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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
द्वादशः स्कन्धः
एकादशोऽध्यायः

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पद्मरागादिमणिविनिर्मितयाकारवर्णनम् -
पद्मरागादिमणिविनिर्मितयाकारवर्णन -


व्यास उवाच
पुष्परागमयादग्रे कुङ्‌कुमारुणविग्रहः ।
पद्यरागमयः सालो मध्ये भूश्चैव तादृशी ॥ १ ॥
दशयोजनवान्दैर्घ्ये गोपुरद्वारसंयुतः ।
तन्मणिस्तम्भसंयुक्ता मण्डपाः शतशो नृप ॥ २ ॥
व्यासजी बोले-पुष्परागनिर्मित प्राकारके आगे कुमकुमके समान अरुण विग्रहवाला पारागमणियुक्त प्राकार है, जिसके मध्यमें भूमि भी उसी प्रकारको है । अनेक गोपुर और द्वारोंसे युक्त यह प्राकार लम्बाईमें दस योजन परिमाणवाला है । हे राजन् ! वहाँ उसी मणिसे निर्मित खम्भोंसे युक्त सैकड़ों मण्डप विद्यमान हैं ॥ १-२ ॥

मध्ये भुवि समासीनाश्चतुःषष्टिमिताः कलाः ।
नानायुधधरा वीरा रत्‍नभूषणभूषिताः ॥ ३ ॥
प्रत्येकलोकस्तासां तु तत्तल्लोकस्य नायकाः ।
समन्तात्पद्यरागस्य परिवार्य स्थिताः सदा ॥ ४ ॥
स्वस्वलोकजनैर्जुष्टाः स्वस्ववाहनहेतिभिः ।
तासां नामानि वक्ष्यामि शृणु त्वं जनमेजय ॥ ५ ॥
उसके मध्यकी भूमिपर रत्नमय भूषणोंसे भूषित, अनेक आयुध धारण करनेवाली तथा पराक्रमसम्पन्न चौंसठ कलाएँ विराजमान रहती हैं । उन कलाओंका एक-एक पृथक् लोक है और अपने-अपने लोककी वे अधीश्वरी हैं । वहाँ चारों ओरकी सभी वस्तुएँ पारागमणिसे निर्मित हैं । अपने-अपने लोकके वाहनों तथा आयुधोंसे युक्त वे कलाएँ अपने-अपने लोकके निवासियोंसे सदा घिरी रहती हैं । हे जनमेजय ! अब मैं उन कलाओंके नाम बता रहा हूँ; आप सुनें ॥ ३-५ ॥

पिङ्‌गलाक्षी विशालाक्षी समृद्धिर्वृद्धिरेव च ।
श्रद्धा स्वाहा स्वधाभिख्या माया संज्ञा वसुन्धरा ॥ ६ ॥
त्रिलोकधात्री सावित्री गायत्री त्रिदशेश्वरी ।
सुरूपा बहुरूपा च स्कन्दमाताच्युतप्रिया ॥ ७ ॥
विमला चामला तद्वदरुणी पुनरारुणी ।
प्रकृतिर्विकृतिः सृष्टिः स्थितिः संहृतिरेव च ॥ ८ ॥
सन्ध्या माता सती हंसी मर्दिका वज्रिका परा ।
देवमाता भगवती देवकी कमलासना ॥ ९ ॥
त्रिमुखी सप्तमुख्यन्या सुरासुरविमर्दिनी ।
लम्बोष्ठी चोर्ध्वकेशी च बहुशीर्षा वृकोदरी ॥ १० ॥
रथरेखाह्वया पश्चाच्छशिरेखा तथापरा ।
गगनवेगा पवनवेगा वेगा चैव ततः परम् ॥ ११ ॥
अग्रे भुवनपाला स्यात्तत्पश्चान्मदनातुरा ।
अनङ्‌गानङ्‌गमथना तथैवानङ्‌गमेखला ॥ १२ ॥
अनङ्‌गकुसुमा पश्चाद्विश्वरूपा सुरादिका ।
क्षयङ्‌करी भवेच्छक्तिरक्षोभ्या च ततः परम् ॥ १३ ॥
सत्यवादिन्यथ प्रोक्ता बहुरूपा शुचित्रता ।
उदाराख्या च वागीशी चतुःषष्टिमिताः स्मृताः ॥ १४ ॥
पिंगलाक्षी, विशालाक्षी, समृद्धि, वृद्धि, श्रद्धा, स्वाहा, स्वधा, अभिख्या, माया, संज्ञा, वसुन्धरा, त्रिलोकधात्री, सावित्री, गायत्री, त्रिदशेश्वरी, सुरूपा, बहुरूपा, स्कन्दमाता, अच्युतप्रिया, विमला, अमला, अरुणी, आरुणी, प्रकृति, विकृति, सृष्टि, स्थिति, संहति, सन्ध्यामाता, सती, हंसी, मर्दिका, परा वत्रिका, देवमाता, भगवती, देवकी, कमलासना, त्रिमुखी, सप्तमुखी, सुरासुरविमर्दिनी, लम्बोष्ठी, ऊर्वकशी, बहुशीर्षा, वृकोदरी, रथरेखा, शशिरेखा, गगनवेगा, पवनवेगा, भुवनपाला, मदनातुरा, अनंगा, अनंगमथना, अनंगमेखला, अनंगकुसुमा, विश्वरूपा, सुरादिका, क्षयंकरी, शक्ति, अक्षोभ्या, सत्यवादिनी, बहुरूपा, शुचिव्रता, उदारा और वागीशीये चौंसठ कलाएँ कही गयी हैं ॥ ६-१४ ॥

ज्वलज्जिह्नाननाः सर्वा वमन्त्यो वह्निमुल्बणम् ।
जलं पिबामः सकलं संहरामो विभावसुम् ॥ १५ ॥
पवनं स्तम्भयामोऽद्य भक्षयामोऽखिलं जगत् ।
इति वाचं संगिरन्ते क्रोधसंरक्तलोचनाः ॥ १६ ॥
क्रोधके कारण अति रक्त नेत्रोंवाली तथा प्रज्वलित जिह्वासे युक्त मुखवाली वे सभी कलाएँ प्रचण्ड अग्नि उगलती हुई सदा इन शब्दोंका उच्चारण करती रहती हैं-'हम अभी सम्पूर्ण जल पी डालेंगी, हम अग्निको नष्ट कर देंगी, हम वायुको रोक देंगी और समस्त संसारका भक्षण कर डालेंगी' ॥ १५-१६ ॥

चापबाणधराः सर्वा युद्धायैवोत्सकाः सदा ।
दन्ष्ट्राकटकटारावैर्बधिरीकृतदिङ्‌मुखाः ॥ १७ ॥
वे सभी कलाएँ धनुष-बाण धारण करके सदा युद्धके लिये तत्पर रहती हैं और दाँतोंके कटकटानेकी ध्वनिसे दिशाओंको बधिर-सी बना देती हैं ॥ १७ ॥

पिङ्‌गोर्ध्वकेश्यः सम्प्रोक्ताश्चापबाणकराः सदा ।
शताक्षौहिणिका सेनाप्येकैकस्याः प्रकीर्तिता ॥ १८ ॥
एकैकशक्तेः सामर्थ्य लक्षब्रह्माण्डनाशने ।
शताक्षौहिणिका सेना तादृशी नृपसत्तम ॥ १९ ॥
अपने हाथमें सदा धनुष और बाण धारण करनेवाली ये शक्तियाँ पिंगलवर्णके उठे हुए केशोंसे सम्पन्न कही गयी हैं । इनमेंसे एक-एक कलाके पास सौ-सौ अक्षौहिणी सेना बतायी गयी है । लाखों ब्रह्माण्डोंको नष्ट कर डालनेकी क्षमता एक-एक शक्तिमें विद्यमान है । हे नृपश्रेष्ठ ! तो फिर वैसी शक्तियोंसे सम्पन्न सौ अक्षौहिणी सेना इस संसारमें क्या नहीं कर सकती-उसे बतानेमें मैं असमर्थ हूँ ॥ १८-१९ ॥

किं न कुर्याज्जगत्यस्मिन्नशक्यं वक्तुमेव तत् ।
सर्वापि युद्धसामग्री तस्मिन्साले स्थिता मुने ॥ २० ॥
रथानां गणना नास्ति हयानां करिणां तथा ।
शस्त्राणां गणना तद्वद् गणानां गणना तथा ॥ २१ ॥
है मुने ! युद्धकी समस्त सामग्री उस पद्मरागके प्राकारमें सदा विद्यमान रहती है । उसमें रथों, घोड़ों, हाथियों और शस्त्रोंकी गणना नहीं है । उसी प्रकार गोंकी भी कोई गणना नहीं है ॥ २०-२१ ॥

पद्यरागमयादग्रे गोमेदमणिनिर्मितः ।
दशयोजनदैर्घ्येण प्राकारो वर्तते महान् ॥ २२ ॥
भास्वज्जपाप्रसूनाभो मध्यभूस्तस्य तादृशी ।
गोमेदकल्पितान्येव तद्वासिसदनानि च ॥ २३ ॥
पक्षिणः स्तम्भवर्याश्च वृक्षा वाप्यः सरांसि च ।
गोमेदकल्पिता एव कुङ्‌कुमारुणविग्रहाः ॥ २४ ॥
इस पद्मरागमय प्राकारके आगे गोमेदमणिसे निर्मित दस योजन लम्बा एक परकोटा है, जो प्रभायुक्त जपाकुसुमके समान कान्तिमान् है । इसके मध्यकी भूमि भी वैसी ही है । वहाँके निवासियोंके भवन, पक्षी, उत्तम खम्भे, वृक्ष, वापी तथा सरोवरये सभी गोमेदमणिसे ही निर्मित हैं । गोमेदमणिसे बनी वहाँकी सभी वस्तुओंका विग्रह कुमकुमके समान अरुण वर्णका है ॥ २२-२४ ॥

तन्मध्यस्था महादेव्यो द्वात्रिंशच्छक्तयः स्मृताः ।
नानाशस्त्रप्रहरणा गोमेदमणिभूषिताः ॥ २५ ॥
प्रत्येकलोकवासिन्यः परिवार्य समन्ततः ।
गोमेदसाले सन्नद्धाः पिशाचवदना नृप ॥ २६ ॥
उस प्राकारके मध्यमें गोमेदमणिसे भूषित तथा अनेकविध शस्त्र धारण करनेवाली बत्तीस महादेवियाँ निवास करती हैं, जो शक्तियाँ कही गयी हैं । हे राजन् ! गोमेदनिर्मित उस प्राकारमें पिशाचोंके समान भयंकर मुखवाली प्रत्येक लोककी निवासिनी शक्तियाँ सावधान होकर चारों ओरसे उसे घेरकर स्थित रहती हैं ॥ २५-२६ ॥

स्वर्लोकवासिभिर्नित्यं पूजिताश्चकबाहवः ।
क्रोधरक्तेक्षणा भिन्धि पचच्छिन्धि दहेति च ॥ २७ ॥
वदन्ति सततं वाचं युद्धोत्सुकहृदन्तराः ।
एकैकस्या महाशक्तेर्दशाक्षौहिणिका मता ॥ २८ ॥
सेना तत्राप्येकशक्तिर्लक्षब्रह्माण्डनाशिनी ।
तादृशीनां महासेना वर्णनीया कथं नृप ॥ २९ ॥
स्वर्गलोकके निवासियोंद्वारा नित्य पूजी जानेवाली वे शक्तियाँ हृदयमें युद्धकी लालसासे युक्त होकर हाथोंमें चक्र धारण किये हुए तथा क्रोधके कारण नेत्र लाल करके 'काटो, पकाओ, छेदो और भस्म कर डालो'-इन शब्दोंको निरन्तर बोलती रहती हैं । उनमें एक-एक महाशक्तिके पास दस-दस अक्षौहिणी सेना कही गयी है । उस सेनाकी एक ही शक्ति एक लाख ब्रह्माण्डोंका संहार करनेमें समर्थ है तो हे राजन् ! उस प्रकारकी शक्तियोंसे युक्त विशाल सेनाका वर्णन कैसे किया जा सकता है ! ॥ २७-२९ ॥

रथानां नैव गणना वाहनानां तथैव च ।
सर्वयुद्धसमारम्भस्तत्र देव्या विराजते ॥ ३० ॥
तासां नामानि वक्ष्यामि पापनाशकराणि च ।
विद्याह्रीपुष्टयः प्रज्ञा सिनीवाली कुहूस्तथा ॥ ३१ ॥
रुद्रा वीर्या प्रभा नन्दा पोषिणी ऋद्धिदा शुभा ।
कालरात्रिर्महारात्रिर्भद्रकाली कपर्दिनी ॥ ३२ ॥
विकृतिर्दण्डिमुण्डिन्यौ सेन्दुखण्डा शिखण्डिनी ।
निशुम्भशुम्भमथिनी महिषासुरमर्दिनी ॥ ३३ ॥
इन्द्राणी चैव रुद्राणी शङ्‌करार्धशरीरिणी ।
नारी नारायणी चैव त्रिशूलिन्यपि पालिनी ॥ ३४ ॥
अम्बिका ह्लादिनी पश्चादित्येवं शक्तयः स्मृताः ।
यद्येताः कुपिता देव्यस्तदा ब्रह्माण्डनाशनम् ॥ ३५ ॥
उनके रथों तथा वाहनोंकी गणना नहीं की जा सकती । भगवतीकी युद्ध-सम्बन्धी समस्त सामग्री वहाँ विद्यमान रहती है । अब मैं भगवतीकी शक्तियोंके पापनाशक नामोंका वर्णन करूंगा-विद्या, ही, पुष्टि, प्रज्ञा, सिनीवाली, कुहू, रुद्रा, वीर्या, प्रभा, नन्दा, पोषिणी, ऋद्धिदा, शुभ्रा, कालरात्रि, महारात्रि, भद्रकाली, कपर्दिनी, विकृति, दण्डिनी, मुण्डिनी, सेन्दुखण्डा, शिखण्डिनी, निशुम्भशुम्भमथिनी, महिषासुरमर्दिनी, इन्द्राणी, रुद्राणी, शंकरार्धशरीरिणी, नारी, नारायणी, त्रिशूलिनी, पालिनी, अम्बिका और हादिनी-ये शक्तियाँ कही गयी हैं । यदि ये देवियाँ कुपित हो जायें, तो सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका तत्क्षण नाश हो जायगा । कहीं किसी भी समय इन शक्तियोंकी पराजय सम्भव नहीं है ॥ ३०-३५ ॥

पराजयो न चैतासां कदाचित्क्वचिदस्ति हि ।
गोमेदकमयादग्रे सद्वज्रमणिनिर्मितः ॥ ३६ ॥
दशयोजनतुङ्‌गोऽसौ गोपुरद्वारसंयुतः ।
कपाटशृङ्‌खलाबद्धो नववृक्षसमुज्ज्वलः ॥ ३७ ॥
सालस्तन्मध्यभूम्यादि सर्वं हीरमयं स्मृतम् ।
गृहाणि वीथयो रथ्या महामार्गाङ्‌गणानि च ॥ ३८ ॥
वृक्षालवालतरवः सारङ्‌गा अपि तादृशाः ।
दीर्घिकाश्रेणयो वाप्यस्तडागाः कूपसंयुताः ॥ ३९ ॥
गोमेदनिर्मित प्राकारके आगे वज्रमणि (हीरे)से निर्मित दस योजन ऊँचाईवाला एक परकोटा है । उस परकोटेमें अनेक गोपुर तथा द्वार बने हुए हैं । वह परकोटा कपाट और सांकलसे बन्द रहता है तथा नये-नये वृक्षोंसे सदा सुशोभित रहता है । उस प्राकारके मध्यभागकी समस्त भूमि हीरायुक्त कही गयी है । भवन, गलियाँ, चौराहे, महामार्ग, आँगन, वृक्षोंके थाले, वृक्ष, सारंग, अनेक बावलियाँ, वापी, तडाग तथा कुएँ-ये सब उसी प्रकार हीरकमय हैं ॥ ३६-३९ ॥

तत्र श्रीभुवनेश्वर्या वसन्ति परिचारिकाः ।
एकैका लक्षदासीभिः सेविता मदगर्विताः ॥ ४० ॥
उस प्राकारमें भगवती भुवनेश्वरीकी परिचारिकाएँ रहती हैं । मदसे गर्वित रहनेवाली एक-एक परिचारिका लाखों दासियोंसे सेवित रहती हैं ॥ ४० ॥

तालवृन्तधराः काश्चिच्चषकाढ्यकराम्बुजाः ।
काश्चित्ताम्बूलपात्राणि धारयन्त्योऽतिगर्विताः ॥ ४१ ॥
काश्चित्तच्छत्रधारिण्यश्चामराणां विधारिकाः ।
नानावस्त्रधराः काश्चित्काश्चित्पुष्पकराम्बुजाः ॥ ४२ ॥
अत्यधिक गर्वित कई परिचारिकाएँ ताड़के पंखे, कई अपने करकमलोंमें मधुपात्र तथा कई अपने हाथमें ताम्बूलपात्र धारण किये रहती हैं । कई परिचारिकाएँ छत्र लिये रहती हैं, कई चामर धारण किये रहती हैं, कुछ अनेक प्रकारके वस्त्र धारण किये रहती हैं और कुछ अपने कमलसदृश हाथोंमें पुष्प लिये स्थित रहती हैं ॥ ४१-४२ ॥

नानादर्शकराः काश्चित्काश्चित्कुङ्‌कुमलेपनम् ।
धारयन्त्यः कज्जलं च सिन्दूरचषकं पराः ॥ ४३ ॥
काश्चिच्चित्रकनिर्मात्र्यः पादसंवाहने रताः ।
काश्चित्तु भूषाकारिण्यो नानाभूषाधराः पराः ॥ ४४ ॥
पुष्पभूषणनिर्मात्र्यः पुष्पशृङ्‌गारकारिकाः ।
नानाविलासचतुरा बह्व्य एवंविधाः पराः ॥ ४५ ॥
कुछ परिचारिकाएँ अपने हाथोंमें दर्पण, कुछ कुमकुमका लेप, कुछ काजल और कुछ सिन्दूर-पात्र धारण किये खड़ी रहती हैं । कुछ चित्रकारी बनाने, कुछ चरण दबाने, कुछ भूषण सजाने तथा कुछ भगवतीके भूषणसे पूरित रत्नमय पात्र धारण करनेमें तत्पर रहती हैं । कुछ पुष्पोंके आभूषण बनानेवाली, कुछ पुष्प-शृंगारमें कुशल तथा अनेक प्रकारके विलासमें चतुर इसी तरहकी बहुत-सी युवतियाँ वहाँ विद्यमान रहती हैं ॥ ४३-४५ ॥

निबद्धपरिधानीया युवत्यः सकला अपि ।
देवीकृपालेशवशात्तुच्छीकृतजगत्त्रयाः ॥ ४६ ॥
एता दूत्यः स्मृता देव्यः शृङ्‌गारमदगर्विताः ।
तासां नामानि वक्ष्यामि शृणु मे नृपसत्तम ॥ ४७ ॥
सुन्दर-सुन्दर परिधान धारण की हुई वे सभी युवतियाँ भगवतीकी लेशमात्र कृपाके प्रभावसे तीनों लोकोंको तुच्छ समझती हैं । शृंगारके मदमें उन्मत्त ये सब देवीकी दूतिकाएँ कही गयी हैं । हे नृपश्रेष्ठ ! अब मैं उनके नाम बता रहा हूँ, सुनिये ॥ ४६-४७ ॥

अनङ्‌गरूपा प्रथमाप्यनङ्‌गमदना परा ।
तृतीया तु ततः प्रोक्ता सुन्दरी मदनातुरा ॥ ४८ ॥
ततो भुवनवेगा स्यात्तथा भुवनपालिका ।
स्यात्सर्वशिशिरानङ्‌गवदनानङ्‌गमेखला ॥ ४९ ॥
विद्युद्दामसमानाङ्‌ग्यः क्वणत्काञ्चीगुणान्विताः ।
रणन्मञ्जीरचरणा बहिरन्तरितस्ततः ॥ ५० ॥
धावमानास्तु शोभन्ते सर्वा विद्युल्लतोपमाः ।
कुशलाः सर्वकार्येषु वेत्रहस्ताः समन्ततः ॥ ५१ ॥
अष्टदिक्षु तथैतासां प्राकाराद् बहिरेव च ।
सदनानि विराजन्ते नानावाहनहेतिभिः ॥ ५२ ॥
पहली अनंगरूपा, दूसरी अनंगमदना और तीसरी सुन्दर रूपवाली मदनातुरा कही गयी है । तत्पश्चात् भुवनवेगा, भुवनपालिका, सर्वशिशिरा, अनंगवदना और अनंगमेखला हैं । इनके सभी अंग विद्युत्की कान्तिके समान प्रकाशमान रहते हैं, इनके कटिभाग कई लड़ियोंवाली ध्वनिमय किंकिणियोंसे सुशोभित हैं और इनके चरण ध्वनि करते हुए नूपुरसे सुशोभित हैं । ये सभी दूतियाँ वेगपूर्वक बाहर तथा भीतर जाते समय विद्युत्की लताके सदृश सुशोभित होती हैं । हाथमें बेंत लेकर सभी ओर भ्रमण करनेवाली ये दूतियाँ सभी कार्योंमें दक्ष हैं । इस प्राकारसे बाहर आठों दिशाओंमें इन दूतियोंके निवासहेतु अनेकविध वाहनों तथा शस्त्रोंसे सम्पन्न भवन विद्यमान हैं ॥ ४८-५२ ॥

वज्रसालादग्रभागे सालो वैदूर्यनिर्मितः ।
दशयोजनतुङ्‌गोऽसौ गोपुरद्वारभूषितः ॥ ५३ ॥
वज्रमणि-निर्मित प्राकारसे आगे वैदूर्यमणिसे बना हुआ एक प्राकार है । अनेक गोपुरों तथा द्वारोंसे सुशोभित वह प्राकार दस योजन ऊँचाईवाला है ॥ ५३ ॥

वैदूर्यभूमिः सर्वापि गृहाणि विविधानि च ।
वीथ्यो रथ्या महामार्गाः सर्वे वैदूर्यनिर्मिताः ॥ ५४ ॥
वापीकूपतडागाश्च स्रवन्तीनां तटानि च ।
बालुका चैव सर्वापि वैदूर्यमणिनिर्मिता ॥ ५५ ॥
वहाँकी सम्पूर्ण भूमि वैदूर्यमणियुक्त है । वहाँके अनेक प्रकारके भवन, गलियाँ, चौराहे तथा महामार्गये सब वैदूर्यमणिसे निर्मित हैं । इस परकोटेकी बावलियाँ, कुएँ, तडाग, नदियोंके तट और बाल-ये सब वैदूर्यमणिसे निर्मित हैं ॥ ५४-५५ ॥

तत्राष्टदिक्षु परितो ब्राह्म्यादीनां च मण्डलम् ।
निजैर्गणैः परिवृतं भ्राजते नृपसत्तम ॥ ५६ ॥
प्रतिब्रह्माण्डमातॄणां ताः समष्टय ईरिताः ।
ब्राह्मी माहेश्वरी चैव कौमारी वैष्णवी तथा ॥ ५७ ॥
वाराही च तथेन्द्राणी चामुण्डा सप्त मातरः ।
अष्टमी तु महालक्ष्मीर्नाम्ना प्रोक्तास्तु मातरः ॥ ५८ ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! उस प्राकारकी आठों दिशाओंमें सब ओर अपने गणोंसे सदा घिरी रहनेवाली ब्राह्मी आदि देवियोंका मण्डल सुशोभित रहता है । वे प्रत्येक ब्रह्माण्डके मातृकाओंकी समष्टियाँ कही गयी हैं । ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, इन्द्राणी और चामुण्डा-ये सात मातृकाएँ और आठवीं महालक्ष्मी नामवाली-इस प्रकार ये आठ मातृकाएँ कही गयी हैं ॥ ५६-५८ ॥

ब्रह्मरुद्रादिदेवानां समाकारास्तु ताः स्मृताः ।
जगत्कल्याणकारिण्यः स्वस्वसेनासमावृताः ॥ ५९ ॥
जगत्का कल्याण करनेवाली तथा अपनीअपनी सेनाओंसे घिरी हुई वे मातृकाएँ ब्रह्मा, रुद्र आदि देवताओंके समान आकारवाली कही गयी हैं ॥ ५९ ॥

तत्सालस्य चतुर्द्वार्षु वाहनानि महेशितुः ।
सज्जानि नृपते सन्ति सालङ्‌काराणि नित्यशः ॥ ६० ॥
हे राजन् ! उस परकोटेके चारों द्वारोंपर महेश्वरी भगवतीके वाहन अलंकारोंसे सुसज्जित होकर सर्वदा विराजमान रहते हैं ॥ ६० ॥

दन्तिनः कोटिशो वाहाः कोटिशः शिबिकास्तथा ।
हंसाः सिंहाश्च गरुडा मयूरा वृषभास्तथा ॥ ६१ ॥
तैर्युक्ताः स्यन्दनास्तद्वत्कोटिशो नृपनन्दन ।
पार्ष्णिग्राहसमायुक्ता ध्वजैराकाशचुम्बिनः ॥ ६२ ॥
उनके वाहनके रूपमें करोड़ों हाथी, करोड़ों घोड़े, पालकियाँ, हंस, सिंह, गरुड, मयूर और वृषभ हैं । हे नृपनन्दन ! उन वाहनोंसे युक्त करोड़ों रथ वहाँ विद्यमान रहते हैं, जिनपर सेनापति विराजमान रहते हैं और आकाशतक पहुँचनेवाली पताकाएँ सुशोभित रहती हैं ॥ ६१-६२ ॥

कोटिशस्तु विमानानि नानाचिह्नान्वितानि च ।
नानावादित्रयुक्तानि महाध्वजयुतानि च ॥ ६३ ॥
अनेकविध वाद्य-यन्त्रोंसे युक्त, विशाल ध्वजाओंसे सुशोभित और अनेक प्रकारके चिहोंसे अंकित करोड़ों विमान उस प्राकारमें स्थित रहते हैं ॥ ६३ ॥

वैदूर्यमणिसालस्याप्यग्रे सालः परः स्मृतः ।
दशयोजनतुङ्‌गोऽसाविन्द्रनीलाश्मनिर्मितः ॥ ६४ ॥
वैदूर्यमणिमय प्राकारके भी आगे इन्द्रनीलमणिनिर्मित दस योजन ऊँचा एक दूसरा प्राकार कहा गया है ॥ ६४ ॥

तन्मध्यभूस्तथा वीथ्यो महामार्गा गृहाणि च ।
वापीकूपतडागाश्च सर्वे तन्मणिनिर्मिताः ॥ ६५ ॥
उस प्राकारके मध्यकी भूमि, गलियाँ, राजमार्ग, भवन, वापी, कुएँ और सरोवर-ये सब उसी मणिसे बने हुए हैं ॥ ६५ ॥

तत्र पद्यं तु सम्प्रोक्तं बहुयोजनविस्तृतम् ।
षोडशारं दीप्यमानं सुदर्शनमिवापरम् ॥ ६६ ॥
तत्र षोडशशक्तीनां स्थानानि विविधानि च ।
सर्वोपस्करयुक्तानि समृद्धानि वसन्ति हि ॥ ६७ ॥
वहाँपर दूसरे सुदर्शन चक्रकी भाँति प्रतीत होनेवाला, अनेक योजन विस्तृत तथा सोलह दलोंवाला एक दीप्तिमान् कमल विद्यमान कहा गया है । उसपर सोलह शक्तियोंके लिये सभी सामग्रियों तथा समृद्धियोंसे सम्पन्न विविध स्थान बने हुए हैं ॥ ६६-६७ ॥

तासां नामानि वक्ष्यामि शृणु मे नृपसत्तम ।
कराली विकराली च तथोमा च सरस्वती ॥ ६८ ॥
श्रीदुर्गोषा तथा लक्ष्मीः श्रुतिश्चैव स्मृतिर्धृतिः ।
श्रद्धा मेधा मतिः कान्तिरार्या षोडश शक्तयः ॥ ६९ ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! अब मैं उन शक्तियोंके नामोंका वर्णन करूँगा, सुनिये-कराली, विकराली, उमा, सरस्वती, श्री, दुर्गा, उषा, लक्ष्मी, श्रुति, स्मृति, धृति, श्रद्धा, मेधा, मति, कान्ति और आर्या-ये सोलह शक्तियाँ हैं ॥ ६८-६९ ॥

नीलजीमूतसंकाशाः करवालकराम्बुजाः ।
समाः खेटकधारिण्यो युद्धोपक्रान्तमानसाः ॥ ७० ॥
सेनान्यः सकला एताः श्रीदेव्या जगदीशितुः ।
प्रतिब्रह्माण्डसंस्थानां शक्तीनां नायिकाः स्मृताः ॥ ७१ ॥
अपने करकमलोंमें ढाल तथा तलवार धारण किये हुए, नीले मेघके समान वर्णवाली तथा अपने मनमें सदा युद्धकी लालसा रखनेवाली ये सभी शक्तियाँ जगदीश्वरी श्रीदेवीकी सेनानी हैं । ये प्रत्येक ब्रह्माण्डमें स्थित रहनेवाली शक्तियोंकी नायिकाएँ कही गयी हैं ॥ ७०-७१ ॥

ब्रह्माण्डक्षोभकारिण्यो देवीशक्त्युपबृंहिताः ।
नानारथसमारूढा नानाशक्तिभिरन्विताः ॥ ७२ ॥
एतत्पराक्रमं वक्तुं सहस्रास्योऽपि न क्षमः ।
अनेक शक्तियोंको साथ लेकर भाँति-भाँतिके रथोंपर विराजमान ये शक्तियाँ भगवती जगदम्बाकी शक्तिसे सम्पन्न होनेके कारण सम्पूर्ण ब्रह्माण्डको क्षुब्ध करनेमें समर्थ हैं । हजार मुखवाले शेषनाग भी इनके पराक्रमका वर्णन करनेमें समर्थ नहीं हैं ॥ ७२.५ ॥

इन्द्रनीलमहासालादग्रे तु बहुविस्तृतः ॥ ७३ ॥
मुक्ताप्राकार उदितो दशयोजनदैर्घ्यवान् ।
मध्यभूः पूर्ववत्प्रोक्ता तन्मध्येऽष्टदलाम्बुजम् ॥ ७४ ॥
मुक्तामणिगणाकीर्णं विस्तृतं तु सकेसरम् ।
तत्र देवीसमाकारा देव्यायुधधराः सदा ॥ ७५ ॥
सम्प्रोक्ता अष्टमन्त्रिण्यो जगद्वार्ताप्रबोधिकाः ।
उस इन्द्रनीलमणिके विशाल प्राकारके आगे दस योजनकी ऊँचाईतक उठा हुआ एक अतिविस्तीर्ण तथा प्रकाशमान मोतीका प्राकार है । इसके मध्यकी भूमि भी मोतीकी बनी हुई कही गयी है । उसके मध्यमें मुक्तामणियोंसे निर्मित तथा केसरयुक्त आठ दलोंवाला एक विशाल कमल विद्यमान है । उन आठों दलोंपर भगवती जगदम्बाके ही समान आकारवाली देवियाँ अपने हाथोंमें आयुध धारण किये सदा विराजमान रहती हैं । जगत्का समाचार सूचित करनेवाली ये आठ देवियाँ भगवतीकी मन्त्रिणी कही गयी हैं ॥ ७३-७५.५ ॥

देवीसमानभोगास्ता इङ्‌गितज्ञास्तु पण्डिताः ॥ ७६ ॥
कुशलाः सर्वकार्येषु स्वामिकार्यपरायणाः ।
देव्यभिप्रायबोध्यस्ताश्चतुरा अतिसुन्दराः ॥ ७७ ॥
वे देवियाँ भगवतीके समान भोगवाली, उनके संकेतको समझनेवाली, बुद्धिसम्पन्न, सभी कार्यों में कुशल, अपनी स्वामिनीके कार्य सम्पादनमें तत्पर, भगवतीके अभिप्रायको जाननेवाली, चतुर तथा अत्यन्त सुन्दर हैं । ७६-७७ ॥

नानाशक्तिसमायुक्ताः प्रतिब्रह्माण्डवर्तिनाम् ।
प्राणिनां ताः समाचारं ज्ञानशक्त्या विदन्ति च ॥ ७८ ॥
तासां नामानि वक्ष्यामि मत्तः शृणु नृपोत्तम ।
अनङ्‌गकुसुमा प्रोक्ताप्यनङ्‌गकुसुमातुरा ॥ ७९ ॥
अनङ्‌गमदना तद्वदनङ्‌गमदनातुरा ।
भुवनपाला गगनवेगा चैव ततः परम् ॥ ८० ॥
शशिरेखा च गगनरेखा चैव ततः परम् ।
पाशाङ्‌कुशवराभीतिधरा अरुणविग्रहाः ॥ ८१ ॥
विश्वसम्बन्धिनीं वार्तां बोधयन्ति प्रतिक्षणम् ।
विविध शक्तियोंसे सम्पन्न वे देवियाँ अपनी ज्ञान-शक्तिके द्वारा प्रत्येक ब्रह्माण्डमें रहनेवाले प्राणियोंका समाचार जान लेती हैं । हे नृपश्रेष्ठ ! मैं उनके नाम बता रहा हूँ, आप सुनिये-अनंगकुसुमा, अनंगकुसुमातुरा, अनंगमदना, अनंगमदनातुरा, भुवनपाला, गगनवेगा, शशिरेखा और गगनरेखा । अपने हाथोंमें पाश, अंकुश, वर तथा अभय मुद्राएँ धारण किये हुए लाल विग्रहवाली वे देवियाँ विश्वसे सम्बन्धित सभी बातोंसे भगवतीको प्रतिक्षण अवगत कराती रहती हैं ॥ ७८-८१.५ ॥

मुक्तासालादग्रभागे महामारकतोऽपरः ॥ ८२ ॥
सालोत्तमः समुद्दिष्टो दशयोजनदैर्घ्यवान् ।
नानासौभाग्यसंयुक्तो नानाभोगसमन्वितः ॥ ८३ ॥
इस मुक्ता-प्राकारके आगे महामरकतमणिसे निर्मित एक दूसरा श्रेष्ठ प्राकार कहा गया है । वह दस योजन लम्बा और अनेकविध सौभाग्य तथा भोगवाली सामग्रियोंसे परिपूर्ण है ॥ ८२-८३ ॥

मध्यभूस्तादृशी प्रोक्ता सदनानि तथैव च ।
षट्कोणमत्र विस्तीर्णं कोणस्था देवताः शृणु ॥ ८४ ॥
इसके मध्यकी भूमि भी वैसी ही कही गयी है अर्थात् मरकत-मणिके सदृश है और वहाँके भवन भी उसी मणिसे निर्मित हैं । उस प्राकारमें भगवतीका एक विशाल तथा छ: कोणोंवाला यन्त्र है । अब आप उन कोणोंपर विराजमान रहनेवाले देवताओंके विषयमें सुनिये ॥ ८४ ॥

पूर्वकोणे चतुर्वक्त्रो गायत्रीसहितो विधिः ।
कुण्डिकाक्षगुणाभीतिदण्डायुधधरः परः ॥ ८५ ॥
तदायुधधरा देवी गायत्री परदेवता ।
वेदाः सर्वे मूर्तिमन्तः शास्त्राणि विविधानि च ॥ ८६ ॥
स्मृतयश्च पुराणानि मूर्तिमन्ति वसन्ति हि ।
ये ब्रह्मविग्रहाः सन्ति गायत्रीविग्रहाश्च ये ॥ ८७ ॥
व्याहृतीनां विग्रहाश्च ते नित्यं तत्र सन्ति हि ।
इसके पूर्वकोणमें कमण्डलु, अक्षसूत्र, अभयमुद्रा, दण्ड तथा आयुध धारण करनेवाले चतुर्मुख श्रेष्ठ ब्रह्माजी भगवती गायत्रीके साथ विराजमान रहते हैं । परादेवता भगवती गायत्री भी उन्हीं आयुधोंको धारण किये रहती हैं । समस्त वेद, विविध शास्त्र, स्मृतियाँ तथा पुराण मूर्तिमान् होकर वहाँ निवास करते हैं । ब्रह्माके जो विग्रह हैं, गायत्रीके जो विग्रह हैं और व्याहृतियोंके जो विग्रह हैं-वे सभी वहाँ नित्य निवास करते हैं । ८५-८७.५ ॥

रक्षःकोणे शङ्‌खचक्रगदाम्बुजकराम्बुजा ॥ ८८ ॥
सावित्री वर्तते तत्र महाविष्णुश्च तादृशः ।
ये विष्णुविग्रहाः सन्ति मत्स्यकूर्मादयोऽखिलाः ॥ ८९ ॥
सावित्रीविग्रहा ये च ते सर्वे तत्र सन्ति हि ।
नैर्ऋत्यकोणमें भगवती सावित्री अपने करकमलमें शंख, चक्र, गदा और कमल धारण किये विराजमान हैं । महाविष्णु भी वहाँपर उसी रूपमें विराजमान रहते हैं । मत्स्य तथा कूर्म आदि जो महाविष्णुके विग्रह हैं और जो भगवती सावित्रीके विग्रह हैं-वे सब वहाँ निवास करते हैं ॥ ८८-८९.५ ॥

वायुकोणे परश्वक्षमालाभयवरान्वितः ॥ ९० ॥
महारुद्रो वर्ततेऽत्र सरस्वत्यपि तादृशी ।
ये ये तु रुद्रभेदाः स्युर्दक्षिणास्यादयो नृप ॥ ९१ ॥
गौरीभेदाश्च ये सर्वे ते तत्र निवसन्ति हि ।
चतुषष्ट्यागमा ये च ये चान्येऽप्यागमाः स्मृताः ॥ ९२ ॥
वायुकोणमें परशु, अक्षमाला, अभय और वरमुद्रा धारण करनेवाले महारुद्र विराजमान हैं और सरस्वती भी उसी रूपमें वहाँ रहती हैं । हे राजन् ! भगवान् रुद्रके दक्षिणास्य आदि जो-जो रूप हैं और इसी प्रकार भगवती गौरीके जो-जो रूप हैं-वे सभी वहाँ निवास करते हैं । चौंसठ प्रकारके जो आगम तथा इसके अतिरिक्त भी जो अन्य आगमशास्त्र कहे गये हैं-वे सभी मूर्तिमान होकर वहाँ विराजमान रहते हैं ॥ ९०-९२ ॥

ते सर्वे मूर्तिमन्तश्च तत्रैव निवसन्ति हि ।
अग्निकोणे रत्‍नकुम्भं तथा मणिकरण्डकम् ॥ ९३ ॥
दधानो निजहस्ताभ्यां कुबेरो धनदायकः ।
नानावीथीसमायुक्तो महालक्ष्मीसमन्वितः ॥ ९४ ॥
देव्या निधिपतिस्त्वास्ते स्वगुणैः परिवेष्टितः ।
अग्निकोणमें धन प्रदान करनेवाले कुबेर अपने दोनों हाथोंमें रत्नयुक्त कुम्भ तथा मणिमय करण्डक (पात्र) धारण किये हुए विराजमान हैं । अनेक प्रकारकी वीथियोंसे युक्त और अपने सद्‌गुणोंसे सम्पन्न देवीकी निधिके स्वामी कुबेर महालक्ष्मीके साथ वहाँ विराजमान रहते हैं । ९३-९४.५ ॥

वारुणे तु महाकोणे मदनो रतिसंयुतः ॥ ९५ ॥
पाशाङ्‌कुशधनुर्बाणधरो नित्यं विराजते ।
शृङ्‌गारा मूर्तिमन्तस्तु तत्र सन्निहिताः सदा ॥ ९६ ॥
पश्चिमके महान् वरुणकोणमें अपनी भुजाओंमें पाश, अंकुश, धनुष और बाण धारण करनेवाले कामदेव रतिके साथ निवास करते हैं । सभी प्रकारके शृंगार मूर्तिमान् होकर वहाँ सदा विराजमान रहते हैं । ९५-९६ ॥

ईशानकोणे विघ्नेशो नित्यं पुष्टिसमन्वितः ।
पाशाङ्‌कुशधरो वीरो विघ्नहर्ता विराजते ॥ ९७ ॥
विभूतयो गणेशस्य या याः सन्ति नृपोत्तम ।
ताः सर्वा निवसन्त्यत्र महैश्वर्यसमन्विताः ॥ ९८ ॥
ईशानकोणमें विघ्नको दूर करनेवाले तथा पराक्रमी विघ्नेश्वर गणेशजी अपने हाथोंमें पाश तथा अंकुश धारण किये हुए देवी पुष्टिके साथ सदा विराजमान रहते हैं । हे नृपश्रेष्ठ ! गणेशजीकी जो-जो विभूतियाँ हैं, वे सभी महान् ऐश्वर्योंसे सम्पन्न होकर वहाँ निवास करती हैं । ९७-९८ ॥

प्रतिब्रह्माण्डसंस्थानां ब्रह्मादीनां समष्टयः ।
एते ब्रह्मादयः प्रोक्ताः सेवन्ते जगदीश्वरीम् ॥ ९९ ॥
प्रत्येक ब्राण्डमें रहनेवाले ब्रह्मा आदिकी समष्टियाँ ब्रह्मा आदि नामसे कही गयी हैं-ये सभी भगवती जगदीश्वरीकी सेवामें संलग्न रहती हैं ॥ ९९ ॥

महामारकतस्याग्रे शतयोजनदैर्घ्यवान् ।
प्रवालसालोऽस्त्यपरः कुङ्‌कुमारुणविग्रहः ॥ १०० ॥
मध्यभूस्तादृशी प्रोक्ता सदनानि च पूर्ववत् ।
तन्मध्ये पञ्चभूतानां स्वामिन्यः पञ्च सन्ति च ॥ १०१ ॥
हृल्लेखा गगना रक्ता चतुर्थी तु करालिका ।
महोच्छुष्मा पञ्चमी च पञ्चभूतसमप्रभाः ॥ १०२ ॥
पाशाङ्‌कुशवराभीतिधारिण्योऽमितभूषणाः ।
देवीसमानवेषाढ्या नवयौवनगर्विताः ॥ १०३ ॥
इस महामरकतमणि-निर्मित प्राकारके आगे कुमकुमके समान अरुण विग्रहवाला तथा सौ योजन लम्बाईवाला एक दूसरा प्रवालमणिका प्राकार है । उसके मध्यकी भूमि तथा भवन भी उसी प्रकारके कहे गये हैं । उसके मध्यभागमें पंचभूतोंकी पाँच स्वामिनियाँ निवास करती हैं । हल्लेखा, गगना, रक्ता, चौथी करालिका और पाँचवीं महोच्छ्ष्मा नामक ये शक्तियाँ पंचभूतोंके समान ही प्रभावाली हैं । पाश, अंकुश, वर तथा अभय मुद्रा धारण करनेवाली ये शक्तियाँ अनेक प्रकारके भूषणोंसे अलंकृत, नूतन यौवनसे गर्वित और भगवती जगदम्बाके सद्श वेषभूषासे मण्डित हैं ॥ १००-१०३ ॥

प्रवालसालादग्रे तु नवरत्‍नविनिर्मितः ।
बहुयोजनविस्तीर्णो महासालोऽस्ति भूमिप ॥ १०४ ॥
तत्र चास्तायदेवीनां सदनानि बहून्यपि ।
नवरत्‍नमयान्येव तडागाश्च सरांसि च ॥ १०५ ॥
श्रीदेव्या येऽवताराः स्युस्ते तत्र निवसन्ति हि ।
महाविद्या महाभेदाः सन्ति तत्रैव भूमिप ॥ १०६ ॥
निजावरणदेवीभिर्निजभूषणवाहनैः ।
सर्वदेव्यो विराजन्ते कोटिसूर्यसमप्रभाः ॥ १०७ ॥
सप्तकोटिमहामन्त्रदेवताः सन्ति तत्र हि ।
हे राजन् ! इस प्रवालमय प्राकारके आगे नौ रत्नोंसे बना हुआ अनेक योजन विस्तृत एक विशाल प्राकार है । आम्नायमें वर्णित देवियोंके बहुतसे भवन, तडाग तथा सरोवर-वे सभी उन्हीं नौ रत्नोंसे निर्मित हैं । हे भूपाल ! श्रीदेवीके जो-जो अवतार हैं, वे सब वहाँ निवास करते हैं और महाविद्याके सभी रूप वहाँ विद्यमान हैं । करोड़ों सूर्योक समान प्रभासे युक्त सभी देवियाँ अपनी-अपनी आवरणशक्तियों, अपने भूषणों तथा वाहनोंके साथ वहाँ विराजमान रहती हैं । सात करोड़ महामन्त्रोंके देवता भी वहाँ रहते हैं । १०४-१०७.५ ॥

नवरत्‍नमयादग्रे चिन्तामणिगृहं महत् ॥ १०८ ॥
तत्रत्यं वस्तुमात्रं तु चिन्तामणिविनिर्मितम् ।
सूर्योद्‌गारोपलैस्तद्वच्चन्द्रोद्‌गारोपलैस्तथा ॥ १०९ ॥
विद्युत्प्रभोपलैः स्तम्भाः कल्पितास्तु सहस्रशः ।
येषां प्रभाभिरन्तःस्थं वस्तु किञ्चिन्न दृश्यते ॥ ११० ॥
इस नौ रत्नमय प्राकारके आगे चिन्तामणिसे बना हुआ एक विशाल भवन है । वहाँकी प्रत्येक वस्तु चिन्तामणिसे निर्मित है । उसमें सूर्य, चन्द्रमा और विद्युत्के समान दीप्तिवाले पत्थरोंसे निर्मित हजारों स्तम्भ हैं, जिनकी तीव्र प्रभाके कारण उस भवनके अन्दर स्थित कोई भी वस्तु दृष्टिगोचर नहीं हो पाती है ॥ १०८-११० ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां द्वादशस्कन्धे
पद्मरागादिमणिविनिर्मितयाकारवर्णनं नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां द्वादशस्कन्धे पारागादिमणिविनिर्मितप्राकारवर्णनं नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥


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