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मन्त्रदीक्षाविधिवर्णनम् -
दीक्षाविधि -
नारद उवाच श्रुतं सहस्रनामाख्यं श्रीगायत्र्याः फलप्रदम् । स्तोत्रं महोन्ततिकर महाभाग्यकरं परम् ॥ १ ॥ अधुना श्रोतुमिच्छामि दीक्षालक्षणमुत्तमम् । विना येन न सिध्येत देवीमन्त्रेऽधिकारिता ॥ २ ॥ ब्राह्मणानां क्षत्रियाणां विशां स्त्रीणां तथैव च । सामान्यविधिना सर्वं विस्तरेण वद प्रभो ॥ ३ ॥
नारदजी बोले-[हे भगवन् !] मैंने यह श्रीगायत्रीदेवीका सहस्रनामसंज्ञक श्रेष्ठ फल प्रदान करनेवाला, महान् उन्नतिकी प्राप्ति करानेवाला तथा महान् भाग्योदय करनेवाला स्तोत्र सुन लिया । अब मैं दीक्षाका उत्तम लक्षण सुनना चाहता हूँ: जिसके बिना ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों तथा स्त्रियोंको देवीमन्त्र जपनेका अधिकार प्राप्त नहीं होता । अतः हे प्रभो ! सामान्य विधिसे [दीक्षासम्बन्धी सम्पूर्ण प्रसंगका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये ॥ १-३ ॥
श्रीनारायण बोले-[हे नारद !] सुनिये, मैं आपको पुण्यात्मा शिष्योंके दीक्षा लेनेका विधान बता रहा हूँ, जिससे उन्हें देवता, अग्नि तथा गुरुकी पूजा आदिका अधिकार प्राप्त हो जाता है ॥ ४ ॥
दिव्यं ज्ञानं हि या दद्यात्कुर्यात्पापक्षयं तु या । सैव दीक्षेति सम्प्रोक्ता वेदतन्त्रविशारदैः ॥ ५ ॥
जो दिव्य ज्ञान दे और जो पापोंका क्षय करे, उसीको वेदतन्त्रोंके पारगामी विद्वानोंने 'दीक्षा' इस नामकी संज्ञा दी है ॥ ५ ॥
दीक्षा अवश्य लेनी चाहिये; क्योंकि यह अनेक फल प्रदान करनेवाली बतायी गयी है । इस दीक्षाग्रहणकार्यमें गुरु तथा शिष्य दोनों ही अत्यन्त शुद्ध भाववाले होने चाहिये ॥ ६ ॥
गुरुस्तु विधिवत्प्रातः कृत्यं सर्वं विधाय च । स्तानसन्ध्यादिकं सर्वं यथाविधि विधाय च ॥ ७ ॥ कमण्डलुकरो मौनी गृहं यायात्सरित्तटात् । यागमण्डपमासाद्य विशेत्तत्रासने वरे ॥ ८ ॥
गुरुको चाहिये कि प्रातःकालीन सम्पूर्ण कृत्य विधिवत् सम्पन्न करके पुनः विधानके अनुसार स्नान तथा सन्ध्या आदि करनेके अनन्तर हाथमें कमण्डलु लेकर मौनभावसे नदीतटसे घरपर आये और यज्ञमण्डपमें पहुँचकर वहाँ एक उत्तम आसनपर बैठ जाय ॥ ७-८ ॥
तदनन्तर आचमन तथा प्राणायाम करके 'ॐ फट्' इस अस्त्रमन्त्रको सात बार जपते हुए गन्ध और पुष्पसे मिश्रित जलको अभिमन्त्रित करे । पुनः बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि अस्त्रमन्त्रका उच्चारण करते हुए उसी जलसे सम्पूर्ण द्वारका प्रोक्षण करे और उसके बाद पूजन करे ॥ ९-१० ॥
ऊर्ध्वोदुम्बरके देवं गणनाथं तथा श्रियम् । सरस्वतीं नाममन्त्रैः पूजयेद् गन्धपुष्पकैः ॥ ११ ॥ द्वारदक्षिणशाखायां गङ्गां विघ्नेशमर्चयेत् । द्वारस्य वामशाखायां क्षेत्रपालं च सूर्यजाम् ॥ १२ ॥ देहल्यां पूजयेदस्त्रदेवतामस्त्रमन्त्रतः । सर्वं देवीमयं दृश्यमिति सञ्चिन्त्य सर्वतः ॥ १३ ॥
दरवाजेके ऊपरी भागमें भगवान् गणेश, लक्ष्मी तथा सरस्वतीका पूजन नाममन्त्रोंका उच्चारण करते हुए गन्ध तथा पुष्प आदि अर्पित करके करना चाहिये । तत्पश्चात् द्वारकी दक्षिणशाखामें भगवती गंगा और विजेश्वर गणेशकी एवं द्वारकी वामशाखामें क्षेत्रपाल तथा सूर्यपुत्री यमुनाकी पूजा करनी चाहिये । इसी प्रकार देहलीपर अस्त्रमन्त्रसे अस्त्रदेवताकी पूजा करे । सब ओर ऐसी भावना करे कि सम्पूर्ण दृश्य जगत् देवीमय ही है ॥ ११-१३ ॥
दिव्यानुत्सारयेद्विघ्नानस्त्रमन्त्रजपेन तु । अन्तरिक्षगतान्विघ्नान्पादघातैस्तु भूमिगान् ॥ १४
पुनः अस्त्रमन्त्रके जपद्वारा दैवीविघ्नोंका उच्छेद करे और पदके आधातोंसे अन्तरिक्ष तथा भूतलके विघ्नोंका अपसारण करे ॥ १४ ॥
वामशाखां स्मृशत्पश्चात्प्रविशेद्दक्षिणाङ्घ्रिणा । प्रविश्य कुम्भं संस्थाप्य सामान्यार्घ्यं विधाय च ॥ १५ ॥ तेन चार्घ्यजलेनापि नैर्ऋत्यां दिशि पूजयेत् । वास्तुनाथं पद्मयोनिं गन्धपुष्पाक्षतादिभिः ॥ १६ ॥
इसके बाद द्वारदेशकी बायीं शाखाका स्पर्श करते हुए पहले दाहिना पैर रखकर मण्डपमें प्रवेश करे । भीतर प्रवेश करके जलका कलश रखकर सामान्य अर्घ्य बना ले और उसी अर्घ्यजलसे तथा गन्ध-पुष्प-अक्षत आदिसे नैर्ऋत्य दिशामें वास्तुके स्वामी पद्मयोनि ब्रह्माकी पूजा करे ॥ १५-१६ ॥
ततः कुर्यात्पञ्चगव्यं तेन चार्घ्योदकेन च । तोरणस्तम्भपर्यन्तं प्रोक्षयेन्मण्डपं गुरुः ॥ १७ ॥ सर्वं देवीमयं चेदं भावयेन्मनसा किल । मूलमन्त्रं जपन्भक्त्या प्रोक्षणं स्याच्छराणना ॥ १८ ॥
तत्पश्चात् पंचगव्य बनाना चाहिये और पुनः गुरुका उस पंचगव्य तथा अर्घ्य-जलके द्वारा तोरणसे लेकर स्तम्भतक उस मण्डपका प्रोक्षण करना चाहिये । उस समय मनमें यह भावना करे कि यह सब कुछ देवीमय है । भक्तिपूर्वक मूलमन्त्रका जप करते हुए अस्वमन्त्रसे प्रोक्षण करना चाहिये ॥ १७-१८ ॥
शरमन्त्रं समुच्चार्य ताडयेन्मण्डपक्षमाम् । हुमन्त्रं तु समुच्चार्य कुर्यादभ्युक्षणं ततः ॥ १९ ॥ धूपयेदन्तरं धूपैर्विकिरान् विकिरेत्ततः । मार्जयेत्तांस्तु मार्जन्या कुशनिर्मितया पुनः ॥ २० ॥ ईशानदिशि तत्पुञ्जं कृत्वा संस्थापयेत्मुने । पुण्याहवाचनं कृत्वा दीनानाथांश्च तोषयेत् ॥ २१ ॥
अस्त्रमन्त्रका उच्चारण करके मण्डपभूमिका ताडन करे और इसके बाद 'हुम्'-इस मन्त्रका उच्चारण करके उसपर जलके छींटे दे । तदनन्तर धूप आदि सुगन्धित पदार्थोंसे धूपित करे और विघ्नकी शान्तिहेतु जल, चन्दन, सरसों, अक्षत, दूर्वा और भस्म वहाँ विकिरित कर दे । पुनः कुशकी निर्मित मार्जनीसे उनका मार्जन करे । हे मुने ! उन मार्जित द्रव्योंको एकत्र करके ईशान दिशामें किसी उचित स्थानपर रख दे । तत्पश्चात् पुण्याहवाचन करके दीनों और अनार्थीको सन्तुष्ट करे ॥ १९-२१ ॥
मस्तकमें देयमन्त्रके ऋषिका, मुखमें छन्दका, हृदयकमलमें देवताका, गुह्यमें बीजका और दोनों पैरोंमें शक्तिका न्यास करके तीन बार ताली बजाये, फिर साधक पुरुषको चाहिये कि तीन बार चुटकी बजाकर दिग्बन्ध करे ॥ २४-२५ ॥
तत्पश्चात् प्राणायाम करके मूलमन्त्रका स्मरण करते हुए अपनी देहमें मातृकाका न्यास करना चाहिये । उसकी विधि इस प्रकार बतायी जा रही है । हे मुने ! मन्त्रवित्को चाहिये कि 'ॐ अं नमः' का उच्चारण करके सिरमें मातृकान्यास करे, इसी प्रकार शरीरके सभी अंगोंमें न्यास करे ॥ २६-२७ ॥
मूलमन्त्रं षडङ्गं च न्यसेदङ्गेषु सत्तमः । अङ्गुष्ठादिष्वङ्गुलीषु हृदयादिषु च क्रमात् ॥ २८ ॥
श्रेष्ठ पुरुषको चाहिये कि अंगुष्ठ आदि अंगुलियों और हृदय आदि अंगोंमें क्रमश: मूलमन्त्रसे षडंगन्यास करे ॥ २८ ॥
नमः स्वाहावषड्युक्तैर्हुंवौषट्फट्पदान्वितैः । प्रणवादियुतैर्मन्त्रैः षड्भिरेव षडङ्गकम् ॥ २९ ॥ वर्णन्यासादिकं पश्चान्मूलमन्त्रस्य योजयेत् । स्थानेषु तत्तत्कल्पोक्तेष्विति न्यासविधिः स्मृतः ॥ ३० ॥
'नमः, स्वाहा, वषट्, हुं, वौषट् और फट्'इन पदोंके साथ 'ॐ' लगे हुए छः मन्त्रोंसे ही षडंगन्यास करना चाहिये । तदनन्तर देय मूलमन्त्रके वर्णोसे तत्तत् कल्पित स्थानोंमें न्यास करे, यही न्यासकी विधि कही गयी है ॥ २९-३० ॥
ततो निजे शरीरेऽस्मिंश्चिन्तयेदासनं शुभम् । दक्षांसे च न्यसेद्धर्मं वामांसे ज्ञानमेव च ॥ ३१ ॥ वामोरौ चापि वैराग्यं दक्षोरावथ विन्यसेत् । ऐश्वर्यं मुखदेशे तु मुने ध्यायेदधर्मकम् ॥ ३२ ॥ वामपार्श्वे नाभिदेशे दक्षपार्श्वे तथा पुनः । नञादीश्चापि ज्ञानादीन्पूर्वोक्तानेव विन्यसेत् ॥ ३३ ॥
तदनन्तर अपने इस शरीरमें एक पवित्र आसनकी भावना करनी चाहिये । हे मुने ! इसके दक्षिण भागमें धर्म, वामभागमें ज्ञान, वाम ऊरूमें वैराग्य और दक्षिण ऊरूमें ऐश्वर्यका न्यास करना चाहिये । मुखदेशमें धर्मका न्यास करना चाहिये । साथ ही वामपार्श्व, नाभिस्थल तथा दक्षिणपार्श्वमें नञ् समासपूर्वक क्रमश: धर्म, ज्ञान तथा वैराग्यका (अर्थात् अधर्म आदिका) न्यास करना चाहिये ॥ ३१-३३ ॥
तत्पश्चात् ऐसी भावना करे कि इस अत्यन्त सुकोमल आसनके मध्यमें हृदय है, जिसमें भगवान अनन्त विराजमान हैं । पुन: उस अनन्तमें प्रपंचमय विमल कमलका चिन्तन करे और साधकको चाहिये कि उस कमलके ऊपर कलायुक्त सूर्य, चन्द्रमा और अग्निकी भावना करे । अब मैं संक्षेपमें उन कलाओंके विषयमें बताता हूँ । सूर्यकी बारह, चन्द्रमाकी सोलह और अग्निकी दस कलाएँ कही गयी हैं । उन कलाओंके साथ उन सूर्य आदिका भी स्मरण करना चाहिये । इसके बाद उनके ऊपर सत्त्व, रज और तमका न्यास करना चाहिये । पुनः विद्वान् पुरुषको चाहिये कि उस पीठकी चारों दिशाओंमें आत्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा और ज्ञानात्माका न्यास करे । इस प्रकार पीठकी कल्पना करनी चाहिये ॥ ३५-३८ ॥
तदनन्तर साधक पुरुष 'अमुकासनाय नमः'इस मन्त्रसे शरीररूपी आसनकी पूजा करके उसपर पराम्बिकाका ध्यान करे । इसके बाद मन्त्रवित्को चाहिये कि कल्पोक्त विधिसे मानसिक उपचारोंद्वारा देयमन्त्रके देवता उन भगवतीकी विधिपूर्वक पूजा करे ॥ ३९-४० ॥
श्रीनारायण बोले-[हे नारद !] तत्पश्चात् अपने वामभागके अग्रस्थानमें षट्कोण चक्र बनाये और उसके ऊपर एक गोल चक्र बनाये और उसके ऊपर चतुष्कोण मण्डलका निर्माण करे । तत्पश्चात् उस मण्डलके मध्यमें त्रिकोण लिखकर शंखमुद्रा प्रदर्शित करे और छ: कोणोंमें छ: अंगोंकी पुष्प आदिसे पूजा करे । हे मुनिश्रेष्ठ ! अग्नि आदि कोणोंमें छ: अंगोंका अर्चन करे । तत्पश्चात् शंख रखनेका पात्र लेकर 'फट्'-इस अस्त्रमन्त्रसे प्रोक्षण करके उसे मण्डलमें स्थापित करे । 'मं वह्निमण्डलाय नमः' मन्त्र पढ़कर 'दशकलात्मने अमुकदेव्या अयंपात्रस्थानाय नमः' इसका उच्चारण करना चाहिये । विद्वान् पुरुषोंने शंखके आधारस्थापनके लिये यही मन्त्र बताया है । आधारदेशमें पूर्वसे आरम्भ करके दक्षिणके क्रमसे अग्निमण्डलमें निवास करनेवाली दसों अग्निकलाओंकी पूजा करनी चाहिये ॥ ४२-४७ ॥
इसके बाद 'शं शङ्खाय नमः' इस पदका उच्चारण करके उसीसे उस शंखका प्रोक्षण करे और उस शंखमें सूर्यकी 'तपिनी' आदि बारह कलाओंकी यथाक्रम रीतिसे पूजा करे । फिर विलोम मातृका और विलोम मूलमन्त्रका उच्चारण करके शंखको जलसे भर दे और उसमें चन्द्रमाकी कलाओंका न्यास करे । 'ॐ सोममण्डलाय षोडशकलात्मने अमुकाया॑मृताय हृदयाय नमः' यह मन्त्रका रूप बतलाया गया है । उसी मन्त्रके द्वारा अंकुशमुद्रासे जलकी पूजा करनी चाहिये ॥ ५०-५३ ॥
तत्पश्चात् आठ बार मूलमन्त्रका जप करके मत्स्य-मुद्रासे जलको हक दे, फिर दक्षिणभागमें शंखकी प्रोक्षणी रखे । शंखसे कुछ जल लेकर उसके द्वारा सब ओर प्रोक्षण करे । पूजन-सामग्री और अपने शरीरका भी उस जलसे प्रोक्षण करे । तत्पश्चात् अपने शरीरको परमशुद्धिको कल्पना कर ले ॥ ५५-५६ ॥
तदनन्तर छिद्ररहित कलश हाथमें लेकर 'फट्'इस अस्त्रमन्त्रसे अभिमन्त्रित जलके द्वारा उसे प्रक्षालित करे । इसके बाद तिगुने रक्तसूत्रसे उस कलशको आवेष्टित करे । उस कलशमें नवरत्न तथा कूर्च डालकर गन्ध आदिसे उसका पूजनकर प्रणवमन्त्रका उच्चारण करते हुए उस पीठपर कलशको साधक स्थापित कर दे ॥ ५९-६० ॥
हे मुने ! तत्पश्चात् कलश और पीठमें ऐक्यकी भावना करे; फिर प्रतिलोमके क्रमसे मातृकामन्त्रका उच्चारण करते हुए तीर्थके जलसे उस कलशको भर दे । देव-बुद्धिसे मूलमन्त्रका जप करके उस कलशको पूर्ण करे । तदनन्तर बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि पीपल, कटहल तथा आमके कोमल नवीन पल्लवोंसे कलशका मुख आच्छादित कर दे और उसके ऊपर फल और अक्षतसहित पात्र रखकर दो वस्त्रोंसे उस कलशको वेष्टित कर दे ॥ ६१-६३ ॥
तदनन्तर प्राणप्रतिष्ठाके मन्त्रसे प्राणप्रतिष्ठाको क्रिया सम्पन्न करे; फिर आवाहन आदि मुद्राओंसे परादेवता भगवतीको प्रसन्न करे । इसके बाद कल्पोक्तविधिसे उन परमेश्वरीका ध्यान करे और उन भगवतीके आगे स्वागत तथा कुशल-प्रश्न-सम्बन्धी वाक्योंका उच्चारण करे । ६४-६५ ॥
तत्पश्चात् पाद्य, अर्घ्य, आचमन, मधुपर्क और अभ्यंगसहित स्नान आदि देवीको निवेदित करे । इसके बाद उन्हें रक्तवर्णवाले तथा स्वच्छ दो रेशमी वस्त्र प्रदान करके नानाविध मणियोंसे जटित आभूषण कल्पित करने चाहिये । ६६-६७ ॥
हे मुने ! काले अगुरु तथा कपूरसे युक्त गन्ध, कस्तूरीयुक्त केसर, चन्दन, कुन्दपुष्प तथा अन्य प्रकारके पुष्प आदि परा भगवतीको अर्पित करे । अगुरु, गुग्गुल, उशीर तथा चन्दनके चूर्णमें शर्करा और मधु मिलाकर बनाया गया धूप देवीके लिये सदा अत्यन्त प्रिय कहा गया है । विद्वान् पुरुष अनेक प्रकारके दीपक प्रदर्शित करके देवीको नैवेद्य अर्पण करे । प्रत्येक पूजन-द्रव्यमें प्रोक्षणीमें स्थित कुछ जल अवश्य छोड़े, अन्य जलका प्रयोग न करे । तत्पश्चात् अंगपूजा तथा कल्पोक्त-आवरणपूजा करे ॥ ६९-७२ ॥
तदनन्तर गन्ध आदि उपचारोंसे देवीकी पूजा करके उन्हें उस पीठपर विराजित करे । उसके बाद अग्निको विसर्जित करके वहाँ होमसे अवशिष्ट खीरको बलि-प्रदानके रूपमें चारों ओर बिखेर दे ॥ ७६ ॥
प्रधान देवताके पार्षदोंको गन्ध-पुष्प आदिसे युक्त पंचोपचार अर्पण करके उन्हें ताम्बूल, छत्र तथा चामर समर्पित करे । इसके बाद देवीके मन्त्रका एक हजार जप करे । परमेश्वरीको वह जप समर्पित करके ईशान दिग्भागमें स्थित विकिरके ऊपर कर्करी (करवा) स्थापित करे और उसके ऊपर भगवती दुर्गाका आवाहन करके उनका पूजन करे । तत्पश्चात् 'रक्षरक्ष'-इस मन्त्रका उच्चारण करके उस करवेकी टोंटीसे जल गिराते हुए तथा 'फट्' मन्त्रका जप करते हुए दाहिनी ओरके मण्डपस्थानको सौंचे । इसके बाद कर्करीको अपनी जगह रख दे और अस्वदेवताका पूजन करे ॥ ७७-८० ॥
सर्वप्रथम मूलमन्त्रका उच्चारण करके कुण्ड अथवा वेदीका निरीक्षण करे, फिर 'फट्' इस अस्त्र-मन्त्रसे समिधा आदिका प्रोक्षण तथा ताडन करे । इसके बाद 'हुँ'-इस कवचमन्त्रसे अभ्युक्षण करे और फिर उसपर प्रागन तथा उदगग्न तीन-तीन रेखाएँ खींचे ॥ ८३-८४ ॥
इसके बाद प्रणवमन्त्रसे अभ्युक्षण करके 'ॐ आधारशक्तये नमः' से आरम्भ करके पीठमन्त्र (ॐ अमुकदेवीयोगपीठाय नमः)-तकके मन्त्रोंको पढ़कर भगवतीके पीठकी पूजा करे ॥ ८५ ॥
तदनन्तर उस पीठपर जगत्के परम कारण भगवान् शिव और पार्वतीका आवाहन करके गन्ध आदि उपचारोंसे एकाग्रचित्त होकर उनका पूजन करे । उस समय इस प्रकार देवीका ध्यान करे कि 'भगवती पार्वती ऋतुस्नानसे निवृत्त होकर आसक्त भावसे भगवान् शिवके साथ विराजमान हैं । उन दोनोंके परस्पर हासविलासकी क्रीड़ाकी भी कुछ कालतक भावना करनी चाहिये' ॥ ८६-८७ ॥
तत्पश्चात् एक पात्रमें अग्नि लाकर सामने रखे और उसमेंसे क्रव्यादांशका परित्याग करके पूर्वोक्त वीक्षण आदि क्रियाओंद्वारा अग्निका संस्कार करके 'रे'-इस बीज-मन्त्रका उच्चारणकर उस अग्निमें चैतन्यकी भावना करे । पुनः सात बार प्रणवका उच्चारणकर उसे अभिमन्त्रित करे । तत्पश्चात् गुरु अग्निको धेनुमुद्रा प्रदर्शित करे । इसके बाद 'फट्'इस अस्त्रमन्त्रका उच्चारण करके अग्निको सुरक्षितकर 'हुँ'-इस कवच-मन्त्रसे अवगुण्ठन करे ॥ ८८-९० ॥
तत्पश्चात् श्रेष्ठ पुरुषको चाहिये कि अपने घुटनोंको पृथ्वीपर टेककर तारमन्त्रका जप करते हुए भलीभाँति पूजित अग्निको प्रदक्षिणाके क्रमसे कुण्डके ऊपर तीन बार घुमाकर उस अग्निमें शिवबीजकी भावना करके उसे देवीकी कुण्डरूपा योनिमें छोड़ दे । इसके बाद भगवान् शिव और भगवती जगदम्बिकाको आचमन कराये ॥ ९१-९२ ॥
'चित्पिङ्गल हन हन दह दह पच पच सर्वज्ञाज्ञापय स्वाहा' यह अग्निदीपनका मन्त्र है । जातवेदा नामसे प्रसिद्ध, तेजोमय, सुवर्णके समान पीतवर्णवाले, निर्मल, परम प्रदीप्त तथा सभी ओर मुखबाले हुतभुक् अग्निदेवको मैं प्रणाम करता हूँ । श्रेष्ठ साधकको अत्यन्त आदरपूर्वक इस मन्त्रसे उन अग्निदेवकी स्तुति करनी चाहिये और इसके बाद वहिमन्त्रसे षडंगन्यास करना चाहिये । 'सहस्त्रार्चिषे हृदयाय नमः', 'स्वस्तिपूर्णाय शिरसे स्वाहा', 'उत्तिष्ठपुरुषाय शिखायै वषट्, 'धूमव्यापिने कवचाय हुम्', 'सप्तजिह्यय नेत्रत्रयाय वौषट्', 'धनुर्धराय अस्त्राय फट्' इस प्रकार क्रमसे पूर्व स्थानोंमें षडंगन्यास करे । ये नाम अंगन्यासके समय जातियुक्त अर्थात् नमः, स्वाहा, वषट्, हुम्, वौषट् और फट-इन पदोंसे युक्त होने चाहिये । इसके बाद अग्निका इस प्रकार ध्यान करे-ये सुवर्णतुल्य वर्णवाले, तीन नेत्र धारण किये हुए, कमलके आसनपर विराजमान, इष्टशक्तिस्वस्तिक-अभयमुद्रा धारण किये हुए तथा परम मंगल स्वरूप हैं । ९३-९७.५ ॥
इसके बाद मन्त्रवित्को चाहिये कि मेखलासे ऊपर कुण्डका सेचन करे और कुशोंसे परिस्तरण करे । पुनः कुण्डके चारों ओर परिधियाँ बनाये । अग्निस्थापनके पूर्व त्रिकोण, वृत्त, षट्कोण, अष्टदल कमल और भूपुरसहित यन्त्र लिखे अथवा अग्निस्थापन करके भी उसे लिख ले । हे मुने ! उसके मध्य में वहिमन्त्रसे अग्निकी पूजा करे । 'वैश्वानर जातवेद इहावह लोहिताक्ष सर्वकर्माणि साधय स्वाहा'-यह अग्निमन्त्र है, इससे अग्निकी पूजा करे । यन्त्रके मध्यमें तथा छ: कोणोंमें हिरण्या, गगना, रक्ता, कृष्णा, सुप्रभा, बहुरूपा और अतिरक्तिका-इन सात जिह्वाओंकी पूजा करे । केसरोंमें अंगपूजन करना चाहिये और दलोंमें शक्ति तथा स्वस्तिक धारण करनेवाली मूर्तियोंका पूजन करना चाहिये । जातवेदा, सप्तजिह्व, हव्यवाहन, अश्वोदरज, वैश्वानर, कौमारतेज, विश्वमुख और देवमुख-ये अग्नियाँ कही गयी हैं । इन अग्निनामोंके आदिमें 'ॐ अग्नये' तथा अन्तमें 'नमः' पद लगाकर यथा 'ॐ अग्नये जातवेदसे नमः' इत्यादिके द्वारा पूजनका विधान है । इसके बाद चारों दिशाओंमें वज्र आदि आयुध धारण करनेवाले लोकपालोंका पूजन करे ॥ ९८-१०६ ॥
श्रीनारायण बोले-[हे मुने !] तत्पश्चात् खुक्, सूवा और घृतका संस्कार करके सवासे घी लेकर अग्निमें हवन करना चाहिये । हे मुनिश्रेष्ठ ! दक्षिण भागसे घृत उठाकर 'ॐ अग्नये स्वाहा'-ऐसा उच्चारण करके अग्निके दक्षिणनेत्रमें हवन करे । इसी प्रकार वामभागसे घृत उठाकर 'ॐ सोमाय स्वाहा'ऐसा बोलकर बायें नेत्रमें तथा मध्यभागसे घृत लेकर 'ॐ अग्नीषोमाभ्यां स्वाहा'-ऐसा उच्चारण करके अग्निके मध्य नेत्रमें हवन करे ॥ १०७-१०९ ॥
हे मुने ! तदनन्तर प्रणवमन्त्रसे गर्भाधान आदि संस्कारोंके निमित्त घृतकी आठ-आठ आहुतियाँ देनी चाहिये । गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूडाकरण, व्रतबन्ध, महानाम्न्यव्रत, औपनिषद व्रत, गोदान (केशान्तसंस्कार) और उद्वाहक (विवाह)-ये वेदप्रतिपादित संस्कार बताये गये हैं । तत्पश्चात् शिव और पार्वतीकी पूजा करके उनका विसर्जन करना चाहिये ॥ ११२-११५ ॥
हे मुने ! तत्पश्चात् सुक्में घृत रखकर उसे ढंक दे, पुनः अपने आसनपर बैठे हुए ही सुवाके द्वारा उसी घृतसे अग्निमन्त्रके साथ वौषट् लगाकर चार बार आहुति प्रदान करे । इसके बाद महागणेश मन्त्रसे दस आहुतियाँ प्रदान करे ॥ ११७-११८ ॥
तत्पश्चात् देयमन्त्रके देवताके पीठासनकी अग्निमें पूजा करके उसी अग्निमें उनका ध्यान करके उनके मुखके एकीकरणके निमित्त मुखमें मूलमन्त्रसे पचीस आहुतियाँ देनी चाहिये । इसके बाद अग्नि तथा देयमन्त्रके देवताके ऐक्यकी भावना करते हुए अपने साथ इनके एकीभूत होनेकी कल्पना करनी चाहिये । तत्पश्चात् श्रेष्ठ साधकको चाहिये कि छ: अंगवाले देवताओंको पृथक्-पृथक् आहुतियाँ प्रदान करे ॥ ११९-१२१ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! अग्निदेव और देयमन्त्रके देवताकी नाड़ियोंके एकीकरणके निमित्त ग्यारह आहुतियाँ देनी चाहिये । हे मुने ! एक देवताके उद्देश्यसे एक आहुति होनी चाहिये, इस प्रकार आवृत्तिपूर्वक घृतसे क्रमशः एक-एक आहुति प्रदान करनी चाहिये ॥ १२२-१२३ ॥
इसके बाद कल्पोक्त द्रव्यों अथवा तिलोंसे देवताके मूलमन्त्रका उच्चारण करते हुए एक हजार आठ आहुतियाँ प्रदान करे ॥ १२४ ॥
एवं हुत्वा ततो देवीं सन्तुष्टा भावयेन्मुने । तथैवावृतिदेवीश्च वह्न्याद्या देवता अपि ॥ १२५ ॥
हे मुने ! इस प्रकार आहुति देनेके पश्चात् यह भावना करे कि भगवती अब पूर्णरूपसे प्रसन्न हो गयी हैं । उसी तरह इस आवृत्तिसे देवी, अग्नि तथा देयमन्त्रके देवता भी प्रसन्न हो गये हैं ॥ १२५ ॥
तत्पश्चात् भलीभाँति स्नान किये हुए, संध्या आदि क्रियाओंसे निवृत्त, दो वस्त्र धारण किये हुए, स्वर्णके आभूषणसे अलंकृत तथा हाथमें कमण्डलु धारण किये पवित्र शिष्यको आचार्य कुण्डके पास ले आये और शिष्य वहाँ आकर गुरुजनोंको तथा सभासदोंको नमस्कार करनेके अनन्तर कुलदेवको नमस्कार करके कुशासनपर बैठ जाय । इसके बाद गुरु उस शिष्यको कृपादृष्टिसे देखे और अपने शरीरके अन्दर उस शिष्यके चैतन्यकी समाविष्ट होनेकी भावना करे । तत्पश्चात् विद्वान् गुरुको चाहिये कि अपनी दिव्य दृष्टिके अवलोकनस्वरूप होमद्वारा शिष्यके शरीरमें स्थित अध्वोंका शोधन करे, जिससे शुद्ध आत्मावाला वह शिष्य देवता आदिके अनुग्रहके योग्य हो जाय ॥ १२६-१३० ॥
गुरुको चाहिये कि कूर्चसे शिष्यको स्पर्श करते हुए 'ॐ अमुमध्वानं शोधयामि स्वाहा' इस मन्त्रका उच्चारण करते हुए घृतमिश्रित तिलोंसे प्रत्येक अध्वके निमित्त आठ बार आहुति प्रदान करे । तत्पश्चात् उन छहों अध्वोंके ब्रह्ममें लीन हो जानेकी भावना करे ॥ १३३-१३४ ॥
इसके बाद गुरु ब्रह्ममें लीन उन अच्चों (मार्गो)को पुनः सृष्टिमार्गसे उत्पन्न करनेकी भावना करें और अपने शरीरमें स्थित उस चैतन्यको पुनः शिष्यमें नियोजित करें ॥ १३५ ॥
तत्पश्चात् पूर्णाहुति प्रदान करके आवाहित देवताको कलशमें प्रतिष्ठित करे और इसके बाद व्याहृतियोंका उच्चारण करके अग्निके अंगोंके निमित्त आहुतियाँ दे । गुरुको चाहिये कि एक-एक देवताके लिये एक-एक आहुति देकर अपनी आत्मामें अग्निका विसर्जन कर दे । तत्पश्चात् गुरु वौषट्' इस नेत्रमन्त्रका उच्चारण करके वस्त्रसे शिष्यके दोनों नेत्रोंको बाँध दे और फिर उस शिष्यको कुण्ड-स्थलसे मण्डलमें ले जाय । इसके बाद शिष्यके हाथसे प्रधान देवीके लिये पुष्पांजलि अर्पित कराये ॥ १३६-१३८ ॥
शिष्यके शरीरमें मन्त्रोक्त न्यास करनेके पश्चात् शिष्यको दूसरे मण्डलमें बैठाये । तत्पश्चात् कलशपर स्थित पल्लवोंको शिष्यके सिरपर रखे और मातृका-जप करे । इसके बाद कलशमें स्थित देवमय जलसे शिष्यको स्नान कराये । स्नानके पश्चात् शिष्यकी रक्षाके लिये वर्धनीसंज्ञक कलशके जलसे भलीभाँति अभिषेक करे । इसके बाद शिष्य उठकर दो शुद्ध वस्त्र धारण करे और भस्म आदि लगाकर गुरुके समीप बैठ जाय । तत्पश्चात् करुणानिधान गुरुदेव यह भावना करें कि भगवती शिवा उनके हृदयसे निकलकर अब शिष्यके हृदयमें प्रविष्ट हो गयी हैं । अतः शिष्य तथा देवी उन दोनों में तादात्म्यकी भावना करते हुए वे गन्ध-पुष्प आदिसे शिष्यका पूजन करें ॥ १४०-१४४ ॥
तत्पश्चात् गुरु अपना दाहिना हाथ शिष्यके सिरपर रखते हुए उसके दाहिने कानमें महाभगवतीके महामन्त्रका तीस बार उपदेश करें । हे मुने ! इसके बाद शिष्य उस मन्त्रका एक सौ आठ बार जप करे । पुन: पृथ्वीपर दण्डकी भाँति गिरकर उन देवतास्वरूप गुरुको प्रणाम करे ॥ १४५-१४६ ॥
इसके बाद शिष्य जीवनभरके लिये गुरुके प्रति अनन्यबुद्धिवाला होकर गुरुके प्रति एकनिष्ठ भावसे अपना सर्वस्व उन्हें अर्पण कर दे । तदनन्तर ऋत्विजोंको दक्षिणा देकर ब्राह्मणों, सौभाग्यवती स्त्रियों, कन्याओं और बटुकोंको भलीभाँति भोजन कराये । साथ ही धनकी कृपणतासे रहित होकर दीनों, अनाथों तथा दरिद्रोंको सन्तुष्ट करे । अपनेको कृतार्थ समझकर मन्त्रकी नित्य उपासना करे । इस प्रकार दीक्षाकी यह उत्तम विधि मैंने आपको बतला दी ॥ १४७-१४९ ॥
इस विषयमें पूर्णरूपसे विचार करके अब आप देवीके चरण-कमलका सेवन कीजिये । ब्राह्मणके लिये इसके अतिरिक्त कोई श्रेष्ठ धर्म नहीं है ॥ १५० ॥
वैदिकः स्वस्वगृह्योक्तक्रमेणोपदिशेन्मनुम् । तान्त्रिकस्तन्त्ररीत्या तु स्थितिरेषा सनातनी ॥ १५१ ॥ तत्तदुक्तप्रयोगांस्ते ते ते कुर्युर्न चान्यथा ।
वैदिक पुरुष अपने-अपने गृह्यसूत्रमें कहे गये नियमके अनुसार तथा तान्त्रिक पुरुष तन्त्र-पद्धतिके अनुसार मन्त्रका उपदेश करें; यही सनातन नियम है । जिनके लिये जो-जो प्रयोग बताये गये हैं, उन्हें उसीका उपयोग करना चाहिये; दूसरे नियमोंका नहीं ॥ १५१.५ ॥
श्रीनारायण बोले-हे नारद ! आपने जो पूछा था, वह सब मैंने बता दिया । अब आप पराम्बा भगवतीके पदारविन्दकी नित्य उपासना कीजिये । मैं भी उसी चरणकमलकी नित्य आराधना करके परम शान्तिको प्राप्त हुआ हूँ ॥ १५२-१५३ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! इस प्रकार यह सम्पूर्ण उत्तम प्रसंग नारदजीसे कहकर श्रेष्ठ मुनियोंके भी शिरोमणि भगवान् नारायण अपने नेत्र बन्द करके समाधिस्थ होकर भगवतीके चरण कमलका ध्यान करने लगे । नारदजीने भी उन परम गुरु भगवान् नारायणको प्रणाम करके भगवतीके दर्शनकी लालसासे तपस्या करनेके लिये उसी क्षण प्रस्थान कर दिया । १५४-१५५ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां द्वादशस्कन्धे मन्त्रदीक्षाविधिवर्णनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रया संहितायां द्वादशस्कन्धे मन्त्रदीक्षाविधिवर्णन नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥