श्रीनारायण बोले-हे ब्रह्मन् ! अब वैश्वदेवकी विधि सुनिये । पुरश्चरणके प्रसंगमें यह भी मेरी स्मृतिमें आ गया है ॥ १ ॥
देवयज्ञो ब्रह्मयज्ञो भूतयज्ञस्तथैव च । पितृयज्ञो मनुष्यस्य यज्ञश्चैव तु पञ्चमः ॥ २ ॥
देवयज्ञ, ब्रह्मयज्ञ, भूतयज्ञ, पितृयज्ञ और पाँचवाँ मनुष्ययज्ञ-ये महायज्ञ हैं ॥ २ ॥
पञ्चसूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्करः । कण्डणी चोदकुम्भश्च तेषां पापस्य शान्तये ॥ ३ ॥ न चुल्ल्यां नायसे पात्रे न भूमौ न च खर्परे । वैश्वदेवं प्रकुर्वीत कुण्डे वा स्थण्डिलेऽपि वा ॥ ४ ॥
गृहस्थके घरमें चूल्हा, चक्की, झाड़, ओखली, जलका घड़ा-इन पाँच वस्तुओंसे होनेवाले पापकी शान्तिके लिये यह यज्ञ आवश्यक होता है । चूल्हा, लौहपात्र, पृथ्वी, मिट्टीके बर्तन, कुण्ड अथवा वेदीपर बलिवैश्वदेव नहीं करना चाहिये ॥ ३-४ ॥
न पाणिना न शूर्पेण न च मेध्याजिनादिभिः । मुखेनोपधमेदग्निं मुखादेव व्यजायत ॥ ५ ॥
हाथसे, सूपसे अथवा पवित्र मृगचर्म आदिसे धौंककर अग्निको प्रज्वलित नहीं करना चाहिये, अपितु मुखसे फूंककर अग्निको प्रज्वलित करना चाहिये, क्योंकि अग्निका प्राकट्य मुखसे ही हुआ है ॥ ५ ॥
कपड़ेसे हवा करनेपर व्याधि, सूपसे हवा करनेपर धननाश तथा हाथसे हवा करनेपर मृत्युकी प्राप्ति होती है । मुखसे फूंककर आग प्रज्वलित करनेसे कार्यकी सिद्धि होती है ॥ ६ ॥
फलैर्दधिघृतैः कुर्यान्मूलशाकोदकादिभिः । अलाभे येन केनापि काष्ठमूलतृणादिभिः ॥ ७ ॥
फल, दही, घी, मूल, शाक, जल आदिसे बलिवैश्वदेव करना चाहिये । इन वस्तुओंके उपलब्ध न होनेपर काष्ठ, मूल अथवा तृण आदि जिस किसी भी वस्तुसे उसे कर लेना चाहिये ॥ ७ ॥
जुहुयात्सर्पिषाभ्यक्तं तैलक्षारविवर्जितम् । दध्यक्तं वा पायसाक्तं तदभावेऽम्भसापि वा ॥ ८ ॥
घृतसे सिक्त किये हुए हव्य-पदार्थसे हवन करना चाहिये । तैल तथा लवणमिश्रित पदार्थ हवनहेतु वर्जित हैं । दधि-मिश्रित अथवा दूध-मिश्रित और यदि इनका भी अभाव हो तो जल-मिश्रित द्रव्यसे भी हवन सम्पन्न किया जा सकता है ॥ ८ ॥
मनुष्य शुष्क अथवा बासी अन्नसे हवन करनेपर कुष्ठी होता है, जूठे अन्नसे हवन करनेपर शत्रुका वशवर्ती हो जाता है, रुक्ष अन्नसे हवन करनेपर दरिद्र होता है तथा क्षार-वस्तुओंसे हवन करनेपर अधोगामी होता है ॥ ९ ॥
अङ्गारान्भस्ममिश्रांस्तु निर्हृत्योत्तरतोऽनलात् । जुहुयाद्वैश्वदेवं तु न क्षारादिविमिश्रितम् ॥ १० ॥
कुछ भस्ममिश्रित अंगारोंको अग्निके उत्तरकी ओरसे निकालकर फेंक दे, तत्पश्चात् क्षार आदिसे रहित वस्तुओंसे वैश्वदेवके लिये हवन करे ॥ १० ॥
अकृत्वा वैश्वदेवं तु यो भुङ्क्ते मूढधीर्द्विजः । स मूढो नरकं याति कालसूत्रमवाक्शिराः ॥ ११ ॥
जो मूर्खबुद्धि द्विज विना बलिवैश्वदेव किये भोजन करता है, वह मूर्ख 'कालसूत्र' नरकमें सिर नीचेकी ओर किये हुए निवास करता है ॥ ११ ॥
शाकं वा यदि वा पत्रं मूलं वा यदि वा फलम् । सङ्कल्पयेद्यदाहारं तेनाग्नौ जुहुयादपि ॥ १२ ॥
शाक, पत्र, मूल अथवा फल-जो कुछ भी भोजनके लिये उपलब्ध हों, उसमेंसे संकल्पपूर्वक अग्निमें हवन भी करना चाहिये ॥ १२ ॥
अकृते वैश्वदेवे तु भिक्षौ भिक्षार्थमागते । उद्धृत्य वैश्वदेवार्थं भिक्षां दत्त्वा विसर्जयेत् ॥ १३ ॥ वैश्वदेवकृतं दोषं शक्तो भिक्षुर्व्यपोहितुम् । न तु भिक्षुकृतं दोषं वैश्वदेवो व्यपोहति ॥ १४ ॥
वैश्वदेव करनेसे पूर्व ही भिक्षाके लिये किसी भिक्षुकके आ जानेपर वैश्वदेवके लिये सामग्री अलग करके शेष सामग्रीमेंसे भिक्षा देकर उसे विदा कर देना चाहिये, क्योंकि पहले वैश्वदेव न करनेसे उत्पन्न दोषको शान्त करनेमें भिक्षुक तो समर्थ है, किंतु भिक्षुकके अपमानजन्य दोषका शमन करनेमें वैश्वदेव समर्थ नहीं हैं ॥ १३-१४ ॥
यतिश्च ब्रह्मचारी च पक्वान्नस्वामिनावुभौ । तयोरन्नमदत्त्वा तु भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत् ॥ १५ ॥
संन्यासी और ब्रह्मचारी-ये दोनों ही पके हुए अन्नके स्वामी हैं, अतएव इन्हें अन्न प्रदान किये बिना ही भोजन कर लेनेपर मनुष्यको चान्द्रायण व्रत करना चाहिये ॥ १५ ॥
वैश्वदेवानन्तरं च गोग्रासं प्रतिपादयेत् । तद्विधानं प्रवक्ष्यामि शृणु देवर्षिपूजित ॥ १६ ॥
बलिवैश्वदेव करनेके पश्चात् गोग्रास निकालना चाहिये । हे देवर्षिपूजित ! उसका विधान मैं बता रहा हूँ, आप सुनिये ॥ १६ ॥
सुरभिर्वैष्णवी माता नित्यं विष्णुपदे स्थिता । गोग्रासं च मया दत्तं सुरभे प्रतिगृह्यताम् ॥ १७ ॥ गोभ्यश्च नम इत्येव पूजां कृत्वा गवेऽर्पयेत् । गोग्रासेन तु गोमाता सुरभिः सम्प्रसीदति ॥ १८ ॥
हे सुरभे ! आप सुरभि नामक वैष्णवी माता हैं, आप सदा वैकुण्ठमें विराजमान रहती हैं । आप मेरे द्वारा निवेदित किये गये इस गोग्रासको स्वीकार कीजिये । गोभ्य: नमः-ऐसा कहकर गो-पूजन करके वह गोग्रास गौको अर्पित कर दे; क्योंकि गोग्राससे गोमाता सुरभि परम प्रसन्न होती हैं ॥ १७-१८ ॥
तत्पश्चात् गोदोहनकालतक अतिथिकी प्रतीक्षामें घरके आँगनमें स्थित रहना चाहिये: क्योंकि अतिथि निराश होकर जिसके घरसे लौट जाता है, वह अतिथि उसे अपना पाप देकर उसका पुण्य लेकर चला जाता है ॥ १९ ॥
स तस्मै दुष्कृतं दत्त्वा पुण्यमादाय गच्छति । माता पिता गुरुर्भ्राता प्रजा दासः समाश्रितः ॥ २० ॥ अभ्यागतोऽतिथिश्चाग्निरेते पोष्या उदाहृताः । एवं ज्ञात्वा तु यो मोहान्न करोति गृहाश्रमम् ॥ २१ ॥ तस्य नायं तु न परो लोको भवति धर्मतः । यत्फलं सोमयागेन प्राप्नोति धनवान्द्विजः ॥ २२ ॥ सम्यक् पञ्चमहायज्ञैर्दरिद्रस्तेन चाप्नुयात् ।
माता, पिता, गुरु, भाई, प्रजा, सेवक, अपने आश्रयमें रहनेवाला व्यक्ति, अभ्यागत, अतिथि और अग्नि-ये पोष्य कहे गये हैं । ऐसा जानकर जो व्यक्ति मोहवश धर्मपूर्वक गृहस्थाश्रमका पालन नहीं करता, उसका न तो यह लोक बनता है और न परलोक ही बनता है । धनवान् द्विज सोमयज्ञ करनेसे जो फल प्राप्त करता है, वही फल एक दरिद्र पंचमहायज्ञोंके द्वारा सम्यकरूपसे प्राप्त कर लेता है ॥ २०-२२.५ ॥
अथ प्राणाग्निहोत्रं तु वक्ष्यामि मुनिपुङ्गव ॥ २३ ॥ यज्ज्ञात्वा मुच्यते जन्तुर्जन्ममृत्युजरादिभिः । परिज्ञानेन मुच्यन्ते नराः पातककिल्बिषैः ॥ २४ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! अब मैं प्राणाग्निहोत्रके विषयमें बताऊँगा, जिसे जानकर मनुष्य जन्म, मृत्यु, जरा आदिसे मुक्त हो जाता है । इसके सम्यक ज्ञान होनेसे मनुष्य समस्त प्रकारके पापों तथा दोषोंसे छूट जाते हैं ॥ २३-२४ ॥
विधिना भुज्यते येन मुच्येत स ऋणत्रयात् । कुलान्युद्धरते विप्रो नरकानेकविंशतिम् ॥ २५ ॥
जो विप्र इस विधिसे भोजन करता है, वह तीनों ऋणों (पितृ-ऋण, देव-ऋण, ऋषि-ऋण)-से मुक्त हो जाता है और अपनी इक्कीस पीढ़ियोंका नरकसे उद्धार कर देता है । उसे सभी यज्ञोंके फल प्राप्त हो जाते हैं तथा वह सभी लोकोंमें जानेका सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है ॥ २५ ॥
सर्वयज्ञफलप्राप्तिः सर्वलोकेषु गच्छति । हृत्पुण्डरीकमरणिर्मनो मन्धानसंज्ञकम् ॥ २६ ॥ वायुरज्ज्वा मथेदग्निं चक्षुरध्वर्युरेव च । तर्जनीमध्यमाङ्गुष्ठैः प्राणस्यैवाहुतिं क्षिपेत् ॥ २७ ॥ मध्यमानामिकाङ्गुष्ठैरपानस्याहुतिं क्षिपेत् । कनिष्ठानामिकाङ्गुष्ठैर्व्यानस्य तदनन्तरम् ॥ २८ ॥ कनिष्ठातर्जन्यङ्गुष्ठैरुदानस्याहुतिं क्षिपेत् । सर्वाङ्गुलैर्गृहीत्वान्नं समानस्याहुतिं क्षिपेत् ॥ २९ ॥ स्वाहान्तान्प्रणवाद्यांश्च नाममन्त्रांश्च वै पठेत् ।
हृदयरूपी कमल अरणि है, मन मन्थन-काष्ठ है, वायु रस्सी है और यह नेत्र अध्वर्यु बनकर अग्निका मन्थन कर रहा है-ऐसी भावना करके तर्जनी, मध्यमा और अँगूठेसे प्राणके लिये आहति डालनी चाहिये । मध्यमा, अनामिका और अँगूठेसे अपानके लिये आहुति डालनी चाहिये । कनिष्ठिका, अनामिका और अँगूठेसे व्यानके लिये और पुनः तर्जनी तथा अँगूठेसे उदानके लिये आहुति डालनी चाहिये । इसके बाद सम्पूर्ण अँगुलियोंसे अन्न उठाकर समानाग्निके लिये आहुति डालनी चाहिये । इनके आदिमें प्रणव 'ॐ' तथा अन्तमें 'स्वाहा' जोड़कर नाममन्त्रोंका उच्चारण करना चाहिये [यथा ॐ प्राणाय स्वाहा, ॐ अपानाय स्वाहा आदि] ॥ २६-२९.५ ॥
मुखे चाहवनीयस्तु हृदये गार्हपत्यकः ॥ ३० ॥ नाभौ च दक्षिणाग्निः स्यादधः सभ्यावसथ्यकौ । वाग्घोता प्राण उद्गाता चक्षुरध्वर्युरेव च ॥ ३१ ॥ मनो ब्रह्मा भवेच्छ्रोत्रमाग्नीध्रस्थान एव च । अहङ्कारः पशुश्चात्र प्रणवः पय ईरितम् ॥ ३२ ॥ बुद्धिश्च पत्नी सम्प्रोक्ता यदधीनो गृहाश्रमी । उरो वेदिस्तु रोमाणि दर्भाः स्युः स्रुक्स्रुवौ करौ ॥ ३३ ॥
तदनन्तर मुखमें आहवनीय अग्नि, हृदयमें गार्हपत्य अग्नि, नाभिमें दक्षिणाग्नि तथा नीचेके भागमें सभ्याग्नि और आवसथ्यकाग्नि विद्यमान हैं-ऐसा चिन्तन करे । वाणी होता है, प्राण उद्गाता है, नेत्र ही अध्वर्यु है, मन ब्रह्मा है, श्रोत्र आग्नीध्रस्थान है, अहंकार यज्ञपशु है और प्रणवको पय कहा गया है । बुद्धिको पत्नी कहा गया है, जिसके अधीन गृहस्थ रहता है । वक्षःस्थल वेदी है, शरीरके रोम कुश हैं तथा दोनों हाथ नुक्-सुवा हैं ॥ ३०-३३ ॥
प्राणमन्त्रस्य च ऋषी रुक्मवर्णः क्षुधाग्निकः । देवतादित्य एवात्र गायत्रीच्छन्द उच्यते ॥ ३४ ॥ प्राणाय च तथा स्वाहा मन्त्रान्ते कीर्तयेदपि । इदमादित्यदेवाय न ममेति वदेदपि ॥ ३५ ॥
सुवर्णक समान कान्तिवाले क्षुधाग्निको इस प्राणमन्त्र (ॐ प्राणाय स्वाहा) का ऋषि, आदित्यको इसका देवता और गायत्रीको इसका छन्द कहा जाता है । 'ॐ प्राणाय स्वाहा'-इस मन्त्रका उच्चारण करना चाहिये और मन्त्रके अन्त में 'इदमादित्यदेवाय न मम'-यह भी कहना चाहिये ॥ ३४-३५ ॥
अपानमन्त्रस्य तथा गोक्षीरधवलाकृतिः । श्रद्धाग्निऋषिरेवात्र सोमो वै देवता स्मृता ॥ ३६ ॥ उष्णिक्छन्दस्तथापानाय स्वाहेत्यपि कीर्तयेत् । सोमायेदं च न ममेत्यत्रोहः परिकीर्तितः ॥ ३७ ॥
गायके दूधके समान श्वेत वर्णवाले श्रद्धाग्नि अपान मन्त्रके ऋषि हैं । सोमको इस मन्त्रका देवता कहा गया है । उष्णिक इसका छन्द है । 'ॐ अपानाय स्वाहा' मन्त्रके अन्तमें 'इदं सोमाय न मम'-ऐसा पूर्वकी भाँति उच्चारण करना चाहिये । ३६-३७ ॥
व्यानमन्त्रस्य चाख्यातोऽम्बुजवर्णहुताशनः । ऋषिरुक्तो देवताग्निरनुष्टुप् छन्द ईरितम् ॥ ३८ ॥ व्यानाय च तथा स्वाहाग्नयेदं न ममेत्यपि । उदानमन्त्रस्य तथा शक्रगोपसवर्णकः ॥ ३९ ॥ ऋषिरग्निः समाख्यातो वायुर्वै देवता स्मृता । बृहतीच्छन्द आख्यातमुदानाय च पूर्ववत् ॥ ४० ॥ वायवे चेदं न मम एवं चैवोच्चरेद् द्विजः ।
कमलके समान वर्णवाले आख्यात नामक अग्नि व्यानमन्त्रके ऋषि कहे गये हैं । अग्नि इस मन्त्रके देवता हैं तथा अनुष्टुप् इसका छन्द कहा गया है । ॐ व्यानाय स्वाहा' के अन्तमें 'इदमग्नये न मम'- यह भी कहना चाहिये । इन्द्रगोपके समान रक्त वर्णवाले अग्नि उदान मन्त्रके ऋषि कहे गये हैं, वायु इसके देवता कहे गये हैं और बृहती इसका छन्द कहा गया है । पूर्वकी भाँति ही 'ॐ उदानाय स्वाहा', 'इदं वायवे न मम'-ऐसा द्विजको उच्चारण करना चाहिये ॥ ३८-४०.५ ॥
विद्युत्के समान वर्णवाले विरूपकसंज्ञक अग्नि समानमन्त्रके ऋषि कहे गये हैं, पर्जन्यको इस मन्त्रका देवता माना गया है और पंक्तिको इसका छन्द कहा गया है । पूर्वकी भाँति 'ॐ समानाय स्वाहा', 'इदं पर्जन्याय न मम' इस मन्त्रका उच्चारण करना चाहिये । एतदनन्तर छठी आहुति डालनी चाहिये । वैश्वानर नामक महान् अग्नि इस मन्त्रके ऋषि कहे गये हैं । आत्माको इसका देवता और गायत्रीको इसका छन्द कहा गया है । 'ॐ परमात्मने स्वाहा' के बाद 'इदं परमात्मने न मम' का उच्चारण करना चाहिये । इस प्रकार प्राणाग्निहोत्र सम्पन्न हुआ । [हे नारद !] इस विधिको जानकर तथा उसके अनुसार आचरण करके मनुष्य ब्रह्मभावको प्राप्त होता है । इस प्रकार मैंने इस प्राणाग्निहोत्रविद्याका वर्णन आपसे संक्षेपमें कर दिया ॥ ४१-४५ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां एकादशस्कन्धे वैश्वदेवादिविधिनिरूपणं नाम द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥
इति श्रीमदेवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्रयां संहितायामेकादशस्कन्धे वैश्वदेवादिविधिनिरूपणं नाम द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥