Menus in CSS Css3Menu.com



श्रीहरिवंशपुराण
हरिवंश पर्व
तृतीयोऽध्यायः


मरुतोत्पत्तिकथनम् -
दक्ष प्रजापतिद्वारा सृष्टि-विस्तार, नारदजीका दक्षके पुत्रोंको विरक्त कर देना, दक्षकी साठ कन्याओं और उनकी संततिका वर्णन


जनमेजय उवाच
देवानां दानवानां च गन्धर्वोरगरक्षसाम् ।
उत्पत्तिं विस्तरेणेमां वैशम्पायन कीर्तय ॥ १ ॥
जनमेजयने कहा-वैशम्पायनजी ! आप इस देवता, दानव, गन्धर्व, सर्प और राक्षसोंकी उत्पत्तिको विस्तारपूर्वक कहिये ॥ १ ॥

वैशम्पायन उवाच
प्रजाः सृजेति व्यादिष्टः पूर्वं दक्षः स्वयम्भुवा ।
यथा ससर्ज भूतानि तथा शृणु महीपते ॥ २ ॥
वैशम्पायनजी बोले-राजन् ! पहले स्वयम्भू ब्रह्माजीने दक्षको आज्ञा दी कि 'तुम प्रजाओंकी सृष्टि करो' । उस समय दक्षने (जरायुज आदि) प्राणियोंकी सृष्टि जिस प्रकार की थी, उसे सुनो ॥ २ ॥

मानसान्येव भूतानि पूर्वमेवासृजत् प्रभुः ।
ऋषीन् देवान् सगन्धर्वानसुरानथ राक्षसान् ।
यक्षभूतपिशाचांश्च वयःपशुसरीसॄपान् ॥ ३ ॥
प्रभु दक्षने पहले ऋषि, देवता, गन्धर्व, असुर, राक्षस, यक्ष, भूत, पिशाच, पशु, पक्षी और सर्पोकी मानसी सृष्टि रची अर्थात् इनको अपने संकल्पमात्रसे ही उत्पन्न कर दिया ॥ ३ ॥

यदास्य तास्तु मानस्यो न व्यवर्धन्त वै प्रजाः ।
अपध्याता भगवता महादेवेन धीमता ॥ ४ ॥
ततः संचिन्त्य तु पुनः प्रजाहेतोः प्रजापतिः ।
स मैथुनेन धर्मेण सिसृक्षुर्विविधाः प्रजाः ॥ ५ ॥
असिक्नीमावहत् पत्नीं वीरणस्य प्रजापतेः ।
सुतां सुतपसा युक्तां महतीं लोकधारिणीम् ॥ ६ ॥
परंतु (पूर्वकल्पके वैरको स्मरणकर) बुद्धिमान् भगवान् महादेवने जब यह विचार किया कि दक्षकी मानसी प्रजाएँ न बढ़ें और तदनुसार जब उनकी मनसे उत्पन्न की हुई प्रजाएँ अधिक उन्नति न कर सकी, तब दक्ष प्रजापति विचारमें पड़ गये और फिर उन्होंने प्रजाकी वृद्धि करनेके लिये मैथुनधर्मसे अनेक प्रकारकी प्रजाओंको रचनेका विचार किया । इस विचारके अनुसार वे परम तप करनेके कारण संसारको धारण करनेमें समर्थ वीरण प्रजापतिको महामहिम पुत्री असिक्नीको पत्नीरूपमें विवाह कर लाये ॥ ४-६ ॥

अथ पुत्रसहस्राणि वीरण्यां पञ्च वीर्यवान् ।
असिक्न्यां जनयामास दक्ष एव प्रजापतिः ॥ ७ ॥
इसके बाद वीर्यवान् दक्ष प्रजापतिने वीरणकी पुत्री असिक्नीद्वारा पाँच हजार पुत्रोंको उत्पन्न किया ॥ ७ ॥

तांस्तु दृष्ट्वा महाभागान् संविवर्धयिषून् प्रजाः ।
देवर्षिः प्रियसंवादो नारदः प्राब्रवीदिदम् ।
नाशाय वचनं तेषां शापायैवात्मनस्तथा ॥ ८ ॥
परंतु उन महाभाग्यवान् दक्षपुत्रोंको प्रजाकी वृद्धि करनेके लिये उत्सुक देख प्रियवादी देवर्षि नारदजीने उनको (ज्ञानका अधिकारी समझकर आत्मज्ञानका) उपदेश दिया । नारदजीके उस वचनसे दक्षपुत्र नष्ट हो गये (अथवा उनकी संसारमें आसक्ति नष्ट हो गयी), परंतु नारदजीका यह ज्ञानोपदेश देना स्वयं शाप पानेमें ही एक कारण बन गया ॥ ८ ॥

यं कश्यपः सुतवरं परमेष्ठी व्यजीजनत् ।
दक्षस्य वै दुहितरि दक्षशापभयान्मुनिः ॥ ९॥
ब्रह्माजीने जिन श्रेष्ठ पुत्र नारदको उत्पन्न किया था, उनको ही कश्यप मुनिने दक्षके शापके भवसे (दक्षकी पत्नीकी छोटी बहिन अतएव) उनकी (पुत्रीके समान) कन्याद्वारा उत्पन्न किया था ॥ ९ ॥

पूर्वं स हि समुत्पन्नो नारदः परमेष्ठिना ।
असिक्न्यामथ वीरण्यां भूयो देवर्षिसत्तमः ।
तं भूयो जनयामास पितेव मुनिपुंगवम् ॥ १० ॥
नारदजी पहले ब्रह्माजीसे उत्पन्न हुए थे, फिर वे ही देवर्षिसत्तम नारद वीरणकी पुत्री असिक्ती (-की छोटी बहिन)-से उत्पन्न हुए थे । उन मुनिपुङ्गव नारदजीको कश्यपने ब्रह्माजीके समान ही फिर प्रकट किया था ॥ १० ॥

तेन दक्षस्य पुत्रा वै हर्यश्वा इति विश्रुताः ।
निर्मथ्य नाशिताः सर्वे विधिना च न संशयः ॥ ११ ॥
(इस घटनाको स्पष्ट करते हैं-) दक्षके हर्यश्व नामसे प्रसिद्ध (जो पाँच हजार) पुत्र थे, नारदजीने उनको शास्त्रोक्त रीतिसे देहाभिमानसे मुक्त कर इस संसारसे नष्ट कर दिया था (अर्थात् वे सब नारदजीसे चेतावनी पाकर संसारको त्याग परमात्माकी खोज करनेके लिये वनमें चले गये), इसमें कुछ संदेह नहीं है ॥ ११ ॥

तस्योद्यतस्तदा दक्षो नाशायामितविक्रमः ।
महर्षीन् पुरतः कृत्वा याचितः परमेष्ठिना ॥ १२ ॥
तब अनुपम पराक्रमी दक्ष प्रजापति नारदजीको नष्ट करनेके लिये उद्यत हो गये । उस समय ब्रह्माजीने मरीचि आदि महर्षियोंके साथ जाकर दक्षसे ऐसा न करनेके लिये प्रार्थना की ॥ १२ ॥

ततोऽभिसन्धिं चक्रुस्ते दक्षस्तु परमेष्ठिना ।
कन्यायां नारदो मह्यं तव पुत्रो भवेदिति ॥ १३ ॥
तब महर्षियोंने दक्ष और ब्रह्माजीमें संधि करा दी । दक्षने कहा कि 'आपका पुत्र नारद मेरी पुत्री (अर्थात् छोटी साली)-का पुत्र बनकर उत्पन्न हो' ॥ १३ ॥

ततो दक्षस्तु तां प्रादात् कन्यां वै परमेष्ठिने ।
स तस्यां नारदो जज्ञे दक्षशापभयादृषिः ॥ १४ ॥
तब दक्षने प्रजापति कश्यपको (तेरह कन्याएँ अर्पण करते समय) उस कन्याका दान कर दिया था । इस प्रकार दक्षके शापके भयसे नारद ऋषि उस कन्यासे फिर उत्पन्न हुए थे ॥ १४ ॥

जनमेजय उवाच
कथं विनाशिताः पुत्रा नारदेन महर्षिणा ।
प्रजापतेर्द्विजश्रेष्ठ श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः ॥ १५ ॥
जनमेजयने पूछा-द्विज श्रेष्ठ ! महर्षि नारदने प्रजापति दक्षके पुत्रोंको किस प्रकार नष्ट किया था ? इसको मैं स्पष्टरूपसे सुनना चाहता हूँ ॥ १५ ॥

वैशम्पायन उवाच
दक्षस्य पुत्रा हर्यश्वा विवर्धयिषवः प्रजाः ।
समागता महावीर्या नारदस्तानुवाच ह ॥ १६ ॥
वैशम्पायनजीने कहा-राजन् ! दक्षके हर्यश्व नामक पुत्र महावीर्यवान् थे, जब वे प्रजाओंकी वृद्धिका विचार करनेके लिये उद्यत हुए. तब नारदजीने उनसे कहा- ॥ १६ ॥

बालिशा बत यूयं वै नास्या जानीत वै भुवः ।
प्रमाणं स्रष्टुकामाः स्थ प्रजाः प्राचेतसात्मजाः ।
अन्तरूर्ध्वमधश्चैव कथं स्रक्ष्यथ वै प्रजाः ॥ १७ ॥
प्राचेतस (दक्ष) के पुत्रो ! खेदके साथ कहना पड़ता है कि तुम बड़े नादान हो । तुम्हें प्रजाकी सृष्टि करनेकी इच्छा हुई है । किंतु तुम इतना भी नहीं जानते कि जहाँ सृष्टि करनी है, उस पृथ्वीकी लम्बाईचौड़ाई कितनी है ? यह ऊपर-नीचे और भीतरसे कैसी है ? ऐसी दशामें तुमलोग प्रजाओंकी सृष्टि कैसे करोगे ?' ॥ १७ ॥

ते तु तद्वचनं श्रुत्वा प्रयाताः सर्वतोदिशम् ।
प्रमाणं द्रष्टुकामास्ते गताः प्राचेतसात्मजाः ॥ १८ ॥
नारदजीकी इस बातको सुनकर वे प्राचेतस दक्षके पुत्र (इस पृथ्वीका) प्रमाण अर्थात् माप देखनेके लिये सब दिशाओंकी ओर चल दिये ॥ १८ ॥

वायोरनशनं प्राप्य गतास्ते वै पराभवम् ।
अद्यापि न निवर्तन्ते समुद्रेभ्य इवापगाः ॥ १९ ॥
प्राणवायुके लिये आहार न पाकर वे सबके सब पराभव (विनाश) को प्राप्त हो गये । जैसे नदियाँ समुद्रमें मिल जानेपर फिर वहाँसे पीछे नहीं लौटती हैं, उसी प्रकार वे जाकर अबतक नहीं लौटे ॥ १९ ॥

हर्यश्वेष्वथ नष्टेषु दक्षः प्राचेतसः पुनः ।
वैरिण्यामेव पुत्राणां सहस्रमसृजत् प्रभुः ॥ २० ॥
प्रचेताओंके पुत्र प्रभु दक्षने हर्यश्वोंके नष्ट हो जानेपर वीरणकी पुत्रीसे ही फिर सहस्र पुत्रोंको उत्पन्न किया ॥ २० ॥

विवर्धयिषवस्ते तु शबलाश्वाः प्रजास्तदा ।
पूर्वोक्तं वचनं तात नारदेनैव नोदिताः ॥ २१ ॥
तात ! वे दक्षके पुत्र शबलाश्च जब प्रजाकी वृद्धिके लिये इच्छुक हुए, तब नारदजीने पूर्वोक्त वचन कहकर उनको भी पृथ्वीका प्रमाण जाननेके लिये प्रेरित किया ॥ २१ ॥

अन्योन्यमूचुस्ते सर्वे सम्यगाह महामुनिः ।
भ्रातॄणां पदवीं ज्ञातुं गन्तव्यं नात्र संशयः ॥ २२ ॥
तब वे सब आपसमें कहने लगे'महामुनि नारदजी ठीक कहते हैं, अपने भाइयोंके मार्गको जाननेके लिये निःसंदेह हमें भी अवश्य प्रयत्न करना चाहिये ॥ २२ ॥

ज्ञात्वा प्रमाणं पृथ्व्याश्च सुखं स्रक्ष्यामहे प्रजाः ।
एकाग्राः स्वस्थमनसा यथावदनुपूर्वशः ॥ २३ ॥
हम पृथ्वीके प्रमाणको जानकर एकाग्र और स्वस्थ-चित्तसे सुखपूर्वक प्रजाओंकी क्रमानुसार सृष्टि करेंगे ॥ २३ ॥

तेऽपि तेनैव मार्गेण प्रयाताः सर्वतोदिशम् ।
अद्यापि न निवर्तन्ते समुद्रेभ्य इवापगाः ॥ २४ ॥
ऐसा निश्चय करके वे भी उसी मार्गसे चारों दिशाओंकी ओर चल दिये और समुद्रोंसे उनमें मिली हुई नदियोंके समान अभीतक नहीं लौटे ॥ २४ ॥

नष्टेशु शबलाश्वेषु दक्ष क्रुद्धोऽवदद् वचः ।
नारदं नाशमेहीति गर्भवासं वसेति च ॥ २५ ॥
शबलावोंक भी नष्ट हो जानेपर दक्ष प्रजापतिने क्रोधमें भरकर, नारदजीसे यह बात कही कि 'तुम्हारी देह नष्ट हो जाय और तुम फिर गर्भमें निवास करो ॥ २५ ॥

तदा प्रभृति वै भ्राता भ्रातुरन्वेषणं नृप ।
प्रयातो नश्यति क्षिप्रं तन्न कार्यं विपश्चिता ॥ २६ ॥
राजन् । उस दिनसे जो भाई भाईको खोजनेके लिये जाता है, वह शीघ्र ही नष्ट हो जाता है, अतएव विद्वान्को ऐसा न करना चाहिये अर्थात् भाईको ढूंढनेके लिये भाईको नहीं जाना चाहिये ॥ २६ ॥

तांश्चापि नष्टान् विज्ञाय पुत्रान् दक्षः प्रजापतिः ।
षष्टिं भूयोऽसृजत् कन्या वीरण्यामिति नः श्रुतम् ॥ २७ ॥
हमने सुना है कि अपने उन पुत्रोंको भी नष्ट हुआ जानकर दक्ष प्रजापतिने वीरणकी पुत्रीद्वारा फिर साठ कन्याओंको उत्पन्न किया (क्योंकि कन्याएँ स्त्री होनेसे नारदजीके आत्मज्ञानके उपदेशकी पात्र नहीं थीं) ॥ २७ ॥

तास्तदा प्रतिजग्राह भार्यार्थे कश्यपः प्रभुः ।
सोमो धर्मश्च कौरव्य तथैवान्ये महर्षयः ॥ २८ ॥
कुरुकुलोत्पन्न जनमेजय ! उन (मेंसे कुछ कन्याओं)-को प्रभु कश्यपजीने अपनी पत्नीके रूपर्म स्वीकार कर लिया एवं चन्द्रमा, धर्म तथा दूसरे महर्षियोंने भी उन (मॅसे कितनी ही कन्याओं)को अपनी पत्नीके रूपमें स्वीकार कर लिया ॥ २८ ॥

ददौ स दश धर्माय कश्यपाय त्रयोदश ।
सप्तविंशतिं सोमाय चतस्रोऽरिष्टनेमिने ॥ २९ ॥
द्वे चैव भृगुपुत्राय द्वे चैवाङ्गिरसे तथा । ॥
द्वे कृशाश्वाय विदुषे तासां नामानि मे शृणु ॥ ३० ॥
दक्षने धर्मको दस, कश्यपजीको तेरह, चन्द्रमाको सत्ताईस, अरिष्टनेमिको चार, भृगुपुत्रको दो, अङ्गिराको दो और विद्वान् कृशाश्व ऋषिको दो कन्याएँ दी, उनके नामोंको मुझसे सुनो- ॥ २९-३० ॥

अरुन्धती वसुर्यामी लम्बा भानुर्मरुत्वती ।
संकल्पा च मुहूर्ता च साध्या विश्वा च भारत ।
धर्मपत्न्यो दश त्वेतास्तास्वपत्यानि मे श्रृणु ॥ ३१ ॥
भरतवंशी राजन् ! अरुन्धती, वसु, यामी, लम्बा, भानु, मरुत्वती, संकल्पा, मुहूर्ता, साध्या तथा विश्वा-ये दस धर्मको पलियाँ हैं । इनसे जो संतानें उत्पन्न हुई, उनके नामोंको मुझसे सुनो- ॥ ३१ ॥

विश्वेदेवाश्च विश्वायाः साध्यान् साध्या व्यजायत ।
मरुत्वत्यां मरुत्वन्तो वसोस्तु वसवस्तथा ॥ ३२ ॥
विश्वाने विश्वेदेव नामक पुत्रोंको और साध्याने साध्य नामवाले पुत्रोंको उत्पन्न किया, मरुत्वतीसे मरुत्वान् और वसुसे वसु प्रकट हुए ॥ ३२ ॥

भानोस्तु भानवस्तात मुहूर्ताया मुहूर्तजाः ॥ ३३ ॥
और तात ! भानुसे भानु देवता और मुहूर्तासे (क्षण, लव आदि कालाभिमानी देवता) मुहूर्तज उत्पन्न हुए ॥ ३३ ॥

लम्बायाश्चैव घोषोऽथ नागवीथी च यामिजा ।
पृथिवीविषयं सर्वमरुन्धत्यां व्यजायत ॥ ३४ ॥
घोष नामक (मन्त्राभिमानी) देवता लम्बासे उत्पन्न हुआ तथा यामीसे (स्वर्गाभिमानिनी) नागवीथी उत्पन्न हुई तथा अरुन्धतीद्वारा (घृत, पशु, औषध आदि) सब पृथ्वीके विषय उत्पन्न हुए ॥ ३४ ॥

संकल्पायास्तु सर्वात्मा जज्ञे संकल्प एव हि ।
नागवीथ्याश्च यामिन्या वृषलम्बा व्यजायत ॥ ३५ ॥
तथा संकल्पासे सर्वात्मा संकल्प अर्थात् मानसक्रियाभिमानी देवता उत्पन्न हुआ और यामिपुत्री नागवीथीसे वृषलम्बा (कालान्तरमें फलवृष्टि करनेवाले धर्म या ईश्वरका अवलम्बन करनेवाला देवता) उत्पन्न हुआ ॥ ३५ ॥

या राजन् सोमपत्न्यस्तु दक्षः प्राचेतसो ददौ ।
सर्वा नक्षत्रनाम्न्यस्ता ज्योतिषे परिकीर्तिताः ॥ ३६ ॥
राजन् ! प्राचेतस दक्षने चन्द्रमाको जो कन्याएँ दी थी, वे सब सोमपलियाँ नक्षत्रोंके नामसे ज्यौतिषशास्त्र में प्रसिद्ध हैं ॥ ३६ ॥

ये त्वन्ये ख्यातिमन्तो वै देवा ज्योतिःपुरोगमाः ।
वसवोऽष्टौ समाख्यातास्तेषां वक्ष्यामि विस्तरम् ॥ ३७ ॥
अब जो ज्योति आदि दूसरे प्रसिद्ध देवता हैं और जो विख्यात आठ वसु देवता हैं, उनका विस्तृत वर्णन मैं आपसे करूँगा ॥ ३७ ॥

आपो ध्रुवश्च सोमश्च धरश्चैवानिलानलौ ।
प्रत्यूषश्च प्रभासश्च वसवो नामभिः स्मृताः ॥ ३८ ॥
आप, ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभास (-ये आठ) वसु नामसे प्रसिद्ध हैं ॥ ३८ ॥

आपस्य पुत्रो वैतण्ड्यः श्रमः श्रान्तो मुनिस्तथा ।
ध्रुवस्य पुत्रो भगवान् कालो लोकप्रकालनः ॥ ३९ ॥
आपके वैतण्ड्य, श्रम, शान्त और मुनि नामक पुत्र उत्पन्न हुए और संसारको अपने अंकुशमें रखनेवाले भगवान् काल ध्रुवके पुत्र हैं ॥ ३९ ॥

सोमस्य भगवान् वर्चा वर्चस्वी येन जायते ।
धरस्य पुत्रो द्रविणो हुतहव्यवहस्तथा ।
मनोहरायाः शिशिरः प्राणोऽथ रमणस्तथा ॥ ४० ॥
और सोम नामक वसुके पुत्र भगवान् वर्चा हैं, जिन (का पूजन करने)-से मनुष्य वर्चस्वी हो जाता है । धर वसुके द्रविण और हुतहव्यवह नामक दो पुत्र हुए तथा (धरकी दूसरी पली) मनोहरासे शिशिर, प्राण और रमण नामक पुत्र हुए ॥ ४० ॥

अनिलस्य शिवा भार्या यस्याः पुत्रो मनोजवः ।
अविज्ञातगतिश्चैव द्वौ पुत्रावनिलस्य तु ॥ ४१ ॥
अनिलकी पत्नीका नाम शिवा था, उसके पुत्र मनोजव और अविज्ञातगति थे, ये दोनों अनिलके पुत्र थे ॥ ४१ ॥

अग्निपुत्रः कुमारस्तु शरस्तम्बे श्रियान्वितः ।
तस्य शाखो विशाखश्च नैगमेयश्च पृष्ठजाः ॥ ४२ ॥
अनिके पुत्र श्रीमान् कुमार सरकंडोंके झंडमें प्रकट हुए थे । उनके पीछे शाख, विशाख और नैगमेय हुए (इस प्रकार अग्निके चार पुत्र थे) ॥ ४२ ॥

अपत्यं कृत्तिकानां तु कार्तिकेय इति स्मृतः ।
स्कन्दः सनत्कुमारश्च सृष्टः पादेन तेजसः ॥ ४३ ॥
(ये कुमार ही) कृत्तिकाओंकी संतान कार्तिकेय (और) स्कन्द कहलाते हैं और ये ही सनत्कुमार हैं । अग्निने इन्हें अपने तेजके एक अंशसे प्रकट किया है (और शाख आदि तीनको भी अपने तेजके एक-एक चौथाई अंशसे प्रकट किया है । छान्दोग्य-उपनिषद्में लिखा है कि 'तं स्कन्द इत्याचक्षते' यह सनत्कुमार ही स्कन्द हैं । इससे प्रतीत होता है कि सनत्कुमार इनका उपनाम है) ॥ ४३ ॥

प्रत्यूषस्य विदुः पुत्रमृटिं नाम्ना च देवलम् ।
द्वौ पुत्रौ देवलस्यापि क्षमावन्तौ तपस्विनौ ॥ ४४ ॥
प्रत्यूषके पुत्रका नाम देवल और (पुत्रीका नाम) ऋष्टि था । देवलके भी दो पुत्र थे, जो अमावान् तथा तपस्वी थे ॥ ४४ ॥

बृहस्पतेस्तु भगिनी वरस्त्री ब्रह्मचारिणी ।
योगसिद्धा जगत् कृत्स्नमसक्ता विचचार ह ॥ ४५ ॥
बृहस्पतिकी बहिनका नाम ब्रह्मचारिणी था, वह योगसिद्ध श्रेष्ठ स्त्री आसक्तिको त्यागकर सारे संसारमें विचरण किया करती थी ॥ ४५ ॥

प्रभासस्य च सा भार्या वसूनामष्टमस्य च ।
विश्वकर्मा महाभागस्तस्यां जज्ञे प्रजापतिः ॥ ४६ ॥
वह प्रभास नामवाले आठवें वसुकी भार्या बन गयी । उसके गर्भसे विश्वकर्मा नामवाले महाभाग्यवान् प्रजापति उत्पन्न हुए ॥ ४६ ॥

कर्ता शिल्पसहस्राणां त्रिदशानां च वार्धकिः ।
भूषणानां च सर्वेषां कर्ता शिल्पवतां वरः ॥ ४७ ॥
उन्होंने हजारों शिल्पों (कलाओं)-की रचना की है और वे देवताओंके बढ़ई हैं तथा वे शिल्पियोंमें श्रेष्ठ विश्वकर्मा सब आभूषणोंके बनानेवाले हैं ॥ ४७ ॥

यः सर्वासां विमानानि देवतानां चकार ह ।
मानुष्याश्चोपजीवन्ति यस्य शिल्पं महात्मनः ॥ ४८ ॥
उन्होंने सब देवताओंके विमानोंको बनाया है और उन महात्माके शिल्पसे मनुष्य भी अपनी आजीविका चलाते हैं ॥ ४८ ॥

सुरभी कश्यपाद् रुद्रानेकादश विनिर्ममे ।
महादेवप्रसादेन तपसा भाविता सती ॥ ४९ ॥
अजैकपादहिर्बुध्न्यस्त्वष्टा रुद्राश्च भारत ।
त्वष्टुश्चैवात्मजः श्रीमान् विश्वरूपो महायशाः ॥ ५० ॥
(अब दक्षने कश्यप मुनिको जो तेरह कन्याएँ दी थीं, उनमेंसे सुरभिकी संतानका वर्णन करते हैं-) तपमें मग्न हुई सुरभिने महादेवजीसे वर पाकर कश्यपजीके द्वारा ग्यारह रुद्रोंको उत्पन्न किया था । भरतवंशी राजन् ! अजैकपाद्, अहिर्बुध्न्य, त्वष्टा तथा रुद्र-ये सब सुरभिकी ही संतानें हैं । त्वष्टाके महायशस्वी और श्रीमान् पुत्रका नाम विश्वरूप था ॥ ४९-५० ॥

हरश्च बहुरूपश्च त्र्यम्बकश्चापराजितः ।
वृषाकपिश्च शम्भुश्च कपर्दी रेवतस्तथा ॥ ५१ ॥
मृगव्याधश्च सर्पश्च कपाली च विशाम्पते ।
एकादशैते कथिता रुद्रास्त्रिभुवनेश्वराः ॥ ५२ ॥
राजन् ! हर, बहुरूप, त्र्यम्बक, अपराजित, वृषाकपि, शम्भु, कपर्दी, रैवत, मृगव्याध, सर्प और कपाली-ये तीनों भुवनोंके ईश्वर ग्यारह रुद्र कहे गये हैं ॥ ५१-५२ ॥

शतं त्वेवं समाख्यातं रुद्राणाममितौजसाम् ।
पुराणे भरतश्रेष्ठ यैर्व्याप्ताः सचराचराः ॥ ५३ ॥
लोका भरतशार्दूल कश्यपस्य निबोध मे ।
अदितिर्दितिर्दनुश्चैव अरिष्टा सुरसा खशा ॥ ५४ ॥
सुरभिर्विनता चैव ताम्रा क्रोधवशा इरा ।
कद्रुर्मुनिश्च राजेन्द्र तास्वपत्यानि मे शृणु ॥ ५५ ॥
भरतश्रेष्ठ ! पुराणोंमें इन अमित पराक्रमी रुद्रोंके सैकड़ों रूप बताये गये हैं । इनसे चराचर लोक भरे हुए हैं । भरतशार्दूल ! अब तुम मुझसे कश्यपकी (स्त्रियोंके नाम) सुनो । (वे हैं-) अदिति, दिति, दनु, अरिष्टा, सुरसा, खशा, सुरभि, विनता, ताम्रा, क्रोधवशा, इरा, कद्रू और मुनि । राजेन्द्र ! अब इनसे जो संतानें उत्पन्न हुई, उनका वर्णन मुझसे सुनो ॥ ५३-५५ ॥

पूर्वमन्वन्तरे श्रेष्ठा द्वादशासन् सुरोत्तमाः ।
तुषिता नाम तेऽन्योन्यमूचुर्वैवस्वतेऽन्तरे ॥ ५६ ॥
उपस्थितेऽतियशसि चाक्षुषस्यान्तरे मनोः ।
हितार्थं सर्वसत्त्वानां समागम्य परस्परम् ॥ ५७ ॥
पहले चाक्षुष मन्वन्तरमें तुषित नामवाले बारह श्रेष्ठ देवता थे । वे उस अत्यन्त यशस्वी मन्वन्तरका अन्त आनेपर वैवस्वत मन्वन्तरके आरम्भमें सब प्राणियोंका हित करनेके लिये परस्पर मिलकर कहने लगे- ॥ ५६-५७ ॥

आगच्छत द्रुतं देवा अदितिं सम्प्रविश्य वै ।
मन्वन्तरे प्रसूयामस्तन्नः श्रेयो भविष्यति ॥ ५८ ॥
'देवताओ ! शीघ्र आओ ! हम अदितिमें प्रवेश करके अगले (वैवस्वत) मन्वन्तरमें उत्पन्न होंगे, यह कार्य हमारे लिये श्रेयस्कर होगा' ॥ ५८ ॥

वैशम्पायन उवाच
एवमुक्त्वा तु ते सर्वं चाक्षुषस्यान्तरे मनोः ।
मारीचात् कश्यपाज्जातास्तेऽदित्या दक्षकन्यया ॥ ५९ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-वे सभी देवता चाक्षुष मन्वन्तरके अन्तमें इस प्रकार वार्तालाप कर मरीचिपुत्र कश्यपसे दक्षकी कन्या अदितिके गर्भसे उत्पन्न हो गये ॥ ५९ ॥

तत्र विष्णुश्च शक्रश्च जज्ञाते पुनरेव हि ।
अर्यमा चैव धाता च त्वष्टा पूषा च भारत ॥ ६० ॥
विवस्वान् सविता चैव मित्रो वरुण एव च ।
अंशो भगश्चातितेजा आदित्या द्वादश स्मृताः ॥ ६१ ॥
भारत ! वहाँ विष्णु और इन्द्र फिर उत्पन्न हुए । वे तथा अर्यमा, धाता, त्वष्टा, पूषा, विवस्वान्, सविता, मित्र, वरुण, अंश और परम तेजस्वी भग-ये बारह आदित्य कहलाते हैं । ॥ ६०-६१ ॥

चाक्षुषस्यान्तरे पूर्वमासन् ये तुषिताः सुराः ।
वैवस्वतेऽन्तरे ते वै आदित्या द्वादश स्मृताः ॥ ६२ ॥
पहले चाक्षुष मन्वन्तरमें जो तुषित नामवाले देवता थे, वे अब वैवस्वत मन्वन्तरमें बारह आदित्य कहलाते हैं ॥ ६२ ॥

सप्तविंशतिर्याः प्रोक्ताः सोमपत्न्योऽथ सुव्रताः ।
तासामपत्यान्यभवन् दीप्तान्यमिततेजसां ॥ ६३ ॥
और जो सुन्दर व्रत धारण करनेवाली चन्द्रमाकी सत्ताईस पत्नियाँ कही गयी हैं, उन अमित तेजस्विनी पलियोंकी ज्योतिर्मयी संतानें उत्पन्न हुई ॥ ६३ ॥

अरिष्टनेमिपत्नीनामपत्यानीह षोडश ।
बहुपुत्रस्य विदुषश्चतस्रो विद्युतः स्मृताः ॥ ६४ ॥
अनेक पुत्रवाले विद्वान् अरिष्टनेमिकी विद्युत् नामवाली चार पलियाँ थीं । उनसे सोलह संतानें उत्पन्न हुई ॥ ६४ ॥

प्रत्यङ्गिरसजाः श्रेष्ठा ऋचो ब्रह्मर्षिसत्कृताः ।
कृशाश्वस्य तु राजर्षेर्देवप्रहरणानि च ॥ ६५ ॥
राजर्षि कृशाश्वके ब्रह्मर्षियोंसे सत्कृत श्रेष्ठ प्रत्यङ्गिरसजा ऋचाएँ और देवताओंके आयुध प्रकट हुए ॥ ६५ ॥

एते युगसहस्रान्ते जायन्ते पुनरेव ह ।
सर्वदेवगणास्तात त्रयस्त्रिंशत् तु कामजाः ॥ ६६ ॥
तात ! ईश्वरकी कामनासे उत्पन्न होनेवाले तैंतीस देवता सत्ययुग आदि चारों युगोंके एक हजार बार बीतनेपर (प्रत्येक कल्पमें) पुनः उत्पन्न हुआ करते हैं ॥ ६६ ॥

तेषामपि च राजेन्द्र निरोधोत्पत्तिरुच्यते ॥ ६७ ॥
यथा सूर्यस्य गगने उदयास्तमने इह ।
राजेन्द्र ! उन देवताओंकी भी उत्पत्ति और नाशका वर्णन उपलब्ध होता है ॥ ६७ ॥

एवं देवनिकायास्ते सम्भवन्ति युगे युगे ॥ ६८ ॥
दित्याः पुत्रद्वयं जज्ञे कश्यपादिति नः श्रुतम् ।
जैसे आकाशमें सूर्यका उदय और अस्त बारम्बार होता रहता है, इसी प्रकार ये देवताओंके समूह प्रत्येक युगमें उत्पन्न (तथा नष्ट) होते हैं ॥ ६८ ॥

हिरण्यकशिपुश्चैव हिरण्याक्षश्च वीर्यवान् ॥ ६९ ॥
सिंहिका चाभवत्कन्या विप्रचित्तेः परिग्रहः ।
(इस प्रकार आदित्योंका वर्णन करके अब दैत्योंका वर्णन करते हैं-) हमने सुना है, कश्यप ऋषिसे दितिके दो पुत्र उत्पन्न हुए थे, (उनमेंसे एक) हिरण्यकशिपु और (दूसरा) वीर्यवान् हिरण्याक्ष था ॥ ६९ ॥

सैंहिकेया इति ख्यातास्तस्याः पुत्रा महाबलाः ।
गणैश्च सह राजेन्द्र दशसाहस्रमुच्यते ॥ ७० ॥
(इन कश्यप और दितिकी) एक सिंहिका नामवाली कन्या भी थी, वह विप्रचित्तिको विवाही गयी थी । उसके महाबली पुत्र सँहिकेय नामसे प्रसिद्ध हैं । राजेन्द्र ! वे अपने गोंसहित दस हजार हैं ॥ ७० ॥

तेषां पुत्राश्च पौत्राश्च शतशोऽथ सहस्रशः ।
असंख्याता महाबाहो हिरण्यकशिपोः शृणु ॥ ७१ ॥
और उनके सैकड़ों पुत्र और हजारों पौत्र हैं, उनकी गिनती नहीं की जा सकती । महाबाहो ! अब हिरण्यकशिपुकी (संतानोंका वर्णन) सुनो ॥ ७१ ॥

हिरण्यकशिपोः पुत्राश्चत्वारः प्रथितौजसः ।
अनुह्रादश्च ह्रादश्च प्रह्रादश्चैव वीर्यवान् ॥ ७२ ॥
संह्रादश्च चतुर्थोऽभूद्ध्रादपुत्रो ह्रदस्तथा ।
संह्रादपुत्रः सुन्दश्च निसुन्दस्तावुभौ स्मृतौ ॥ ७३ ॥
हिरण्यकशिपके अनुह्मद, हाद, वीर्यवान् प्रह्लाद और चौथा संहाद-ये चार प्रसिद्ध पराक्रमी पुत्र उत्पन्न हुए । हादका पुत्र हद हुआ । सुन्द और निसुन्द-ये दोनों संह्रादके पुत्र कहलाते हैं ॥ ७२-७३ ॥

अनुह्रादसुतौ ह्यायुः शिबिकालस्तथैव ह ।
विरोचनश्च प्राह्रादिर्बलिर्जज्ञे विरोचनात् ॥ ७४ ॥
अनुहादके आयु और शिबिकाल नामक दो पुत्र थे । प्रह्लादके विरोचन नामक पुत्र हुआ और विरोचनसे बलि नामवाला पुत्र उत्पन्न हुआ ॥ ७४ ॥

बलेः पुत्रशतं त्वासीद् बाणज्येष्ठं नराधिप ।
धृतराष्ट्रश्च सूर्यश्च चन्द्रमाश्चेन्द्रतापनः ॥ ७५ ॥
कुम्भनाभो गर्दभाक्षः कुक्षिरित्येवमादयः ।
बाणस्तेषामतिबलो ज्येष्ठः पशुपतेः प्रियः ॥ ७६ ॥
बलिके सौ पुत्र थे । उनमें बाण (सबसे) बड़ा था । राजन् ! धृतराष्ट्र, सूर्य, चन्द्रमा, इन्द्रतापन, कुम्भनाभ, गर्दभाक्ष और कुक्षि आदि (बलिके सौ पुत्र थे) । इनमें अतिबली बाण बड़ा था और वह शिवका प्रिय भक्त था ॥ ७५-७६ ॥

पुराकल्पे तु बाणेन प्रसाद्योमापतिं प्रभुम् ।
पार्श्वतो विहरिष्यामि इत्येवं याचितो वरः ॥ ७७ ॥
पहले कल्पमें बाणासुरने उमापति शङ्करको प्रसन्न करके यह वर माँगा था कि 'मैं आपके पास विहार करूँ' ॥ ७७ ॥

बाणस्य चेन्द्रदमनो लोहित्यामुदपद्यत ।
गणास्तथासुरा राजञ्छतसाहस्रसम्मिताः ॥ ७८ ॥
बाणकी लोहिती नामकी पत्नीसे इन्द्रदमन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । राजन् ! लाखों असुर उसके गण थे ॥ ७८ ॥

हिरण्याक्षसुताः पञ्च विद्वांसः सुमहाबलाः ।
झर्झरः शकुनिश्चैव भूतसंतापनस्तथा ।
महानाभश्च विक्रान्तः कालनाभस्तथैव च ॥ ७९ ॥
हिरण्याक्षके झर्झर, शकुनि, भूतसंतापन, महानाभ और पराक्रमी कालनाभ नामक पाँच पुत्र हुए, वे विद्वान् और परम पराक्रमी थे ॥ ७९ ॥

अभवन् दनुपुत्राश्च शतं तीव्रपराक्रमाः ॥
तपस्विनो महावीर्याः प्राधान्येन निबोध तान् ॥ ८० ॥
(अब दनुके वंशका वर्णन करते हैं-) दनुके सौ पुत्र हुए । वे सब परम पराक्रमी, तपस्वी और महावीर्यवान् थे । उनमेंसे मुख्य-मुख्य असुरोंका वर्णन सुनिये ॥ ८० ॥

द्विमूर्धा शकुनिश्चैव तथा शङ्कुशिरा विभुः ।
शङ्कुकर्णो विराधश्च गवेष्ठी दुन्धुभिस्तथा ॥
अयोमुखः शम्बरश्च कपिलो वामनस्तथा । ८१ ॥
मरीचिर्मघवांश्चैव इरा शङ्कुशिरा वृकः ।
विक्षोभणश्च केतुश्च केतुवीर्यशतह्रदौ ॥ ८२ ॥
इन्द्रजित् सत्यजिच्चैव वज्रनाभस्तथैव च ।
महानाभश्च विक्रान्तः कालनाभस्तथैव च ॥ ८३ ॥
एकचक्रो महाबाहुस्तारकश्च महाबलः ।
वैश्वानरः पुलोमा च विद्रावणमहासुरौ ॥ ८४ ॥
स्वर्भानुर्वृषपर्वा च तुहुण्डश्च महासुरः ।
सूक्ष्मश्चैवातिचन्द्रश्च ऊर्णनाभो महगिरिः ॥ ८५ ॥
असिलोमा च केशी च शठश्च बलको मदः ।
तथा गगनमूर्धा च कुम्भनाभो महासुरः ॥ ८६ ॥
प्रमदो मयश्च कुपथो हयग्रीवश्च वीर्यवान् ।
वैसृपः सविरूपाक्षः सुपथोऽथ हराहरौ ॥ ८७ ॥
हिरण्यकशिपुश्चैव शतमायुश्च शम्बरः ।
शरभः शलभश्चैव विप्रचित्तिश्च वीर्यवान् ॥ ८८ ॥
एते सर्वे दनोः पुत्राः कश्यपादभिजज्ञिरे ।
विप्रचित्तिप्रधानास्ते दानवाः सुमहाबलाः ॥ ८९ ॥
द्विमूर्धा, शकुनि तथा विभु शङ्कशिरा, शङ्ककर्ण, विराध और गवेष्ठी, दुन्दुभि तथा अयोमुख, शम्बर और कपिल, वामन तथा मरीचि, मघवान् और इरा, शङ्कशिरा, वृक, विक्षोभण और केतु तथा केतुवीर्य, शतहद, इन्द्रजित्, सत्यजित् और वज्रनाभ तथा महानाभ और विक्रान्त, कालनाभ, महाभुज एकचक्र और महाबली तारक, वैश्वानर, पुलोमा, विद्रावण और महासुर, स्वर्भानु, वृषपर्वा और महान् असुर तुहुण्ड, सूक्ष्म और अतिचन्द्र तथा ऊर्णनाभ, महागिरि, असिलोमा और केशी एवं शठ तथा बलक, मद तथा गगनमूर्धा और महान् असुर कुम्भनाभ, प्रमद, मय और कुपथ, हयग्रीव और वीर्यवान् वैसृप, विरूपाक्षसहित सुपथ और हर, अहर, हिरण्यकशिपु तथा सैकड़ों प्रकारकी माया जाननेवाला शम्बर, शरभ, शलभ और वीर्यवान् विप्रदित्ति-ये सब दनुके पुत्र कश्यपजीसे उत्पन्न हुए थे । इनमें विप्रचित्ति प्रधान था । ये सब दानव बड़े बलवान् थे ॥ ८१-८९ ॥

एतेषां यदपत्यं तु तन्न शक्यं नराधिप ।
प्रसंख्यातुं महीपाल पुत्रपौत्राद्यनन्तकम् ॥ ९० ॥
नराधिप ! इनकी जो संतानें हुई, उनकी गिनती नहीं की जा सकती । महीपाल ! इनके अनन्त पुत्र-पौत्र उत्पन्न हुए ॥ ९० ॥

स्वर्भानोस्तु प्रभा कन्या पुलोम्नश्च सुतात्रयम् ।
उपदानवी हयशिराः शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी ॥ ९१ ॥
स्वर्भानुके प्रभा नामक पुत्री उत्पन्न हुई और पुलोमाके उपदानवी, हयशिरा (तथा शची) तीन कन्याएँ उत्पन्न हुई । वृषपर्वाके शर्मिष्ठा नामकी पुत्री उत्पन्न हुई ॥ ९१ ॥

पुलोमा कालिका चैव वैश्वानरसुते उभे ।
बह्वपत्ये महावीर्ये मारीचेस्तु परिग्रहः ॥ ९२ ॥
वैश्वानर दानवकी पुलोमा और कालिका नामकी दो पुत्रियाँ हुईं । ये दोनों मरीचिनन्दन कश्यपको विवाही गयीं, ये बड़ी शक्तिशालिनी थीं । इन कन्याओंकी बहुतसी संतानें उत्पन्न हुई ॥ ९२ ॥

तयोः पुत्रसहस्राणि षष्टिं दानवनन्दनान् ॥
चतुर्दशशतानन्यान् हिरण्यपुरवासिनः ॥ ९३ ॥
मारीचिर्जनयामास महता तपसान्वितः ।
पौलोमाः कालकेयाश्च दानवास्ते महाबलाः ॥ ९४ ॥
अवध्या देवतानां च हिरण्यपुरवासिनः ।
कृताः पितामहेनाजौ निहताः सव्यसाचिना ॥ ९५ ॥
परम तपस्वी मारीचि (कश्यप)-ने उन दोनों स्त्रियोंसे दानवोंको आनन्द देनेवाले साठ हजार पुत्रोंको जन्म दिया । फिर चौदह सौ पुत्र और उत्पन्न किये । ये सब हिरण्यपुरमें रहते थे । इन हिरण्यपुरमें रहनेवाले महाबली पौलोम और कालकेय दानवोंको ब्रह्माजीने (वर देकर) देवताओंसे भी अवध्य (न मारे जानेयोग्य) कर दिया था । अर्जुनने इनको रणमें मार डाला था ॥ ९३-९५ ॥

प्रभाया नहुशः पुत्रः सृञ्जयश्च शचीसुतः ।
पूरुं जज्ञेऽथ शर्मिष्ठा दुष्यन्तमुपदानवी ॥ ९६ ॥
प्रभाके नहुष नामक पुत्र हुआ और शचीके सृञ्जय । शर्मिष्ठाने पूरुको उत्पन्न किया और उपदानवीने दुष्यन्तको ॥ ९६ ॥

ततोऽपरे महावीर्या दानवास्त्वतिदारुणाः ।
सिंहिकायामथोत्पन्ना विप्रचित्तेः सुतास्तदा ॥ ९७ ॥
दैत्यदानवसंयोगाज्जातास्तीव्रपराक्रमाः ।
सैंहिकेया इति ख्यातास्त्रयोदश महाबलाः ॥ ९८ ॥
तदनन्तर और भी बहुतसे महावीर्यवान् अतिदारुण दानव सिंहिकासे विप्रचित्तिद्वारा उत्पन्न हुए, फिर दैत्य-दानवोंके संयोगसे विप्रचित्तिके बहुत-से तीव्र पराक्रमी पुत्र हुए । इनमें तेरह महाबली दानव 'सैहिकेय' नामसे प्रसिद्ध हैं ॥ ९७-९८ ॥

व्यंशः शल्यश्च बलिनौ नभश्चैव महाबलः ।
वातापिर्नमुचिश्चैव इल्वलः खसृमस्तथा ॥ ९९ ॥
अञ्जिको नरकश्चैव कालनाभस्तथैव च ।
शुकः पोतरणश्चैव वज्रनाभश्च वीर्यवान् ॥ १०० ॥
(उनके नाम इस प्रकार हैं-) बलवान् व्यंश और शल्य, महाबली नभ, वातापि और नमुचि, इल्वल तथा खसम, आञ्जिक और नरक तथा कालनाभ, शुक और पोतरण तथा वीर्यवान् वज्रनाभ ॥ ९९-१०० ॥

राहुर्ज्येष्ठस्तु तेषां वै सूर्यचन्द्रविमर्दनः ।
मूकश्चैव तुहुण्डश्च ह्रादपुत्रौ बभूवतुः ॥ १०१ ॥
इनमें राहु सबसे बड़ा है, जो सूर्य तथा चन्द्रमाको पीड़ा देता रहता है । हादके मूक और तुहुण्ड नामवाले दो पुत्र उत्पन्न हुए ॥ १०१ ॥

मारीचः सुन्दपुत्रश्च ताडकायां व्यजायत ।
शिवमाणस्तथा चैव सुरकल्पश्च वीर्यवाण् ॥ १०२ ॥
सुन्दके ताडकासे मारीच नामक पुत्र उत्पन्न हुआ तथा (सुन्द और ताडकाके) शिवमाण और वीर्यवान् सुरकल्प नामक पुत्र भी उत्पन्न हुए ॥ १०२ ॥

एते वै दानवाः श्रेष्ठा दनुवंशविवर्धनाः ।
तेषां पुत्राश्च पौत्राश्च शतशोऽथ सहस्रशः ॥ १०३ ॥
ये सभी दानव श्रेष्ठ और दनुके वंशका विस्तार करनेवाले हैं, इनके सैकड़ों पुत्र और हजारों पौत्र हैं ॥ १०३ ॥

संह्रादस्य तु दैत्यस्य निवातकवचाः कुले ।
समुत्पन्नाः सुतपसा महान्तो भावितात्मनः ॥ १०४ ॥
संहाद दैत्यके कुलमें निवातकवच उत्पन्न हुए, वे सब उदार थे और उन्होंने बड़ा भारी तप करके अपने चित्तको पवित्र कर लिया था ॥ १०४ ॥

तिस्रः कोट्यः सुतास्तेषां मणिमत्यां निवासिनाम् ॥
तेऽप्यवध्यास्तु देवानामर्जुनेन निपातिताः ॥ १०५ ॥
वे मणिमती नगरीमें निवास करते थे । उनके तीन करोड़ पुत्र थे । वे भी देवताओंसे अवध्य थे, उनको भी अर्जुनने मार डाला था ॥ १०५ ॥

षट् सुताः सुमहासत्त्वास्ताम्रायाः परिकीर्तिताः ॥
काकी श्येनी च भासी च सुग्रीवी शुचि गृध्रिका ॥ १०६ ॥
ताम्राकी काकी, श्येनी, भासी, सुग्रीवी, शुचि और गधिका नामकी अत्यन्त बलशालिनी छः पुत्रियाँ कही जाती हैं ॥ १०६ ॥

काकी काकानजनयदुलूकी प्रत्युलूककान् ।
श्येनी श्येनांस्तथा भासी भासान् गृध्रांश्च गृध्र्यपि ॥ १०७ ॥
शुचिरौदकान् पक्षिगणान् सुग्रीवी तु परंतप ।
अश्वानुष्ट्रान् गर्दभांश्च ताम्रावंशः प्रकीर्तितः ॥ १०८ ॥
परंतप ! काकीने कौओंको, उलूकीने उल्लुओंको, श्येनीने श्येनों (बाजों)-को, भासीने भास नामक पक्षियोंको और गृध्रीने गीधोंको उत्पन्न किया । शुचिने जलमें रहनेवाले पक्षियोंको और सुग्रीवीने घोड़े, ऊँट तथा गधोंको जन्म दिया । यह मैंने ताम्राके वंशका वर्णन किया है ॥ १०७-१०८ ॥

विनतायास्तु पुत्रौ द्वावरुणो गरुडस्तथा ।
सुपर्णः पततां श्रेष्ठो दारुणः स्वेन कर्मणा ॥ १०९ ॥
विनताके अरुण और गरुड नामक दो पुत्र हुए । इनमेंसे पक्षियोंमें श्रेष्ठ गरुड अपने कर्मके कारण बड़े दारुण माने गये हैं ॥ १०९ ॥

सुरसायाः सहस्रं तु सर्पाणाममितौजसाम् ।
अनेकशिरसां तात खेचराणां महात्मनाम् ॥ ११० ॥
सुरसाके हजारों सर्प उत्पन्न हुए । तात ! वे सब सर्प अमित पराक्रमी, अनेक फोंवाले, आकाशमें विचरण करनेवाले तथा विशालकाय हैं ॥ ११० ॥

काद्रवेयाश्च बलिनः सहस्रममितौजसः ।
सुपर्णवशगा नागा जज्ञिरेऽनेकमस्तकाः ॥ १११ ॥
तेषां प्रधानाः सततं शेषवासुकितक्षकाः ।
ऐरावतो महापद्मः कम्बलाश्वतरावुभौ ॥ ११२ ॥
एलापत्रस्तथा शङ्खः कर्कोटकधनंजयौ ।
महानीलमहाकर्णौ धृतराष्ट्रबलाहकौ ॥ ११३ ॥
कुहरः पुष्पदंष्ट्रश्च दुर्मुखः सुमुखस्तथा ।
शङ्खश्च शङ्खपालश्च कपिलो वामनस्तथा ॥ ११४ ॥
नहुषः शङ्खरोमा च मणिरित्येवमादयः ।
तेषां पुत्राश्च पौत्राश्च गरुडेन निपातिताः ॥ ११५ ॥
कदूके भी परम पराक्रमी हजारों सर्प उत्पन्न हुए । उन बलवान् सर्पोके अनेक मस्तक हैं और वे सर्वदा गरुडके अधीन रहते हैं । उनमें शेष, वासुकि, तक्षक, ऐरावत, महापा, कम्बल, अश्वतर, एलापत्र, शङ्ख, कर्कोटक, धनञ्जय, महानील, महाकर्ण, धृतराष्ट्र, बलाहक, कुहर, पुष्पदंष्ट्र, दुर्मुख, सुमुख, शङ्ख, शङ्खपाल, कपिल, वामन, नहुष, शहरोमा तथा मणि आदि प्रधान हैं । इनके पुत्र और पौत्रोंको गरुडने मार डाला था ॥ १११-११५ ॥

चतुर्दशसहस्राणि क्रूराणां पवनाशिनाम् ।
गणं क्रोधवशं विद्धि तस्य सर्वे च दंष्ट्रिणः ॥ ११६ ॥
वायु पीकर रहनेवाले चौदह हजार क्रूर सोका क्रोधवश नामवाला एक गण है । उस गणके समस्त सर्प दाढ़ोंवाले हैं ॥ ११६ ॥

स्थलजाः पक्षिणोऽब्जाश्च धरायाः प्रसवाः स्मृताः ।
गास्तु वै जनयामास सुरभिर्महिषांस्तथा ॥ ११७ ॥
स्थल और जलके पक्षी धराकी संतान कहलाते हैं । सुरभिने गौ, बैल और भैंसोंको उत्पन्न किया ॥ ११७ ॥

इरा वृक्षलता वल्लीस्तृणजातीश्च सर्वशः ।
खशा तु यक्षरक्षांसि मुनीनप्सरसस्तथा ॥ ११८ ॥
इराने वृक्ष, लता, बेल तथा सब प्रकारको घासोंको उत्पन्न किया । खशाने यक्षों और राक्षसोंको तथा मुनिने अप्सराओंको जन्म दिया ॥ ११८ ॥

अरिष्टा तु महासत्त्वान् गन्धर्वानमितौजसः ।
एते कश्यपदायादाः कीर्तिताः स्थाणुजङ्गमाः । ११९ ॥
अरिष्टाने महासत्त्ववाले अमित पराक्रमी गन्धर्वोको उत्पन्न किया । यह कश्यप ऋषिकी स्थावर और जंगम संतानोंका वर्णन हुआ ॥ ११९ ॥

तेषां पुत्राश्च पौत्राश्च शतशोऽथ सहस्रशः ।
एष मन्वन्तरे तात सर्गः स्वारोचिषे स्मृतः ॥ १२० ॥
इनके सैकड़ों पुत्र और हजारों पौत्र हुए । तात ! यह स्वारोचिष मन्वन्तरकी सृष्टिका वर्णन है ॥ १२० ॥

वैवस्वते तु महति वारुणे वितते क्रतौ ।
जुह्वानस्य ब्रह्मणो वै प्रजासर्ग इहोच्यते ॥ १२१ ॥
जब वैवस्वत मन्वन्तरमें वरुणदेवतासम्बन्धी बड़ा भारी यज्ञ चल रहा था, तब ब्रह्माजीके आहुति देते समय प्रजाओंको रचनेका जो क्रम चला था, उसका यहाँ वर्णन किया जाता है ॥ १२१ ॥

पूर्वं यत्र तु ब्रह्मर्षीनुत्पन्नान्सप्त मानसान् ।
पुत्रत्वे कल्पयामास स्वयमेव पितामहः ॥ १२२ ॥
उस समय पितामह ब्रह्माने पहले अपने मनके संकल्पसे उत्पन्न हुए सात ब्रह्मर्षियोंको स्वयं ही अपने औरस पुत्रके रूपमें स्वीकार किया ॥ १२२ ॥

ततो विरोधे देवानां दानवानां च भारत ।
दितिर्विनष्टपुत्रा वै तोषयामास कश्यपम् ॥ १२३ ॥
भारत ! तदनन्तर जब देवता और दैत्योंमें विरोध होनेपर दितिके पुत्र नष्ट हो गये, तब उसने (महर्षि) कश्यपको (फिर) प्रसन्न किया ॥ १२३ ॥

तां कश्यपः प्रसन्नात्मा सम्यगाराधितस्तया ।
वरेण च्छन्दयामास सा च वव्रे वरं ततः ॥ १२४ ॥
पुत्रमिन्द्रवधार्थाय समर्थममितौजसम् ।
स च तस्यै वरं प्रादात् प्रार्थितं सुमहातपाः ॥ १२५ ॥
उसके भलीभांति आराधना करनेपर कश्यपजीका चित्त प्रसन्न हो गया और उन्होंने उससे वर माँगनेके लिये कहा । तब उस दितिने वर माँगा कि 'मुझे इन्द्रका वध करनेके लिये अमित पराक्रमी पुत्र दीजिये । ' यह सुनकर उन महातपस्वी कश्यपने उसका माँगा हुआ वर उसको दे दिया ॥ १२४-१२५ ॥

दत्त्वा च वरमव्यग्रो मारीचस्तामभाषत ।
भविष्यति सुतस्तेऽयं यद्येवं धारयिष्यसि ॥ १२६ ॥
इन्द्रं सुतो निहन्ता ते गर्भं वै शरदां शतम् ।
यदि धारयसे शौचं तत्परा व्रतमास्थिता ॥ १२७ ॥
वह वर देकर कश्यप मुनि उससे शान्तभावसे बोले-'यदि तुम इस (गर्भ)-को मेरी बतायी हुई विधिसे धारण कर सकोगी तो तुम्हारा पुत्र इन्द्रको मारनेवाला होगा । तुम्हें पवित्रतापूर्वक रहनेका व्रत लेकर सौ वर्षतक अपने उदरमें इस गर्भको धारण करना पड़ेगा । यदि तुम ऐसा कर सकोगी तो वह पुत्र इन्द्रको मारनेवाला होगा' ॥ १२६-१२७ ॥

तथेत्यभिहितो भर्ता तया देव्या महातपाः ।
धारयामास गर्भं तु शुचिः सा वसुधाधिप ॥ १२८ ॥
तब उस देवीने अपने महातपस्वी स्वामीसे कहा कि 'अच्छा, मैं ऐसा ही करूंगी । ' राजन् ! फिर वह गर्भको धारण कर पवित्रतापूर्वक रहने लगी ॥ १२८ ॥

ततोऽभ्युपागमद् दित्यां गर्भमाधाय कश्यपः ।
रोचयन् वै गणश्रेष्ठं देवानाममितौजसम् ॥ १२९ ॥
तेजः संभृत्य दुर्धर्षमवध्यममरैरपि ।
जगाम पर्वतायैव तपसे संशितव्रतः ॥ १३०॥
अमित पराक्रमी देवताओंके श्रेष्ठ गणको प्रकाशित करनेवाले कश्यपजी इस प्रकार दितिमें गर्भको स्थापित कर वहाँसे चल दिये । वे प्रशंसित तपवाले (महर्षि दितिमें) देवताओंसे भी अवध्य अपने दुर्धर्ष तेजको स्थापित करके तप करनेके लिये पर्वतपर चले गये ॥ १२९-१३० ॥

तस्याश्चैवान्तरप्रेप्सुरभवत् पाकशासनः ।
ऊने वर्षशते चास्या ददर्शान्तरमच्युतः ॥ १३१ ॥
(इधर) इन्द्र उसके छिद्रको ढूँढ़ने लगे और अच्युत इन्द्रने सौ वर्ष पूर्ण होनेसे पहले ही उसका दोष देख लिया ॥ १३१ ॥

अकृत्वा पादयोः शौचं दितिः शयनमाविशत् ।
निद्रां च कारयामास तस्याः कुक्षिं प्रविश्य सः ॥ १३२ ॥
(एक बार) दिति बिना पैर धोये ही शयन करनेके लिये चली गयी । इसी समय इन्द्रने उसकी कोखमें घुसकर | उसे (अपनी मायासे) निद्राके अधीन कर दिया ॥ १३२ ॥

वज्रपाणिस्ततो गर्भं सप्तधा तं न्यकृन्तत ।
स पाठ्यमानो वज्रेण गर्भस्तु प्ररुरोद ह ॥ १३३ ॥
फिर वज्रपाणि इन्द्रने उस गर्भके सात टुकड़े कर डाले, वज्रसे काटे जानेपर वह गर्भ जोर-जोरसे रोने लगा ॥ १३३ ॥

मा रोदीरिति तं शक्रः पुनः पुनरथाब्रवीत् ।
सोऽभवत् सप्तधा गर्भस्तमिन्द्रो रुषितः पुनः ॥ १३४ ॥
एकैकं सप्तधा चक्रे वज्रेणैवारिकर्शनः ।
मरुतो नाम देवास्ते बभूवुर्भरतर्भ ॥ १३५ ॥
तब उस गर्भसे इन्द्रने बार-बार 'मा रोदी:-मत रो' इस प्रकार कहा और उस गर्भके सात टुकड़े हो गये, तब शत्रुओंको नष्ट करनेवाले इन्द्र फिर क्रोधमें भरकर वाद्वारा उस प्रत्येक टुकड़ेके भी सात-सात टुकड़े कर डाले । भरतर्षभ ! वे मरुत् नामक (उनचास) देवता हुए ॥ १३४-१३५ ॥

यथैवोक्तं मघवता तथैव मरुतोऽभवन् ।
देवा एकोनपञ्चाशत् सहाया वज्रपाणिनः ॥ १३६ ॥
इन्द्रने कि (मा रोदी:) कहा था, इसलिये वे मरुत् नामक देवता हो गये । वे उनचास हैं और वज्रपाणि इन्द्रकी सहायता करते हैं ॥ १३६ ॥

तेषामेवं प्रवृद्धानां भूतानां जनमेजय । ॥
रोचयन् वै गणश्रेष्ठं देवानाममितौजसाम् ॥ १३७ ॥
निकायेषु निकायेषु हरिः प्रादात् प्रजापतीन् ।
क्रमशस्तानि राज्यानि पृथुपूर्वाणि भारत ॥ १३८ ॥
जनमेजय ! जब वे प्राणी इस प्रकार बढ़ गये, तब अमित पराक्रमी देवताओंकी श्रेष्ठ मण्डलीको प्रकाशित करनेवाले हरिने उनकी टोलियोंमें प्रजापति नियुक्त कर दिये । भारत ! फिर उन्होंने पृथुको पहले राज्य अर्पण किया, तबसे ये राज्य क्रमशः चले आ रहे हैं ॥ १३७-१३८ ॥

स हरिः पुरुषो वीरः कृष्णो जिष्णुः प्रजापतिः ।
पर्जन्यस्तपनोऽव्यक्तस्तस्य सर्वमिदं जगत् ॥ १३९ ॥
वे हरि पुरुष, वीर, कृष्ण, जिष्णु और प्रजापति हैं तथा वे ही मेघ, सूर्य और अव्यक्त हैं एवं यह सब जगत् उन्हींका है ॥ १३९ ॥

भूतसर्गमिमं सम्यग्जानतो भरतर्षभ ।
मरुतां च शुभे जन्म शृण्वतः पठ्तोऽपि वा ॥
नावृत्तिभयमस्तीह परलोकभयं कुतः ॥ १४० ॥
भरतर्षभ ! इस भूतसृष्टिको पूर्णरूपसे जाननेवाले और मरुतोंके शुभ जन्मको सुनने या पढ़नेवालेको जन्म-मरणका भय नहीं रहता, फिर परलोकका भय तो होगा ही कहाँसे ? ॥ १४० ॥

इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशपर्वणि ॥
मरुदुत्पत्तिकथने तृतीयोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीमहाभारत खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्व मस्तॉकी उत्पत्तिका वर्णनविषयक तीसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ ३ ॥




GO TOP