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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
द्वादशः स्कन्धः
दशमोऽध्यायः

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मणिद्वीपवर्णनम् -
मणिद्वीपका वर्णन -


व्यास उवाच
ब्रह्मलोकादूर्ध्वभागे सर्वलोकोऽस्ति यः श्रुतः ।
मणिद्वीपः स एवास्ति यत्र देवी विराजते ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-[हे महाराज जनमेजय !] ब्रह्मलोकसे ऊपरके भागमें जो सर्वलोक सुना गया है, वही मणिद्वीप है; जहाँ भगवती विराजमान रहती हैं ॥ १ ॥

सर्वस्मादधिको यस्मात्सर्वलोकस्ततः स्मृतः ।
पुरा पराम्बयैवायं कल्पितो मनसेच्छया ॥ २ ॥
सर्वादौ निजवासार्थं प्रकृत्या मूलभूतया ।
कैलासादधिको लोको वैकुण्ठादपि चोत्तमः ॥ ३ ॥
गोलोकादपि सर्वस्मात्सर्वलोकोऽधिकः स्मृतः ।
न तत्समं त्रिलोक्यां तु सुन्दरं विद्यते क्वचित् ॥ ४ ॥
चूँकि यह सभी लोकोंसे श्रेष्ठ है, इसलिये इसे सर्वलोक कहा गया है । पूर्वकालमें मूलप्रकृतिस्वरूपिणी पराम्बा भगवतीने सबसे प्रारम्भमें अपने निवासहेतु स्वेच्छासे इसका निर्माण किया था । यह लोक कैलास, वैकुण्ठ और गोलोकसे भी महान् तथा उत्तम है । समस्त लोकोंसे श्रेष्ठ होनेके कारण यह सर्वलोक कहा गया है । तीनों लोकोंमें उसके समान सुन्दर स्थान कहीं नहीं है ॥ २-४ ॥

छत्रीभूतं त्रिजगतो भवसन्तापनाशकम् ।
छायाभूतं तदेवास्ति ब्रह्माण्डानां तु सत्तम ॥ ५ ॥
हे सत्तम ! वह मणिद्वीप तीनों जगत्का छत्रस्वरूप तथा सांसारिक सन्तापोंका नाश करनेवाला है और सभी ब्रह्माण्डोंका भी छायास्वरूप वही है ॥ ५ ॥

बहुयोजनविस्तीर्णो गम्भीरस्तावदेव हि ।
मणिद्वीपस्य परितो वर्तते तु सुधोदधिः ॥ ६ ॥
मरुत्सङ्‌घट्टनोत्कीर्णतरङ्‌गशतसङ्‌कुलः ।
रलाच्छवालुकायुक्तो झषशङ्‌खसमाकुलः ॥ ७ ॥
वीचिसङ्‌घर्षसञ्जातलहरीकणशीतलः ।
नानाध्वजसमायुक्तनानापोतगतागतैः ॥ ८ ॥
उस मणिद्वीपके चारों ओर अनेक योजन विस्तारवाला तथा परिमाणमें उतना ही गहरा अमृतका सागर विद्यमान है, जो पवनके आघातसे उठी हुई सैकड़ों तरंगोंसे परिपूर्ण, रत्नमयी स्वच्छ बालुकासे युक्त, मत्स्य और शंखोंसे सम्पन्न, तरंगोंके परस्पर संघर्षसे उत्पन्न बड़ी-बड़ी लहरोंद्वारा विकीर्ण शीतल जल-कणोंसे शोभायमान और अनेक प्रकारको ध्वजाओंसे युक्त नानाविध आवागमनवाले पोतोंसे मण्डित है ॥ ६-८ ॥

विराजमानः परितस्तीररत्‍नद्रुमो महान् ।
तदुत्तरमयोधातुनिर्मितो गगने ततः ॥ ९ ॥
उस सुधासागरके चारों ओर तटोंपर रत्नमय वृक्ष विराजमान हैं । उसके उत्तर तरफ लौहधातुकी बनी हुई सात योजन विस्तारवाली एक गगनस्पर्शी महान् चहारदीवारी है ॥ ९ ॥

सप्तयोजनविस्तीर्णः प्राकारो वर्तते महान् ।
नानाशस्त्रप्रहरणा नानायुद्धविशारदाः ॥ १० ॥
उसमें अनेक प्रकारके शस्त्रोंके प्रहारमें दक्ष तथा नानाविध युद्धकलाओंमें पारंगत बहुत-से रक्षक सभी ओर आनन्दपूर्वक निवास करते हैं ॥ १० ॥

रक्षका निवसन्त्यत्र मोदमानाः समन्ततः ।
चतुर्द्वारसमायुक्तो द्वारपालशतान्वितः ॥ ११ ॥
नानागणैः परिवृतो देवीभक्तियुतैर्तृप ।
दर्शनार्थं समायान्ति ये देवा जगदीशितुः ॥ १२ ॥
तेषां गणा वसन्त्यत्र वाहनानि च तत्र हि ।
हे राजन् ! उस परकोटेमें चार द्वार तथा सैकड़ों द्वारपाल हैं । भगवतीमें भक्ति रखनेवाले अनेक गणोंसे वह चारों ओरसे घिरा हुआ है । जो देवता भगवती जगदीश्वरीके दर्शनार्थ आते हैं, उनके गण तथा वाहन यहाँ रहते हैं ॥ ११-१२.५ ॥

विमानशतसङ्‌घर्षघण्टास्वनसमाकुलः ॥ १३ ॥
हयहेषाखराघातबधिरीकृतदिङ्‌मुखः ।
गणैः किलकिलारावैर्वेत्रहस्तैश्च ताडिताः ॥ १४ ॥
यह सैकड़ों विमानोंकी घरघराहट तथा घंटाध्वनिसे सदा परिपूर्ण रहता है । घोड़ोंकी हिनहिनाहट तथा उनके खुरोंके आघातकी ध्वनिसे दिशाएँ बधिरसी हो जाती हैं । हे राजन् ! किलकिलाहटकी ध्वनि करते हुए तथा हाथमें बेंत लिये हुए देवी-गणोंके द्वारा ताडित देवताओंके सेवक वहाँ सदा विराजमान रहते हैं । १३-१४ ॥

सेवका देवसङ्‌घानां भ्राजन्ते तत्र भूमिप ।
तस्मिन्कोलाहले राजन शब्दः केनचिक्वचित् ॥ १५ ॥
कस्यचिच्छ्रूयतेऽत्यन्तं नानाध्वनिसमाकुले ।
पदे पदे मिष्टवारिपरिपूर्णसरांसि च ॥ १६ ॥
हे राजन् ! उस कोलाहलमें कोई किसीकी बात नहीं सुन पाता । अनेक प्रकारकी ध्वनियोंसे मिश्रित उस स्थानपर अत्यधिक चेष्टा करनेपर ही किसीकी बात सुनी जा सकती है । हे राजन् ! वहाँ स्थानस्थानपर मीठे जलसे परिपूर्ण सरोवर और रत्नमय वृक्षोंसे युक्त अनेक प्रकारके उद्यान सुशोभित हो रहे हैं ॥ १५-१६ ॥

वाटिका विविधा राजन् रत्‍नद्रुमविराजिताः ।
तदुत्तरं महासारधातुनिर्मितमण्डलः ॥ १७ ॥
सालोऽपरो महानस्ति गगनस्पर्शि यच्छिरः ।
तेजसा स्याच्छतगुणः पूर्वसालादयं परः ॥ १८ ॥
उस परकोटेके आगे कांस्य धातुसे बना हुआ उससे भी विशाल दूसरा मण्डलाकार परकोटा है, जिसका शिखर आकाशको छूता रहता है । यह परकोटा पहले परकोटेसे तेजमें सौ गुना अधिक है ॥ १७-१८ ॥

गोपुरद्वारसहितो बहुवृक्षसमन्वितः ।
या वृक्षजातयः सन्ति सर्वास्तास्तत्र सन्ति च ॥ १९ ॥
निरन्तरं पुष्पयुताः सदा फलसमन्विताः ।
नवपल्लवसंयुक्ताः परसौरभसङ्‌कुलाः ॥ २० ॥
गोपुर और द्वारसे शोभा पानेवाला यह प्राकारमण्डल अनेक वृक्षोंसे युक्त है । वृक्षोंकी जितनी जातियाँ होती हैं, वे सब वहाँपर हैं । वे वृक्ष सदा फूलों और फलोंसे लदे रहते हैं तथा वे नये-नये पल्लवों और उत्तम सुगन्धसे सदा परिपूर्ण रहते हैं । १९-२० ॥

पनसा बकुला लोध्राः कर्णिकाराश्च शिंशपा ।
देवदारुकाञ्चनारा आग्नाश्चैव सुमेरवः ॥ २१ ॥
लिकुचा हिङ्‌गुलाश्चैला लवङ्‌गाः कट्फलास्तथा ।
पाटला मुचुकुन्दाश्च फलिन्यो जघनेफलाः ॥ २२ ॥
तालास्तमालाः सालाश्च कङ्‌कोला नागभद्रकाः ।
पुन्नागाः पीलवः साल्वका वै कर्पूरशाखिनः ॥ २३ ॥
अश्वकर्णा हस्तिकर्णास्तालपर्णाश्च दाडिमा ।
गणिका बन्धुजीवाश्च जम्बीराश्च कुरण्डकाः ॥ २४ ॥
चाम्पेया बन्धुजीवाश्च तथा वै कनकद्रुमाः ।
कालागुरुद्रुमाश्चैव तथा चन्दनपादपाः ॥ २५ ॥
खर्जूरा यूथिकास्तालपर्ण्यश्चैव तथेक्षवः ।
क्षीरवृक्षाश्च खदिराश्चिञ्जाभल्लातकास्तथा ॥ २६ ॥
रुचकाः कुटजा वृक्षा बिल्ववृक्षास्तथैव च ।
तुलसीनां वनान्येवं मल्लिकानां तथैव च ॥ २७ ॥
इत्यादितरुजातीनां वनान्युपवनानि च ।
नानावापीशतैर्युक्तान्येवं सन्ति धराधिप ॥ २८ ॥
कटहल, मौलसिरी, लोध, कर्णिकार, शीशम, देवदारु, कचनार, आम, सुमेरु, लिकुच, हिंगुल, इलायची, लौंग, कट्फल, पाटल, मुचुकुन्द, फलिनी, जघनेफल, ताल, तमाल, साल, कंकोल, नागभद्र, नागकेसर, पीलु, साल्व, कर्पूरशाखी, अश्वकर्ण, हस्तिकर्ण, तालपर्ण, दाडिम, गणिका, बन्धुजीव, जम्भीरी नीबू, कुरण्डक, चम्पा, बन्धुजीव, धतूरा, कालागुरु, चन्दन, खजूर, जूही, तालपर्णी, ईख, क्षीरवृक्ष, खैर, इमली, भेलावा, बिजौरा नीबू, कुटज तथा बिल्वके वृक्ष वहाँ सुशोभित रहते हैं । तुलसी तथा मल्लिकाके वन भी वहाँ विद्यमान हैं । हे राजन् ! अनेक जातिवाले वृक्षोंके वन तथा उपवन यहाँ शोभायमान हैं, जो सैकड़ों बावलियोंसे युक्त हैं ॥ २१-२८ ॥

कोकिलारावसंयुक्ता गुञ्जद्‌भ्रमरभूषिताः ।
निर्यासस्राविणः सर्वे स्निग्धच्छायास्तरूत्तमाः ॥ २९ ॥
नानाऋतुभवा वृक्षा नानापक्षिसमाकुलाः ।
नानारसस्राविणीभिर्नदीभिरतिशोभिताः ॥ ३० ॥
पारावतशुकव्रातसारिकापक्षमारुतैः ।
हसपक्षसमुद्‌भूतावातव्रातैश्चलद्द्रुमम् ॥ ३१ ॥
सुगन्धग्राहिपवनपूरितं तद्वनोत्तमम् ।
सहितं हरिणीयूथैर्धावमानैरितस्ततः ॥ ३२ ॥
नृत्यद्‌बर्हिकदम्बस्य केकारावैः सुखप्रदैः ।
नादितं तद्वनं दिव्यं मधुस्रावि समन्ततः ॥ ३३ ॥
कोयलोंकी मीठी ध्वनिसे युक्त, भौंरोके गुंजारसे भूषित तथा शीतल छाया प्रदान करनेवाले वे सभी उत्तम वृक्ष निरन्तर रसस्ताव करते रहते हैं । अनेक ऋतुओंमें उत्पन्न होनेवाले वे वृक्ष अनेक प्रकारके पक्षियोंसे सदा युक्त रहते हैं । वे अनेकविध रस प्रवाहित करनेवाली नदियोंसे सर्वदा सुशोभित रहते हैं । कबूतर, तोता, मैना तथा हंस आदि पक्षियोंके पंखोंसे निकली हुई वायुसे वहाँके वृक्ष सदा हिलते रहते हैं । सुगन्धि-मिश्रित पवनसे परिपूर्ण वह वन इधर-उधर दौड़ती हुई हरिणियोंके समूहोंसे सदा शोभा प्राप्त करता है । नाचते हुए मोरोंकी सुखदायक केका-ध्वनियोंसे मुखरित वह दिव्य वन सदा मधुका स्राव करता रहता है । २९-३३ ॥

कांस्यसालादुत्तरे तु तामसालः प्रकीर्तितः ।
चतुरस्रसमाकार उन्नत्या सप्तयोजनः ॥ ३४ ॥
द्वयोस्तु सालयोर्मध्ये सम्प्रोक्ता कल्पवाटिका ।
येषां तरूणां पुष्पाणि काञ्चनाभानि भूमिप ॥ ३५ ॥
पत्राणि काञ्चनाभानि रत्‍नबीजफलानि च ।
दशयोजनगन्धो हि प्रसर्पति समन्ततः ॥ ३६ ॥
उस कांस्यके प्राकारके आगे ताम्रकी चहारदीवारी बतायी गयी है, जो आकारमें चौकोर तथा ऊँचाईमें सात योजन परिमाणवाली है । हे राजन् ! उन दोनों प्राकारोंके मध्य में एक कल्पवाटिका कही गयी है, जिसके वृक्षोंके पुष्प तथा पत्ते सुवर्ण-सदृश आभावाले हैं और बीज तथा फल रत्नके समान हैं । वहाँ चारों ओर दस योजनतक सुगन्ध फैली रहती है । ३४-३६ ॥

तद्वनं रक्षितं राजन् वसन्तेनर्तुनानिशम् ।
पुष्पसिंहासनासीनः पुष्पच्छत्रविराजितः ॥ ३७ ॥
पुष्पभूषाभूषितश्च पुष्पासवविधूर्णितः ।
मधुश्रीर्माधवश्रीश्च द्वे भार्ये तस्य सम्मते ॥ ३८ ॥
क्रीडतः स्मेरवदने सुमस्तबककन्दुकैः ।
अतीव रम्यं विपिनं मधुस्रावि समन्ततः ॥ ३९ ॥
हे राजन् ! वसन्त ऋतु उस वनकी सदा सुरक्षा करता रहता है । पुष्पके भूषणसे विभूषित, पुष्प-छत्रसे सुशोभित तथा पुष्पके आसवका सेवन करके मदमत्त वह वसन्त पुष्पके सिंहासनपर विराजमान रहता है । मधुश्री तथा माधवश्री नामक मुसकानयुक्त मुखवाली उसकी दो प्रिय भार्याएँ हैं, जो सदा पुष्पोंके गुच्छोंका कन्दुक बनाकर क्रीडा करती रहती हैं । वह अत्यन्त रम्य वन चारों ओर मधुकी धारा प्रवाहित करता रहता है ॥ ३७-३९ ॥

दशयोजनपर्यन्तं कुसुमामोदवायुना ।
पूरितं दिव्यगन्धर्वैः साङ्‌गनैर्गानलोलुपैः ॥ ४० ॥
शोभितं तद्वनं दिव्यं मत्तकोकिलनादितम् ।
वसन्तलक्ष्मीसंयुक्तं कामिकामप्रवर्धनम् ॥ ४१ ॥
पुष्पोंकी गन्धको लेकर प्रवाहित होनेवाली वायुके द्वारा वहाँका दस योजनपर्यन्त स्थान सदा सुवासित रहता है । इस प्रकार वह दिव्य वन वसन्तलक्ष्मीसे संयुक्त, कामियोंके कामको उद्दीप्त करनेवाला, मतवाले कोकिलोंकी ध्वनिसे मुखरित तथा अपनी अंगनाओंसहित गान-लोलुप दिव्य गन्धर्वोसे सदा सुशोभित रहता है । ४०-४१ ॥

ताम्रसालादुत्तरत्र सीससालः प्रकीर्तितः ।
समुच्छ्रायः स्मृतोऽप्यस्य सप्तयोजनसंख्यया ॥ ४२ ॥
सन्तानवाटिकामध्ये सालयोस्तु द्वयोर्नृप ।
दशयोजनगन्धस्तु प्रताना समन्ततः ॥ ४३ ॥
हिरण्याभानि कुसुमान्युत्कुल्लानि निरन्तरम् ।
अमृतद्रवसंयुक्तफलानि मधुराणि च ॥ ४४ ॥
उस ताम्रके परकोटेके आगे एक सीसेका परकोटा है: इसकी भी ऊँचाई सात योजन कही गयी है । हे राजन् ! इन दोनों प्राकारोंके मध्यमें सन्तान नामक वाटिका है । वहाँके पुष्पोंकी सुगन्धि चारों ओर दस योजनतक फैली रहती है । सुवर्णकी आभावाले खिले हुए फूल तथा अमृत-तुल्य मधुर रसोंसे परिपूर्ण मधुर फल वहाँ सदा विद्यमान रहते हैं ॥ ४२-४४ ॥

ग्रीष्मर्तुर्नायकस्तस्या वाटिकाया नृपोत्तम ।
शुक्रश्रीश्च शुचिश्रीश्च द्वे भार्ये तस्य सम्मते ॥ ४५ ॥
सन्तापत्रस्तलोकास्तु वृक्षमूलेषु संस्थिताः ।
नानासिद्धैः परिवृतो नानादेवैः समन्वितः ॥ ४६ ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! उस वाटिकाका नायक ग्रीष्मऋतु है । शुकश्री तथा शुचिश्री नामवाली उसकी दो प्रिय भार्याएँ हैं । सन्तापसे व्याकुल प्राणी उस वाटिकाके वृक्षोंकी छायामें सुखपूर्वक स्थित रहते हैं । अनेक सिद्धों तथा देवताओंसे वह प्राकार सदा समन्वित रहता है ॥ ४५-४६ ॥

विलासिनीनां वृन्दैस्तु चन्दनद्रवपङ्‌किलैः ।
पुष्पमालाभूषितैस्तु तालवृन्तकराम्बुजैः ॥ ४७ ॥
प्राकारः शोभितो राजञ्छीतलाम्बुनिषेविभिः ।
हे राजन् ! पुष्प मालाओंसे विभूषित होकर अपने करकमलोंमें ताड़का पंखा लिये और अपने अंगोंमें चन्दन लगाये तथा शीतल जलका सेवन करनेवाली अनेक विलासिनी अंगनाओंके द्वारा वह प्राकार नित्य सुशोभित रहता है ॥ ४७.५ ॥

सीससालादुत्तरत्राप्यारकूटमयः शुभ ॥ ४८ ॥
प्राकारो वर्तते राजन् मुनियोजनदैर्घ्यवान् ।
हे राजन् ! उस सीसेके प्राकारके भी आगे परिमाणमें सात योजन लम्बा पीतलकी धातुसे निर्मित एक सुन्दर परकोटा है ॥ ४८.५ ॥

हरिचन्दनवृक्षाणां वाटी मध्ये तयोः स्मृता ॥ ४९ ॥
सालयोरधिनाथस्तु वर्षर्तुर्मेघवाहनः ।
विद्युत्पिङ्‌गलनेत्रश्च जीमूतकवचः स्मृतः ॥ ५० ॥
वज्रनिर्घोषमुखरश्चेन्द्रधन्वा समन्ततः ।
सहस्रशो वारिधारा मुञ्चन्नास्ते गणावृतः ॥ ५१ ॥
उन दोनों परकोटोंके मध्यमें हरिचन्दन वृक्षोंकी एक वाटिका कही गयी है । वहाँका स्वामी मेघोंपर आसीन रहनेवाला वर्षाऋतु है । वह पिंगलवर्णवाले विद्युतको नेत्रके रूपमें तथा मेघोंको कवचके रूपमें धारण करनेवाला कहा गया है । विद्युत्का गर्जन ही इसका मुख है और वह इन्द्रधनुषको धनुषरूपमें धारण किये रहता है । वह अपने गणोंसे आवृत होकर चारों ओर हजारों जलधाराएँ छोड़ता रहता है । ४९-५१ ॥

नभः श्रीश्च नभस्यश्रीः स्वरस्या रस्यमालिनी ।
अम्बा दुला निरत्‍निश्चाभ्रमन्ती मेघयन्तिका ॥ ५२ ॥
वर्षयन्ती चिपुणिका वारिधारा च सम्मताः ।
वर्षर्तोर्द्वादश प्रोक्ताः शक्तयो मदविह्वलाः ॥ ५३ ॥
नभःश्री, नभस्यश्री, स्वरस्या, रस्यमालिनी, अम्बा, दुला, निरनि, अभ्रमन्ती, मेघयन्तिका, वर्षयन्ती, चिपुणिका और वारिधारा-ये बारह वर्षाऋतुकी प्रिय शक्तियाँ कही गयी हैं, जो सदा मदसे विह्वल रहती हैं । ५२-५३ ॥

नवपल्लववृक्षाश्च नवीनलतिकान्विताः ।
हरितानि तृणान्येव वेष्टिता यैर्धराखिला ॥ ५४ ॥
नदीनदप्रवाहाश्च प्रवहन्ति च वेगतः ।
सरांसि कलुषाम्बूनि रागिचित्तसमानि च ॥ ५५ ॥
नवीन लताओंसे समन्वित तथा नवीन पल्लवोंसे युक्त वृक्ष तथा हरे-भरे तृण वहाँ सदा विद्यमान रहते हैं, जिनसे वहाँकी सम्पूर्ण भूमि आच्छादित रहती है । वहाँ नदी तथा नद अत्यन्त वेगसे प्रवाहित होते रहते हैं । राग-द्वेषसे युक्त मनुष्योंके चित्तके समान गन्दे जलवाले अनेक सरोवर भी वहाँ विद्यमान हैं ॥ ५४-५५ ॥

वसन्ति देवाः सिद्धाश्च ये देवीकर्मकारिणः ।
वापीकूपतडागाश्च ये देव्यर्थं समर्पिताः ॥ ५६ ॥
देवता तथा सिद्धपुरुष वहाँ निवास करते हैं । देवी-कर्ममें निरन्तर तत्पर रहनेवाले तथा वापी, कूप और तालाबका निर्माण कराके देवीको अर्पण करनेवाले वे लोग अपनी स्त्रियोंके साथ वहाँ आनन्दपूर्वक रहते हैं ॥ ५६ ॥

ते गणा निवसन्त्यत्र सविलासाश्च साङ्‌गना ।
आरकूटमयादग्रे सप्तयोजनदैर्घ्यवान् ॥ ५७ ॥
पञ्चलोहात्मकः सालो मध्ये मन्दारवाटिका ।
नानापुष्पलताकीर्णा नानापल्लवशोभिता ॥ ५८ ॥
उस पीतलके प्राकारके आगे सात योजनकी लम्बाईवाला एक पंचलौह-निर्मित परकोटा है, जिसके बीचमें नानाविध पुष्पों, लताओं तथा पल्लवोंसे सुशोभित मन्दारवाटिका विराजमान है ॥ ५७-५८ ॥

अधिष्ठातात्र सम्प्रोक्तः शरद्‌ऋतुरनामयः ।
इषुलक्ष्मीरूर्जलक्ष्मीर्द्वे भार्ये तस्य सम्मते ॥ ५९ ॥
नानासिद्धा वसन्त्यत्र साङ्‌गना सपरिच्छदाः ।
विकाररहित शरद् ऋतुको यहाँका अधिष्ठाता कहा गया है । इक्षुलक्ष्मी और ऊर्जलक्ष्मी-ये उसकी दो प्रिय भार्याएँ हैं । अनेक सिद्धलोग अपनी भार्याओं तथा अनुचरोंके साथ यहाँ निवास करते हैं ॥ ५९.५ ॥

पञ्चलोहमयादग्रे सप्तयोजनदैर्घ्यवान् ॥ ६० ॥
दीप्यमानो महाशृङ्‌गैर्वर्तते रौप्यसालकः ।
पारिजाताटवीमध्ये प्रसूनस्तबकान्विता ॥ ६१ ॥
उस पंचलौहमय परकोटेके आगे विशाल शिखरों तथा सात योजन लम्बाईवाला एक दीप्तियुक्त रजतनिर्मित परकोटा है । उसके मध्यमें पुष्पोंके गुच्छोंसे परिपूर्ण पारिजात-वन विद्यमान है ॥ ६०-६१ ॥

दशयोजनगन्धीनि कुसुमानि समन्ततः ।
मोदयन्ति गणान्सर्वान्ये देवीकर्मकारिणः ॥ ६२ ॥
चारों ओर दस योजनकी दूरीतक सुगन्ध फैलानेवाले पुष्प वहाँपर देवी-पूजन आदि कर्मोमें तत्पर सभी गणोंको प्रसन्न किये रहते हैं ॥ ६२ ॥

तत्राधिनाथः सम्प्रोक्तो हेमन्तर्तुर्महोज्ज्वलः ।
सगणः सायुधः सर्वान् रागिणो रञ्जयन्नृप ॥ ६३ ॥
हे राजन् ! महान् उज्वल हेमन्तऋतु वहाँका स्वामी कहा गया है । वह सभी रागी पुरुषोंको आनन्दित करते हुए हाथमें आयुध लेकर अपने गणोंके साथ वहाँ उपस्थित रहता है ॥ ६३ ॥

सहश्रीश्च सहस्यश्रीर्द्वे भार्ये तस्य सम्मते ।
वसन्ति तत्र सिद्धाश्च ये देवीव्रतकारिणः ॥ ६४ ॥
उसकी सहश्री तथा सहस्यश्री नामक दो प्रिय भार्याएँ हैं । भगवतीका व्रत करनेवाले जो सिद्धलोग हैं, वे वहाँ निवास करते हैं ॥ ६४ ॥

रौप्यसालमयादग्रे सप्तयोजनदैर्घ्यवान् ।
सौवर्णसालः सम्मोक्तस्तप्तहाटककल्पितः ॥ ६५ ॥
उस रजतके परकोटेके आगे तप्त स्वर्णसे निर्मित सात योजन लम्बा एक अन्य परकोटा है, जिसे सौवर्णसाल कहा गया है । ६५ ॥

मध्ये कदम्बवाटी तु पुष्पपल्लवशोभिता ।
कदम्बमदिराधाराः प्रवर्तन्ते सहस्रशः ॥ ६६ ॥
याभिर्निपीतपीताभिर्निजानन्दोऽनुभूयते ।
तत्राधिनाथः सम्प्रोक्तः शैशिरर्तुर्महोदयः ॥ ६७ ॥
उसके बीच में पुष्पों तथा पल्लवोंसे सुशोभित एक कदम्ब-वाटिका है, जहाँ कदम्बके आसवकी हजारों धाराएँ निरन्तर बहती रहती हैं, जिसका सेवन करनेसे आत्मानन्दका अनुभव होता है । वहाँका स्वामी श्रेष्ठ शिशिर ऋतु कहा गया है ॥ ६६-६७ ॥

तपः श्रीश्च तपस्यश्रीर्द्वे भार्ये तस्य सम्मते ।
मोदमानः सहैताभ्यां वर्तते शिशिराकृतिः ॥ ६८ ॥
नानाविलाससंयुक्तो नानागणसमावृतः ।
उसकी तप:श्री और तपस्यश्री नामक दो प्रिय भार्याएँ हैं । अपने अनेक गणोंसे घिरा हुआ शिशिर ऋतु इन दोनों भार्याओंके साथ प्रसन्नतापूर्वक अनेकविध क्रीडाओंमें तत्पर रहता है ॥ ६८.५ ॥

निवसन्ति महासिद्धा ये देवीदानकारिणः ॥ ६९ ॥
नानाभोगसमुत्पन्नमहानन्दसमन्विताः ।
साङ्‌गना परिवारैस्तु सङ्‌घशः परिवारिताः ॥ ७० ॥
देवीकी प्रसन्नताके निमित्त अनेक दान करनेवाले जो महान् सिद्धपुरुष हैं, वे अनेकविध भोगोंसे उत्पन्न महानन्दसे युक्त होकर और अपने परिवारजनों तथा भार्याओंको साथ लेकर वहाँ समूहमें निवास करते हैं ॥ ६९-७० ॥

स्वर्णसालमयादग्रे मुनियोजनदैर्घ्यवान् ।
पुष्परागमयः सालः कुङ्‌कुमारुणविग्रहः ॥ ७१ ॥
उस स्वर्णनिर्मित परकोटेके आगे कुमकुमके समान अरुणवर्णवाला तथा सात योजन लम्बा पुष्परागमणिनिर्मित परकोटा है ॥ ७१ ॥

पुष्परागमयी भूमिर्वनान्युपवनानि च ।
रत्‍नवृक्षालवालाश्च पुष्परागमयाः स्मृताः ॥ ७२ ॥
वहाँकी भूमि पुष्परागमयी है । इसी प्रकार वहाँक वन, उपवन तथा थालोसमेत वृक्ष पुष्परागरत्नसे युक्त कहे गये हैं ॥ ७२ ॥

प्राकारो यस्य रत्‍नस्य तद्रत्‍नरचिता द्रुमाः ।
वनभूः पक्षिणश्चैव रत्‍नवर्णजलानि च ॥ ७३ ॥
मण्डपा मण्डपस्तम्भाः सरांसि कमलानि च ।
प्राकारे तत्र यद्यक्त्यात्तत्सर्वं तत्समं भवेत् ॥ ७४ ॥
वहाँ जिस रत्नका परकोटा बना हुआ है, उसी रत्नसे वहाँके वृक्ष, वन, भूमि, पक्षी, मण्डप, मण्डपोंके स्तम्भ, सरोवर और कमल भी निर्मित हैं; वहाँ जल भी उसी रत्नके वर्णका है । उस परकोटेके अन्दर जो-जो वस्तुएँ हैं, वे सब उसी रत्नके समान हैं ॥ ७३-७४ ॥

परिभाषेयमुद्दिष्टा रत्‍नसालादिषु प्रभो ।
तेजसा स्याल्लक्षगुणः पूर्वसालात्परो नृप ॥ ७५ ॥
हे प्रभो ! रत्ननिर्मित परकोटोंके विषयमें मैंने आपको यह सम्यक् परिचय दे दिया । हे राजन् ! इनमें प्रत्येक अगला प्राकार अपने पहलेवाले प्राकारसे एक लाख गुना अधिक तेजसम्पन्न है ॥ ७५ ॥

दिक्पाला निवसन्त्यत्र प्रतिब्रह्माण्डवर्तिनाम् ।
दिक्पालानां समष्ट्यात्मरूपाः स्फूर्जद्वरायुधाः ॥ ७६ ॥
प्रत्येक ब्रह्माण्डमें रहनेवाले दिक्पाल अपना एक समूह बनाकर हाथोंमें श्रेष्ठ तथा अत्यन्त तेजोमय आयुध धारण किये हुए यहाँ निवास करते हैं । ७६ ॥

पूर्वाशायां समुत्तुङ्‌गशृङ्‌गा पूरमरावती ।
नानोपवनसंयुक्तो महेन्द्रस्तत्र राजते ॥ ७७ ॥
इस मणिद्वीपकी पूर्वदिशामें ऊँचे शिखरोंसे युक्त अमरावतीपुरी है । अनेकविध उपवनोंसे युक्त उस पुरीमें इन्द्र विराजमान रहते हैं । ७७ ॥

स्वर्गशोभा च या स्वर्गे यावती स्यात्ततोऽधिका ।
समष्टिशतनेत्रस्य सहस्रगुणतः स्मृता ॥ ७८ ॥
ऐरावतसमारूढो वज्रहस्तः प्रतापवान् ।
देवसेनापरिवृतो राजतेऽत्र शतक्रतुः ॥ ७९ ॥
स्वर्गलोकमें जितनी शोभा स्वर्गकी है, उससे भी अधिक शोभा इस अमरावतीपुरीकी है । अनेक इन्द्रोंके हजार गुनेसे भी अधिक इसकी शोभा कही गयी है । अपने ऐरावतपर आरूढ होकर हाथमें वज्र धारण किये हुए प्रतापी इन्द्र देवसेनाके साथ यहाँ सुशोभित होते हैं और वहींपर अनेक देवांगनाओंके साथ शची भी विराजमान रहती हैं ॥ ७८-७९ ॥

देवाङ्‌गनागणयुता शची तत्र विराजते ।
वह्निकोणे वह्निपुरी वह्निपूःसदृशी नृप ॥ ८० ॥
स्वाहास्वधासमायुक्तो वह्निस्तत्र विराजते ।
निजवाहनभूषाढ्यो निजदेवगणैर्वृतः ॥ ८१ ॥
हे राजन् ! उस मणिद्वीपके अग्निकोणमें अग्निसदृश प्रज्वलित वद्विपुरी है । वहाँपर अपने देवगणोंसे घिरे हुए अग्निदेव अपने वाहनों तथा भूषणोंसे सुशोभित होकर 'स्वाहा' और 'स्वधा'-इन दो शक्तियोंके साथ विराजमान रहते हैं । ८०-८१ ॥

याम्याशायां यमपुरी तत्र दण्डधरो महान् ।
स्वभटैर्वेष्टितो राजन् चित्रगुप्तपुरोगमैः ॥ ८२ ॥
मणिद्वीपकी दक्षिणदिशामें यमपुरी है । हे राजन् ! सूर्यपुत्र महाभाग श्रेष्ठ यमराज चित्रगुप्त आदि मन्त्रियोंके साथ अपने अनुचरोंसे घिरे रहकर हाथमें दण्ड धारण किये अपनी शक्तिके साथ वहाँ विराजमान रहते हैं । ८२ ॥

निजशक्तियुतो भास्वत्तनयोऽस्ति यमो महान् ।
नैर्ऋत्यां दिशि राक्षस्यां राक्षसैः परिवारितः ॥ ८३ ॥
इस मणिद्वीपके नैर्ऋत्यकोणमें राक्षसोंकी पुरी विद्यमान है, जिसमें खड्गधारी निति अपनी शक्तिके साथ राक्षसोंसे घिरे हुए विराजमान रहते हैं । ८३ ॥

खड्गधारी स्फुरन्नास्ते निर्ऋतिर्निजशक्तियुक् ।
वारुण्यां वरुणो राजा पाशधारी प्रतापवान् ॥ ८४ ॥
महाझषसमारूढो वारुणीमधुविह्वलः ।
निजशक्तिसमायुक्तो निजयादोगणान्वितः ॥ ८५ ॥
समास्ते वारुणे लोके वरुणानीरताकुलः ।
पश्चिमदिशामें वरुणलोकमें वारुणीपानसे विहल, पाश धारण करनेवाले प्रतापवान् वरुणराज विशाल मत्स्यपर सवार होकर वरुणानीमें आसक्त रहते हुए अपनी शक्ति वरुणानी तथा अपने गणोंके साथ विराजमान रहते हैं । ८४-८५.५ ॥

वायुकोणे वायुलोको वायुस्तत्राधितिष्ठति ॥ ८६ ॥
वायुसाधनसंसिद्धयोगिभिः परिवारितः ।
ध्वजहस्तो विशालाक्षो मृगवाहनसंस्थितः ॥ ८७ ॥
मरुद्‌गणैः परिवृतो निजशक्तिसमन्वितः ।
मणिद्वीपके वायव्यकोणमें वायुलोक स्थित है । विशाल नेत्रोंवाले वायुदेव प्राणायाम करने में परम सिद्ध योगियोंके समूह तथा मरुद्‌गणोंसे सदा घिरे रहकर हाथमें ध्वजा धारण करके मृगपर आरूढ होकर अपनी शक्तिके साथ वहाँ निवास करते हैं । ८६-८७.५ ॥

उत्तरस्यां दिशि महान् यक्षलोकोऽस्ति भूमिप ॥ ८८ ॥
यक्षाधिराजस्तत्रास्ते वृद्धिऋद्ध्यादिशक्तिभिः ।
नवभिर्निधिभिर्युक्तस्तुन्दिलो धननायकः ॥ ८९ ॥
मणिभद्रः पूर्णभद्रो मणिमान्मणिकन्धरः ।
मणिभूषो मणिस्रग्वी मणिकार्मुकधारकः ॥ ९० ॥
हे राजन् ! मणिद्वीपकी उत्तरदिशामें यक्षोंका महान् लोक है । वहाँपर अपनी शक्तिसहित यक्षोंके अधिराज तुन्दिल कुबेर वृद्धि-ऋद्धि आदि शक्तियों, नौ निधियों और मणिभद्र, पूर्णभद्र, मणिमान्, मणिकन्धर, मणिभूष, मणिलग्वी, मणिकार्मुकधारक आदि यक्षसेनानियोंके साथ अपनी शक्तिसे समन्वित होकर विराजमान रहते हैं । ८८-९० ॥

इत्यादियक्षसेनानीसहितो निजशक्तियुक् ।
ईशानकोणे सम्प्रोक्तो रुद्रलोको महत्तरः ॥ ९१ ॥
अनर्घ्यरत्‍नखचितो यत्र रुद्रोऽधिदैवतम् ।
मन्युमान्दीप्तनयनो बद्धपृष्ठमहेषुधिः ॥ ९२ ॥
स्फूर्जद्धनुर्वामहस्तोऽधिज्यधन्वभिराधृतः ।
स्वसमानैरसंख्यातरुद्रैः शूलवरायुधैः ॥ ९३ ॥
विकृतास्यैः करालास्यैर्वमद्वह्निभिरास्यतः ।
दशहस्तैः शतकरैः सहस्रभुजसंयुतैः ॥ ९४ ॥
दशपादैर्दशग्रीवैस्त्रिनेत्रैरुग्रमूर्तिभिः ।
अन्तरिक्षचरा ये च ये च भूमिचरा स्मृताः ॥ ९५ ॥
रुद्राध्याये स्मृता रुद्रास्तैः सर्वैश्च समावृतः ।
रुद्राणीकोटिसहितो भद्रकाल्यादिमातृभिः ॥ ९६ ॥
नानाशक्तिसमाविष्टडामर्यादिगणावृतः ।
वीरभद्रादिसहितो रुद्रो राजन् विराजते ॥ ९७ ॥
मुण्डमालाधरो नागवलयो नागकन्धरः ।
व्याघ्रचर्मपरीधानो गजचर्मोत्तरीयकः ॥ ९८ ॥
चिताभस्माङ्‌गलिप्ताङ्‌गः प्रमथादिगणावृतः ।
निनदड्डमरुध्वानैर्बधिरीकृतदिङ्‌मुखः ॥ ९९ ॥
अट्टहासास्फोटशब्दैः सन्त्रासितनभस्तलः ।
भूतसङ्‌घसमाविष्टो भूतावासो महेश्वरः ।
ईशानदिक्पतिः सोऽयं नाम्ना चेशान एव च ॥ १०० ॥
मणिद्वीपके ईशानकोणमें बहुमूल्य रत्नोंसे सम्पन्न महान् रुद्रलोक कहा गया है, जहाँ प्रज्वलित नेत्रों तथा कोपयुक्त विग्रहवाले भगवान् रुद्र अपनी पीठपर महान् तरकस बाँधे तथा बायें हाथमें तेजस्वी धनुष लिये हुए अधिदेवताके रूपमें प्रतिष्ठित हैं । वे भगवान् रुद्र धनुष्कोटिपर प्रत्यंचा चढ़ाये हुए धनुर्धारियों, हाथमें शूल तथा श्रेष्ठ आयुध धारण करनेवाले, विकृत मुखवाले, विकराल मुखाकृतिवाले, मुखसे निरन्तर अग्निज्वाला उगलनेवाले, दस भुजाओंवाले, कोई सौ भुजाओंवाले, कितने हजार भुजाओंवाले, दस पैरोंवाले, दस गर्दनवाले, तीन नेत्रोंवाले और अत्यन्त उग्र विग्रहवाले अपने ही सदृश असंख्य रुद्रोंसे सदा घिरे रहते हैं । अन्तरिक्षलोकमें तथा भूलोकमें विचरण करनेवाले जो-जो रुद्र प्रसिद्ध हैं और रुद्राध्यायमें भी जो रुद्र वर्णित हैं; उन सबसे वे भगवान् रुद्र वहाँ आवृत रहते हैं । इसी प्रकार वे करोड़ों रुद्राणियों, भद्रकाली आदि मातृकाओं और विविध शक्तियोंसे युक्त डामरी आदि गणोंसे सदा घिरे रहते हैं । हे राजन् ! गलेमें मुण्डकी माला, हाथमें सर्प-वलय, कन्धेपर सर्पका यज्ञोपवीत, शरीरपर बाघम्बर और उत्तरीयके रूपमें गज-चर्म धारण करनेवाले; शरीरके अंगोंमें सदा चिताकी भस्म लगाये रहनेवाले अपने डमरूकी तीव्र ध्वनिसे दिशाओंको बधिर बना देनेवाले; अपने अट्टहास और आस्फोट शब्दोंसे गगनमण्डलको भयभीत कर देनेवाले, भूतसमुदायसे युक्त रहनेवाले तथा समस्त प्राणियोंके आवासस्वरूप भगवान् महेश्वर रुद्र वहाँपर वीरभद्र आदि गणोंके साथ सदा विराजमान रहते हैं । ये ईशान दिशाके अधिपति हैं । इसीलिये ये |'ईशान' नामसे विख्यात हैं ॥ ९१-१०० ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
द्वादशस्कन्धे मणिद्वीपवर्णनं नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
इति श्रीमद्देवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्रया संहितायां द्वादशस्कन्धे मणिद्वीपवर्णनं नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥


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