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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
एकादशः स्कन्धः
त्रयोविंशोऽध्यायः

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तप्तकृच्छ्रादिलक्षणवर्णनम् -
कृच्छ्रचान्द्रायण, प्राजापत्य आदि व्रतोंका वर्णन -


श्रीनारायण उवाच
अमृतापिधानमित्येवमुच्चार्य साधकोत्तमः ।
उच्छिष्टभाग्भ्यः पात्रान्नं दद्यादन्ते विचक्षणः ॥ १ ॥
ये के चास्मत्कुले जाता दासदास्योऽनकाङ्‌क्षिणः ।
ते सर्वे तृप्तिमायान्तु मया दत्तेन भूतले ॥ २ ॥
श्रीनारायण बोले-[हे नारद !] साधकोंमें उत्तम विद्वान् पुरुषको भोजनके पश्चात् 'ॐ अमृतापिधानमसि'-इस मन्त्रका उच्चारण करके आचमन करना चाहिये और पात्र में अवशिष्ट अन्न उच्छिष्टभागी पितरोंको अर्पित करना चाहिये । [उस समय इस प्रकार कहना चाहिये] 'मेरे कुलमें जो उत्पन्न हुए हों तथा जो दास-दासियाँ रही हों, साथ ही मुझसे अन्न पानेकी अभिलाषा रखनेवाले हों-वे सब मेरे द्वारा भूमिपर रखे गये इस अन्नसे तृप्त हो जायें ॥ १-२ ॥

रौरवेऽपुण्यनिलये पद्मार्बुदनिवासिनाम् ।
अर्थिनामुदकं दत्तमक्षय्यमुपतिष्ठतु ॥ ३ ॥
तत्पश्चात् यह बोलकर जल प्रदान करेरौरव नामक अपवित्र नरकमें पद्म तथा अर्बुद वर्षोंसे यातना भोगते हुए निवास करनेवाले तथा मुझसे जल पानेकी अभिलाषा रखनेवालोंको यह मेरे द्वारा प्रदत्त अक्षय्योदक प्राप्त हो ॥ ३ ॥

पवित्रग्रन्थिमुत्सृज्य मण्डले भुवि निक्षिपेत् ।
पात्रे तु निक्षिपेद्यस्तु स विप्रः प‍ङ्‌क्तिदूषकः ॥ ४ ॥
[भोजनके समय अँगुलीमें पड़े हुए] पवित्रककी ग्रन्थि खोलकर पृथ्वीपर रख दे । जो विप्र उसे पात्रमें ही रख देता है, वह पंक्तिदूषक कहा जाता है ॥ ४ ॥

उच्छिष्टस्तेन संस्पृष्टः शुना शूद्रेण च द्विजः ।
उपोष्य रजनीमेकां पञ्चगव्येन शुध्यति ॥ ५ ॥
अनुच्छिष्टेन संस्पृष्टैः स्नानमेव विधीयते ।
एकाहुतिप्रदानेन कोटियज्ञफलं लभेत् ॥ ६ ॥
पञ्चभिः पञ्चकोटीनां तदनन्तफलं स्मृतम् ।
प्राणाग्निहोत्रवेत्रे यो ह्यन्नदानं करोति च ॥ ७ ॥
दातुश्चैव तु यत्पुण्यं भोक्तुश्चैव तु यत्फलम् ।
प्राप्नुतस्तौ तदेव द्वावुभौ तौ स्वर्गगामिनौ ॥ ८ ॥
यदि उच्छिष्ट द्विजका किसी उच्छिष्टसे या कुत्ते अथवा शूद्रसे स्पर्श हो जाता है, तो वह द्विज एक रात उपवास करके पुन: पंचगव्य ग्रहण करनेसे शुद्ध हो जाता है और अनुच्छिष्टसे स्पर्श होनेपर केवल स्नान करनेका विधान है । प्राणाग्निमें एक आहुति देनेसे करोड़ यज्ञका फल मिलता है, पाँच आहुतियाँ देनेसे पाँच करोड़ यज्ञोंका अनन्त फल प्राप्त होना बताया गया है । जो मनुष्य प्राणाग्निहोत्रवेत्ताको अन्नका दान करता है, उस दाताको जो पुण्य होता है तथा भोक्ताको जो फल मिलता है, वह उनको समानरूपमें प्राप्त होता है । वे दोनों ही स्वर्ग प्राप्त करते हैं ॥ ५-८ ॥

सपवित्रकरो भुङ्‌क्ते यस्तु विप्रो विधानतः ।
ग्रासे ग्रासे फलं तस्य पञ्चगव्यसमं भवेत् ॥ ९ ॥
जो विप्र हाथमें पवित्रक धारण करके विधिपूर्वक भोजन ग्रहण करता है, उसे प्रत्येक ग्रासमें पंचगव्यप्राशनके समान फल प्राप्त होता है ॥ ९ ॥

पूजाकालत्रये नित्यं जपस्तर्पणमेव च ।
होमो ब्राह्मणभुक्तिश्च पुरश्चरणमुच्यते ॥ १० ॥
अधःशयानो धर्मात्मा जितक्रोधो जितेन्द्रियः ।
लघुमिष्टहिताशी च विनीतः शान्तचेतसा ॥ ११ ॥
नित्यं त्रिषवणस्नायी नित्यं स शुभभाषणः ।
स्त्रीशूद्रपतितत्व्रात्यनास्तिकोच्छिष्टभाषणम् ॥ १२ ॥
चाण्डालभाषणं चैव न कुर्यान्मुनिसत्तम ।
नत्वा नैव च भाषेत जपहोमार्चनादिषु ॥ १३ ॥
पूजाके तीनों कालों (प्रातः, मध्याह, सायं)-में प्रतिदिन जप, तर्पण, होम, ब्राह्मणभोजन [तथा मार्जन]को पुरश्चरण कहा जाता है । वह साधक नीचे भूमिपर शयन करे, धर्मपरायण रहे, क्रोधपर तथा इन्द्रियोंपर नियन्त्रण रखे, अल्प; मधुर तथा हितकर पदार्थीको ग्रहण करे, शान्त मनसे विनम्रतापूर्वक रहे । नित्य तीनों समय स्नान करे तथा सदा सुन्दर वाणी बोले । हे मुनिवर ! स्वी, शूद्र, पतित, व्रात्य, नास्तिक, जूठे मुखवाले व्यक्ति तथा चाण्डालसे वार्तालाप नहीं करना चाहिये । जप, होम, पूजन आदिके समय किसीको नमस्कार करके बातचीत नहीं करनी चाहिये ॥ १०-१३ ॥

मैथुनस्य तथालापं तद्‌गोष्ठीमपि वर्जयेत् ।
कर्मणा मनसा वाचा सर्वावस्थासु सर्वदा ॥ १४ ॥
सर्वत्र मैथुनत्यागो ब्रह्मचर्यं प्रचक्षते ।
राज्ञश्चैव गृहस्थस्य ब्रह्मचर्यमुदाहृतम् ॥ १५ ॥
मन, वाणी तथा कर्मसे सभी स्थितियोंमें सर्वदा मैथुनसम्बन्धी बातचीत तथा उससे सम्बन्धित गोष्ठीका भी त्याग कर देना चाहिये । सभी तरहसे मैथुनका त्याग ही ब्रह्मचर्य कहा जाता है । राजा तथा गृहस्थके लिये भी ब्रह्मचर्यपालन बताया गया है ॥ १४-१५ ॥

ऋतुस्तातेषु दारेषु सङ्‌गतिर्या विधानतः ।
संस्कृतायां सवर्णायामृतुं दृष्ट्वा प्रयत्‍नतः ॥ १६ ॥
रात्रौ तु गमनं कार्यं ब्रह्मचर्यं हरेन्न तत् ।
ऋणत्रयमसंशोध्य त्वनुत्पाद्य सुतानपि ॥ १७ ॥
तथा यज्ञाननिष्ट्वा च मोक्षमिच्छन्व्रजत्यधः ।
अजागलस्य यज्जन्म तज्जन्म श्रुतिचोदितम् ॥ १८ ॥
ऋतुस्नान की हुई अपनी भाके साथ ही विधिपूर्वक सहवास करना चाहिये । अपने समान वर्णवाली पाणि-गृहीती भार्याका ऋतुकाल उपस्थित जानकर ही प्रयत्नपूर्वक रात्रिमें उसके साथ गमन करना चाहिये । उससे ब्रह्मचर्यका नाश नहीं होता है । तीनों ऋणोंका मार्जन, पुत्रोंकी उत्पत्ति तथा पंचमहायज्ञादि किये बिना ही मोक्षकी कामना करनेवाले व्यक्तिका अध:पतन हो जाता है । बकरीके गलेके स्तनकी भाँति उसका जन्म श्रुतियोंद्वारा निष्फल बताया गया है ॥ १६-१८ ॥

अतः कार्यं तु विप्रेन्द्र ऋणत्रयविशोधनम् ।
ते देवानामृषीणां च पितॄणामृणिनस्तथा ॥ १९ ॥
ऋषिभ्यो ब्रह्मचर्येण पितृभ्यस्तु तिलोदकैः ।
मुच्येद्यज्ञेन देवेभ्यः स्वाश्रमं धर्ममाचरेत् ॥ २० ॥
अतएव हे विप्रेन्द्र ! तीनों ऋणोंसे मुक्त होनेका प्रयल करना चाहिये । मनुष्य देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंके ऋणी होते हैं । मनुष्य ब्रह्मचर्यद्वारा ऋषियोंके, तिलोदकदानसे पितरोंके तथा यज्ञानुष्ठानसे देवताओंके ऋणसे मुक्त हो जाता है । मनुष्यको चाहिये कि अपने-अपने आश्रमसम्बन्धी धर्मोका पालन करे ॥ १९-२० ॥

क्षीराहारी फलाशी वा शाकाशी वा हविष्यभुक् ।
भिक्षाशी वा जपेद्विद्वान्कृच्छ्रचान्द्रायणादिकृत् ॥ २१ ॥
लवणं क्षारमम्लं च गृञ्जनं कांस्यभोजनम् ।
ताम्बूलं च द्विभुक्तं च दुष्टवासः प्रमत्तनम् ॥ २२ ॥
श्रुतिस्मृतिविरोधं च जपं रात्रौ विवर्जयेत् ।
वृथा न कालं गमयेद्‌द्यूतस्त्रीस्वापवादतः ॥ २३ ॥
गमयेद्देवतापूजास्तोत्रागमविलोकनैः ।
कृच्छ्चान्द्रायण आदि व्रत करनेवाले विद्वान्को दुग्ध, फल, शाक, हविष्यान्न तथा भिक्षान्नके आहारपर रहते हुए जप करना चाहिये । उसे लवण, क्षार, अम्ल, गाजर, कांस्यपात्रमें भोजन, ताम्बूल, दो बार भोजन, दुष्टोंकी संगति, उन्मत्तता, श्रुति-स्मृतिके विरुद्ध व्यवहार तथा रातमें जप आदिका त्याग कर देना चाहिये । जुआ खेलने, स्त्रीसंग करने तथा निन्दा आदिमें समयको व्यर्थ व्यतीत नहीं करना चाहिये । अपितु देवताओंकी पूजा, स्तुति तथा शास्वावलोकनमें ही समय व्यतीत करना चाहिये ॥ २१-२३.५ ॥

भूशय्या ब्रह्मचारित्वं मौनचर्या तथैव च ॥ २४ ॥
नित्यं त्रिषवणस्नानं शूद्रकर्मविवर्जनम् ।
नित्यपूजा नित्यदानमानन्दस्तुतिकीर्तनम् ॥ २५ ॥
नैमित्तिकार्चनं चैव विश्वासो गुरुदेवयोः ।
जपनिष्ठस्य धर्मा ये द्वादशैते सुसिद्धिदाः ॥ २६ ॥
भूमिपर शयन, ब्रह्मचर्यपालन, मौनधारण, प्रतिदिन त्रिकाल स्नान, नीच कर्मोंसे विरत रहना, प्रतिदिन पूजा करना, दान देना, आनन्दित रहना, स्तुति करना, कीर्तनमें तत्पर रहना, नैमित्तिक पूजन तथा गुरु और देवतामें विश्वास रखना-जपपरायण पुरुषके लिये महान् सिद्धि प्रदान करनेवाले ये बारह धर्म हैं ॥ २४-२६ ॥

नित्यं सूर्यमुपस्थाय तस्य चाभिमुखो जपेत् ।
देवताप्रतिमादौ वा वह्नौ वाभ्यर्च्य तन्मुखः ॥ २७ ॥
स्नानपूजाजपध्यानहोमतर्पणतत्परः ।
निष्कामो देवतायां च सर्वकर्मनिवेदकः ॥ २८ ॥
एवमादींश्च नियमान्पुरश्चरणकृच्चरेत् ।
तस्माद्‌द्विजः प्रसन्नात्मा जपहोमपरायणः ॥ २९ ॥
तपस्यध्ययने युक्तो भवेद्‌भूतानुकम्पकः ।
प्रतिदिन सूर्योपस्थान करके उनके सम्मुख होकर जप करना चाहिये । देवप्रतिमा आदि अथवा अग्निमें सूर्यका अभ्यर्चन करके उनके सम्मुख स्थित होकर जप करना चाहिये । इस प्रकार स्नान, पूजा, जप, ध्यान, होम तथा तर्पणमें तत्पर रहना चाहिये और निष्काम होकर अपने सम्पूर्ण कर्म देवताको समर्पित कर देने चाहिये । पुरश्चरण करनेवाले व्यक्तिको चाहिये कि वह इन प्रारम्भिक नियमोंका पालन अवश्य करे । अतएव द्विजको प्रसन्न मनसे जप तथा होममें लगे रहना चाहिये । उसे तपस्या तथा अध्ययनमें निरत और प्राणियोंके प्रति दयाभाववाला होना चाहिये ॥ २७-२९.५ ॥

तपसा स्वर्गमाप्नोति तपसा विन्दते महत् ॥ ३० ॥
तपोयुक्तस्य सिध्यन्ति कर्माणि नियतात्मनः ।
विद्वेषणं संहरणं मारणं रोगनाशनम् ॥ ३१ ॥
मनुष्य तपस्यासे स्वर्ग प्राप्त करता है तथा तपस्यासे महान् फल पाता है । संयत आत्मावाला तपपरायण पुरुष विद्वेषण, संहरण, मारण तथा रोगशमन आदि सभी कार्योको सिद्ध कर लेता है ॥ ३०-३१ ॥

येन येनाथ ऋषिणा यदर्थं देवताः स्तुताः ।
स स कामः समृद्ध्येत तेषां तेषां तथा तथा ॥ ३२ ॥
तानि कर्माणि वक्ष्यामि विधानानि च कर्मणाम् ।
पुरश्चरणमादौ च कर्मणां सिद्धिकारकम् ॥ ३३ ॥
जिस-जिस ऋषिने जिस-जिस प्रयोजनके लिये देवताओंकी स्तुति की, उन सभीकी वह-वह कामना सिद्ध हुई । अब उन कर्मों तथा उनके विधानोंके विषयमें बताऊँगा । कर्मोके आरम्भके पूर्व पुरश्चरण कर लेना कर्मसिद्धिका कारक होता है ॥ ३२-३३ ॥

स्वाध्यायाभ्यसनस्यादौ प्राजापत्यं चरेद्‌द्विजः ।
केशश्मश्रुलोमनखान् वापयित्वा ततः शुचिः ॥ ३४ ॥
तिष्ठेदहनि रात्रौ तु शुचिरासीत वाग्यतः ।
सत्यवादी पवित्राणि जपेद्व्याहृतयस्तथा ॥ ३५ ॥
ज्येकाराद्यास्तु ता जप्त्वा सावित्रीं च तदित्यृचम् ।
आपो हि ष्ठेति सूक्तं च पवित्रं पापनाशनम् ॥ ३६ ॥
पुनन्त्यः स्वस्तिमत्यश्च पावमान्यस्तथैव च ।
सर्वत्रैतत्प्रयोक्तव्यमादावन्ते च कर्मणाम् ॥ ३७ ॥
आसहस्रादाशताद्वाप्यादशादथवा जपेत् ।
अकारं व्याहृतीस्तिस्रः सावित्रीमथवायुतम् ॥ ३८ ॥
स्वाध्यायाभ्यसन अर्थात् गायत्रीमन्त्रके पुरश्चरणमें द्विजको पहले प्राजापत्यव्रत करना चाहिये । इसके लिये सिर तथा दाढ़ीके केश और नखोंको कटाकर शुद्ध हो जाय । इसके बाद एक दिन-रात शरीरकी पवित्रता बनाये रखे । वाणीसे पवित्र रहे । सत्य भाषण करे और पवित्र मन्त्रोंका जप करे । गायत्रीकी व्याहृतियोंके आदिमें ॐकार लगाकर 'तत्सवितुः०' इस सावित्री ऋचाका जप करना चाहिये । 'आपो हि ष्ठा०' यह सूक्त पवित्र तथा पापनाशक है । इसी प्रकार 'पुनन्त्यः स्वस्तिमत्यश्च० ' एवं 'पावमान्य:०'इन पवित्र मन्त्रोंका प्रयोग सभी कर्मेकि आदि तथा अन्तमें सर्वत्र करना चाहिये । शान्तिके लिये एक हजार, एक सौ अथवा दस बार इनका जप कर लेना चाहिये । अथवा ॐकार और तीनों व्याहतियोंसहित गायत्रीमन्त्रका दस हजार जप करना चाहिये ॥ ३४-३८ ॥

तर्पयित्वाद्‌‍भिराचार्यानृषींश्छन्दांसि देवताः ।
अनार्येण न भाषेत शूद्रेणापि न गर्हितैः ॥ ३९ ॥
नापि चोदक्यया वध्वा पतितैर्नान्त्यजैर्नृभिः ।
न देवब्राह्मणद्विष्टैर्नाचार्यगुरुनिन्दकैः ॥ ४० ॥
न मातृपितृविद्विष्टैर्नावमन्येत कञ्चन ।
कृच्छ्राणामेष सर्वेषां विधिरुक्तोऽनुपूर्वशः ॥ ४१ ॥
आचार्यों, ऋषियों, छन्दों तथा देवताओंका जलसे तर्पण करना चाहिये । अनार्य, शूद्र, निन्द्य पुरुषों, ऋतुमती स्वी, पुत्रवधू, पतितजनों, चाण्डालों, देवता-ब्राह्मणसे द्वेष रखनेवाले, आचार्य तथा गुरुकी निन्दा करनेवाले और माता-पितासे द्वेष रखनेवाले व्यक्तियोंके साथ बातचीत न करे तथा किसीका भी अपमान न करे । सम्पूर्ण कृच्छ्र व्रतोंकी यही विधि है, जिसका आनुपूर्वी वर्णन मैंने कर दिया । ३९-४१ ॥

प्राजापत्यस्य कृच्छ्रस्य तथा सान्तपनस्य च ।
पराकस्य च कृच्छ्रस्य विधिश्चान्द्रायणस्य च ॥ ४२ ॥
पञ्चभिः पातकैः सर्वैर्दुष्कृतैश्च प्रमुच्यते ।
तप्तकृच्छ्रेण सर्वाणि पापानि दहति क्षणात् ॥ ४३ ॥
अब कृच्छ्र, प्राजापत्य, सान्तपन, पराक, चान्द्रायण आदि कृच्छ्र व्रतोंकी विधि कही जाती है । इसके प्रभावसे मनुष्य पाँच प्रकारके पातकों तथा समस्त दुष्कृत्योंसे मुक्त हो जाता है । तप्तकृच्छ्व्रतसे मनुष्यके सम्पूर्ण पाप क्षणभरमें भस्म हो जाते हैं ॥ ४२-४३ ॥

त्रिभिश्चान्द्रायणैः पूतो ब्रह्मलोकं समश्नुते ।
अष्टभिर्देवताः साक्षात्पश्येत वरदास्तदा ॥ ४४ ॥
छन्दांसि दशभिर्ज्ञात्वा सर्वान्कामान्समश्नुते ।
तीन चान्द्रायणव्रतोंको कर लेनेसे मनुष्य पवित्र होकर ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है, आठ चान्द्रायणव्रतोंसे वर प्रदान करनेवाले देवताओंका साक्षात् दर्शन प्राप्त कर लेता है और दस चान्द्रायणव्रतोंके द्वारा वेदोंका ज्ञान प्राप्त करके अपने सभी मनोरथोंको पूर्ण कर लेता है ॥ ४४.५ ॥

त्र्यहं प्रातस्त्र्यहं सायं त्र्यहमद्यादयाचितम् ॥ ४५ ॥
त्र्यहं परं च नाश्नीयात्प्राजापत्यं चरेद्‌द्विजः ।
तीन दिन प्रात:काल, तीन दिन सायंकाल तथा तीन दिन बिना माँगे प्राप्त हुआ भोज्यपदार्थ ग्रहण करे । इसके बाद तीन दिनोंतक कुछ भी नहीं ग्रहण करना चाहिये । इस प्रकारसे द्विजको प्राजापत्यव्रत करना चाहिये ॥ ४५.५ ॥

गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधि सर्पिः कुशोदकम् ॥ ४६ ॥
एकरात्रोपवासश्च कृच्छ्रं सान्तपनं स्मृतम् ।
प्रथम दिन गोमूत्र, गोमय, गोदुग्ध, दधि, घृत तथा कुशोदकको एकमें सम्मिश्रित करके पी ले, फिर दूसरे दिन उपवास करे-यह कृच्छ्सान्तपनव्रत कहा जाता है । ४६.५ ॥

एकैकं ग्रासमश्नीयादहानि त्रीणि पूर्ववत् ॥ ४७ ॥
त्र्यहं चोपवसेदित्थमतिकृच्छ्रं चरेद्‌द्विजः ।
एवमेव त्रिभिर्युक्तं महासान्तपनं स्मृतम् ॥ ४८ ॥
तीन दिनोंतक एक-एक ग्रास प्रात:काल तथा तीन दिनोंतक एक-एक ग्रास सायंकाल और तीन दिनोंतक अयाचित रूपसे एक-एक ग्रास ग्रहण करना चाहिये और तीन दिनोंतक उपवास करना चाहिये; इस प्रकार द्विजको अतिकृच्छ्रव्रत करना चाहिये । इस व्रतके नियमोंका तीन गुने रूपसे पालन करना महासान्तपनव्रत कहा गया है ॥ ४७-४८ ॥

तप्तकृच्छ्रं चरन्विप्रो जलक्षीरघृतानिलान् ।
प्रतित्र्यहं पिबेदुष्णान्सकृत्स्नायी समाहितः ॥ ४९ ॥
इसी प्रकार तप्तकृच्छ्वतका अनुष्ठान करनेवाले विप्रको चाहिये कि समाहितचित्त होकर तीन-तीन दिनोंतक क्रमसे उष्ण जल, उष्ण दुग्ध, उष्ण घृत तथा उष्ण वायुके आहारपर रहे और एक बार स्नान करे ॥ ४९ ॥

नियतस्तु पिबेदापः प्राजापत्यविधिः स्मृतः ।
यतात्मनोऽप्रमत्तस्य द्वादशाहमभोजनम् ॥ ५० ॥
नियमपूर्वक केवल जल पीकर रहना प्राजापत्यव्रतकी विधि कही गयी है । मनको अधिकारमें रखना, प्रमत्तकी भाँति आचरण न करना तथा बारह दिनोंतक उपवास करना-यही पराक नामक कृच्छ्वत है; यह समस्त पापोंको नष्ट करनेवाला है ॥ ५० ॥

पराको नाम कृच्छ्रोऽयं सर्वपापप्रणोदनः ।
एकैकं तु ग्रसेत्पिण्डं कृष्णे शुक्ले च वर्धयेत् ॥ ५१ ॥
अमावास्यां न भुञ्जीत एवं चान्द्रायणे विधिः ।
उपस्पृश्य त्रिषवणमेतच्चान्द्रायणं स्मृतम् ॥ ५२ ॥
[अब चान्द्रायणव्रतकी विधि कही जा रही है]-कृष्णपक्षमें एक-एक ग्रास कम करके तथा शुक्लपक्षमें एक-एक ग्रास बढ़ाकर आहार ग्रहण करना चाहिये तथा अमावास्याके दिन भोजन नहीं करना चाहिये-इस प्रकारकी विधिका चान्द्रायणव्रतमें पालन करना चाहिये । इसमें तीनों समय स्नान करनेका विधान है । इन सभी नियमोंका पालन चान्द्रायणव्रत कहा गया है ॥ ५१-५२ ॥

चतुरः प्रातरश्नीयाद्विप्रः पिण्डात्कृताह्निकः ।
चतुरोऽस्तमिते सूर्ये शिशुचान्द्रायणं स्मृतम् ॥ ५३ ॥
अष्टावष्टौ समश्नीयात्पिण्डान्मध्यन्दिने स्थिते ।
नियतात्मा हविष्यस्य यतिचान्द्रायणं व्रतम् ॥ ५४ ॥
प्रात:काल स्नान आदि आहिक कृत्य सम्पन्नकर विप्र प्रातः चार ग्रास भोजन करे तथा सूर्यास्त हो जानेपर भी चार ही ग्रास ग्रहण करे, इसे शिशुचान्द्रायणव्रत कहा गया है । संयमित आत्मावाले पुरुषको [मासपर्यन्त] दिनके मध्याह्नकालमें हविष्यके आठआठ ग्रास ग्रहण करने चाहिये । इसे यतिचान्द्रायणव्रत कहते हैं । ५३-५४ ॥

एतद्रुद्रास्तथादित्या वसवश्च चरन्ति हि ।
सर्वे कुशलिनो देवा मरुतश्च भुवा सह ॥ ५५ ॥
एकैकं सप्तरात्रेण पुनाति विधिवत्कृतम् ।
त्वगसृक्‌पिशितास्थीनि मेदोमज्जावसास्तथा ॥ ५६ ॥
एकैकं सप्तरात्रेण शुध्यत्येव न संशयः ।
रुद्र, आदित्य, वसुगण, मरुद्‌गण, पृथ्वी तथा सभी कुशल देवता इस व्रतका अनुष्ठान सदैव करते रहते हैं । विधि-विधानसे किया गया यह व्रत सात रात्रिमें शरीरकी त्वचा, रक्त, मांस, अस्थि, मेद, मजा तथा वसा-इन धातुओंको एक-एक करके पवित्र कर देता है । इस प्रकार सात रातोंमें वह व्रती शुद्ध हो जाता है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५५-५६.५ ॥

एभिर्व्रतैर्विपूतात्मा कर्म कुर्वीत नित्यशः ॥ ५७ ॥
एवं शुद्धस्य कर्माणि सिध्यन्त्येव न संशयः ।
शुद्धात्मा कर्म कुर्वीत सत्यवादी जितेन्द्रियः ॥ ५८ ॥
इष्टान्कामांस्ततः सर्वान्सम्प्राप्नोति न संशयः ।
अतएव व्रतीको चाहिये कि इन व्रतोंके द्वारा पवित्र मनवाला होकर सदा सत्कर्म करता रहे । इस प्रकार शुद्धिको प्राप्त हुए मनुष्यके सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं । इसमें कोई संशय नहीं है । मनुष्यको विशुद्धात्मा, सत्यवादी तथा जितेन्द्रिय होकर कर्म करना चाहिये; तभी वह अपनी सम्पूर्ण अभिलषित कामनाओंकी प्राप्ति करता है, इसमें सन्देह नहीं है । ५७-५८.५ ॥

त्रिरात्रमेवोपवसेद्रहितः सर्वकर्मणा ॥ ५९ ॥
त्रीणि नक्तानि वा कुर्यात्ततः कर्म समारभेत् ।
एवं विधानं कथितं पुरश्चर्याफलप्रदम् ॥ ६० ॥
गायत्र्याश्च पुरश्चर्यां सर्वकामप्रदायिनी ।
कथिता तव देवर्षे महापापविनाशिनी ॥ ६१ ॥
सम्पूर्ण कौसे अनासक्त होकर पहले तीन दिन उपवास रखे अथवा तीन दिन केवल रातमें भोजन करे; इसके बाद कार्यका आरम्भ करे । यह विधान पुरश्चरणका फल प्रदान करनेवाला कहा गया है । हे देवर्षे ! इस प्रकार मैंने सम्पूर्ण वांछित फल प्रदान करनेवाले तथा महान् पापोंका नाश करनेवाले गायत्रीपुरश्चरणका वर्णन आपसे कर दिया ॥ ५९-६१ ॥

आदौ कुर्याद्‌व्रतं मन्त्री देहशोधनकारकम् ।
पुरश्चर्यां ततः कुर्यात्समस्तफलभाग्भवेत् ॥ ६२ ॥
मन्त्रसाधकको आरम्भमें शरीरकी शुद्धि करनेवाला व्रत करना चाहिये । इसके बाद ही पुरश्चरण प्रारम्भ करना चाहिये, तभी साधक सम्पूर्ण फलका भागी होता है ॥ ६२ ॥

इति ते कथितं गुह्यं पुरश्चर्याविधानकम् ।
एतत्परस्मै नो वाच्यं श्रुतिसारं यतः स्मृतम् ॥ ६३ ॥
[हे नारद !] इस प्रकार मैंने पुरश्चरणका यह गोपनीय विधान आपको बता दिया है । इसे दूसरोंको नहीं बताना चाहिये क्योंकि यह श्रुतियोंका सार कहा गया है ॥ ६३ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां एकादशस्कन्धे
तप्तकृच्छ्रादिलक्षणवर्णनं नाम त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रया संहितायामेकादशस्कन्धे तप्तकच्छादिलक्षणवर्णनं नाम त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥


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