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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
द्वादशः स्कन्धः
नवमोऽध्यायः

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गायत्रीभिन्नान्यदेवोपासनाश्रद्धाहेतुनिरूपणम् -
भगवती गायत्रीकी कृपासे गौतमके द्वारा अनेक ब्राह्मणपरिवारोंकी रक्षा,
ब्राह्मणोंकी कृतघ्नता और गौतमके द्वारा ब्राह्मणोंको घोर शाप-प्रदान -


व्यास उवाच
कदाचिदथ काले तु दशपञ्चसमा विभो ।
प्राणिनां कर्मवशतो न ववर्ष शतक्रतुः ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-हे विभो ! एक समयकी बात है, प्राणियोंको कर्म-फलका भोग करानेके लिये इन्द्रने पन्द्रह वर्षोंतक वृष्टि नहीं की ॥ १ ॥

अनावृष्ट्यातिदुर्भिक्षमभवत्क्षयकारकम् ।
गहे गृहे शवानां तु संख्या कर्तुं न शक्यते ॥ २ ॥
इस अनावृष्टिके कारण घोर विनाशकारी दुर्भिक्ष पड़ गया । घर-घरमें शवोंकी संख्याका आकलन नहीं किया जा सकता था ॥ २ ॥

केचिदश्वान्वराहान्वा भक्षयन्ति क्षुधार्दिताः ।
शवानि च मनुष्याणां भक्षयन्त्यपरे जनाः ॥ ३ ॥
बालकं बालजननी स्त्रियं पुरुष एव च ।
भक्षितुं चलिताः सर्वे क्षुधया पीडिता नराः ॥ ४ ॥
क्षुधासे पीड़ित कुछ लोग घोड़ों और सूअरोंका भक्षण कर जाते थे और कुछ लोग मनुष्योंके शवतक खा जाते थे । माता अपने बच्चेको और पुरुष पत्नीको खा जाते थे । इस प्रकार सभी लोग क्षुधासे पीड़ित होकर एक-दूसरेको खानेके लिये दौड़ पड़ते थे ॥ ३-४ ॥

ब्राह्मणा बहवस्तत्र विचारं चक्रुरुत्तमम् ।
तपोधनो गौतमोऽस्ति स नः खेदं हरिष्यति ॥ ५ ॥
सर्वैर्मिलित्वा गन्तव्यं गौतमस्याश्रमेऽधुना ।
गायत्रीजपसंसक्तगौतमस्याश्रमेऽधुना ॥ ६ ॥
सुभिक्षं श्रूयते तत्र प्राणिनो बहवो गताः ।
तब बहुत-से ब्राह्मणोंने एकत्र होकर यह उत्तम विचार प्रस्तुत किया कि महर्षि गौतम तपस्याके महान् धनी हैं । वे हमारे कष्टका निवारण कर देंगे । अतएव इस समय हम सभी लोगोंको मिलकर गौतमके आश्रममें चलना चाहिये । सुना गया है कि गायत्रीजपमें निरन्तर संलग्न रहनेवाले गौतमके आश्रममें इस समय भी सुभिक्ष है और बहुत लोग वहाँ गये हुए हैं ॥ ५-६.५ ॥

एवं विमृश्य भूदेवाः साग्निहोत्राः कुटुम्बिनः ॥ ७ ॥
सगोधनाः सदासाश्च गौतमस्याश्रमं ययुः ।
पूर्वदेशाद्ययुः केचित्केचिद्दक्षिणदेशतः ॥ ८ ॥
पाश्चात्या औत्तराहाश्च नानादिग्भ्यः समाययुः ।
इस प्रकार परस्पर विचार करके वे सभी ब्राह्मण अग्निहोत्रकी सामग्री, अपने परिवारजनों, गोधन तथा दासोंको साथमें लेकर गौतमऋषिके आश्रमपर गये । कुछ लोग पूर्व दिशासे, कुछ लोग दक्षिण दिशासे, कुछ लोग पश्चिम दिशासे और कुछ लोग उत्तर दिशासे-इस प्रकार अनेक स्थलोंसे लोग वहाँ पहुँच गये ॥ ७-८.५ ॥

दृष्ट्वा समाजं विप्राणां प्रणनाम स गौतमः ॥ ९ ॥
आसनाद्युपचारैश्च पूजयामास वाडवान् ।
चकार कुशलप्रश्नं ततश्चागमकारणम् ॥ १० ॥
ब्राह्मणोंके उस समाजको देखकर उन गौतमऋषिने प्रणाम किया और आसन आदि उपचारोंसे विप्रोंकी पूजा की । तत्पश्चात् महर्षि गौतमने उनका कुशलक्षेम तथा उनके वहाँ आनेका कारण पूछा ॥ ९-१० ॥

ते सर्वे स्वस्ववृत्तान्तं कथयामासुरुत्स्मयाः ।
दृष्ट्वा तान्दुःखितान्विप्रानभयं दत्तवान्मुनिः ॥ ११ ॥
युष्माकमेतत्सदनं भवद्दासोऽस्मि सर्वथा ।
का चिन्ता भवतां विप्रा मयि दासे विराजति ॥ १२ ॥
धन्योऽहमस्मिन्ममये यूयं सर्वे तपोधनाः ।
येषां दर्शनमात्रेण दुष्कृतं सुकृतायते ॥ १३ ॥
ते सर्वे पादरजसा पावयन्ति गृहं मम ।
को मदन्यो भवेद् धन्यो भवतां समनुग्रहात् ॥ १४ ॥
स्थेयं सर्वैः सुखेनैव सन्ध्याजपपरायणैः ।
उन सभी ब्राह्मणोंने उदास होकर अपना-अपना वृत्तान्त कहा । मुनि गौतमने उन विप्रोंको दुःखित देखकर उन्हें अभय प्रदान किया । [और कहा-] हे विप्रो ! यह आश्रम आपलोगोंका घर है और मैं हर तरहसे आपलोगोंका दास हूँ । मुझ दासके रहते आपलोगोंको चिन्ता किस बात की ? आप सभी तपोधन ब्राह्मण यहाँ आये हैं, इसलिये मैं अपनेको धन्य मानता हूँ । जिनके दर्शनमात्रसे दुष्कृत भी सुकृतमें परिणत हो जाता है, वे सभी विप्रगण अपने चरणरजसे मेरे आश्रमको पवित्र बना रहे हैं । आपलोगोंके अनुग्रहसे मुझसे बढ़कर धन्य दूसरा कौन है ? सन्ध्या और जपमें निरन्तर संलग्न रहनेवाले आप सभी लोग सुखपूर्वक यहाँ रहिये ॥ ११-१४.५ ॥

व्यास उवाच
इति सर्वान्ममाश्वास्य गौतमो मुनिराट् ततः ॥ १५ ॥
गायत्रीं प्रार्थयामास भक्तिसन्नतकन्धरः ।
नमो देवि महाविद्ये वेदमातः परात्परे ॥ १६ ॥
व्याहृत्यादिमहामन्त्ररूपे प्रणवरूपिणि ।
साम्यावस्थात्मिके मातर्नमो ह्रींकाररूपिणि ॥ १७ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] इस प्रकार सभी ब्राह्मणोंको आश्वस्त करके मुनिराज गौतम भक्तिभावसे सिर झुकाकर गायत्रीकी प्रार्थना करने लगेहे देवि ! आपको नमस्कार है । आप महाविद्या, वेदमाता और परात्परस्वरूपिणी हैं । व्याहृति आदि महामन्त्रों तथा प्रणवके स्वरूपवाली, साम्यावस्थामें विराजमान रहनेवाली तथा ह्रींकार स्वरूपवाली हे मातः ! आपको नमस्कार है ॥ १५-१७ ॥

स्वाहास्वधास्वरूपे त्वां नमामि सकलार्थदाम् ।
भक्तकल्पलतां देवीमवस्थात्रयसाक्षिणीम् ॥ १८ ॥
तुर्यातीतस्वरूपां च सज्जिदानन्दरूपिणीम् ।
सर्ववेदान्तसंवेद्यां सूर्यमण्डलवासिनीम् ॥ १९ ॥
प्रातर्बालां रक्तवर्णां मध्याह्ने युवतीं पराम् ।
सायाह्ने कृष्णवर्णां तां वृद्धां नित्यं नमाम्यहम् ॥ २० ॥
सर्वभूतारणे देवि क्षमस्व परमेश्वरि ।
स्वाहा और स्वधा-रूपसे शोभा पानेवाली हे देवि ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ । सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाली, भक्तोंके लिये कल्पलतासदृश, तीनों अवस्थाओंकी साक्षिणी-स्वरूपा, तुरीयावस्थासे अतीत स्वरूपवाली, सच्चिदानन्द-स्वरूपिणी, सभी वेदान्तोंकी वेद्यविषयरूपा, सूर्यमण्डलमें विराजमान रहनेवाली, प्रातःकालमें बाल्यावस्था तथा रक्तवर्णवाली, मध्याह्नकालमें श्रेष्ठ युवतीकी भाँति शोभा पानेवाली और सायंकालमें वृद्धास्वरूपिणी तथा कृष्णवर्णवाली उन भगवतीको मैं नित्य प्रणाम करता हूँ । सम्पूर्ण प्राणियोंको उत्पन्न करनेवाली हे परमेश्वरि ! हे देवि ! आप क्षमा करें ॥ १८-२०.५ ॥

इति स्तुता जगन्माता प्रत्यक्षं दर्शनं ददौ ॥ २१ ॥
पूर्णपात्रं ददौ तस्मै येन स्यात्सर्वपोषणम् ।
गौतमजीके इस प्रकार स्तुति करनेपर जगज्जननी भगवतीने उन्हें अपना प्रत्यक्ष दर्शन दिया । उन्होंने उन गौतमऋषिको एक ऐसा पूर्णपात्र प्रदान किया, जिसके द्वारा सबका भरण-पोषण हो सके ॥ २१.५ ॥

उवाच मुनिमम्बा सा यं यं कामं त्वमिच्छसि ॥ २२ ॥
तस्य पूर्तिकरं पात्रं मया दत्तं भविष्यति ।
उन जगदम्बाने मुनिसे कहा-आप जिस-जिस वस्तुकी कामना करेंगे, मेरे द्वारा प्रदत्त यह पूर्णपात्र उसकी पूर्ति करनेवाला सिद्ध होगा ॥ २२.५ ॥

इत्युक्त्वान्तर्दधे देवी गायत्री परमा कला ॥ २३ ॥
अन्नानां राशयस्तस्मानिर्गताः पर्वतोपमाः ।
षड्रसा विविधा राजंस्तृणानि विविधानि च ॥ २४ ॥
भूषणानि च दिव्यानि क्षौमानि वसनानि च ।
यज्ञानां च समारम्भाः पात्राणि विविधानि च ॥ २५ ॥
ऐसा कहकर श्रेष्ठ कलास्वरूपिणी भगवती गायत्री अन्तर्धान हो गयीं । हे राजन् ! उस पात्रसे पर्वतके समान विशाल अन्नराशि, छः प्रकारके रस, भौति-भांतिके तण, दिव्य आभूषण, रेशमी वस्त्र, यज्ञोंकी सामग्रियाँ तथा अनेक प्रकारके पात्र निकले ॥ २३-२५ ॥

यद्यदिष्टमभूद्‌राजन् मुनेस्तस्य महात्मनः ।
तत्सर्वं निर्गतं तस्माद् गायत्रीपूर्णपात्रतः ॥ २६ ॥
हे राजन् ! उन महात्मा गौतमको जिस-जिस पदार्थकी अभिलाषा होती थी, वे सभी पदार्थ भगवती गायत्रीके द्वारा प्रदत्त उस पूर्णपात्रसे निकल आते थे ॥ २६ ॥

अथाहूय मुनीन्मर्वान्मुनिराड् गौतमस्तदा ।
धनं धान्यं भूषणानि वसनानि ददौ मुदा ॥ २७ ॥
गोमहिष्यादिपशवो निर्गताः पूर्णपात्रतः ।
निर्गतान्यज्ञसम्भारान्स्रुक्स्रुवप्रभृतीन्ददौ ॥ २८ ॥
इसके बाद मुनिवर गौतमने सभी मुनियोंको बुलाकर उन्हें प्रसन्नतापूर्वक धन-धान्य, आभूषण तथा वस्त्र आदि प्रदान किये । उस पूर्णपात्रसे निर्गत गाय-भैंस आदि पशु तथा सुक्-सुवा आदि यज्ञकी सामग्रियाँ सभी मुनियोंको दी गयीं ॥ २७-२८ ॥

ते सर्वे मिलिता यज्ञांश्चक्रिरे मुनिवाक्यतः ।
स्थानं तदेव भूयिष्ठमभवत्स्वर्गसन्निभम् ॥ २९ ॥
तदनन्तर वे सभी मुनि एकत्र होकर गौतमऋषिकी आज्ञासे नानाविध यज्ञ करने लगे । इस प्रकार वह आश्रम स्वर्गके समान एक अत्यन्त दिव्य स्थान हो गया ॥ २९ ॥

यत्किञ्चित् त्रिषु लोकेषु सुन्दरं वस्तु दृश्यते ।
तत्सर्वं तत्र निष्पन्नं गायत्रीदत्तपात्रतः ॥ ३० ॥
तीनों लोकोंमें जो कुछ भी सुन्दर वस्तु दृष्टिगत होती, वह सब कुछ गायत्रीके द्वारा दिये गये पात्रसे प्राप्त हो जाती थी ॥ ३० ॥

देवाङ्‌गनासमा दाराः शोभन्ते भूषणादिभिः ।
मुनयो देवसदृशा वस्त्रचन्दनभूषणैः ॥ ३१ ॥
मुनियोंकी स्त्रियाँ भूषण आदिके द्वारा देवांगनाओंकी भौति और मुनिगण वस्त्र, चन्दन तथा आभूषणोंसे देवताओंके समान सुशोभित हो रहे थे ॥ ३१ ॥

नित्योत्सवः प्रववृते मुनेराश्रममण्डले ।
न रोगादिभयं किञ्चिन्न च दैत्यभयं क्वचित् ॥ ३२ ॥
गौतमऋषिके आश्रममें चारों ओर नित्य उत्सव मनाया जाने लगा । किसीको भी रोग आदिका कोई भी भय नहीं था और दैत्योंका कहीं भी भय नहीं रहा ॥ ३२ ॥

स मुनेराश्रमो जातः समन्ताच्छतयोजनः ।
अन्ये च प्राणिनो येऽपि तेऽपि तत्र समागताः ॥ ३३ ॥
तांश्च सर्वान्पुपोषायं दत्त्वाभयमथात्मवान् ।
नानाविधैर्महायज्ञैर्विधिवत्कल्पितैः सुराः ॥ ३४ ॥
सन्तोषं परमं प्रापुर्मुनेश्चैव जगुर्यशः ।
सभायां वृत्रहा भूयो जगौ श्लोकं महायशाः ॥ ३५ ॥
अहो अयं नः किल कल्पपादपो
मनोरथान्पूरयति प्रतिष्ठितः ।
नोचेदकाण्डे क्व हविर्वपा वा
सुदुर्लभा यत्र तु जीवनाशा ॥ ३६ ॥
गौतममुनिका वह आश्रम चारों ओरसे सौ योजनके विस्तारवाला हो गया; और भी अन्य जिन प्राणियोंको इसकी जानकारी हुई, वे भी वहाँ आ गये । तब आत्मज्ञानी गौतममुनिने उन्हें अभय प्रदान करके उन सभीक भरण-पोषणका समुचित प्रबन्ध कर दिया । अनेक प्रकारके महायज्ञोंके विधिपूर्वक सम्पन्न हो जानेसे देवतागण परम प्रसन्न हुए और मुनिका यशोगान करने लगे । वृत्रासुरका संहार करनेवाले महान् यशस्वी इन्द्रने भी अपनी सभामें बार-बार यह श्लोक कहा-अहो, इस समय ये गौतमऋषि हमारे लिये साक्षात् कल्पवृक्षके रूपमें प्रतिष्ठित होकर हमारे सभी मनोरथ पूर्ण कर रहे हैं, अन्यथा इस दुष्कालमें जहाँ जीवनकी आशा भी अत्यन्त दुर्लभ थी, फिर हमलोग हवि कैसे प्राप्त करते ? ॥ ३३-३६ ॥

इत्थं द्वादशवर्षाणि पुपोष मुनिपुङ्‌गवान् ।
पुत्रवन्मुनिराड् गर्वगन्धेन परिवर्जितः ॥ ३७ ॥
इस प्रकार वे मुनिवर गौतम अभिमानकी गन्धतकसे रहित होकर बारह वर्षोंतक उन श्रेष्ठ मुनियोंका पुत्रवत् पालन-पोषण करते रहे ॥ ३७ ॥

गायत्र्याः परमं स्थानं चकार मुनिसत्तमः ।
यत्र सर्वैर्मुनिवरैः पूज्यते जगदम्बिका ॥ ३८ ॥
त्रिकालं परया भक्त्या पुरश्चरणकर्मभिः ।
अद्यापि यत्र देवी सा प्रातर्बाला तु दृश्यते ॥ ३९ ॥
मध्याह्ने युवती वृद्धा सायंकाले तु दृश्यते ।
उन मुनिश्रेष्ठ गौतमने गायत्रीकी उपासनाहेत एक पवित्र स्थलका निर्माण कराया, जहाँ सभी श्रेष्ठ मुनिगण पुरश्चरण आदि कर्मोंके द्वारा परम भक्तिके साथ तीनों कालों-प्रातः, मध्याह्न तथा सायंकालमें भगवती जगदम्बाकी पूजा करते थे । उस स्थानपर आज भी वे भगवती प्रातःकाल बाला-रूपमें, मध्याहकालमें युवतीके रूपमें तथा सायंकालमें वृद्धाके रूपमें दृष्टिगोचर होती हैं ॥ ३८-३९.५ ॥

तत्रैकदा समायातो नारदो मुनिसत्तमः ॥ ४० ॥
रणयन्महतीं गायन्गायत्र्याः परमान्गुणान् ।
निषसाद सभामध्ये मुनीनां भावितात्मनाम् ॥ ४१ ॥
एक बार मुनिश्रेष्ठ नारदजी अपनी महती नामक वीणा बजाते हुए और गायत्रीके उत्तम गुणोंका गान करते हुए वहाँ आये और पुण्यात्मा मुनियोंकी सभामें बैठ गये । ४०-४१ ॥

गौतमादिभिरत्युच्चैः पूजितः शान्तमानसः ।
कथाश्चकार विविधा यशसो गौतमस्य च ॥ ४२ ॥
ब्रह्मर्षे देवसदसि देवराट् तव यद्यशः ।
जगौ बहुविधं स्वच्छं मुनिपोषणजं परम् ॥ ४३ ॥
श्रुत्वा शचीपतेर्वाणीं त्वां द्रष्टुमहमागतः ।
धन्योऽसि त्वं मुनिश्रेष्ठ जगदम्बाप्रसादतः ॥ ४४ ॥
तत्पश्चात् गौतम आदि श्रेष्ठ मुनियोंसे विधिवत् पूजित होकर शान्त मनवाले नारदजी गौतमकी यश-सम्बन्धी विविध कथाओंका वर्णन करने लगे-हे ब्रह्मर्षे ! देवराज इन्द्रने मुनियोंके भरणपोषणसे सम्बन्धित आपकी विमल कीर्तिका गान देवताओंकी सभामें अनेक प्रकारसे किया है । शचीपति इन्द्रकी वही वाणी सुनकर आपका दर्शन करनेके लिये मैं यहाँ आया हूँ । हे मुनिश्रेष्ठ ! जगदम्बाको कृपासे आप धन्य हैं ॥ ४२-४४ ॥

इत्युक्त्या मुनिवर्यं तं गायत्रीसदनं ययौ ।
ददर्श जगदम्बां तां प्रेमोत्फुल्लविलोचनः ॥ ४५ ॥
तुष्टाव विधिवद्देवीं जगाम त्रिदिवं पुनः ।
अथ तत्र स्थिता ये ते ब्राह्मणा मुनिपोषिताः ॥ ४६ ॥
उत्कर्षं तु मुनेः श्रुत्वासूयया खेदमागताः ।
यथास्य न यशो भूयात्कर्तव्यं सर्वथैव हि ॥ ४७ ॥
काले समागते पश्चादिति सर्वैस्तु निश्चितम् ।
उन मुनिवर गौतमसे ऐसा कहकर नारदजी गायत्री-सदनमें गये । प्रेमसे प्रफुल्लित नेत्रोंवाले नारदजीने वहाँ उन भगवती जगदम्बाका दर्शन किया और विधिवत् उनकी स्तुति की । तत्पश्चात् उन्होंने स्वर्गके लिये प्रस्थान किया । इसके बाद वहाँपर मुनि गौतमके द्वारा पालित-पोषित जो ब्राह्मण थे, वे मुनिका उत्कर्ष सुनकर ईर्ष्यासे दुःखी हो गये । कुछ समय बीतनेके बाद उन सभीने यह निश्चय किया कि किसी भी प्रकारसे हमलोगोंको सर्वथा वही प्रयत्न करना चाहिये, जिससे इस गौतमऋषिका यश न बढ़े ॥ ४५-४७.५ ॥

ततः कालेन कियताप्यभूद् वृष्टिर्धरातले ॥ ४८ ॥
सुभिक्षमभवत्सर्वदेशेषु नृपसत्तम ।
श्रुत्वा वार्तां सुभिक्षस्य मिलिताः सर्ववाडवाः ॥ ४९ ॥
गौतमं शप्तुमुद्योगं हा हा राजन् प्रचक्रिरे ।
धन्यौ तेषां च पितरौ ययोरुत्पत्तिरीदृशी ॥ ५० ॥
हे महाराज ! कुछ कालके अनन्तर पृथ्वीतलपर वृष्टि भी होने लगी और सभी देशोंमें सुभिक्ष हो गया । सर्वत्र सुभिक्षकी बात सुनकर वे ब्राह्मण एकत्र हो गये और हे राजन् ! हाय-हाय ! वे गौतमको शाप देनेका प्रयत्न करने लगे । वे माता-पिता भी आज धन्य हो गये, जिनके यहाँ ऐसे [कृतघ्न ब्राह्मण-] पुत्रोंका जन्म हुआ है । ॥ ४८-५० ॥

कालस्य महिमा राजन् वक्तुं केन हि शक्यते ।
गौर्निर्मिता माययैका मुमूर्षुर्जरती नृप ॥ ५१ ॥
जगाम सा च शालायां होमकाले मुनेस्तदा ।
हुंहुंशब्दैर्वारिता सा प्राणांस्तत्याज तत्क्षणे ॥ ५२ ॥
हे राजन् ! कालकी महिमा भला कौन जान सकता है ? उस समय उन ब्राह्मणोंने मायाके द्वारा एक मरणासन्न वृद्ध गाय बनायी, जब मुनि हवन कर रहे थे, उसी समय वह गाय यज्ञशालामें पहुँची । मुनि गौतमने 'हं हूं' शब्दोंसे उसे आनेसे रोका; उसी क्षण उसने अपने प्राण त्याग दिये ॥ ५१-५२ ॥

गौर्हतानेन दुष्टेनेत्येवं ते चुक्रुशुर्द्विजाः ।
होमं समाप्य मुनिराङ्‌ विस्मयं परमं गतः ॥ ५३ ॥
समाधिमीलिताक्षः संश्चिन्तयामास कारणम् ।
कृतं सर्वं द्विजैरेतदिति ज्ञात्वा तदैव सः ॥ ५४ ॥
दधार कोपं परमं प्रलये रुद्रकोपवत् ।
शशाप च ऋषीन्सर्वान्कोपसंरक्तलोचनः ॥ ५५ ॥
वेदमातरि गायत्र्यां तद्ध्याने तन्मनोर्जपे ।
भवतानुन्मुखा यूयं सर्वथा ब्राह्मणाधमाः ॥ ५६ ॥
वेदे वेदोक्तयज्ञेषु तद्वार्तासु तथैव च ।
भवतानुन्मुखा यूयं सर्वदा ब्राह्मणाधमाः ॥ ५७ ॥
शिवे शिवस्य मन्त्रे च शिवशास्त्रे तथैव च ।
भवतानुन्मुखा यूयं सर्वदा ब्राह्मणाधमाः ॥ ५८ ॥
तब वे ब्राह्मण जोर-जोरसे कहने लगे कि इस दुष्ट गौतमने गौकी हत्या कर दी । तब मुनिराज गौतम हवन समाप्त करनेके पश्चात् इस घटनासे अत्यन्त आश्चर्यचकित हो उठे । वे अपने नेत्र बन्द करके समाधिमें स्थित होकर इसके कारणपर विचार करने लगे । यह सब कुछ ब्राह्मणोंने ही किया है-ऐसा जानकर उन्होंने प्रलयकालीन रुद्रके क्रोधके समान परम कोप किया । इस प्रकार कोपसे लाल नेत्रोंवाले उन गौतमने सभी ऋषियोंको यह शाप दे दिया'अधम ब्राह्मणो ! तुमलोग वेदमाता गायत्रीकी उपासना, ध्यान और उनके मन्त्र-जपसे सर्वथा विमुख हो जाओ । हे अधम ब्राह्मणो ! वेद, वेदोक्त यज्ञों तथा वेदसम्बन्धी वार्ताओंसे तुम सभी सदा वंचित रहो । हे अधम ब्राह्मणो ! तुम सभी शिवोपासना, शिव-मन्त्रके जप तथा शिव-सम्बन्धी शास्त्रोंसे सर्वदा विमुख हो जाओ ॥ ५३-५८ ॥

मूलप्रकृत्याः श्रीदेव्यास्तद्ध्याने तत्कथासु च ।
भवतानुन्मुखा यूयं सर्वदा ब्राह्मणाधमाः ॥ ५९ ॥
देवीमन्त्रे तथा देव्याः स्थानेऽनुष्ठानकर्मणि ।
भवतानुन्मुखा यूयं सर्वदा ब्राह्मणाधमाः ॥ ६० ॥
हे अधम ब्राह्मणो ! मूलप्रकृति भगवती श्रीदेवीकी उपासना, उनके ध्यान तथा उनकी कथाओंसे तुमलोग सदा विमुख हो जाओ । हे अधम ब्राह्मणो ! देवीके मन्त्र-जप, उनकी प्रतिष्ठास्थली तथा उनके अनुष्ठानकर्मसे तुमलोग सदा पराङ्मुख हो जाओ ॥ ५९-६० ॥

देव्युत्सवदिदृक्षायां देवीनामानुकीर्तने ।
भवतानुन्मुखा यूयं सर्वदा ब्राह्मणाधमाः ॥ ६१ ॥
देवीभक्तस्य सान्निध्ये देवीभक्तार्चने तथा ।
भवतानुन्मुखा यूयं सर्वदा ब्राह्मणाधमाः ॥ ६२ ॥
हे अधम ब्राह्मणो ! देवीका उत्सव देखने तथा उनके नामोंके कीर्तनसे तुम सब सदा विमुख रहो । हे अधम ब्राह्मणो ! देवी-भक्तके समीप रहने तथा देवीभक्तोंकी अर्चना करनेसे तुम सभी लोग सर्वदा विमुख रहो ॥ ६१-६२ ॥

शिवोत्सवदिदृक्षायां शिवभक्तस्य पूजने ।
भवतानुन्मुखा यूयं सर्वदा ब्राह्मणाधमाः ॥ ६३ ॥
रुद्राक्षं बिल्वपत्रे च तथा शुद्धे च भस्मनि ।
भवतानुन्मुखा यूयं सर्वदा ब्राह्मणाधमाः ॥ ६४ ॥
हे अधम ब्राह्मणो ! भगवान् शिवका उत्सव देखने तथा शिवभक्तका पूजन करनेसे तुम सदा विमुख रहो । हे अधम ब्राह्मणो ! रुद्राक्ष, बिल्वपत्र तथा शुद्ध भस्मसे तुमलोग सर्वदा वंचित रहो ॥ ६३-६४ ॥

श्रौतस्मार्तसदाचारे ज्ञानमार्गे तथैव च ।
भवतानुन्मुखा यूयं सर्वदा ब्राह्मणाधमाः ॥ ६५ ॥
अद्वैतज्ञाननिष्ठायां शान्तिदान्त्यादिसाधने ।
भवतानुन्मुखा यूयं सर्वदा ब्राह्मणाधमाः ॥ ६६ ॥
हे अधम ब्राह्मणो ! श्रौत-स्मार्त-सम्बन्धी सदाचार तथा ज्ञान-मार्गसे तुमलोग सदा वंचित रहो । हे अधम ब्राह्मणो ! अद्वैत ज्ञाननिष्ठा और शम-दम आदि साधनोंसे तुमलोग सर्वदा विमुख रहो ॥ ६५-६६ ॥

नित्यकर्माद्यनुष्ठानेऽप्यग्निहोत्रादिसाधने ।
भवतानुन्मुखा यूयं सर्वदा ब्राह्मणाधमाः ॥ ६७ ॥
हे अधम ब्राह्मणो ! नित्यकर्म आदिके अनुष्ठान तथा अग्निहोत्र आदि सम्पन्न करनेसे भी तुमलोग सदा वंचित हो जाओ ॥ ६७ ॥

स्वाध्यायाध्ययने चैव तथा प्रवचनेऽपि च ।
भवतानुन्मुखा यूयं सर्वदा ब्राह्मणाधमाः ॥ ६८ ॥
हे अधम ब्राह्मणो ! स्वाध्याय-अध्ययन तथा प्रवचन आदिसे भी तुम सभी लोग सर्वदा विमुख रहो ॥ ६८ ॥

गोदानादिषु दानेषु पितृश्राद्धेषु चैव हि ।
भवतानुन्मुखा यूयं सर्वदा ब्राह्मणाधमाः ॥ ६९ ॥
हे अधम ब्राह्मणो ! गौ आदिके दान और पितरोंके श्राद्धकर्मसे तुम सभी लोग सदाके लिये विमुख हो जाओ ॥ ६९ ॥

कृच्छ्रचान्द्रायणे चैव प्रायश्चित्ते तथैव च ।
भवतानुन्मुखा यूयं सर्वदा ब्राह्मणाधमाः ॥ ७० ॥
हे अधम ब्राह्मणो ! कृच्छ्चान्द्रायण आदि व्रतों तथा पाप आदिके प्रायश्चित्त कर्मोसे तुम सभी लोग सर्वदाके लिये विमुख हो जाओ ॥ ७० ॥

श्रीदेवीभिन्नदेवेषु श्रद्धाभक्तिसमन्विताः ।
शङ्‌खचक्राद्यङ्‌किताश्च भवत ब्राह्मणाधमाः ॥ ७१ ॥
हे अधम ब्राह्मणो ! तुमलोग देवी भगवतीके अतिरिक्त अन्य देवताओंके प्रति श्रद्धा तथा भक्तिसे युक्त होकर और शंख-चक्र आदिका चिह्न धारण करनेवाले हो जाओ ॥ ७१ ॥

कापालिकमतासक्ता बौद्धशास्त्ररताः सदा ।
पाखण्डाचारनिरता भवत ब्राह्मणाधमाः ॥ ७२ ॥
हे अधम ब्राह्मणो ! तुमलोग कापालिक मतमें आसक्त, बौद्ध शास्त्रोंके परायण तथा पाखण्डपूर्ण आचारमें निरत रहो ॥ ७२ ॥

पितृमातृसुताभ्रातृकन्याविक्रयिणस्तथा ।
भार्याविकयिणस्तद्वद्‍भवत ब्राह्मणाथमाः ॥ ७३ ॥
हे अधम ब्राह्मणो ! तुमलोग पिता, माता, पुत्री, भाई, कन्या और पत्नीका विक्रय करनेवाले व्यक्तियोंके समान हो जाओ ॥ ७३ ॥

वेदविक्रयिणस्तद्वत्तीर्थविक्रयिणस्तथा ।
धर्मविक्रयिणस्तद्वद्‍भवत ब्राह्मणाधमाः ॥ ७४ ॥
हे अधम ब्राह्मणो ! वेदका विक्रय करनेवाले, तीर्थ बेचनेवाले और धर्म बेचनेवाले व्यक्तियोंके समान तुमलोग हो जाओ । ७४ ॥

पाञ्चरात्रे कामशास्त्रे तथा कापालिके मते ।
बौद्धे श्रद्धायुता यूयं भवत ब्राह्मणाधमाः ॥ ७५ ॥
हे अधम ब्राह्मणो ! तुमलोग पांचरात्र, कामशास्त्र, कापालिक मत और बौद्ध मतके प्रति श्रद्धा रखनेवाले हो जाओ ॥ ७५ ॥

मातृकन्यागामिनश्च भगिनीगामिनस्तथा ।
परस्त्रीलम्पटाः सर्वे भवत ब्राह्मणाधमाः ॥ ७६ ॥
हे अधम ब्राह्मणो ! तुमलोग माता, कन्या, भगिनी तथा परायी स्त्रियोंके साथ व्यभिचार करनेवाले हो जाओ ॥ ७६ ॥

युष्माकं वंशजाताश्च स्त्रियश्च पुरुषास्तथा ।
मद्दत्तशापदग्धास्ते भविष्यन्ति भवत्समाः ॥ ७७ ॥
तुम्हारे वंशमें उत्पन्न स्त्रियाँ तथा पुरुष मेरे द्वारा दिये हुए इस शापसे दग्ध होकर तुमलोगोंके ही समान हो जायेंगे ॥ ७७ ॥

किं मया बहुनोक्तेन मूलप्रकृतिरीश्वरी ।
गायत्री परमा भूयाद्युष्मासु खलु कोपिता ॥ ७८ ॥
मेरे अधिक कहनेसे क्या प्रयोजन ! मूलप्रकृति परमेश्वरी भगवती गायत्रीका अवश्य ही तुमलोगोंपर महान् कोप है । अत: तुमलोगोंका अन्धकूप आदि नरककुण्डोंमें सदा वास होगा । ७८ ॥

अन्धकूपादिकुण्डेषु युष्माकं स्यात्सदा स्थितिः ।
व्यास उवाच
वाग्दण्डमीदृशं कृत्वाप्युपस्पृश्य जलं ततः ॥ ७९ ॥
जगाम दर्शनार्थं च गायत्र्याः परमोस्तुकः ।
प्रणनाम महादेवीं सापि देवी परात्परा ॥ ८० ॥
ब्राह्मणानां कृतिं दृष्ट्वा स्मयं चित्ते चकार ह ।
अद्यापि तस्या वदनं स्मययुक्तं च दृश्यते ॥ ८१ ॥
व्यासजी बोले-इस प्रकारका वाग्दण्ड देकर गौतममुनिने आचमन किया और तत्पश्चात् भगवती गायत्रीके दर्शनार्थ अत्यन्त उत्सुक होकर वे देवीमन्दिर गये । वहाँ उन्होंने महादेवीको प्रणाम किया । वे परात्परा भगवती गायत्री भी ब्राह्मणोंकी कृतघ्नताको देखकर स्वयं अपने मनमें चकित हो रही थी और आज भी उनका मुख आश्चर्यसे युक्त दिखायी पड़ता है ॥ ७९-८१ ॥

उवाच मुनिवर्यं तं स्मयमानमुखाम्बुजा ।
भुजङ्‌गायार्पितं दुग्धं विषायैवोपजायते ॥ ८२ ॥
शान्तिं कुरु महाभाग कर्मणो गतिरीदृशी ।
इति देवीं प्रणम्याथ ततोऽगात्स्वाश्रमं प्रति ॥ ८३ ॥
आश्चर्ययुक्त मुखकमलवाली भगवती गायत्रीने उन मुनिवर गौतमसे कहा-'हे महाभाग ! सर्पको दिया गया दुग्ध उसके विषको ही बढ़ानेवाला होता है । अब आप धैर्य धारण कीजिये; क्योंकि कर्मकी ऐसी ही गति होती है । ' तत्पश्चात् भगवतीको प्रणामकर गौतमजी अपने आश्रमके लिये चल दिये ॥ ८२-८३ ॥

ततो विप्रैः शापदग्धैर्विस्मृता वेदराशयः ।
गायत्री विस्मृता सर्वैस्तदद्‌भुतमिवाभवत् ॥ ८४ ॥
तब शापदग्ध वे ब्राह्मण वेदोंको भूल गये । उन सभीको गायत्री मन्त्र भी विस्मृत हो गया । ऐसी आश्चर्यकारी घटना हुई । ८४ ॥

ते सर्वेऽथ मिलित्वा तु पश्चात्तापयुतास्तथा ।
प्रणेमुर्मुनिवर्यं तं दण्डवत्पतिता भुवि ॥ ८५ ॥
अब वे सभी ब्राह्मण एकत्र होकर पश्चात्ताप करने लगे और दण्डकी भाँति पृथ्वीपर गिरकर उन्होंने मुनिवर गौतमको प्रणाम किया ॥ ८५ ॥

नोचुः किञ्चन वाक्यं तु लज्जयाधोमुखाः स्थिताः ।
प्रसीदेति प्रसीदेति प्रसीदेति पुनः पुनः ॥ ८६ ॥
प्रार्थयामासुरभितः परिवार्य मुनीश्वरम् ।
लज्जासे अपने मुख नीचेकी ओर किये हुए वे कुछ भी वाक्य नहीं बोल सके । वे चारों ओरसे मुनीश्वरको घेरकर बार-बार यही प्रार्थना करने लगे-आप प्रसन्न हो जाइये, प्रसन्न हो जाइये, प्रसन्न हो जाइये ॥ ८६.५ ॥

करुणापूर्णहृदयो मुनिस्तान्समुवाच ह ॥ ८७ ॥
कृष्णावतारपर्यन्तं कुम्भीपाके भवेत्स्थितिः ।
न मे वाक्यं मृषा भूयादिति जानीथ सर्वथा ॥ ८८ ॥
ततः परं कलियुगे भुवि जन्म भवेद्धि वाम् ।
मदुक्तं सर्वमेतत्तु भवेदेव न चान्यथा ॥ ८९ ॥
मच्छापस्य विमोक्षार्थं युष्माकं स्याद्यदीषणा ।
तर्हि सेव्यं सदा सर्वैर्गायत्रीपदपङ्‌कजम् ॥ ९० ॥
इसपर मुनिका हृदय करुणासे भर आया और वे उन ब्राह्मणोंसे बोले-'कृष्णावतारपर्यन्त तुमलोगोंको कुम्भीपाक नरकमें वास करना पड़ेगा; क्योंकि मेरा वचन मिथ्या कदापि नहीं हो सकता-इसे तुमलोग भलीभाँति जान लो । तत्पश्चात् कलियुगमें भूमण्डलपर तुमलोगोंका जन्म होगा । मेरे द्वारा कही गयी ये सारी बातें अन्यथा नहीं हो सकी । यदि मेरे शापसे मुक्तिकी तुमलोगोंको इच्छा है, तो तुम सब भगवती गायत्रीके चरणकमलकी सदा उपासना करो' ॥ ८७–९० ॥

व्यास उवाच
इति सर्वान्विसृज्याथ गौतमो मुनिसत्तमः ।
प्रारब्धामिति मत्वा तु चित्ते शान्तिं जगाम ह ॥ ९१ ॥
एतस्मात्कारणाद्‌राजन् गते कृष्णे तु धीमति ।
कलौ युगे प्रवृत्ते तु कुम्भीपाकात्तु निर्गताः ॥ ९२ ॥
व्यासजी बोले-ऐसा कहकर मुनिश्रेष्ठ गौतमने सभी ब्राह्मणोंको विदा कर दिया । तत्पश्चात् 'यह सब प्रारब्धका प्रभाव है'-ऐसा मानकर उन्होंने अपना चित्त शान्त कर लिया । हे राजन् ! यही कारण है कि बुद्धिसम्पन्न भगवान् श्रीकृष्णके महाप्रयाण करनेके पश्चात् कलियुग आनेपर वे सभी ब्राह्मण कुम्भीपाक नरककुण्डसे निकल आये ॥ ९१-९२ ॥

भुवि जाता ब्राह्मणाश्च शापदग्धाः पुरा तु ये ।
सन्ध्यात्रयविहीनाश्च गायत्रीभक्तिवर्जिताः ॥ ९३ ॥
वेदभक्तिविहीनाश्च पाखण्डमतगामिनः ।
अग्निहोत्रादिसत्कर्मस्वधास्वाहाविवर्जिताः ॥ ९४ ॥
मूलप्रकृतिमव्यक्तां नैव जानन्ति कर्हिचित् ।
तप्तमुद्राङ्‌किताः केचित्कामाचाररताः परे ॥ ९५ ॥
कापालिकाः कौलिकाश्च बौद्धा जैनास्तथापरे ।
पण्डिता अपि ते सर्वे दुराचारप्रवर्तकाः ॥ ९६ ॥
लम्पटाः परदारेषु दुराचारपरायणाः ।
कुम्भीपाकं पुनः सर्वे यास्यन्ति निजकर्मभिः ॥ ९७ ॥
इस प्रकार पूर्वकालमें शापसे दाध वे ब्राह्मण भूमण्डलपर उत्पन्न हुए; जो त्रिकाल सन्ध्यासे हीन, भगवती गायत्रीकी भक्तिसे विमुख, वेदोंके प्रति श्रद्धारहित, पाखण्डमतका अनुसरण करनेवाले, अग्निहोत्र आदि सत्कर्म न करनेवाले और स्वाहा-स्वधासे रहित हैं । उनमें कुछ ऐसे हैं, जो मूलप्रकृति तथा अव्यक्तस्वरूपिणी गायत्रीके विषयमें कुछ भी नहीं जानते । कोई-कोई तप्तमुद्रा धारण करके स्वेच्छाचार-परायण हो गये हैं । उनमेंसे कुछ कापालिक, कौलिक, बौद्ध तथा जैनमतको माननेवाले हैं, वे सभी पण्डित होते हुए भी दुराचारके प्रवर्तक हैं । परायी स्त्रियोंके साथ दुराचार करनेवाले सभी लम्पट अपने कुत्सित कर्मोके कारण पुनः उसी कुम्भीपाक नरककुण्डमें जायँगे ॥ ९३-९७ ॥

तस्मात्सर्वात्मना राजन् संसेव्या परमेश्वरी ।
न विष्णूपासना नित्या न शिवोपासना तथा ॥ ९८ ॥
नित्या चोपासना शक्तेर्यां विना तु पतत्यधः ।
सर्वमुक्तं समासेन यत्पृष्टं तत्त्वयानघ ॥ ९९ ॥
अतः परं मणिद्वीपवर्णनं शृणु सुन्दरम् ।
यत्परं स्थानमाद्याया भुवनेश्या भवारणेः ॥ १०० ॥
अतएव हे राजन् ! हर प्रकारसे परमेश्वरीकी उपासना करनी चाहिये । न विष्णुकी उपासना नित्य है और न तो शिवकी ही उपासना नित्य है; केवल शक्तिकी उपासना नित्य है, जिसके न करनेसे मनुष्यका अध:पतन हो जाता है । हे निष्पाप ! आपने मुझसे जो पूछा था, वह सब मैंने संक्षेपमें बता दिया । अब आप मणिद्वीपका मनोरम वर्णन सुनिये, जो जगत्को उत्पन्न करनेवाली आदिशक्तिस्वरूपिणी भुवनेश्वरीका परमधाम है ॥ ९८-१०० ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां द्वादशस्कन्धे
ब्राह्मणादीनां गायत्रीभिन्नान्यदेवोपासना-श्रद्धाहेतुनिरूपणं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्रयाँ संहितायां द्वादशस्को ब्राह्मणादीनां गायत्रीभिन्नान्यदेवोपासनाबद्धाहेतुनिरूपणं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥


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