श्रीहरिवंशपुराण हरिवंश पर्व पञ्चमोऽध्यायः
पृथूपाख्यानम् -
पृथुका उपाख्यान-वेनका अत्याचार करके नष्ट होना और पृथुका जन्म तथा चरित्र
वैशम्पायन उवाच आसीद्धर्मस्य गोप्ता वै पूर्वमत्रिसमः प्रभुः । अत्रिवंशसमुत्पन्नस्त्वङ्गो नाम प्रजापतिः ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-राजन् ! प्राचीन कालकी बात है, धर्मके रक्षक अत्रिके वंशमें एक प्रजापति उत्पन्न हुए, जिनका नाम था अङ्ग । वे अत्रिके ही समान प्रभावशाली थे ॥ १ ॥
तस्य पुत्रोऽभवद् वेनो नात्यर्थं धर्मकोविदः । जातो मृत्युसुतायां वै सुनीथायां प्रजापतिः ॥ २ ॥
उनका पुत्र वेन हुआ, परंतु उसे धर्मके रहस्यका पता न था । वह राजा वेन मृत्युकी पुत्री सुनीथाके गर्भसे उत्पन्न हुआ था ॥ २ ॥
स मातामहदोषेण वेनः कालात्मजात्मजः । स्वधर्मं पृष्ठतः कृत्वा कामाल्लोभेष्ववर्तत ॥ ३ ॥
कालकी पुत्री सुनीथाका पुत्र वह वेन नानाके दोषसे अपने धर्मकी उपेक्षा कर कामके कारण लोभमें फंस गया ॥ ३ ॥
मर्यादां स्थापयामास धर्मोपेतां स पार्थिवः । वेदधर्मानतिक्रम्य सोऽधर्मनिरतोऽभवत् ॥ ४ ॥
वह राजा धर्मविहीन मर्यादाको स्थापित करने लगा और वेदोक्त धर्मोंका उल्लङ्घन कर अधर्ममें फंस गया ॥ ४ ॥
निःस्वाध्यायवषट्कारास्तस्मिन् राजनि शासति । प्रवृत्तं न पपुः सोमं हुतं यज्ञेषु देवताः ॥ ५ ॥
उस राजाके शासनकालमें देवतालोग (उनकी तृप्तिके लिये किये जानेवाले) स्वाध्याय और वषट्कारसे वश्चित हो गये थे; इसलिये अपने उद्देश्यसे अर्पित तथा यज्ञकुण्डोंमें होमे गये सोमका भी वे पान नहीं करते थे ॥ ५ ॥
न यष्टव्यं न होतव्यमिति तस्य प्रजापतेः । आसीत् प्रतिज्ञा क्रूरेयं विनाशे प्रत्युपस्थिते ॥ ६ ॥
उसका विनाशकाल समीप आ गया था, अत: उस प्रजापतिने यह क्रूर प्रतिज्ञा घोषित की कि 'मेरे राज्यमें कोई यज्ञ और हवन न करे' ॥ ६ ॥
अहमिज्यश्च यष्टा च यज्ञश्चेति कुरूद्वह । मयि यज्ञो विधातव्यो मयि होतव्यमित्यपि ॥ ७ ॥
कुरुश्रेष्ठ ! (वह कहता था कि) 'मैं ही यज्ञोंद्वारा आराध्य और मैं ही यज्ञ करनेवाला हूँ तथा यज्ञ भी मैं ही हूँ । मेरे लिये ही यज्ञ और हवन करना चाहिये' ॥ ७ ॥
तमतिक्रान्तमर्यादमाददानमसाम्प्रतम् । ऊचुर्महर्षयः सर्वे मरीचिप्रमुखास्तदा ॥ ८ ॥
जब वह इस प्रकार मर्यादाको तोड़ने लगा और अनुचितरूपसे (कर आदि लगाकर) सब कुछ लूटने लगा, तब जो मरीचि आदि बड़े-बड़े | ऋषि थे, उन्होंने उससे कहा- ॥ ८ ॥
वयं दीक्षां प्रवेक्ष्यामः संवत्सरगणान् बहून् । अधर्मं कुरु मा वेन नैष धर्मः सनातनः ॥ ९ ॥
हम बहुत वर्षोंमें पूर्ण होनेवाली दीक्षामें प्रवेश करेंगे । वेन ! अब तुम अधर्म न करो; क्योंकि यह सनातन धर्म नहीं है ॥ ९ ॥
निधनेऽत्र प्रसूतस्त्वं प्रजापतिरसंशयम् । प्रजाश्च पालयिष्येऽहमिति ते समयः कृतः ॥ १० ॥
निःसंदेह तुम इस वंशमें प्रजापतिके रूपमें उत्पन्न हुए हो और तुमने प्रतिज्ञा की थी कि 'मैं प्रजाका पालन करूँगा' ॥ १० ॥
तांस्तदा ब्रुवतः सर्वान् महर्षीनब्रवीत्तदा । वेनः प्रहस्य दुर्बुद्धिरिममर्थमनर्थवित् ॥ ११ ॥
जब महर्षि इस प्रकार कह रहे थे, उस समय अनर्थको अपनानेवाले दुर्बुद्धि वेनने हँसकर उन लोगोंसे ये बातें कहाँ ॥ ११ ॥
वेन उवाच स्रष्टा धर्मस्य कश्चान्यः श्रोतव्यं कस्य वै मया । श्रुतवीर्यतपःसत्यैर्मया वा कः समो भुवि ॥ १२ ॥
वेनने कहा-धर्मका रचनेवाला मेरे सिवा और कौन है ? मैं किसकी बात सुनें ? इस पृथ्वीपर वेद, वीर्य, तप और सत्यमें मेरे समान दूसरा कौन है ? ॥ १२ ॥
प्रभवं सर्वभूतानां धर्माणां च विशेषतः । सम्मूढा न विदुर्नूनं भवन्तो मामचेतसः ॥ १३ ॥
आपलोग मूर्ख हैं और अचेत हो रहे हैं, अतः सब भूतोंके और विशेषतः धर्मोंके उत्पत्तिस्थान मुझ वेनको नहीं जानते ॥ १३ ॥
इच्छन् दहेयं पृथिवीं प्लावयेयं तथा जलैः । खं भुवं चैव रुन्धेयं नात्र कार्या विचारणा ॥ १४ ॥
मैं चाहूँ तो पृथ्वीको भस्म कर दूं अथवा इसको जलमें डुबो दूँ और पृथ्वी तथा आकाशको भी (अपने तेजसे) ढक दूं इसमें विचार करनेकी कोई बात नहीं है ॥ १४ ॥
यदा न शक्यते मोहादवलेपाच्च पार्थिवः । अनुनेतुं तदा वेनस्ततः क्रुद्धा महर्षयः ॥ १५ ॥
गर्व और मोहके वशमें पड़े हुए उस राजा वेनको जब वे ऋषि अधर्म करनेसे न रोक सके, तब वे क्रोधमें भर गये ॥ १५ ॥
निगृह्य तं महात्मानो विस्फुरन्तं महाबलम् । ततोऽस्य सव्यमूरुं ते ममन्थुर्जातमन्यवः ॥ १६ ॥
फिर तो वे महात्मा उस उछल-कूद मचाते हुए महाबली राजाको बलपूर्वक पकड़कर क्रोधमें भर उसकी दाहिनी जाँघको मथने लगे ॥ १६ ॥
तस्मिंस्तु मथ्यमाने वै राज्ञ ऊरौ प्रजज्ञिवान् । ह्रस्वोऽतिमात्रः पुरुषः कृष्णश्चातिबभूव ह ॥ १७ ॥
राजाकी उस जङ्घाके मचे जानेपर उसमेंसे बहुत ठिगना और बहुत ही काला एक पुरुष निकला ॥ १७ ॥
स भीतः प्राञ्जलिर्भूत्वा स्थितवाञ्जनमेजय । तमत्रिर्विह्वलं दृष्ट्वा निषीदेत्यब्रवीत्तदा ॥ १८ ॥
जनमेजय ! वह डरा हुआ था, अत: हाथ जोड़कर खड़ा हो गया । तब अत्रिने उसे भयसे विह्वल देखकर उससे कहा 'निषीद-बैठ जा' ॥ १८ ॥
निषादवंशकर्तासौ बभूव वदतां वर । धीवरानसृजच्चाथ वेनकल्मषसंभवान् ॥ १९ ॥
वक्ताओंमें श्रेष्ठ जनमेजय ! वह निषादोंके वंशका चलानेवाला हुआ और उसने धीवरोंको जन्म दिया । वे सभी वेनके पापसे उत्पन्न हुए थे ॥ १९ ॥
ये चान्ये विन्ध्यनिलयास्तुषारास्तुम्बरास्तथा । अधर्मरुचयो ये च विद्धि तान्वेनसम्भवान् ॥ २० ॥
इन धीवरोंके अतिरिक्त और भी जो विन्ध्यमें रहनेवाले तुषार, तुम्बर तथा अधर्मसे प्रेम करनेवाले वनवासी (गोण्ड-कोल आदि) हैं, इन सबको तुम वेन (-के पाप)-से उत्पन्न हुआ समझो ॥ २० ॥
ततः पुनर्महात्मानः पाणिं वेनस्य दक्षिणम् । अरणीमिव संरब्धा ममन्थुस्ते महर्षयः ॥ २१ ॥
तदनन्तर वे क्रोधमें भरे हुए महात्मा महर्षि वेनके दाहिने हाथको अरणीके समान मथने लगे ॥ २१ ॥
पृथुस्तस्मात् समुत्तस्थौ कराज्ज्वलनसंनिभः । दीप्यमानः स्ववपुषा साक्षादग्निरिव ज्वलन् ॥ २२ ॥
तब उस हाथसे अग्निके समान पृथु उत्पन्न हुए, वे अपने शरीरसे साक्षात् प्रज्वलित अनिके समान प्रकाशित हो रहे थे ॥ २२ ॥
स धन्वी कवची जातः पृथुरेव महायशाः । आद्यमाजगवं नाम धनुर्गृह्य महारवम् । शरांश्च दिव्यान् रक्षार्थं कवचं च महाप्रभम् ॥ २३ ॥
महायशस्वी पृथु हाथमें धनुष और बाणको धारण किये हुए और रक्षाके लिये महाकान्तिमान् कवच और दिव्य बाणोंको धारण किये हुए ही उत्पन्न हुए । वे हाथमें महान् शब्द करनेवाले प्राचीन आजगव नामक धनुषको धारण किये हुए थे ॥ २३ ॥
तस्मिञ्जातेऽथ भूतानि सम्प्रहृष्टानि सर्वशः । समापेतुर्महाराज वेनश्च त्रिदिवं गतः ॥ २४ ॥
महाराज ! उनके उत्पन्न होनेपर सब प्राणी प्रसन्न होकर उनके पास दौड़ आये और वेन स्वर्गको चला गया ॥ २४ ॥
समुत्पन्नेन कौरव्य सत्पुत्रेण महात्मना । त्रातः स पुरुषव्याघ्र पुन्नाम्नो नरकात्तदा ॥ २५ ॥
पुरुषव्याघ्र कौरव ! उस महात्मा सत्पुत्रके उत्पन्न होनेपर उस बेनकी '' नामक नरकसे रक्षा हो गयी ॥ २५ ॥
तं समुद्राश्च नद्यश्च रत्नान्यादाय सर्वशः । तोयानि चाभिषेकार्थं सर्व एवोपतस्थिरे ॥ २६ ॥
उन पृथुका अभिषेक करनेके लिये सब समुद्र और नदियाँ चारों ओरसे जल और रत्र लेकर वहाँ उपस्थित हुई ॥ २६ ॥
पितामहश्च भगवान्देवैराङ्गिरसैः सह । स्थावराणि च भूतानि जङ्गमानि तथैव च ॥ २७ ॥ समागम्य तदा वैन्यमभ्यषिञ्चन्नराधिपम् । महता राजराज्येन प्रजापालं महाद्युतिम् ॥ २८ ॥
भगवान् पितामह भी अङ्गिराके पुत्र, पौत्रों तथा सभी देवताओंके साथ वहाँ आये और स्थावर-जङ्गम प्राणियोंने भी वहाँ आकर महाकान्तिमान् वेनके प्रजापालक पुत्र पृथुका बड़े भारी राजाधिराजपदपर अभिषेक कर दिया ॥ २७-२८ ॥
सोऽभिषिक्तो महातेजा विधिवद्धर्मकोविदैः । आदिराज्ये तदा राज्ञां पृथुर्वैन्यः प्रतापवान् ॥ २९ ॥ पित्रापरञ्जितास्तस्य प्रजास्तेनानुरञ्जिताः । अनुरागात् ततस्तस्य नाम राजेत्यजायत ॥ ३० ॥
जब धर्मके जाननेवालोंने महातेजस्वी और प्रतापी वेनके पुत्र पृथुका राजाओंके आदिराज्य (साम्राज्य)-पदपर विधिवत् अभिषेक कर दिया, तब उन्होंने पिताद्वारा पीड़ित की हुई प्रजाको अपनी सेवाओंसे खुब प्रसन्न किया । इस प्रकार प्रजासे अनुराग करनेके कारण उनका नाम राजा पड़ गया ॥ २९-३० ॥
आपस्तस्तम्भिरे चास्य समुद्रमभियास्यतः । पर्वताश्च ददुर्मार्गं ध्वजभङ्गश्च नाभवत् ॥ ३१ ॥
जब ये समुद्रपर चलते थे, तब जल स्तम्भित हो जाता था (अर्थात् समुद्रका जल स्थलकी तरह कड़ा हो जाता था) और जब ये आकाशमें चलते थे, तब पर्वत इनके लिये मार्ग छोड़ देते थे । इस कारण इनके रथकी ध्वजा वृक्ष आदिसे कभी नहीं टूटती थी ॥ ३१ ॥
अकृष्टपच्या पृथिवी सिध्यन्त्यन्नानि चिन्तया । सर्वकामदुघा गावः पुटके पुटके मधु ॥ ३२ ॥
(उनके शासनकालमें) पृथ्वी बिना जोते हुए ही अन्न देती थी । चिन्तनमात्रसे ही अन्न (भोज्य पदार्थ) तैयार हो जाते थे, गौएँ कामधेनुके समान सब कामनाओंको पूर्ण करती थीं और वृक्षोंके पत्ते-पत्तेमें मधुर रस भरा रहता था ॥ ३२ ॥
एतस्मिन्नेव काले तु यज्ञे पैतामहे शुभे । सूतः सूत्यां समुत्पन्नः सौत्येऽहनि महामतिः ॥ ३३ ॥
इन्हींके (राज्यत्व) कालमें पितामहके शुभ यज्ञमें सोमको निकालनेके दिन सोमका अभिषव करते समय अर्थात् रस निकालनेके लिये सोमलताको कूटते समय महाबुद्धिमान् सूतकी उत्पत्ति हुई थी ॥ ३३ ॥
तस्मिन्नेव महायज्ञे जज्ञे प्राज्ञोऽथ मागधः । पृथोः स्तवार्थं तौ तत्र समाहूतौ सुरर्षिभिः ॥ ३४ ॥
तदनन्तर उसी महायज्ञमें बुद्धिमान् मागध प्रकट हुआ । देवता और ऋषियोंने पृथुको स्तुति करनेके लिये उन दोनोंका वहाँ आवाहन किया था ॥ ३४ ॥
तावूचुर्ऋषयः सर्वे स्तूयतामेष पार्थिवः । कर्मैस्तदनुरूपं वां पात्रं चायं नराधिपः ॥ ३५ ॥
सब ऋषियोंने उन दोनोंसे कहा कि तुम दोनों इन पृथ्वीपतिकी स्तुति करो, यह कर्म तुम्हारे अनुरूप है और ये राजा भी स्तुतिके पात्र है ॥ ३५ ॥
तावूचतुस्तदा सर्वांस्तानृषीन् सूतमागधौ । आवां देवानृषींश्चैव प्रीणयावः स्वकर्मभिः ॥ ३६ ॥
उस समय सूत और मागधने उन सब ऋषियोंसे कहा- 'हम अपने कर्मोसे देवता और ऋषियोंको प्रसन्न करेंगे ॥ ३६ ॥
न चास्य विद्वो वै कर्म न तथा लक्षणं यशः । स्तोत्रं येनास्य कुर्याव राज्ञस्तेजस्विनो द्विजाः ॥ ३७ ॥
परंतु ब्राह्मणो ! इन तेजस्वी राजाके कर्म, लक्षण और यशको तो हम जानते ही नहीं, जिससे इनकी स्तुति करें ॥ ३७ ॥
ऋषिभिस्तौ नियुक्तौ च भविष्यैः स्तूयतामिति । यानि कर्माणि कृतवान् पृथुः पश्चान्महाबलः ॥ ३८ ॥
तब ऋषियों ने उन्हें यह कहकर स्तुति-कार्यमें नियुक्त किया कि 'तुम दोनों इनके भविष्यमें होनेवाले गुणोंका उल्लेख करते हुए स्तवन करो । ' उन्होंने वैसा ही किया । सूत और मागधने जो-जो कर्म बताये, उन्हींको महाबली पृथुने पीछेसे पूर्ण किया ॥ ३८ ॥
सत्यवाग् दानशीलोऽयं सत्यसन्धो नरेश्वरः । श्रीमाञ्जैत्रः क्षमाशीलो विक्रान्तो दुष्टशासनः ॥ ३९ ॥
(सूत और मागधने राजा पृथुकी स्तुति इस प्रकार आरम्भ की-) 'ये नरेश्वर सच्ची प्रतिज्ञा करनेवाले, सत्यवादी, दान देनेवाले, लक्ष्मीवान् और विजयी हैं । ये क्षमा करनेवाले, पराक्रमी तथा दुष्टोंका शासन करनेवाले हैं ॥ ३९ ॥
धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च दयावान्प्रियभाषणः । मान्यो मानयिता यज्वा ब्रह्मण्यः सत्यसंगरः ॥ ४० ॥
ये धर्मज्ञ, कृतज्ञ, दयावान् और प्रिय भाषण करनेवाले हैं । ये माननीय हैं और (दूसरोंका) मान करनेवाले हैं । यज्ञ करनेवाले, ब्राह्मण-भक्त तथा सत्यप्रतिज्ञ हैं ॥ ४० ॥
शमः शान्तश्च निरतो व्यवहारस्थितो नृपः । ततः प्रभृति लोकेषु स्तवेषु जनमेजय । आशीर्वादाः प्रयुज्यन्ते सूतमागधबन्दिभिः ॥ ४१ ॥
ये राजा शमसम्पन्न, शान्त, कार्यतत्पर तथा अपने व्यवहारमें संलग्न रहनेवाले हैं । ' जनमेजय ! उसी समयसे लोगोंमें स्तुतिके अवसरोंपर सूत, मागध और बन्दियोंके द्वारा आशीर्वाद दिलानेकी प्रथा प्रचलित | हुई ॥ ४१ ॥
तयोः स्तवैस्तैः सुप्रीतः पृथुः प्रादात्प्रजेश्वरः । अनूपदेशं सूताय मगधान्मागधाय च ॥ ४२ ॥
प्रजाओंके ईश्वर पृथुने उन दोनोंके इन स्तोत्रोंसे प्रसन्न होकर सूतको अनूप देश और मागधको मगध देश दे दिया ॥ ४२ ॥
तं दृष्ट्वा परमप्रीताः प्रजाः प्राहुर्महर्षयः । वृत्तीनामेष वो दाता भविष्यति जनेश्वरः ॥ ४३ ॥
उसे देखकर महर्षि परम प्रसन्न हुए और उन्होंने प्रजाओंसे कहा-'ये जनेश्वर (राजा) तुम्हें वृत्तिआजीविका देनेवाले होंगे' ॥ ४३ ॥
ततो वैन्यं महाराज प्रजाः समभिदुद्रुवुः । त्वं नो वृत्तिं विधत्स्वेति महर्षिवचनात् तदा ॥ ४४ ॥
महाराज ! महर्षियोंके ऐसा कहनेपर प्रजा वेनपुत्र राजा पृथुके पास दौड़दौड़कर आने और कहने लगी कि आप हमारी वृत्तिका प्रबन्ध कीजिये' ॥ ४४ ॥
सोऽभिद्रुतः प्रजाभिस्तु प्रजाहितचिकीर्षया । धनुर्गृह्य पृषत्कांश्च पृथिवीमाद्रवद् बली ॥ ४५ ॥
जब प्रजा उनके पास इस प्रकार दौड़कर आयी, तब वे महाबली नरेश प्रजाका हित करनेकी इच्छासे अपने धनुष और बाण लेकर पृथ्वीको लक्ष्य करके दौड़े ॥ ४५ ॥
ततो वैन्यभयत्रस्ता गौर्भूत्वा प्राद्रवन्मही । तां पृथुर्धनुरादाय द्रवन्तीमन्वधावत ॥ ४६ ॥
तब तो पृथ्वी वेन-कुमार पृथुके भयसे त्रस्त हो गौका रूप धारण कर भागने लगी । पृथु भी धनुष लेकर उस भागती हुई पृथ्वीके पीछे दौड़ने लगे ॥ ४६ ॥
सा लोकान् ब्रह्मलोकादीन् गत्वा वैन्यभयात् तदा । प्रददर्शाग्रतो वैन्यं प्रगृहीतशरासनम् ॥ ४७ ॥
पृथ्वी राजा पृथुके भयसे ब्रह्मलोक आदि लोकोंमें गयी; परंतु (उसने सर्वत्र ही) वेनपुत्र पृथुको हाथमें धनुष-बाण धारण किये अपने सामने खड़ा हुआ देखा ॥ ४७ ॥
ज्वलद्भिर्निशितैर्बाणैर्दीप्ततेजसमच्युतम् । महायोगं महात्मानं दुर्धर्षममरैरपि ॥ ४८ ॥ अलभन्ती तु सा त्राणं वैन्यमेवान्वपद्यत । कृताञ्जलिपुटा भूत्वा पूज्या लोकैस्त्रिभिः सदा ॥ ४९ ॥ उवाच वैन्यं नाधर्म्यं स्त्रीवधं कर्तुमर्हसि । कथं धारयिता चासि प्रजा राजन् विना मया ॥ ५० ॥
अपनी मर्यादासे कभी च्युत न होनेवाले पृथु प्रज्वलित तीखे बाणोंद्वारा और भी तेजसे उद्भासित हो रहे थे । वे महान् योगबलसे सम्पन्न महात्मा नरेश देवताओंके लिये भी दुर्धर्ष थे । जब पृथ्वीको कहीं भी शरण न मिली, तब वह पृथुकी ही शरणमें पहुँची और तीनों लोकोंकी सदासे पूजनीया पृथ्वी दोनों हाथ जोड़कर वेनपुत्र पृथुसे कहने लगी-'आपको स्त्रीवधरूप अधर्मका काम करना उचित नहीं है । राजन् ! (पहले आप यह तो सोचिये कि) मेरे बिना इन प्रजाओंको कहाँ स्थापित करेंगे ? ॥ ४८-५० ॥
मयि लोकाः स्थिता राजन् मयेदं धार्यते जगत् । मद्विनाशे विनश्येयुः प्रजाः पार्थिव विद्धि तत् ॥ ५१ ॥
राजन् ! ये सब लोक मुझपर ही स्थित हैं, मैं ही इस जगत्को धारण कर रही हूँ: (अतः) भूपाल ! आप इस बातको जान रखें कि मेरा विनाश होनेपर ये सब प्रजा भी नष्ट हो जायेंगी ॥ ५१ ॥
न त्वमर्हसि मां हन्तुं श्रेयश्चेत् त्वं चिकीर्षसि । प्रजानां पृथिवीपाल शृणु चेदं वचो मम ॥ ५२ ॥
पृथ्वीपाल ! यदि आप प्रजाका कल्याण करना चाहते हैं तो आपको मेरा वध करना उचित नहीं है । साथ ही आप मेरी इस बातको भी सुनिये ॥ ५२ ॥
उपायतः समारब्धाः सर्वे सिध्यन्त्युपक्रमाः । उपायं पश्य येन त्वं धारयेथाः प्रजा नृप ॥ ५३ ॥
प्रायः सब कार्य ठीक उपायसे आरम्भ किये जानेपर ही सिद्ध होते हैं; अत: राजन् ! उस उपायका विचार कीजिये, जिससे कि आप प्रजाका पालन कर सकें ॥ ५३ ॥
हत्वापि मां न शक्तस्त्वं प्रजा धारयितुं नृप । अनुभूता भविष्यामि यच्छ कोपं महाद्युते ॥ ५४ ॥
राजन् ! आप मेरा वध करके भी प्रजाका पालन एवं धारण न कर सकेंगे । अतः महाद्युते ! आप अपने क्रोधको शान्त करें, मैं आपकी आज्ञाका पालन करूँगी ॥ ५४ ॥
अवध्याश्च स्त्रियः प्राहुस्तिर्यग्योनिगतेष्वपि । सत्त्वेषु पृथिवीपाल न धर्मं त्यक्तुमर्हसि ॥ ५५ ॥
भूपाल ! तिर्यक्योनिके प्राणियोंमें भी स्त्रियोंको अवध्य कहा है, अतः आप धर्मका परित्याग न करें ॥ ५५ ॥
एवं बहुविधं वाक्यं श्रुत्वा राजा महामनाः । कोपं निगृह्य धर्मात्मा वसुधामिदमब्रवीत् ॥ ५६ ॥
ऐसे ही और बहुत-से (अनुनय-विनयके) वाक्योंको सुनकर धर्मात्मा और उदार मनवाले राजा पृथु अपने क्रोधको रोककर वसुधासे इस प्रकार बोले ॥ ५६ ॥
इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशपर्वणि पृथूपाख्याने पञ्चमोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीगहाभारत खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें पृथुका उपाख्यानविषयक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५ ॥
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