हे नारद ! अब मैं शान्तिका वर्णन करता हूँ । द्विजको दुग्धमिश्रित समिधाओंसे हवन करना चाहिये । शमीकी समिधाओंसे भूत, रोग, ग्रह आदि शान्त हो जाते हैं । द्विजको चाहिये कि भूत, रोग आदिकी शान्तिके लिये क्षीरवृक्ष (पीपल, गूलर, पाकड़, वट आदि)की गीली समिधाओंसे हवन करे अथवा उन क्षीरवृक्षोंकी समिधाओंके खण्डोंसे हवन करे ॥ ३-४ ॥
दोनों हाथों में जल लेकर सूर्यका तर्पण करे और इससे शान्ति प्राप्त करे । जानुपर्यन्त जलमें स्थित होकर गायत्रीका जप करके अपने सभी दोषोंको शान्त करे । कण्ठपर्यन्त जलमें स्थित होकर जप करनेसे मनुष्य प्राणका अन्त करनेवाले भयसे भी मुक्त हो जाता है । सभी प्रकारके शान्तिकौके लिये जलमें निमग्न होकर गायत्रीका जप करना बताया गया है ॥ ५-६ ॥
सौवर्णे राजते वापि पात्रे ताम्रमयेऽपि वा । क्षीरवृक्षमये वापि निर्व्रणे मृण्मयेऽपि वा ॥ ७ ॥ सहस्रं पञ्चगव्येन हुत्वा सुज्वलितेऽनले । क्षीरवृक्षमयैः काष्ठैः शेषं सम्पादयेच्छनैः ॥ ८ ॥ प्रत्याहुतिं स्पृशञ्जप्त्वा सहस्रं पात्रसंस्थितम् । तेन तं प्रोक्षयेद्देशं कुशैर्मन्त्रमनुस्मरन् ॥ ९ ॥
[अब दूसरा प्रयोग कहा जाता है-] सोना, चाँदी, ताँबा, मिट्टी अथवा दूधवाले वृक्षकी लकड़ीके छिद्ररहित पात्रमें रखे हुए पंचगव्यद्वारा प्रज्वलित अग्निमें क्षीरवाले वृक्षकी समिधाओंसे एक हजार गायत्रीमन्त्रका उच्चारण करके हवन करे । यह कार्य धीरे-धीरे सम्पन्न करे । प्रत्येक आहुतिके समय पंचगव्यका स्पर्श करते हुए हवन करके पात्रमें अवशिष्ट पंचगव्यको हजार बार गायत्रीमन्त्रसे अभिमन्त्रितकर मन्त्रका स्मरण करते हुए कुशोद्वारा पंचगव्यसे वहाँकै स्थानका प्रोक्षण करे ॥ ७-९ ॥
बलिं किरंस्ततस्तस्मिन्ध्यायेत्तु परदेवताम् । अभिचारसमुत्पन्ना कृत्या पापं च नश्यति ॥ १० ॥ देवभूतपिशाचाद्यान् यद्येवं कुरुते वशे । गृहं ग्रामं पुरं राष्ट्रं सर्वं तेभ्यो विमुच्यते ॥ ११ ॥
तदनन्तर बलि-द्रव्य विकीर्ण करते हुए इष्ट देवताका ध्यान करना चाहिये । ऐसा करनेसे अभिचार कर्मोंसे उत्पन्न कृत्या तथा पापका नाश हो जाता है । यदि कोई ऐसा करता है तो देवता, भूत तथा पिशाच उसके वशीभूत हो जाते हैं । साथ ही उसके इस कर्मसे गृह, ग्राम, पुर तथा राष्ट्र-ये सब उनके अनिष्टकारी प्रभावसे मुक्त हो जाते हैं ॥ १०-११ ॥
निखने मुच्यते तेभ्यो लिखने मध्यतोऽपि च । मण्डले शूलमालिख्य पूर्वोक्ते च क्रमेऽपि वा ॥ १२ ॥ अभिमन्त्र्य सहस्रं तन्निखनेत्सर्वशान्तये । सौवर्णं राजतं वापि कुम्भं ताम्रमयं च वा ॥ १३ ॥ मृण्मयं वा नवं दिव्यं सूत्रवेष्टितमव्रणम् । स्थण्डिले सैकते स्थाप्य पूरयेन्मन्त्रविज्जलैः ॥ १४ ॥
भूमिपर चतुष्कोणमण्डल बनाकर उसके मध्य भागमें गायत्रीमन्त्र पढ़कर त्रिशूल गाड़ दे । इससे भी उन पिशाचादिसे मनुष्य मुक्ति प्राप्त कर लेता है । अथवा मन्त्रज्ञ पुरुषको चाहिये कि सभी प्रकारकी शान्तिके लिये पूर्वोक्त मण्डलमें ही गायत्रीके एक हजार मन्त्रसे अभिमन्त्रित करके त्रिशूलको गाड़े और वहाँपर सोने, चाँदी, ताँबा अथवा मिट्टीका एक छिद्ररहित, सूत्रवेष्टित नवीन तथा दिव्य कलश बालूसे बनी हुई एक वेदीपर स्थापित करके जलसे उसे भर दे ॥ १२-१४ ॥
दिग्भ्य आहृत्य तीर्थानि चतसृभ्यो द्विजोत्तमैः । एलाचन्दनकर्पूरजातीपाटलमल्लिकाः ॥ १५ ॥ बिल्वपत्रं तथा क्रान्तां देवीं व्रीहियवांस्तिलान् । सर्षपान्क्षीरवृक्षाणां प्रवालानि च निक्षिपेत् ॥ १६ ॥ सर्वाण्यभिविधायैव कुशकूर्चसमन्वितम् । स्नातः समाहितो विप्रः सहस्रं मन्त्रयेद् बुधः ॥ १७ ॥
तत्पश्चात् श्रेष्ठ द्विजको चारों दिशाओंके तीर्थोंका उसमें आवाहन करके इलायची, चन्दन, कपूर, जाती, गुलाब, मालती, बिल्वपत्र, विष्णुक्रान्ता, सहदेवी, धान, यव, तिल, सरसों तथा दूधवाले वृक्षोंके कोमल पत्तोंको उस कलशमें छोड़ देना चाहिये और उसमें कुशोंसे बनाया गया एक कूर्च भी रख देना चाहिये । इस प्रकार सब कुछ सम्पन्न हो जानेपर स्नान आदिसे पवित्र बुद्धिमान् विप्रको एकाग्रचित्त होकर एक हजार गायत्रीमन्त्रसे उस कलशको अभिमन्त्रित करना चाहिये ॥ १५-१७ ॥
दिक्षु सौरानधीयीरन्मन्त्रान्विप्रास्त्रयीविदः । प्रोक्षयेत्पाययेदेनं नीरं तेनाभिषिञ्चयेत् ॥ १८ ॥ भूतरोगाभिचारेभ्यः स निर्मुक्तः सुखी भवेत् । अभिषेकेण मुच्येत मृत्योरास्यगतो नरः ॥ १९ ॥
पुनः वेदज्ञ ब्राह्मणोंको चारों दिशाओंमें बैठकर सूर्य-सम्बन्धी मन्त्रोंका पाठ करना चाहिये । उस भूतादिग्रस्त पुरुषको वह अभिमन्त्रित जल पिलाना चाहिये और उसीसे उसका प्रोक्षण तथा अभिषेक भी करना चाहिये । इस अभिषेकसे वह व्यक्ति भूतों, रोगों तथा अभिचारोंसे मुक्त होकर सुखी हो जाता है । साक्षात् मृत्युके मुखमें गया हुआ प्राणी भी अभिषेकसे मुक्त हो जाता है ॥ १८-१९ ॥
अवश्यं कारयेद्विद्वान्राजा दीर्घं जिजीविषुः । गावो देयाश्च ऋत्विग्भ्य अभिषेके शतं मुने ॥ २० ॥ दक्षिणा येन वा तुष्टिर्यथाशक्त्याथवा भवेत् ।
दीर्घ कालतक जीवन धारण करनेकी अभिलाषा रखनेवाले विद्वान् राजाको ऐसे अनुष्ठान अवश्य कराने चाहिये । हे मुने ! अभिषेककी समाप्तिपर ऋत्विजोंको एक सौ गायें प्रदान करनी चाहिये और दक्षिणा उतनी हो, जिससे ऋत्विक् सन्तुष्ट हो जायें अथवा अपनी सामर्थ्य के अनुसार भी दक्षिणा दी जा सकती है ॥ २०.५ ॥
द्विजको चाहिये कि शनिवारको पीपलवृक्षके नीचे गायत्रीका सौ बार जप करे । इससे वह भूत, रोग तथा अभिचारसे उत्पन्न महान् भयसे मुक्त हो जाता है ॥ २१.५ ॥
गुडूच्याः पर्वविच्छिन्नाः पयोऽक्ता जुहुयाद् द्विजः ॥ २२ ॥ एवं मृत्युञ्जयो होमः सर्वव्याधिविनाशनः ।
द्विजको गाँठोंपरसे खण्ड-खण्ड किये गये गुरुचको दूधमें भिगोकर उससे हवन करना चाहिये । यह 'मृत्युंजयहोम' है, जो समस्त व्याधियोंका नाश करनेवाला है ॥ २२.५ ॥
आम्रस्य जुहुयात्पत्रैः पयोऽक्तैर्ज्वरशान्तये ॥ २३ ॥ वचाभिः पयसाक्ताभिः क्षयं हुत्वा विनाशयेत् । मधुत्रितयहोमेन राजयक्ष्मा विनश्यति ॥ २४ ॥ निवेद्य भास्करायान्नं पायसं होमपूर्वकम् । राजयक्ष्माभिभूतं च प्राशयेच्छान्तिमाप्नुयात् ॥ २५ ॥
ज्वरकी शान्तिके लिये दूधमें भिगोये गये आमके पत्तोंकी आहुति देनी चाहिये । दूधमें भिगोये गये 'वच' का हवन करनेसे क्षयरोग समाप्त हो जाता है । तीनों मधु (दूध, दही, घृत)-से किये गये हवनसे राजयक्ष्मा नष्ट हो जाता है । खीरका हवन करके उसे सूर्यको अर्पित करनेके बाद राजयक्ष्मासे ग्रस्त पुरुषको [प्रसाद-रूपमें] उसका प्राशन कराना चाहिये, जिससे रोग शान्त हो जाता है ॥ २३-२५ ॥
द्विजको क्षयरोगकी शान्तिके लिये सोमलताको गाँठोंपरसे अलग-अलग करके उसे दूधमें भिगोकर अमावास्या तिथिको उससे हवन करना चाहिये । शंखवृक्षके पुष्पोंसे हवन करके कुष्ठरोग दूर करे । इसी तरह अपामार्गके बीजोंसे हवन करनेपर अपस्मार (मिर्गी) रोगका नाश हो जाता है । ॥ २६-२७ ॥
क्षीरवृक्षसमिद्धोमादुन्मादोऽपि विनश्यति । औदुम्बरसमिद्धोमादतिमेहः क्षयं व्रजेत् ॥ २८ ॥ प्रमेहं शमयेद्धुत्वा मधुनेक्षुरसेन वा । मधुत्रितयहोमेन नयेच्छान्तिं मसूरिकाम् ॥ २९ ॥ कपिलासर्पिषा हुत्वा नयेच्छान्तिं मसूरिकाम् । उदुम्बरवटाश्वत्थैर्गोगजाश्वामयं हरेत् ॥ ३० ॥
क्षीरवृक्षकी समिधासे किये गये होमसे उन्माद रोग दूर हो जाता है । गूलरकी समिधासे हवन करनेपर अतिमेहरोग नष्ट हो जाता है । साथ ही मधु अथवा ईखके रससे हवन करके मनुष्य प्रमेहरोगको शान्त कर सकता है । मनुष्य त्रिमधु (दूध, दही और घी)के हवनसे चेचकरोगको समाप्त कर सकता है, उसी प्रकार कपिला गायके घीसे हवन करके भी चेचकरोगको शान्त कर सकता है और गूलर, वट तथा पीपलकी समिधाओंसे हवन करके गाय, घोड़े और हाथियोंके रोगको नष्ट कर सकता है ॥ २८-३० ॥
पिपीलिमधुवल्मीके गृहे जाते शतं शतम् । शमीसमिद्भिरन्नेन सर्पिषा जुहुयाद् द्विजः ॥ ३१ ॥ तदुत्थं शान्तिमायाति शेषैस्तत्र बलिं हरेत् ।
पिपीलिका और मधुवल्मीक जन्तुओंका घरमें उपद्रव होनेपर घृतयुक्त शमीकी समिधाओं तथा भातसे प्रत्येक कार्यके लिये सौ-सौ आहुतियाँ द्विजको देनी चाहिये । ऐसा करनेसे उनके द्वारा उत्पन्न उपद्रव शान्त हो जाता है । इसके बाद बचे हुए पदार्थोंसे वहाँ बलि प्रदान करनी चाहिये ॥ ३१.५ ॥
कोई पुरुष सौ बार गायत्रीमन्त्रका जप करके जिस दिशामें मिट्टीका ढेला फेंकता है, उसे उस दिशामें अग्नि, हवा तथा शत्रुओंसे होनेवाला भय दूर हो जाता है । मन-ही-मन इस गायत्रीका जप करना चाहिये इससे बन्धनमें पड़ा मनुष्य उस बन्धनसे छूट जाता है ॥ ३३-३४ ॥
कोई मनुष्य भूत, रोग तथा विषसे संग्रस्त व्यक्तिको स्पर्श करते हुए गायत्रीका जप करके इनसे मुक्त कर देता है । गायत्रीसे अभिमन्त्रित जल पीकर मनुष्य भूत-प्रेतादिसे मुक्त हो जाता है ॥ ३५ ॥
भूत आदिसे शान्तिके लिये गायत्रीमन्त्रका सौ बार उच्चारण करके भस्मको अभिमन्त्रितकर उसे रख लेना चाहिये और 'तत्सवितु०' ऋचासे उस भस्मको सिरपर धारण करना चाहिये ॥ ३६ ॥
ऐसा करनेसे वह पुरुष समस्त व्याधियोंसे मुक्त होकर सौ वर्षतक सुखपूर्वक जीता है । यदि कोई इसे करने में असमर्थ हो तो किसी विप्रको दक्षिणा देकर उससे शान्ति-कर्म करा लेना चाहिये ॥ ३७ ॥
पुष्पोंकी आहुति देकर द्विज पुष्टि, श्री तथा लक्ष्मी प्राप्त करता है । लक्ष्मीको कामना करनेवाले पुरुषको लाल कमलपुष्पोंसे हवन करना चाहिये, इससे वह श्रीकी प्राप्ति करता है । जातीके नवीन शुभ पुष्पोंसे आहुति देकर मनुष्य लक्ष्मी प्राप्त करता है तथा शालिके चावलोंके हवनसे वियुक्त लक्ष्मी प्राप्त करता है । बिल्ववृक्षकी समिधाओंसे हवन करके मनुष्य लक्ष्मी प्राप्त करता है । साथ ही बिल्वफलके खण्डों, पत्तों, पुष्पों, फलों तथा बिल्ववृक्षके मूलके खण्डोंसे हवन करके उत्तम लक्ष्मी प्राप्त करता है । इसी प्रकार खीर तथा घृतसे मिश्रित बिल्ववृक्षको समिधाओंकी सात दिनोंतक सौ-सौ आहुतियाँ देकर मनुष्य लक्ष्मीको प्राप्त कर लेता है ॥ ३८-४१.५ ॥
मधुत्रय (दूध, दही, घी)-से युक्त लावाका हवन करनेसे पुरुष कन्या प्राप्त करता है और इसी विधिसे कन्या भी अभिलषित वर प्राप्त कर लेती है । एक सप्ताहतक रक्तकमलकी सौ आहुतियाँ देकर पुरुष सुवर्ण प्राप्त कर लेता है और सूर्यके बिम्बमें जलकी आहुति देकर मनुष्य जलमें स्थित सोना प्राप्त कर लेता है । ४२-४३.५ ॥
अन्नका हवन करके मनुष्य अन्न प्राप्त करता है तथा व्रीहिका हवन करके व्रीहिका स्वामी हो जाता है । बछड़ेके गोमयके चूर्णसे हवन करके पुरुष पशुओंकी प्राप्ति करता है । प्रियंगु, दूध तथा घीके द्वारा हवनसे प्रजा-सन्तान प्राप्त होती है । खीरका हवन करके तथा सूर्यको निवेदित करके उसे ऋतुस्नाता स्त्रीको खिलाये ऐसा करनेवाला पुरुष श्रेष्ठ पुत्र प्राप्त करता है ॥ ४४-४६ ॥
अंकुरित शाखाओंवाली आई समिधाओंसे हवन करनेपर आयुकी प्राप्ति होती है । इसी प्रकार दूधवाले वृक्षोंकी समिधासे हवन करके मनुष्य आयु प्राप्त करता है । अंकुरित शाखाओंवाली गीली, लाल समिधाओं और मधुत्रय (दूध, दही, घी)-से युक्त व्रीहिकी सौ आहुति देकर मनुष्य स्वर्ण तथा दीर्घ आयु प्राप्त करता है ॥ ४७-४८ ॥
सुवर्णकुड्मलं हुत्वा शतमायुरवाप्नुयात् । दूर्वाभिः पयसा वापि मधुना सर्पिषापि वा ॥ ४९ ॥ शतं शतं च सप्ताहमपमृत्युं व्यपोहति । शमीसमिद्भिरन्नेन पयसा वा च सर्पिषा ॥ ५० ॥ शतं शतं च सप्ताहमपमृत्युं व्यपोहति । न्यग्रोधसमिधो हुत्वा पायसं होमयेत्ततः ॥ ५१ ॥ शतं शतं च सप्ताहमपमृत्युं व्यपोहति । क्षीराहारो जपेन्मृत्योः सप्ताहाद्विजयी भवेत् ॥ ५२ ॥ अनश्नन्वाग्यतो जप्त्वा त्रिरात्रं मुच्यते यमात् । निमज्ज्याप्सु जपेदेवं सद्यो मृत्योर्विमुच्यते ॥ ५३ ॥
सुनहरे रंगके कमलकी आहुति देकर मनुष्य सौ वर्षकी आयु प्राप्त करता है । दूर्वा, दूध, मधु अथवा घोसे सप्ताहपर्यन्त प्रतिदिन सौ-सौ आहुति देकर मनुष्य अपमृत्यु दूर कर देता है । उसी प्रकार शमीकी समिधाओं, अन्न, दूध तथा घीसे एक सप्ताहतक प्रतिदिन सौ-सौ आहुतियोंसे अपमृत्युका विनाश कर देता है । बरगदको समिधाओंसे हवन करके खीरका हवन करना चाहिये; एक सप्ताहतक प्रतिदिन इनकी सौ-सौ आहुतियोंसे मनुष्य अपमृत्युको नष्ट कर देता है । यदि कोई दुग्धके आहारपर रहकर गायत्रीका जप करे तो वह सप्ताहभरमें मृत्युपर विजय प्राप्त कर लेता है और बिना कुछ आहार ग्रहण किये मौन रहकर जप करे तो तीन रातमें ही यमसे मुक्ति प्राप्त कर लेता है । इसी प्रकार यदि जलमें निमग्न होकर जप करे तो वह उसी क्षण मृत्युसे मुक्ति पा लेता है ॥ ४९-५३ ॥
एक मासतक कमलकी सौ आहुति देनेपर मनुष्य निष्कण्टक राज्य प्राप्त करता है । शालिचावलकी लपसीकी आहुतिसे ग्रामकी प्राप्ति होती है । पीपलवृक्षकी समिधाओंसे हवन करके मनुष्य युद्ध आदिमें विजय करता है और मदारकी समिधाओंसे हवन करके सभी जगह विजयी सिद्ध होता है ॥ ५५-५६ ॥
दुग्ध तथा खीरसे युक्त बेंतके पुष्पों अथवा पत्रोंसे सप्ताहपर्यन्त सौ-सौ आहुति देनेसे वृष्टि प्राप्त होती है । नाभिपर्यन्त जलमें खड़े रहकर एक सप्ताहतक जप करनेसे वृष्टि होती है । जलमें भस्मकी सौ आहुति देनेसे महावृष्टिका निवारण हो जाता है ॥ ५७-५८ ॥
मनुष्य दूधकी आहुति देकर मेधा तथा घीकी आहुति देकर बुद्धि प्राप्त करता है । गायत्रीमन्त्रसे अभिमन्त्रित ब्राह्मीके रसका पान करनेसे मनुष्यको मेधाकी प्राप्ति होती है ॥ ६० ॥
ब्राह्मीपुष्पोंके हवनसे सुगन्ध तथा उसके तन्तुओंके हवनसे उसीके समान वस्त्रकी प्राप्ति होती है । मधुमिश्रित लवणकी आहुति देकर मनुष्य अभीष्टको वशमें कर लेता है । इसी प्रकार शहदसे सिक्त किये गये बिल्वपुष्पोंसे हवन करनेपर मनुष्य अपने इष्टको वशमें कर लेता है । जलमें खड़े होकर [गायत्रीमन्त्रका जप करते हुए] अंजलिसे अपने ऊपर नित्य अभिषेक करनेसे मनुष्य बुद्धि, आरोग्य, उत्तम आयु और स्वास्थ्य प्राप्त करता है । यदि किसी अन्य व्यक्तिके निमित्त कोई ब्राह्मण ऐसा करे तो वह भी पुष्टि प्राप्त करता है ॥ ६१-६३ ॥
आयुकी कामना करनेवालेको किसी पवित्र स्थानमें उत्तम विधिके साथ मासपर्यन्त प्रतिदिन एक-एक हजार गायत्रीका जप करना चाहिये । इससे उसे उत्तम आयु प्राप्त होती है । आयु तथा आरोग्य दोनोंकी कामना करनेवाले द्विजको दो मासतक गायत्रीजप करना चाहिये । इसी प्रकार आयु, आरोग्य तथा लक्ष्मीकी कामना करनेवालेको तीन मासतक जप करना चाहिये । द्विजको चार मासतक जप करनेसे आयु, लक्ष्मी, पुत्र, स्त्री तथा यशकी प्राप्ति होती है और पाँच मासतक जप करनेसे पुत्र, स्त्री, आयु, आरोग्य, लक्ष्मी और विद्याकी प्राप्ति होती है । इस तरहसे जितने मनोरथ संख्यामें बढ़ते जायें, उसीके अनुसार जपके लिये मास-संख्या भी बढ़ानी चाहिये । विप्रको एक पैरपर स्थित होकर बिना किसी आश्रयके बाँहोंको ऊपर किये हुए तीन सौ गायत्रीमन्त्रोंका प्रतिदिन मासपर्यन्त जप करना चाहिये, ऐसा करनेसे वह सभी मनोरथोंको पूर्ण कर लेता है । इस प्रकार ग्यारह सौ मन्त्र नित्य मासपर्यन्त जप करके वह सब कुछ प्राप्त कर लेता है ॥ ६४-६८ ॥
प्राण और अपान वायु रोककर प्रतिदिन तीन सौ गायत्रीमन्त्रका जप मासपर्यन्त करनेसे पुरुषको वह सब कुछ प्राप्त हो जाता है, जिसकी वह अभिलाषा रखता है; और इसी तरह एक हजार जप करनेसे सर्वस्वकी प्राप्ति हो जाती है ॥ ६९ ॥
एकपादो जपेदूर्ध्वबाहू रुद्ध्वानिलं वशः । मासं शतमवाप्नोति यदिच्छेदिति कौशिकः ॥ ७० ॥ एवं शतत्रयं जप्त्वा सहस्रं सर्वमाप्नुयात् । निमज्ज्याप्सु जपेन्मासं शतमिष्टमवाप्नुयात् ॥ ७१ ॥ एवं शतत्रयं जप्त्वा सहस्रं सर्वमाप्नुयात् ।
इन्द्रियोंको वशमें करके एक पैरपर स्थित होकर बाँहें ऊपर उठाये हुए श्वास निरुद्ध करके मासभर प्रतिदिन एक सौ गायत्रीमन्त्र जपनेसे मनुष्य जो चाहता है, उसकी वह अभिलाषा पूर्ण हो जाती हैऐसा विश्वामित्रजीका कथन है । इसी प्रकार तेरह सौ मन्त्रोंका जप करनेसे मनुष्य सब कुछ प्राप्त कर लेता है । जलमें निमग्न होकर एक मासतक प्रतिदिन सौ मन्त्रोंका जप करनेसे मनुष्य अपना अभीष्ट प्राप्त कर लेता है । इसी तरह तेरह सौ मन्त्रोंका जप करनेसे वह सब कुछ पा लेता है ॥ ७०-७१.५ ॥
बिना किसी अवलम्बके एक पैरपर खड़े होकर बाँहें ऊपर उठाये हुए श्वास-नियमन करके एक वर्षतक जप करे और रात्रिमें केवल हविष्यान्न भक्षण करे तो वह पुरुष ऋषित्वको प्राप्त हो जाता है । इसी तरह यदि मनुष्य दो वर्षतक जप करे तो उसकी वाणी अमोघ हो जाती है ॥ ७२-७३ ॥
इसी प्रकार तीन वर्षांतक जप करे तो मनुष्य त्रिकालदर्शी हो जाता है और यदि चार वर्षांतक जप करे तो भगवान् सूर्यदेव स्वयं उस व्यक्तिके समक्ष प्रकट हो जाते हैं । इसी प्रकार पाँच वर्षांतक जप करनेसे मनुष्य अणिमा आदि सिद्धियाँ प्राप्त कर लेता है और इसी प्रकार छः वर्षांतक जप करके वह कामरूपित्वको प्राप्त हो जाता है ॥ ७४-७५ ॥
सात वर्षांतक जप करनेसे पुरुषको देवत्व, नौ वर्षांतक जप करनेसे मनुत्व और दस वर्षांतक जप करनेसे इन्द्रत्वकी प्राप्ति हो जाती है । ग्यारह वर्षोंतक जप करनेसे मनुष्य प्रजापति हो जाता है तथा बारह वर्षांतक जप करके वह ब्रह्मत्वको प्राप्त हो जाता है । ७६-७७ ॥
इसी प्रकारकी तपस्याके द्वारा नारद आदि ऋषियोंने सम्पूर्ण लोकोंको जीत लिया था । कुछ ऋषि केवल शाकके आहारपर, कुछ फलपर, कुछ मूलपर और कुछ दूधके आहारपर रहते थे । कुछ ऋषिगण घीके आहारपर, कुछ सोमरसके आहारपर और अन्य ऋषि चरुके आहारपर रहते थे । इसी प्रकार कुछ ऋषि पूरे पक्षभर केवल एक बार भोजन ग्रहण करते थे तथा कुछ ऋषि प्रतिदिन भिक्षान्नके आहारपर रहते थे और कुछ ऋषि हविष्यान्न ग्रहण करते हुए कठोर तपश्चर्या करते थे ॥ ७८-७९.५ ॥
द्विजको चाहिये कि प्रच्छन्न पातकोंकी शुद्धिके लिये तीन हजार गायत्रीके मन्त्रोंका जप करे । द्विजोंमें श्रेष्ठ पुरुष एक महीनेतक प्रतिदिन इस प्रकार जप करनेसे सुवर्णकी चोरीके पापसे मुक्त हो जाता है । सुरापान करनेवाला मासपर्यन्त प्रतिदिन तीन हजार जप करे तो वह शुद्ध हो जाता है । गुरुपत्नीके साथ गमन करनेवाला व्यक्ति महीनेभर प्रतिदिन तीन हजार गायत्रीमन्त्र जपनेसे पवित्र हो जाता है । वनमें कुटी बनाकर वहीं रहते हुए महीनेभर प्रतिदिन तीन हजार गायत्रीजप करनेसे ब्रह्मघाती उस पापसे मुक्त हो जाता है-ऐसा विश्वामित्रऋषिने कहा है । जलमें निमग्न होकर बारह दिनोंतक प्रतिदिन एक-एक हजार गायत्रीमन्त्रका जप करनेसे सभी महापातकी द्विज सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाते हैं । ८०-८३ ॥
महापातकी व्यक्ति मौन रहकर प्राणायामपूर्वक मासपर्यन्त प्रतिदिन तीन हजार गायत्रीमन्त्रका जप करे तो वह महान् भयसे मुक्त हो जाता है । एक हजार प्राणायाम करनेसे ब्रह्माहत्यारा भी पापसे मुक्त हो जाता है ॥ ८४-८५ ॥
मासपर्यन्त प्रतिदिन एक हजार गायत्रीका जप करनेसे राजा पवित्र हो जाता है । गोवधजन्य पापसे शुद्धिहेतु द्विजको बारह दिनोंतक प्रतिदिन तीन-तीन हजार गायत्रीजप करना चाहिये ॥ ८७ ॥
दस हजार गायत्रीका जप द्विजको अगम्यागमन, चोरी, हिंसा तथा अभक्ष्यभक्षणके पापसे शुद्ध कर देता है । सौ बार प्राणायाम करके मनुष्य सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है । सभी प्रकारके मिले-जुले पापोंसे शुद्धिके लिये प्रतिदिन एक मासतक तत्सवितु० ऋचाका एक हजार जप वनमें रहकर करना चाहिये । इसका तीन हजार जप उपवासके समकक्ष होता है ॥ ८८-९० ॥
प्रात: तथा सायंकालीन दोनों सन्ध्याओंके समय नित्य प्राणायाम करके 'तत्सवितु०' इस ऋचाका एक सौ जप करनेवाले पुरुषके सभी पाप पूर्णरूपसे विनष्ट हो जाते हैं । ९२ ॥
जलमें निमग्न होकर सूर्यस्वरूपिणी देवीका ध्यान करते हुए गायत्रीमन्त्रका नित्य सौ बार जप करनेवाला समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ ९३ ॥
इति ते सम्यगाख्याताः शान्तिशुद्ध्यादिकल्पनाः । रहस्यातिरहस्याश्च गोपनीयास्त्वया सदा ॥ ९४ ॥ इति संक्षेपतः प्रोक्तः सदाचारस्य संग्रहः । विधिनाऽऽचरणादस्य माया दुर्गा प्रसीदति ॥ ९५ ॥
हे नारद ! इस प्रकार मैंने शान्ति, शुद्धि आदिसे सम्बन्धित अनुष्ठानोंका वर्णन आपसे कर दिया । रहस्योंमें भी अति रहस्य इस प्रसंगको आपको सदा गोपनीय रखना चाहिये । इस प्रकार यह सदाचार-संग्रह संक्षेपमें बतला दिया । इस सदाचारका विधिपूर्वक पालन करनेसे महामाया दुर्गा प्रसन्न हो जाती हैं ॥ ९४-९५ ॥
नैमित्तिकं च नित्यं च काम्यं कर्म यथाविधि । आचरेन्मनुजः सोऽयं भुक्तिमुक्तिफलाप्तिभाक् ॥ ९६ ॥
जो मनुष्य नित्य, नैमित्तिक तथा काम्य कर्मोसे सम्बद्ध आचारोंका विधिपूर्वक पालन करता है, वह भोग तथा मोक्षके फलका अधिकारी होता है ॥ ९६ ॥
सदाचारका विधान देवीकी प्रसन्नताको उत्पन्न करनेवाला है । इस विधानको सुननेमात्रसे मनुष्य विपुल सम्पदा तथा सुखका अधिकारी हो जाता है । सदाचारके पालनसे मनुष्यको ऐहिक तथा पारलौकिक सुख सुलभ हो जाता है । उसी सदाचारका वर्णन मैंने आपसे किया है । [हे नारद !] अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ॥ ९९-१०० ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां एकादशस्कन्धे सदाचारनिरूपणं नाम चतुर्विंशोध्यायः ॥ २४ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायामेकादशस्कन्धे सदाचारनिरूपणं नाम चतुर्विंशोध्यायः ॥ २४ ॥