमे जपेत् ॥ ३१
आरम्भमें विधिपूर्वक स्वस्तिवाचन तथा नान्दीश्राद्ध सम्पन्न करना चाहिये । भोजन तथा वस्त्र आदिसे ब्राह्मणोंको सन्तुष्ट करके पुनः उनसे आज्ञा लेकर पुरश्चरण आरम्भ करना चाहिये । द्विजको चाहिये कि शिवमन्दिर तथा अन्य किसी भी शिवस्थानपर पूर्वाभिमुख बैठकर जप करे ॥ ३०-३१ ॥
काशीपुरी च केदारो महाकालोऽथ नासिकम् । त्र्यम्बकं च महाक्षेत्रं पञ्च दीपा इमे भुवि ॥ ३२ सर्वत्रैव हि दीपस्तु कूर्मासनमिति स्मृतम् । प्रारम्भदिनमारभ्य समाप्तिदिवसावधि ॥ ३३ न न्यूनं नातिरिक्तं च जपं कुर्याद्दिने दिने । नैरन्तर्येण कुर्वन्ति पुरश्चर्यां मुनीश्वराः ॥ ३४
काशीपुरी, केदार, महाकाल, नासिक और महाक्षेत्र त्र्यम्बक-ये पाँच स्थान पृथ्वीलोकमें दीप (सिद्धिस्थान) हैं । इन स्थानोंके अतिरिक्त सभी जगह कूर्मासनको दीप (सिद्धिस्थान) कहा गया है । प्रारम्भके दिनसे लेकर समाप्तिके दिनतक किसी भी दिन न तो अधिक और न तो कम जप करना चाहिये; श्रेष्ठ मुनिगण निरन्तर पुरश्चरण करते रहते हैं ॥ ३२-३४ ॥
प्रात:कालसे आरम्भ करके मध्याहृतक विधिवत् जप करना चाहिये । जपकी अवधि मनपर नियन्त्रण रखे, पवित्रतासे रहे, इष्टदेवताका ध्यान करता रहे तथा मन्त्रके अर्थका चिन्तन करता रहे ॥ ३५ ॥
गायत्रीच्छन्दो मन्त्रस्य यथासंख्याक्षराणि च । तावल्लक्षाणि कर्तव्यं पुरश्चरणकं तथा ॥ ३६
गायत्रीछन्दवाले मन्त्रमें अक्षरोंकी जितनी संख्या है, उतने लाख अर्थात् चौबीस लाख जपसे पुरश्चरण सम्पन्न करना चाहिये ॥ ३६ ॥
घृत तथा मधुमिश्रित खीर, तिल, बिल्वपत्र, पुष्प तथा यव आदि द्रव्योंसे जपसंख्याके दशांशसे आहुति देनी चाहिये । दसवें अंशसे हवन करना चाहिये, तभी मन्त्र सिद्ध होता है । धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष प्रदान करनेवाली गायत्रीकी सम्यक् उपासना करनी चाहिये ॥ ३७-३८ ॥
नित्य, नैमित्तिक तथा काम्य-इन तीनों कर्मोमें गायत्री-उपासनामें तत्पर रहना चाहिये । गायत्रीसे बढ़कर इस लोक तथा परलोकमें दूसरा कुछ भी नहीं है ॥ ३९ ॥
मध्याह्नमितभुङ् मौनी त्रिःस्नानार्चनतत्परः । जले लक्षत्रयं धीमाननन्यमानसक्रियः ॥ ४०
[पुरश्चरणकी दूसरी विधि यह भी है] मध्याह्नकालमें अल्प भोजन करे, मौन रहे, तीनों समय स्नान करे और सन्ध्योपासन करे । बुद्धिमान् पुरुषको अन्य वृत्तियोंसे मनको हटाकर जलमें तीन लाख मन्त्रोंका जप करना चाहिये ॥ ४० ॥
कर्मणा यो जपेत्पश्चात्कर्मभिः स्वेच्छयापि वा । यावत्कार्यं न सिध्येत्तु तावत्कुर्याज्जपादिकम् ॥ ४१
इस प्रकार पहले पुरश्चरणकर्म करनेके पश्चात् अभिलषित काम्य कर्मोके निमित्त जप करना चाहिये । जबतक कार्यमें सिद्धिकी प्राप्ति न हो जाय, तबतक जप आदि करते रहना चाहिये ॥ ४१ ॥
सामान्यकाम्यकर्मादौ यथावद्विधिरुच्यते । आदित्यस्योदये स्नात्वा सहस्रं प्रत्यहं जपेत् ॥ ४२ आयुरारोग्यमैश्वर्यं धनं च लभते ध्रुवम् । षण्मासं वा त्रिमासं वा वर्षान्ते सिद्धिमाप्नुयात् ॥ ४३
सामान्य काम्य कर्मोंमें यथावत् विधि कही गयी है । सूर्योदयकालमें स्नान करके प्रतिदिन एक हजार गायत्रीका जप करना चाहिये । ऐसा करनेवाला साधक आयु, आरोग्य, ऐश्वर्य तथा धन अवश्य प्राप्त करता है और तीन मास, छ: मास अथवा एक वर्षके अन्तमें सिद्धि प्राप्त कर लेता है ॥ ४२-४३ ॥
एक लाख घृताक्त कमलपुष्पोंका अग्निमें होम करनेसे मनुष्य सम्पूर्ण वांछित फलको प्राप्त कर लेता है तथा उसे मोक्ष भी सुलभ हो जाता है । इसमें सन्देह नहीं है ॥ ४४ ॥
मन्त्रसिद्धिं विना कर्तुर्जपहोमादिकाः क्रियाः । काम्यं वा यदि वा मोक्षः सर्वं तनिष्फलं भवेत् ॥ ४५
मन्त्रसिद्धि किये बिना कर्ताकी जप-होम आदि क्रियाएँ, काम्यकर्म अथवा मोक्ष आदि जो भी हो; वह सब निष्फल हो जाता है ॥ ४५ ॥
पञ्चविंशतिलक्षेण दध्ना क्षीरेण वा हुतात् । स्वदेहे सिध्यते जन्तुर्महर्षीणां मतं तथा ॥ ४६
- पचीस लाख गायत्री-जपसे तथा दही अथवा दूधसे हवन करनेसे मनुष्य सिद्धशरीर हो जाता हैऐसा महर्षियोंका मत है ॥ ४६ ॥
मनुष्य अष्टांगयोगके द्वारा जो फल प्राप्त करता है, वही फल इस जपसे सिद्ध हो जाता है । इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ ४७ ॥
शक्तो वापि त्वशक्तो वा आहारं नियतं चरेत् । षण्मासात्तस्य सिद्धिः स्याद्गुरुभक्तिरतः सदा ॥ ४८
साधक सशक्त हो अथवा अशक्त, किंतु उसे नियत आहार ग्रहण करना चाहिये । गुरुके प्रति सदा भक्तिपरायण रहते हुए जो जप करता रहता है, उसे छः महीनेमें सिद्धि मिल जाती है ॥ ४८ ॥
गायत्री-जप करनेवालेको एक दिन पंचगव्यके आहारपर, एक दिन वायुके आहारपर तथा एक दिन ब्राह्मणसे प्राप्त अन्नके आहारपर रहना चाहिये ॥ ४९ ॥
स्नात्वा गङ्गादितीर्थेषु शतमन्तर्जले जपेत् । शतेनापस्ततः पीत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ५० चान्द्रायणादिकृच्छ्रस्य फलं प्राप्नोति निश्चितम् । राजा वा यदि वा विप्रस्तपः कुर्यात्स्वके गृहे ॥ ५१ गृहस्थो ब्रह्मचारी वा वानप्रस्थोऽथवापि च । अधिकारपरत्वेन फलं यज्ञादिपूर्वकम् ॥ ५२
गंगा आदि पवित्र नदियों में स्नान करके जलके भीतर ही एक सौ जप करना चाहिये । इसके बाद एक सौ मन्त्रोंका उच्चारण करके जलका पान कर लेनेसे मनुष्य समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है । ऐसा करनेवालेको चान्द्रायण और कृच्छ्र आदि व्रतोंका फल निश्चितरूपसे प्राप्त हो जाता है । यदि साधक राजा अथवा ब्राह्मण हो तो उसे अपने घरपर ही तपरूपी पुरश्चरण करना चाहिये । गृहस्थ, ब्रह्मचारी अथवा वानप्रस्थीको भी अपने-अपने अधिकारके अनुसार जपयज्ञ करनेके पश्चात् [पुरश्चरण सम्पन्न हो जानेपर] फल प्राप्त हो जाता है ॥ ५०-५२ ॥
मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाले पुरुष औत और स्मार्त आदि कर्म करते हैं । साधकको फल, मूल तथा जल आदिके आहारपर रहते हुए विद्वानोंके द्वारा सम्यक् शिक्षा प्राप्त करके सदाचारी तथा अग्निहोत्री होकर प्रयत्नपूर्वक जप करना चाहिये । भिक्षामें प्राप्त शुद्ध अन्न ही ग्रहण करे, जिसमें स्वयं मात्र आठ ग्रास ही भोजन करे ॥ ५३-५४ ॥
एवं पुरश्चरणकं कृत्वा मन्त्रसिद्धिमवाप्नुयात् । देवर्षे यदनुष्ठानाद्दारिद्र्यं विलयं व्रजेत् । यच्छ्रुत्वापि च पुण्यानां महतीं सिद्धिमाप्नुयात् ॥ ५५
हे देवर्षे ! इस प्रकार पुरश्चरण करके मनुष्य मन्त्रसिद्धि प्राप्त कर लेता है । इसके अनुष्ठानमात्रसे दरिद्रता समाप्त हो जाती है और इसके श्रवणसे भी मनुष्य पुण्योंकी महती सिद्धि प्राप्त कर लेता है ॥ ५५ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां एकादशस्कन्धे गायत्रीपुरश्चरणविधिकथनं नामैएकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रया संहितायामेकादशस्कन्धे गायत्रीपुरश्चरणविधिकथनं नामैकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥