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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
द्वादशः स्कन्धः
अष्टमोऽध्यायः

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पराशक्तेराविर्भाववर्णनम् -
देवताओंका विजयगर्व तथा भगवती उमाद्वारा उसका भंजन,
भगवती उमाका इन्द्रको दर्शन देकर ज्ञानोपदेश देना -


जनमेजय उवाच
भगवन्सर्वधर्मज्ञ सर्वशास्त्रवतांवर ।
द्विजातीनां तु सर्वेषां शक्त्युपास्तिः श्रुतीरिता ॥ १ ॥
सन्ध्याकालत्रयेऽन्यस्मिन् काले नित्यतया विभो ।
तां विहाय द्विजाः कस्माद्‌ गृह्णीयुश्चान्यदेवताः ॥ २ ॥
जनमेजय बोले-सम्पूर्ण शास्त्रवेत्ताओंमें श्रेष्ठ तथा समस्त धर्मोको जाननेवाले हे भगवन् ! सभी द्विजातियोंके लिये शक्तिकी उपासना नित्य होनेके कारण तीनों सन्ध्या-कालोंमें तथा अन्य समयमें भी करणीय है-ऐसा श्रुतिका कथन है; तो फिर हे विभो ! उन भगवतीको छोड़कर द्विजगण अन्य देवताओंकी उपासना क्यों करते हैं ? ॥ १-२ ॥

दृश्यन्ते वैष्णवाः केचिद् गाणपत्यास्तथापरे ।
कापालिकाश्चीनमार्गरता वल्कलधारिणः ॥ ३ ॥
दिगम्बरास्तथा बौद्धाश्चार्वार्का एवमादयः ।
दृश्यन्ते बहवो लोके वेदश्रद्धाविवर्जिताः ॥ ४ ॥
किमत्र कारणं ब्रह्मंस्तद्‍भवान् वक्तुमर्हति ।
कुछ विष्णुके उपासक, कुछ गणपतिके उपासक, कुछ कापालिक, कुछ चीनमार्गी, कुछ वल्कलधारी, कुछ दिगम्बर, कुछ बौद्ध, कुछ चार्वाक आदि दिखायी पड़ते हैं । इसी प्रकार लोकमें बहुतसे ऐसे लोग भी दिखायी देते हैं, जो वेदोंके प्रति श्रद्धाभावसे रहित हैं । हे ब्रह्मन् ! इसमें क्या कारण है ? वह मुझे बतानेकी आप कृपा कीजिये ॥ ३-४.५ ॥

बुद्धिमन्तः पण्डिताश्च नानातर्कविचक्षणाः ॥ ५ ॥
अपि सन्त्येव वेदेषु श्रद्धया तु विवर्जिताः ।
न हिकश्चित्स्वकल्याणं बुद्ध्या हातुमिहेच्छति ॥ ६ ॥
किमत्र कारणं तस्माद्वद वेदविदांवर ।
कुछ बुद्धिमान् पण्डित और अनेक प्रकारके तर्क करनेमें दक्ष विद्वान् लोग भी हैं, जो वेदोंके प्रति श्रद्धासे विहीन हैं । कोई भी व्यक्ति जान-बूझकर अपने कल्याणका परित्याग नहीं करना चाहता है, तो फिर वे ऐसा क्यों करते हैं ? हे वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ! इसमें क्या कारण है; मुझे बतलाइये ॥ ५-६.५ ॥

मणिद्वीपस्य महिमा वर्णितो भवता पुरा ॥ ७ ॥
कीदृक् तदस्ति यद्देव्याः परं स्थानं महत्तरम् ।
तच्चापि वद भक्ताय श्रद्दधानाय मेऽनघ ॥ ८ ॥
प्रसन्तास्तु वदन्त्येव गुरवो गुह्यमप्युत ।
आपने पहले मणिद्वीपकी महिमाका वर्णन किया था । भगवतीका वह परम उत्तम स्थान कैसा है ? हे अनघ ! आप मुझ श्रद्धावान् भक्तको इसे भी बताइये, क्योंकि प्रसन्न गुरुजन गुप्त बात भी बता देते हैं ॥ ७-८.५ ॥

सूत उवाच
इति राज्ञो वचः श्रुत्वा भगवान् बादरायणः ॥ ९ ॥
निजगाद ततः सर्वं क्रमेणैव मुनीश्वराः ।
यच्छ्रुत्वा तु द्विजातीनां वेदश्रद्धा विवर्धते ॥ १० ॥
सूतजी बोले-हे मुनीश्वरो ! महाराज जनमेजयकी यह बात सुनकर भगवान् वेदव्यासने उन्हें क्रमसे वह सब कुछ बतला दिया, जिसे सुनकर द्विजातियोंके मनमें वेदोंके प्रति श्रद्धा बढ़ जाती है ॥ ९-१० ॥

व्यास उवाच
सम्यक्पृष्टं त्वया राजन् समये समयोचितम् ।
वुद्धिमानसि वेदेषु श्रद्धावांश्चैव लक्ष्यसे ॥ ११ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! इस समय आपने जो पूछा है, वह अत्युत्तम तथा कालके अनुरूप ही है । आप बुद्धिमान् तथा वेदोंमें श्रद्धा रखनेवाले प्रतीत होते हैं ॥ ११ ॥

पूर्वं मदोद्धता दैत्या देवैर्युद्धं तु चक्रिरे ।
शतवर्षं महाराज महाविस्मयकारकम् ॥ १२ ॥
हे महाराज ! पूर्वकालमें मदसे उन्मत्त दानवोंने देवताओंके साथ सौ वर्षांतक एक अत्यन्त विस्मयकारक युद्ध किया था ॥ १२ ॥

नानाशस्त्रप्रहरणं नानामायाविचित्रितम् ।
जगत्क्षयकरं नूनं तेषां युद्धमभून्नृप ॥ १३ ॥
हे नृप ! अनेक प्रकारके शस्त्रोंके प्रहार तथा अनेक प्रकारकी मायाओंके प्रयोगसे भरा उनका वह युद्ध जगत्के लिये अत्यन्त विनाशकारी सिद्ध हुआ ॥ १३ ॥

पराशक्तिकृपावेशाद्देवैर्दैत्या जिता युधि ।
भुवं स्वर्गं परित्यज्य गताः पातालवेश्मनि ॥ १४ ॥
उस समय पराशक्ति भगवतीकी कृपासे देवताओंने युद्ध में दैत्योंको जीत लिया और वे दैत्य भूलोक तथा स्वर्ग छोड़कर पाताललोकमें चले गये ॥ १४ ॥

ततः प्रहर्षिता देवाः स्वपराक्रमवर्णनम् ।
चक्रुः परस्परं मोहात्साभिमानाः समन्ततः ॥ १५ ॥
जयोऽस्माकं कुतो न स्यादस्माकं महिमा यतः ।
सर्वोत्तरः कुत्र दैत्याः पामरा निष्पराक्रमाः ॥ १६ ॥
सृष्टिस्थितिक्षयकरा वयं सर्वे यशस्विनः ।
अस्मदग्रे पामराणां दैत्यानां चैव का कथा ॥ १७ ॥
इस विजयसे अत्यन्त हर्षित देवतागण मोहके कारण अभिमानयुक्त होकर चारों ओर परस्पर अपने पराक्रमकी इस प्रकार चर्चा करने लगे-हमारी विजय क्यों न हो ? क्योंकि हमारी महिमा सर्वोत्तम है । कहाँ ये अधम और पराक्रमहीन दैत्य तथा कहाँ सृजन, पालन तथा संहार करनेवाले हम यशस्वी देवता ! तो फिर हमारे सामने असहाय दैत्योंकी बात ही क्या ॥ १५-१७ ॥

पराशक्तिप्रभावं ते न ज्ञात्वा मोहमागताः ।
तेषामनुगह कर्तुं तदैव जगदम्बिका ॥ १८ ॥
हे राजन् ! पराशक्तिके प्रभावको न जाननेके कारण ही वे देवता मोहित हो गये थे । तब उनके ऊपर अनुग्रह करनेके लिये दयामयी जगदम्बा एक यक्षके रूपमें प्रकट हुईं ॥ १८ ॥

प्रादुरासीत्कृपापूर्णा यक्षरूपेण भूमिप ।
कोटिसूर्यप्रतीकाशं चन्द्रकोटिसुशीतलम् ॥ १९ ॥
विद्युत्कोटिसमानाभं हस्तपादादिवर्जितम् ।
अदृष्टपूर्वं तद् दृष्ट्वा तेजः परमसुन्दरम् ॥ २० ॥
सविस्मयास्तदा प्रोचुः किमिदं किमिदं त्विति ।
दैत्यानां चेष्टितं किं वा माया कापि महीयसी ॥ २१ ॥
केनचिन्तिर्मिता वाथ देवानां स्मयकारिणी ।
सम्भूय ते तदा सर्वे विचारं चक्रुरुत्तमम् ॥ २२ ॥
यक्षस्य निकटे गत्वा प्रष्टव्यं कस्त्वमित्यपि ।
बलाबलं ततो ज्ञात्वा कर्तव्या तु प्रतिक्रिया ॥ २३ ॥
करोड़ों सूर्योके समान प्रकाशवाले, करोड़ों चन्द्रमाओंके समान अत्यन्त शीतल, करोड़ों विद्युत्के समान आभावाले और हाथ-पैर आदि अवयवोंसे रहित, पहले कभी न देखे गये उस परम सुन्दर तेजको देखकर देवता महान् विस्मयमें पड़ गये और कहने लगे-यह क्या है ! यह क्या है ! यह दैत्योंकी चेष्टा है अथवा कोई बलवती माया है ? देवताओंको आश्चर्यचकित करनेवाली यह माया किसके द्वारा रची गयी है ? तब उन सभी देवताओंने एकत्र होकर उत्तम विचार किया कि यक्षके समीप जाकर पूछना चाहिये कि 'तुम कौन हो ?' इस प्रकार उसके बलाबलकी जानकारी कर लेनेके पश्चात् ही कोई प्रतिक्रिया करनी चाहिये ॥ १९-२३ ॥

ततो वह्निं समाहूय प्रोवाचेन्द्रः सुराधिपः ।
गच्छ वह्ने त्वमस्माकं यतोऽसि मुखमुत्तमम् ॥ २४ ॥
ततो गत्वा तु जानीहि किमिदं यक्षमित्यपि ।
तत्पश्चात् देवराज इन्द्रने अग्निको बुलाकर उनसे कहा-'हे अग्निदेव ! आप जाइये । चूँकि आप ही हम लोगोंके उत्तम मुख हैं, इसलिये वहाँ जाकर इसकी जानकारी कीजिये कि यह यक्ष कौन है' ॥ २४.५ ॥

सहस्राक्षवचः श्रुत्वा स्वपराक्रमगर्भितम् ॥ २५ ॥
वेगात्स निर्गतो वह्निर्ययौ यक्षस्य सन्निधौ ।
हजार नेत्रोंवाले इन्द्रके मुखसे अपने प्रति पराक्रमसे युक्त वचन सुनकर वे अग्निदेव अत्यन्त वेगपूर्वक निकल पड़े और शीघ्र ही यक्षके पास जा पहुँचे ॥ २५.५ ॥

तदा प्रोवाच यक्षस्तं त्वं कोऽसीति हुताशनम् ॥ २६ ॥
वीर्यं च त्वयि किं यत्तद्वद सर्वं ममाग्रतः ।
तब यक्षने उन अग्निसे पूछा-'तुम कौन हो ? तुममें कौन-सा पराक्रम है ? जो हो वह सब मुझे बतलाओ' ॥ २६.५ ॥

अग्निरस्मि तथा जातवेदा अस्मीति सोऽब्रवीत् ॥ २७ ॥
सर्वस्य दहने शक्तिर्मयि विश्वस्य तिष्ठति ।
इसपर उसने कहा-'मैं अग्नि हूँ; मैं जातवेदा हूँ । सम्पूर्ण विश्वको दग्ध कर डालनेका सामर्थ्य मुझमें विद्यमान है' ॥ २७.५ ॥

तदा यक्षं परं तेजस्तदग्रे निदधौ तृणम् ॥ २८ ॥
दहैनं यदि ते शक्तिर्विश्वस्य दहनेऽस्ति हि ।
तब परम तेजस्वी यक्षने अग्निके समक्ष एक तृण रख दिया और कहा–'यदि विश्वको भस्म करनेकी शक्ति तुममें है, तो इसे जला दो' ॥ २८.५ ॥

तदा सर्वबलेनैवाकरोद्यत्‍नं हुताशनः ॥ २९ ॥
न शशाक तृणं दग्धुं लज्जितोऽगात्सुरान्प्रति ।
तब अग्निने अपनी सम्पूर्ण शक्तिका प्रयोग करते हुए उस तृणको जलानेका प्रयास किया, किंतु वे उस तृणको भस्म करनेमें समर्थ नहीं हुए और लज्जित होकर देवताओंके पास लौट गये ॥ २९.५ ॥

पृष्टे देवैस्तु वृत्तान्ते सर्वं प्रोवाच हव्यभुक् ॥ ३० ॥
वृथाभिमानो ह्यस्माकं सर्वेशत्वादिके सुराः ।
देवताओंके द्वारा वृत्तान्त पूछे जानेपर अग्निदेवने सब कुछ बता दिया और कहा-हे देवताओ । सर्वेश आदि बननेमें हमलोगोंका अभिमान सर्वथा व्यर्थ है ॥ ३०.५ ॥

ततस्तु वृत्रहा वायुं समाहूयेदमब्रवीत् ॥ ३१ ॥
त्वयि प्रोतं जगत्सर्वं त्वच्चेष्टाभिस्तु चेष्टितम् ।
त्वं प्राणरूपः सर्वेषां सर्वशक्तिविधारकः ॥ ३२ ॥
त्वमेव गत्वा जानीहि किमिदं यक्षमित्यपि ।
नान्यः कोऽपि समर्थोऽस्ति ज्ञातुं यक्षं परं महः ॥ ३३ ॥
तत्पश्चात् वृत्रासुरका संहार करनेवाले इन्द्रने वायुको बुलाकर यह कहा-सम्पूर्ण जगत् आपमें व्याप्त है और आपकी ही चेष्टाओंसे यह क्रियाशील है । आप प्राणरूप होकर सभी प्राणियोंमें सम्पूर्ण शक्तिका संचार करते हैं । आप ही जाकर यह जानकारी प्राप्त कीजिये कि यह यक्ष कौन है ? क्योंकि अन्य कोई भी उस परम तेजस्वी यक्षको जाननेमें समर्थ नहीं है ॥ ३१-३३ ॥

सहस्राक्षवचः श्रुत्वा गुणगौरवगुम्फितम् ।
साभिमानो जगामाशु यत्र यक्षं विराजते ॥ ३४ ॥
गुण और गौरवसे समन्वित इन्द्रकी बात सुनकर वे वायुदेव अभिमानसे भर उठे और शीघ्र ही वहाँ पहुँच गये, जहाँ यक्ष विराजमान था ॥ ३४ ॥

यक्षं दृष्ट्वा ततो वायुं प्रोवाच मृदुभाषया ।
कोऽसि त्वं त्वयि का शक्तिर्वद सर्वं ममाग्रतः ॥ ३५ ॥
तब वायुको देखकर यक्षने मधुर वाणीमें कहातुम कौन हो ? तुममें कौन-सी शक्ति है ? यह सब मेरे सामने बतलाओ ॥ ३५ ॥

ततो यक्षवचः श्रुत्वा गर्वेण मरुदब्रवीत् ।
मातरिश्वाहमस्मीति वायुरस्मीति चाब्रवीत् ॥ ३६ ॥
वीर्यं तु मयि सर्वस्य चालने ग्रहणेऽस्ति हि ।
मच्चेष्टया जगत्सर्वं सर्वव्यापारवद्‍भवेत् ॥ ३७ ॥
यक्षका वचन सुनकर वायुने गर्वपूर्वक कहा'मैं मातरिश्वा हूँ: मैं वाय हूँ । सबको संचालित करने तथा ग्रहण करनेकी शक्ति मुझमें विद्यमान है । मेरी चेष्टासे ही सम्पूर्ण जगत् सब प्रकारके व्यवहारवाला होता है' ॥ ३६-३७ ॥

इति श्रुत्वा वायुवाणीं निजगाद परं महः ।
तृणमेतत्तवाग्रे यत्तच्चालय यथेप्सितम् ॥ ३८ ॥
वायुकी यह वाणी सुनकर परम तेजस्वी यक्षने कहा-तुम्हारे सामने यह जो तृण रखा हुआ है, उसे तुम अपनी इच्छाके अनुसार गतिमान् कर दो; अन्यथा इस अभिमान का त्याग करके लज्जित हो इन्द्रके पास लौट जाओ ॥ ३८ ॥

नोचेद् गर्वं विहायैनं लज्जितो गच्छ वासवम् ।
श्रुत्वा यक्षवचो वायुः सर्वशक्तिसमन्वितः ॥ ३९ ॥
उद्योगमकरोत्तच्च स्वस्थानान्न चचाल ह ।
लज्जितोऽगाद्देवपार्श्वे हित्वा गर्वं स चानिलः ॥ ४० ॥
यक्षका वचन सुनकर वायुदेवने अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर उस तृणको उड़ानेका प्रयत्न किया, किंतु वह तृण अपने स्थानसे हिलातक नहीं । तब वे पवनदेव लज्जित होकर अभिमानका त्याग करके इन्द्रके पास चले गये ॥ ३९-४० ॥

धृत्तान्तमवदत्सर्वं गर्वनिर्वापकारणम् ।
नैतञ्ज्ञातुं समर्थाः स्म मिथ्यागर्वाभिमानिनः ॥ ४१ ॥
उन्होंने अभिमानको चूर करनेवाला सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाते हुए कहा-'मिथ्या गर्व तथा अभिमान करनेवाले हमलोग इस यक्षको जानने में समर्थ नहीं हैं । परम प्रचण्ड तेजवाला यह यक्ष अलौकिक प्रतीत हो रहा है' ॥ ४१ ॥

अलौकिकं भाति यक्षं तेजः परमदारुणम् ।
ततः सर्वे सुरगणाः सहस्राक्षं समूचिरे ॥ ४२ ॥
तत्पश्चात् सभी देवताओंने सहस्र नेत्रोंवाले इन्द्रसे कहा-'आप देवताओंके स्वामी हैं, अतः अब आप ही यक्षके विषयमें ठीक-ठीक जाननेका प्रयत्न कीजिये ॥ ४२ ॥

देवराडसि यस्मात्त्वं यक्षं जानीहि तत्त्वतः ।
तत इन्द्रो महागर्वात्तद्यक्षं समुपाद्रवत् ॥ ४३ ॥
प्राद्रवच्च परं तेजो यक्षरूपं परात्परम् ।
अन्तर्धानं ततः प्राप तद्यक्षं वासवाग्रतः ॥ ४४ ॥
अतीव लज्जितो जातो वासवो देवराडपि ।
यक्षसम्भाषणाभावाल्लघुत्वं प्राप चेतसि ॥ ४५ ॥
अतः परं न गन्तव्यं मया तु सुरसंसदि ।
किं मया तत्र वक्तव्यं स्वलघुत्वं सुरान्प्रति ॥ ४६ ॥
देहत्यागो वरस्तस्मान्मानो हि महतां धनम् ।
माने नष्टे जीवितं तु मृतितुल्यं न संशयः ॥ ४७ ॥
तब इन्द्र अत्यन्त अभिमानपूर्वक उस यक्षके पास गये । उनके पहुंचते ही यक्षरूप परात्पर परम तेज शीघ्र ही अदृश्य हो गया । जब वह यक्ष इन्द्रके सामनेसे अन्तर्हित हो गया तब देवराज इन्द्र अत्यन्त लज्जित हो गये और यक्षके उनसे बाततक न करनेके कारण वे मनमें अपनेको छोटा समझने लगे । वे सोचने लगे कि अब मुझे देवताओंके समाजमें नहीं जाना चाहिये; क्योंकि वहाँ देवताओंके समक्ष अपनी इस हीनताके विषयमें क्या बताऊँगा । अतः शरीरका त्याग कर देना ही मेरे लिये अच्छा होगा; क्योंकि मान ही महापुरुषोंका धन होता है । मानके नष्ट हो जानेपर मनुष्यका जीवित रहना मृत्युके समान है, इसमें संशय नहीं है ॥ ४३-४७ ॥

इति निश्चित्य तत्रैव गर्वं हित्वा सुरेश्वरः ।
चरित्रमीदृशं यस्य तमेव शरणं गतः ॥ ४८ ॥
यह निश्चय करके देवराज इन्द्र अभिमान त्यागकर उन्हीं पराशक्तिकी शरणमें गये, जिनकी ऐसी अद्‌भुत लीला है ॥ ४८ ॥

तस्मिन्नेव क्षणे जाता व्योमवाणी नभस्तले ।
मायाबीजं सहस्राक्ष जप तेन सुखी भव ॥ ४९ ॥
उसी क्षण गगन-मण्डलमें यह आकाशवाणी हुई–'हे सहस्राक्ष ! तुम मायाबीजका जप करो और उससे सुखी हो जाओ' ॥ ४९ ॥

ततो जजाप परमं मायाबीजं परात्परम् ।
लक्षवर्षं निराहारो ध्यानमीलितलोचनः ॥ ५० ॥
तब इन्द्रने नेत्र बन्द करके देवीका ध्यान करते हुए निराहार रहकर एक लाख वर्षतक अतिश्रेष्ठ परम मायाबीजका जप किया ॥ ५० ॥

अकस्माच्चैत्रमासीयनवम्यां मध्यगे रवौ ।
तदेवाविरभूत्तेजस्तस्मिन्नेव स्थले पुनः ॥ ५१ ॥
एक दिन चैत्रमासके शुक्ल पक्षमें नवमी तिथिको मध्याहकालमें उसी स्थलपर सहसा एक महान् तेज प्रकट हुआ ॥ ५१ ॥

तेजोमण्डलमध्ये तु कुमारीं नवयौवनाम् ।
भास्वज्जपाप्रसूनाभां बालकोटिरविप्रभाम् ॥ ५२ ॥
बालशीतांशमुकुटां वस्त्रान्तर्व्यञ्जितस्तनीम् ।
चतुर्भिर्वरहस्तैस्तु वरपाशाङ्‌कुशाभयान् ॥ ५३ ॥
दधानां रमणीयाङ्‌गीं कोमलाङ्‌गलतां शिवाम् ।
भक्तकल्पद्रुमामम्बां नानाभूषणभूषिताम् ॥ ५४ ॥
त्रिनेत्रां मल्लिकामालाकबरीतूटशोभिताम् ।
चतुर्दिक्षु चतुर्वेदैर्मूर्तिमद्‌भिरभिष्टुताम् ॥ ५५ ॥
दन्तच्छटाभिरभितः पद्यरागीकृतक्षमाम् ।
प्रसन्तस्मेरवदनां कोटिकन्दर्पसुन्दराम् ॥ ५६ ॥
रक्ताम्बरपरीधानां रक्तचन्दनचर्चिताम् ।
उमाभिधानां पुरतो देवीं हैमवतीं शिवाम् ॥ ५७ ॥
निर्व्याजकरुणामूर्तिं सर्वकारणकारणाम् ।
ददर्श वासवस्तत्र प्रेमगद्‌गदितान्तरः ॥ ५८ ॥
इन्द्रने उस तेजमण्डलके मध्यमें नुतन यौवनसे सम्पन्न, कुमारी अवस्थामें विद्यमान, प्रभायुक्त जपाकुसुमकी कान्तिसे सम्पन्न, प्रात:कालीन करोड़ों सूर्यकी प्रभासे सुशोभित, द्वितीयाके चन्द्रमासदृश मुकुट धारण किये हुई, वस्त्रके अन्दरसे परिलक्षित होते हुए वक्षःस्थलवाली, अपने चारों श्रेष्ठ हाथोंमें वर-पाशअंकुश और अभयमुद्रा धारण करनेवाली, अत्यन्त मनोहर अंगोंसे सम्पन्न, कोमल लताके समान अंगोंवाली, कल्याणस्वरूपिणी, भक्तोंके लिये कल्पवृक्षस्वरूपा, नानाविध आभूषणोंसे सुशोभित, तीन नेत्रोंवाली, अपनी वेणीमें चमेलीकी माला धारण की हुई, चारों दिशाओं में स्थित होकर मूर्तिमान् चारों वेदोंद्वारा स्तुत होती हुई, अपने दाँतोंकी प्रभासे वहाँकी भूमिको पारागमय बना देनेवाली, प्रसन्नता तथा मुसकानयुक्त मुखमण्डलवाली, करोड़ों कामदेवके समान सुन्दर रक्तवर्णके वस्त्र धारण की हुई, लालचन्दनसे अनुलिप्त विग्रहवाली, समस्त कारणोंकी भी कारण तथा बिना किसी हेतुके साक्षात् करुणाकी मूर्तिस्वरूपा उमा नामसे विख्यात जगदम्बा हैमवती भगवती शिवाको अपने समक्ष देखा । इससे इन्द्रका अन्तःकरण प्रेमसे गद्‌गद हो उठा ॥ ५२-५८ ॥

प्रेमाश्रुपूर्णनयनो रोमाञ्चिततनुस्ततः ।
दण्डवत्प्रणनामाथ पादयोर्जगदीशितुः ॥ ५९ ॥
तुष्टाव विविधैः स्तोत्रैर्भक्तिसन्नतकन्धरः ।
उवाच परमप्रीतः किमिदं यक्षमित्यपि ॥ ६० ॥
प्रादुर्भूतं च कस्मात्तद्वद सर्वं सुशोभने ।
प्रेमाश्रुओंसे पूर्ण नयनवाले तथा रोमांचित शरीरवाले इन्द्रने उन जगदीश्वरीके चरणोंमें दण्डकी भाँति गिरकर प्रणाम किया और अनेक प्रकारके स्तोत्रोंद्वारा उनकी स्तुति की । भक्ति-भावसे सम्पन्न हो सिर झुकाकर परम प्रसन्नतापूर्वक इन्द्रने देवीसे कहा-हे सुशोभने ! यह यक्ष कौन था और किसलिये प्रकट हुआ था ? यह सब आप मुझे बतलाइये ॥ ५९-६०.५ ॥

इति तस्य वचः श्रुत्वा प्रोवाच करुणार्णवा ॥ ६१ ॥
रूपं मदीयं ब्रह्मैतत्सर्वकारणकारणम् ।
मायाधिष्ठानभूतं तु सर्वसाक्षि निरामयम् ॥ ६२ ॥
उनकी यह बात सुनकर करुणासागर भगवतीने कहा-यह मेरा ही रूप है; यही ब्रह्म है जो मायाका अधिष्ठानस्वरूप, सबका साक्षी, निर्विकार और समस्त कारणोंका भी कारण है ॥ ६१-६२ ॥

सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति
     तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति ।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति
     तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीमि ॥ ६३ ॥
सभी वेद जिस पदका बार-बार प्रतिपादन करते हैं, समस्त तप भी तपश्चरणके द्वारा जिस पदकी प्राप्तिको बताते हैं और साधकगण जिसकी प्राप्तिको अभिलाषासे ब्रह्मचर्यका पालन करते हैं, उसी पदको मैं तुम्हें नामपूर्वक बतलाती हूँ ॥ ६३ ॥

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म तदेवाहुश्च ह्रींमयम् ।
द्वे बीजे मम मन्त्रौ स्तो मुख्यत्वेन सुरोत्तम ॥ ६४ ॥
भागद्वयवती यस्मात्सृजामि सकलं जगत् ।
तत्रैकभागः सम्प्रोक्तः सच्चिदानन्दनामकः ॥ ६५ ॥
मायाप्रकृतिसंज्ञस्तु द्वितीयो भाग ईरितः ।
सा च माया परा शक्तिः शक्तिमत्यहमीश्वरी ॥ ६६ ॥
उसीको 'ॐ' एक अक्षरवाला ब्रह्म कहते हैं और वही 'ह्रीं' रूप भी है । हे सुरश्रेष्ठ ! ह्रीं और ॐ ये दो मेरे मुख्य बीजमन्त्र हैं । इन्हीं दो भागोंसे सम्पन्न होकर मैं सम्पूर्ण जगत्का सृजन करती हूँ । उनमें एक भाग सच्चिदानन्द नामवाला कहा गया है और दूसरा भाग मायाप्रकृति संज्ञावाला कहा गया है । वह माया ही परा शक्ति है और सम्पूर्ण जगत्पर प्रभुत्व रखनेवाली वह शक्तिशालिनी देवी मैं ही हूँ ॥ ६४-६६ ॥

चन्द्रस्य चन्द्रिकेवेयं ममाभिन्तत्वमागता ।
साम्यावस्थात्मिका चैषा माया मम सुरोत्तम ॥ ६७ ॥
प्रलये सर्वजगतो मदभिनैव तिष्ठति ।
प्राणिकर्मपरीपाकवशतः पुनरेव हि ॥ ६८ ॥
रूपं तदेवमव्यक्तं व्यक्तीभावमुपैति च ।
यह माया चन्द्रमाकी चाँदनीकी भाँति अभिन्नरूपसे सर्वदा मुझमें विराजमान रहती है । हे सुरोत्तम ! साम्यावस्थास्वरूपिणी मेरी यह माया सम्पूर्ण जगतके प्रलय होते समय भी मुझसे भिन्न नहीं रहती है । प्राणियोंके कर्मपरिपाकवश मायाका वही अव्यक्तरूप पुनः व्यक्तरूप धारण कर लेता है । ६७-६८.५ ॥

अन्तर्मुखा तु यावस्था सा मायेत्यभिधीयते ॥ ६९ ॥
बहिर्मुखा तु या माया तमःशब्देन सोच्यते ।
बहिर्मुखात्तमोरूपाज्जायते सत्त्वसम्भवः ॥ ७० ॥
रजोगुणस्तदैव स्यात्सर्गादौ सुरसत्तम ।
जो अवस्था अन्तर्मुखी है, वह माया कही जाती है और जो बहिर्मुखी अवस्थावाली माया है, वह तम (अविद्या) नामसे कही जाती है । तमोरूपिणी उस बहिर्मुखी मायासे प्राणियोंकी उत्पत्ति होती है । हे सुर श्रेष्ठ ! सृष्टिके आदिमें यह माया रजोगुणरूपसे विद्यमान रहती है ॥ ६९-७०.५ ॥

गुणत्रयात्मकाः प्रोक्ता ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ॥ ७१ ॥
रजोगुणाधिको ब्रह्मा विष्णुः सत्त्वाधिको भवेत् ।
तमोगुणाधिको रुद्रः सर्वकारणरूपधृक् ॥ ७२ ॥
ब्रह्मा, विष्णु और महेश-ये देवता त्रिगुणात्मक कहे गये हैं । ब्रह्मामें रजोगुणकी अधिकता, विष्णुमें सत्त्वगुणकी अधिकता तथा सभी कारणोंके स्वरूपवाले रुद्रमें तमोगुणकी अधिकता रहती है । ७१-७२ ॥

स्मृलदेहो भवेद् ब्रह्मा लिङ्‌गदेहो हरिः स्मृतः ।
रुद्रस्तु कारणो देहस्तुरीया त्वहमेव हि ॥ ७३ ॥
साम्यावस्था तु या प्रोक्ता सर्वान्तर्यामिरूपिणी ।
अत ऊर्ध्वं परं ब्रह्म मद्‌रूपं रूपवर्जितम् ॥ ७४ ॥
ब्रह्मा स्थूलदेहवाले हैं । विष्णु लिंगदेहवाले तथा रुद्र कारणदेहवाले कहे गये हैं । जो सर्वान्तर्यामिस्वरूपिणी साम्यावस्था कही गयी है, वह तुरीयरूपा मैं ही हूँ और इसके भी ऊपर जो निराकार परब्रह्म है, वह भी मेरा ही रूप है ॥ ७३-७४ ॥

निर्गुणं सगुणं चेति द्विधा मद्‌रूपमुच्यते ।
निर्गुणं मायया हीनं सगुणं मायया युतम् ॥ ७५ ॥
साहं सर्वं जगत्सृष्ट्वा तदन्तः सम्प्रविश्य च ।
प्रेरयाम्यनिशं जीवं यथाकर्म यथाश्रुतम् ॥ ७६ ॥
निर्गुण तथा सगुण-यह मेरा दो प्रकारका रूप कहा जाता है । मायासे रहित रूप निर्गण और मायायुक्त रूप सगुण है । वही मैं सम्पूर्ण जगत्की रचना करके उसके भीतर भलीभाँति प्रविष्ट होकर जीवको उसके कर्म तथा शास्त्रके अनुसार निरन्तर प्रेरित करती रहती हूँ ॥ ७५-७६ ॥

सृष्टिस्थितितिरोधाने प्रेरयाम्यहमेव हि ।
ब्रह्माणं च तथा विष्णुं रुद्रं वै कारणात्मकम् ॥ ७७ ॥
ब्रह्माको सृष्टि करने, विष्णुको जगत्का पालन करने और कारणरूप रुद्रको संहार करनेके लिये मैं ही प्रेरणा प्रदान करती हूँ ॥ ७७ ॥

मद्‍भयाद्वाति पवनो भीत्या सूर्यश्च गच्छति ।
इन्द्राग्निमृत्यवस्तद्वत्साहं सर्वोत्तमा स्मृता ॥ ७८ ॥
वायू मेरे भयसे प्रवाहित होता है और सूर्य मेरा भय मानकर निरन्तर गति करता रहता है । उन्हींकी भाँति इन्द्र, अग्नि और यम भी मेरे भयसे अपने-अपने कार्य सम्पन्न करते हैं । इसीलिये मैं सर्वश्रेष्ठ कही गयी हूँ ॥ ७८ ॥

मत्प्रसादाद्‍भवद्‌भिस्तु जयो लब्धोऽस्ति सर्वथा ।
युष्मानहं नर्तयामि काष्ठपुत्तलिकोपमान् ॥ ७९ ॥
आप सभी देवताओंने मेरी ही कृपासे सब प्रकारकी विजय प्राप्त की है । मैं आपलोगोंको कठपुतलीके समान नचाती रहती हूँ ॥ ७९ ॥

कदाचिद्देवविजयं दैत्यानां विजयं क्वचित् ।
स्वतन्त्रा स्वेच्छया सर्वं कुर्वे कर्मानुरोधतः ॥ ८० ॥
मैं कभी देवताओंकी विजय कराती हूँ और कभी दैत्योंकी । मैं स्वतन्त्र होकर अपनी इच्छासे सभीके कर्म-विपाकके अनुसार सब कुछ सम्पादित करती हूँ ॥ ८० ॥

तां मां सर्वात्मिकां यूयं विस्मृत्य निजगर्वतः ।
अहङ्‌कारावृतात्मानो मोहमाप्ता दुरन्तकम् ॥ ८१ ॥
अनुग्रहं ततः कर्तुं युष्मद्देहादनुत्तमम् ।
निःसृतं सहसा तेजो मदीयं यक्षमित्यपि ॥ ८२ ॥
अहंकारसे आवृत बुद्धिवाले तुमलोग अपने गर्वसे वैसी प्रभाववाली मुझ सर्वात्मिका भगवतीको भूलकर दुःखदायी मोहको प्राप्त हो गये थे । इसलिये तुमलोगोंपर अनुग्रह करनेके लिये तुमलोगोंके शरीरसे मेरा दिव्य तेज निकलकर यक्षके रूपमें प्रकट हो गया था ॥ ८१-८२ ॥

अतः परं सर्वभावैर्हित्वा गर्वं तु देहजम् ।
मामेव शरणं यात सच्चिदानन्दरूपिणीम् ॥ ८३ ॥
अब तमलोग अपने देहसे उत्पन्न गर्वका सब प्रकारसे त्याग करके मुझ सच्चिदानन्दस्वरूपिणी भगवतीकी ही शरणमें आ जाओ ॥ ८३ ॥

व्यास उवाच
इत्युक्त्या च महादेवी मूलप्रकृतिरीश्वरी ।
अन्तर्धानं गता सद्यो भक्त्या देवैरभिष्टुता ॥ ८४ ॥
व्यासजी बोले-[हे जनमेजय !] ऐसा कहकर मूलप्रकृतिरूपा सर्वेश्वरी महादेवी देवताओंके द्वारा भक्तिपूर्वक सुपूजित होकर तत्काल अन्तर्धान हो गयीं ॥ ८४ ॥

ततः सर्वे स्वगर्वं तु विहाय पदपङ्‌कजम् ।
सम्यगाराथयामासुर्भगवत्याः परात्परम् ॥ ८५ ॥
त्रिसन्ध्यं सर्वदा सर्वे गायत्रीजपतत्पराः ।
यज्ञभागादिभिः सर्वे देवीं नित्यं सिषेविरे ॥ ८६ ॥
तत्पश्चात् सभी देवता अपने अभिमानका त्याग करके भगवतीके परात्पर चरणकमलकी विधिवत् आराधना करने लगे । वे सब तीनों सन्ध्याओंमें सदा गायत्री-जपमें संलग्न रहते थे और यज्ञ-भाग आदिके द्वारा नित्य भगवतीकी उपासना करते थे । ८५-८६ ॥

एवं सत्ययुगे सर्वे गायत्रीजपतत्पराः ।
तारहृल्लेखयोश्चापि जपे निष्णातमानसाः ॥ ८७ ॥
इस प्रकार सत्ययुगमें सभी लोग गायत्री-जपमें तत्पर थे और वे प्रणव तथा हल्लेखाके जपमें भी दत्तचित्त रहते थे ॥ ८७ ॥

न विष्णूपासना नित्या वेदेनोक्ता तु कुत्रचित् ।
न विष्णुदीक्षा नित्यास्ति शिवस्यापि तथैव च ॥ ८८ ॥
गायत्र्युपासना नित्या सर्ववेदैः समीरिता ।
यया विना त्वधःपातो ब्राह्मणस्यास्ति सर्वथा ॥ ८९ ॥
तावता कृतकृत्यत्वं नान्यापेक्षा द्विजस्य हि ।
गायत्रीमात्रनिष्णातो द्विजो मोक्षमवाप्नुयात् ॥ ९० ॥
कुर्यादन्यन्न वा कुर्यादिति प्राह मनुः स्वयम् ।
विहाय तां तु गायत्रीं विष्णूपास्तिपरायणः ॥ ९१ ॥
शिवोपास्तिरतो विप्रो नरकं याति सर्वथा ।
तस्मादाद्ययुगे राजन् गायत्रीजपतत्पराः ।
देवीपदाम्बुजरता आसन्सर्वे द्विजोत्तमाः ॥ ९२ ॥
वेदके द्वारा कहीं भी विष्णुकी उपासना तथा विष्णु-दीक्षा नित्य नहीं कही गयी है; उसी प्रकार शिवकी भी उपासना तथा दीक्षा नित्य नहीं कही गयी है, किंतु गायत्रीकी उपासना सभी वेदोंके द्वारा नित्य कही गयी है, जिसके बिना ब्राह्मणका सब प्रकार अध:पतन हो जाता है । द्विज केवल उतनेसे ही कृतकृत्य हो जाता है, उसे किसी अन्य साधनकी अपेक्षा नहीं रहती । केवल गायत्री-उपासनामें ही तत्पर रहकर द्विज मोक्ष प्राप्त कर लेता है, चाहे वह अन्य कार्य करे अथवा न करे-ऐसा मनुने स्वयं कहा है । उन गायत्रीके बिना विष्णु तथा शिवकी उपासनामें संलग्न रहनेवाला विप्र सब प्रकारसे नरकगामी होता है । इसीलिये हे राजन् ! सत्ययुगमें सभी उत्तम द्विजगण गायत्रीजप तथा भगवतीके चरणकमलकी उपासनामें निरन्तर संलग्न रहते थे । ८८-९२ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां
द्वादशस्कन्धे पराशक्तेराविर्भाववर्णनं नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रया संहितायां द्वादशस्कन्धे पराशक्तेराविर्भाववर्णनं नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥


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