श्रीहरिवंशपुराण हरिवंश पर्व षष्ठोऽध्यायः
पृथूपाख्यानम् -
पृथुका उपाख्यान-पृथ्वीका पृथुकी पुत्री बनकर अनेक प्रकारके दूध देना तथा अनेक पात्रों एवं दुहनेवालोंका वर्णन
पृथुरुवाच एकस्यार्थाय यो हन्यादात्मनो वा परस्य वा । बहून् वै प्राणिनो लोके भवेत् तस्येह पातकम् ॥ १ ॥
पृथुने कहा-वसुधे ! जो पुरुष इस संसारमें अपने या पराये किसी भी एक व्यक्तिके लिये बहुत-से जीवोंका वध करता है, उसे ही यहाँ पाप लगता है ॥ १ ॥
सुखमेधन्ति बहवो यस्मिंस्तु निहतेऽशुभे । तस्मिन् नास्ति हते भद्रे पातकं चोपपातकम् ॥ २ ॥
भद्रे । जिस पापी व्यक्तिके मारे जानेसे बहुत-से प्राणियोंको सुख मिलता हो, उसको मारनेसे न तो पाप लगता है और न उपपातक ही ॥ २ ॥
एकस्मिन् यत्र निधनं प्रापिते दुष्टकारिणि । बहूनां भवति क्षेमं तत्र पुण्यप्रदो वधः ॥ ३ ॥
जहाँ दुष्टताका व्यवहार करनेवाले एक व्यक्तिका वध करनेसे बहुत-से मनुष्योंका कल्याण होता हो, वहाँ उसका वध करना पुण्यप्रद ही है ॥ ३ ॥
सोऽहं प्रजानिमित्तं त्वां हनिष्यामि वसुंधरे । यदि मे वचनां नाद्य करिष्यसि जगद्धितम् ॥ ४ ॥
अत: वसुंधरे ! यदि आज तू जगत्का हित करनेवाले मेरे वचनको नहीं मानती है तो मैं प्रजाके हितके लिये तेरा अवश्य वध कर डालूँगा ॥ ४ ॥
त्वां निहत्याद्य बाणेन मच्छासनपराङ् मुखीम् । आत्मानं प्रथयित्वाहं प्रजा धारयिता चिरम् ॥ ५ ॥
तू आज मेरे शासनसे पराइमुख हो रही है, अतः आज तुझे बाणसे मारकर अपने देहको ही फैलाकर मैं उसपर चिरकालतक प्रजाको धारण करूँगा ॥ ५ ॥
सा त्वं शासनमास्थाय मम धर्मभृतां वरे । सञ्जीवय प्रजाः सर्वाः समर्था ह्यसि धारणे ॥ ६ ॥
अतएव धर्मधारियोंमें श्रेष्ठ देवि ! तू मेरे शासनको मानकर सारी प्रजाको जीवित रख; क्योंकि तू प्रजाको धारण करने-जीवित रखनेमें समर्थ है ॥ ६ ॥
दुहितृत्वं च मे गच्छ तत एनमहं शरम् । नियच्छेयं त्वद्वधार्थमुद्यतं घोरदर्शनम् ॥ ७ ॥
साथ ही तू मेरी पुत्री बन जा, तब मैं तेरे वधके लिये उठाये हुए इस भयंकर दीखनेवाले बाणको रोक लूँगा ॥ ७ ॥
पृथिव्युवाच सर्वमेतदहं वीर विधास्यामि न संशयः । उपायतः समारब्धाः सर्वे सिद्ध्यन्त्युपक्रमाः ॥ ८ ॥
पृथिवीने कहा-वीर ! मैं निःसंदेह यह सब कुछ करूँगी, परंतु ठीक उपायसे आरम्भ करनेपर ही सब कार्य सिद्ध होते हैं ॥ ८ ॥
उपायं पश्य येन त्वं धारयेथाः प्रजा इमाः । वत्सं तु मम सम्पश्य क्षरेयं येन वत्सला ॥ ९ ॥
अत: आप उस उपायको देखिये या ढूंढ निकालिये, जिससे आप इन प्रजाओंको पुष्ट करके धारण कर सकें । (इसकी युक्ति मैं बताती हूँ । आप मेरे लिये एक बछड़ेकी खोज कीजिये, जिससे मैं (स्नेहसे) पेन्हाकर दूध + ॥ ९ ॥
समां च कुरु सर्वत्र मां त्वं धर्मभृतां वर । यथा विस्पन्दमानं मे क्षीरं सर्वत्र भावयेत् ॥ १० ॥
धर्मधारियोंमें श्रेष्ठ ! आप मुझे सर्वत्र सम (चौरस) कीजिये, जिससे कि मेरा झरता हुआ दूध सर्वत्र (व्याप्त) हो जाय ॥ १० ॥
वैशम्पायन उवाच तत उत्सारयामास शैलाञ्छतसहस्रशः । धनुष्कोट्या तदा वैन्यस्तेन शैला विवर्धिताः ॥ ११ ॥
वैशम्पायनजीने कहा-जनमेजय ! तब वेनपुत्र पृथुने धनुषके कोनेसे सैकड़ों और सहस्रों पर्वतोंको उठाकर (ईटॉकी दीवारके समान) खड़ा कर दिया, इससे पर्वत बड़े हो गये ॥ ११ ॥
इत्थं वैन्यस्तदा राजा महीं चक्रे समां ततः । मन्वन्तरेष्वतीतेषु विषमासीद् वसुन्धरा ॥ १२ ॥
इस प्रकार वेनपुत्र राजा पृथुने पृथ्वीको सम (चौरस) कर दिया । पिछले मन्वन्तरोंमें यह पृथ्वी ऊँची-नीची थी ॥ १२ ॥
स्वभावेनाभवन् ह्यस्याः समानि विषमाणि च । चाक्षुषस्यान्तरे पूर्वमासीदेवं तदा किल ॥ १३ ॥
पहले चाक्षुष मन्वन्तरमें इस पृथ्वीके प्रदेश स्वभावतः ऊँचे-नीचे थे ॥ १३ ॥
न हि पूर्वविसर्गे वै विषमे पृथिवीतले । प्रविभागः पुराणां च ग्रामाणां वा तदाभवत् ॥ १४ ॥
पहले सर्गमें पृथ्वीके विषम होनेके कारण नगर और ग्रामोंका विभाग नहीं हुआ था ॥ १४ ॥
न सस्यानि न गोरक्षा न कृषिर्न वणिक्पथः । नैव सत्यानृतं तत्र न लोभो न च मत्सरः ॥ १५ ॥
उस समय न किसी प्रकारका धान्य होता था, न गोरक्षा होती थी और न खेती होती थी तथा न सत्य एवं मिथ्यासे मिला हुआ (वाणिज्य) होता था, उस समय न लोभ था न मत्सर ॥ १५ ॥
वैवस्वतेऽन्तरे चास्मिन् साम्प्रतं समुपस्थिते । वैन्यात्प्रभृति राजेन्द्र सर्वस्यैतस्य सम्भवः ॥ १६ ॥
राजेन्द्र ! इस वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तरके आनेपर वेनपुत्र पृथुके समयसे ही इन सभी वस्तुओंकी उत्पत्ति हुई है ॥ १६ ॥
यत्र यत्र समं त्वस्या भूमेरासीदिहानघ । तत्र तत्र प्रजाः सर्वाः संवासं समरोचयन् ॥ १७ ॥
निष्पाप नरेश ! जहाँ-जहाँ यह भूमि सम हो गयी, वहाँ-वहाँ प्रजाने रहना पसंद किया ॥ १७ ॥
आहारः फलमूलानि प्रजानामभवत् तदा । कृच्छ्रेण महता युक्त इत्येवमनुशुश्रुम ॥ १८ ॥
हमने ऐसा सुना है कि (वेनपुत्र पृथुद्वारा भूमिका दोहन होनेसे) पहले प्रजाओंका आहार फल और मूल था तथा वह भी उन्हें बड़ी कठिनतासे मिलता था ॥ १८ ॥
सङ्कल्पयित्वा वत्सं तु मनुं स्वायम्भुवं प्रभुम् । स्वपाणौ पुरुषश्रेष्ठ दुदोह पृथिवीं ततः । सस्यजातानि सर्वाणि पृथुर्वैन्यः प्रतापवान् ॥ १९ ॥ तेनान्नेन प्रजास्तात वर्तन्तेऽद्यापि नित्यशः ।
पुरुषश्रेष्ठ ! वेन-पुत्र प्रतापी पृथुने प्रभु स्वायम्भुव मनुको बछड़ा बनाकर पृथ्वीसे सब प्रकारके धान्योंको अपने हाथमें ही दुहा । तात ! उस दिनसे सब प्रजा उसी अन्नसे आजतक बढ़ रही है ॥ १९.५ ॥
ऋषिभिः श्रूयते चापि पुनर्दुग्धा वसुंधरा ॥ २० ॥ वत्सः सोमोऽभवत्तेषां दोग्धा चाङ्गिरसः सुतः । बृहस्पतिर्महातेजाः पात्रं छन्दांसि भारत । क्षीरमासीदनुपमं तपो ब्रह्म च शाश्वतम् ॥ २१ ॥
भारत ! सुना है, फिर ऋषियोंने भी भूमिको दुहा था, उस समय सोम उनका बछड़ा हुआ, अङ्गिराके पुत्र महातेजस्वी बृहस्पति दुहनेवाले बने और छन्द (वेद) पात्र बने थे । तपोमय शाश्वत ब्रह्म अनुपम दुग्धके रूपमें प्रकट हुआ था ॥ २०-२१ ॥
पुनर्देवगणैः सर्वैः पुरन्दरपुरोगमैः । काञ्चनं पात्रमादाय दुग्धेयं श्रूयते मही ॥ २२ ॥
(यह भी) सुना जाता है कि फिर इन्द्र आदि सब देवताओंने भी सुवर्णका पात्र लेकर इस पृथ्वीको दुहा था ॥ २२ ॥
वत्सस्तु मघवानासीद् दोग्धा च सविता प्रभुः । क्षीरमूर्जस्करं चैव वर्तन्ते येन देवताः ॥ २३ ॥
(उस समय) इन्द्र बछड़ा और भगवान् सूर्य दुहनेवाले बने तथा पुष्टिकारक अमृतरूपी क्षीर प्रकट हुआ, जिससे देवता सदा जीवित रहते हैं ॥ २३ ॥
पितॄभिः श्रूयते चापि पुनर्दुग्धा वसुन्धरा । राजतं पात्रमादाय स्वधाममितविक्रमैः ॥ २४ ॥
सुना है कि फिर अतुल पराक्रमी पितरोंने भी पृथ्वीको दुहा था, उन्होंने चाँदीका पात्र लेकर स्वधा (-रूपी दूध)-का दोहन किया था ॥ २४ ॥
यमो वैवस्वरस्तेषामासीद् वत्सः प्रतापवान् । अन्तकश्चाभवद् दोग्धा कालो लोकप्रकालनः ॥ २५ ॥
प्रतापी विवस्वान्-पुत्र यम उनका बछड़ा बने और लोकोंका अन्त करनेवाला काल-अन्तक उनका दुहनेवाला बना था ॥ २५ ॥
नागैश्च श्रूयते दुग्ध्दा वत्सं कृत्वा तु तक्षकम् । अलाबुं पात्रमादाय विषं क्षीरं नरोत्तम ॥ २६ ॥
नरोत्तम ! (फिर यह भी) सुना जाता है कि नागोंने तक्षकको वत्स बनाकर अलाबु (तूम्बी)-के पात्रको लेकर विषरूपी दूध दुहा था ॥ २६ ॥
तेषामैरावतो दोग्धा धृतराष्ट्रः प्रतापवान् । नागानां भरतश्रेष्ठ सर्पाणां च महीपते ॥ २७ ॥
भरतश्रेष्ठ भूपाल ! उस समय दुहनेवाला नाग ऐरावत था और सोने प्रतापी धृतराष्ट्रको दुहनेवाला बनाया था ॥ २७ ॥
तेनैव वर्तयन्त्युग्रा महाकाया विषोल्बणाः । तदाहारास्तदाचारास्तद्वीर्यास्तदुपाश्रयाः ॥ २८ ॥
जिनमें स्पष्टरूपसे विष झलकता है, ऐसे ये विशाल शरीरवाले सर्प उस विषसे अपनी आजीविका चलाते हैं । ये इस विषको खाते हैं और इस विषका प्रयोग कर दूसरा आहार प्राप्त करते हैं तथा ये इस विषरूपी बलका सहारा लेकर इस संसारमें अपनी प्रतिष्ठा बनाये हुए हैं ॥ २८ ॥
असुरैः श्रूयते चापि पुनर्दुग्धा वसुन्धरा । आयसं पात्रमादाय मायां शत्रुनिबर्हिणीम् ॥ २९ ॥
सुना जाता है कि असुरोंने भी लोहेका पात्र लेकर शत्रुओंको नष्ट करनेवाली माया (रूपी दूध)-को इस पृथ्वीसे दुहा था ॥ २९ ॥
विरोचनस्तु प्राह्रादिर्वत्सस्तेषामभूत् तदा । ऋत्विग्द्विमूर्द्धा दैत्यानां मधुर्दोग्धा महाबलः ॥ ३० ॥
उस समय प्रसादका पुत्र विरोचन उनका बछड़ा बना था और दैत्योंका ऋत्विक् दो सिरोंवाला महाबली मधु उनका दुहनेवाला था ॥ ३० ॥
तयैते माययाद्यापि सर्वे मायाविनोऽसुराः । वर्तयन्त्यमितप्रज्ञास्तदेषाममितं बलम् ॥ ३१ ॥
अमित बुद्धिवाले मायावी असुर आजकल भी उसी मायासे काम लेते हैं, यह माया ही उनका अपार बल है ॥ ३१ ॥
यक्षैश्च श्रूयते तात पुनर्दुग्धा वसुन्धरा । आमपात्रे महाराज पुरान्तर्द्धानमक्षयम् ॥ ३२ ॥
तात ! यह भी सुना जाता है कि इसके बाद उस प्राचीन कालमें यक्षोंने भी पृथ्वीको दुहा था । महाराज ! उन्होंने कच्चे पात्रमें अन्तर्धान (गुप्त) होनेकी अक्षय विद्याको दुहा था ॥ ३२ ॥
वत्सं वैश्रवणं कृत्वा यक्षैः पुण्यजनैस्तदा । दोग्धा रजतनाभस्तु पिता मणिवरस्य यः ॥ ३३ ॥
उस समय यक्ष और राक्षसोंने विश्रवाके पुत्र कुबेरको बछड़ा तथा मणिवरके पिता रजतनाभको दुहनेवाला बनाया था ॥ ३३ ॥
यक्षानुजो महातेजास्त्रिशीर्षाः सुमहातपाः । तेन ते वर्तयन्तीति परमर्षिरुवाच ह ॥ ३४ ॥
उन यक्षोंके छोटे भाई महातेजस्वी और महातपस्वी रजतनाभके तीन सिर हैं । इस अन्तर्धान-विद्यासे वे यक्ष जीविका चलाते हैं, इस प्रकार परमर्षि (व्यासदेव)-ने कहा था ॥ ३४ ॥
राक्षसैश्च पिशाचैश्च पुनर्दुग्धा वसुन्धरा । शावं कपालमादाय प्रजा भोक्तुं नरर्षभ ॥ ३५ ॥
नरश्रेष्ठ ! फिर राक्षसों और पिशाचोंने मुर्देकी खोपड़ी लेकर अपनी संतानको तृप्त करनेके लिये इस वसुन्धराको दुहा था ॥ ३५ ॥
दोग्धा रजतनाभस्तु तेषामासीत्कुरूद्वह । वत्सः सुमाली कौरव्यः क्षीरं रुधिरमेव च ॥ ३६ ॥
कुरुवंशधर ! उस समय रजतनाभ उनका दुहनेवाला था और सुमाली उनका बछड़ा था । कौरव्य ! उस समय उन्होंने रक्तरूपी दूध दुहा था ॥ ३६ ॥
तेन क्षीरेण यक्षाश्च राक्षसाश्चामरोपमाः । वर्तयन्ति पिशाचाश्च भूतसङ्घास्तथैव च ॥ ३७ ॥
देवताओंकी ही भाँति यक्ष, राक्षस, पिशाच और भूतोंकी भी मण्डलियाँ उस दूधसे अपनी-अपनी आजीविका चलाती हैं ॥ ३७ ॥
पद्मपात्रे पुनर्दुग्धा गन्धर्वैः साप्सरोगणैः । वत्सं चित्ररथं कृत्वा शुचीन् गन्धान् नरर्षभ ॥ ३८ ॥
नरर्षभ ! फिर अप्सराओं और गन्धर्वोने भी चित्ररथको बछड़ा बनाकर पद्मपत्रमें वसुधासे पवित्र गन्धोंको दुहा था ॥ ३८ ॥
तेषां च सुरुचिस्त्वासीद् दोग्धा भरतसत्तम । गन्धर्वराजोऽतिबलो महात्मा सूर्यसन्निभः ॥ ३९ ॥
भरतसत्तम ! उस समय सूर्यके तुल्य तेजस्वी और अत्यन्त बलवान् महात्मा गन्धर्वराज सुरुचि उनका दुहनेवाला था ॥ ३९ ॥
शैलैश्च श्रूयते राजन् पुनर्दुग्धा वसुन्धरा । औषधीर्वै मूर्तिमती रत्नानि विविधानि च ॥ ४० ॥
राजन् ! सुना जाता है कि पर्वतोंने भी पृथ्वीसे मूर्तिमती ओषधियों और नाना प्रकारके रत्नोंको दुहा था ॥ ४० ॥
वत्सस्तु हिमवानासीन्मेरुर्दोग्धा महागिरिः । पात्रं तु शैलमेवासीत् तेन शैला विवर्धिताः ॥ ४१ ॥
उस समय हिमाचल बछड़ा बना था, महागिरि मेरु दुहनेवाला था तथा पत्थरके पात्रकी दोहनी बनी थी । उस दूधसे पर्वतोंकी वृद्धि हुई ॥ ४१ ॥
वीरुद्भिः श्रूयते राजन् पुनर्दुग्धा वसुन्धरा । पालाशं पात्रमादाय दग्धच्छिन्नप्ररोहणम् ॥ ४२ ॥
राजन् ! सुना जाता है कि इसके बाद पलाशके पत्तेका पात्र (दोना) लेकर वृक्षोंने भी पृथ्वीका दोहन किया । जल जाने या कट जानेपर जो पुनः अंकुरित होनेकी शक्ति है, वही उन्हें दूधके रूपमें प्राप्त हुई थी ॥ ४२ ॥
दुदोह पुष्पितः सालो वत्सः प्लक्षोऽभवत्तदा । सेयं धात्री विधात्री च पावनी च वसुन्धरा ॥ ४३ ॥
उस समय खिले हुए साल-वृक्षने इस पृथ्वीको दुहा था और पाकड़का वृक्ष बछड़ा बना था । इस प्रकार यह पृथ्वी धात्री-विधात्री (माताके समान सबका धारणपोषण करनेवाली) तथा पवित्र है ॥ ४३ ॥
चराचरस्य सर्वस्य प्रतिष्ठा योनिरेव च । सर्वकामदुघा दोग्ध्री सर्वसस्यप्ररोहिणी ॥ ४४ ॥
यह पृथ्वी समस्त चराचर प्राणियोंका आश्रय-स्थान और उत्पत्तिस्थान है । यह समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाली कामधेनु है तथा यही सब प्रकारके सस्यों (अनके पौधों)-को अंकुरित करनेवाली है ॥ ४४ ॥
आसीदियं समुद्रान्ता मेदिनीति परिश्रुता । मधुकैटभयोः कृत्स्ना मेदसाभिपरिप्लुता । तेनेयं मेदिनी देवी प्रोच्यते ब्रह्मवादिभिः ॥ ४५ ॥
पहले यह समुद्रतककी सारी पृथ्वी मधु और कैटभके मेद (चरबी)से भर गयी थी, इसलिये 'मेदिनी' नामसे विख्यात हुई; अतएव यह देवी ब्रह्मवादियोंद्वारा मेदिनी कही जाती है ॥ ४५ ॥
ततोऽभ्युपगमाद् राज्ञः पृथोर्वैन्यस्य भारत । दुहितृत्वमनुप्राप्ता देवी पृथ्वीति चोच्यते । पृथुना प्रविभक्ता च शोधिता च वसुन्धरा ॥ ४६ ॥ सस्याकरवती स्फीता पुरपत्तनमालिनी । एवंप्रभावो वैन्यः स राजासीद्राजसत्तमः ॥ ४७ ॥
भरतवंशी राजन् ! फिर वेनपुत्र राजा पृथुके पुत्रीरूपमें अङ्गीकार करनेपर यह देवी उनकी पुत्री बन गयी, इससे यह पृथ्वी कहलाती है । इस पृथ्वीको पृथुने अनेक भागोंमें विभक्त एवं शुद्ध किया, इसको अन्न आदिकी खान बना दिया और समृद्धिशालिनी बनाकर इसे ग्रामों और नगरोंकी श्रेणियोंसे सुशोभित कर दिया । नृपश्रेष्ठ ! महाराज पृथु ऐसे प्रभावशाली थे ॥ ४६-४७ ॥
नमस्यश्चैव पूज्यश्च भूतग्रामैर्न संशयः । ब्राह्मणैश्च महाभागैर्वेदवेदाङ्गपारगैः ॥ ४८ ॥ पृथुरेव नमस्कार्यो ब्रह्मयोनिः सनातनः ।
अतएव सभी प्राणियोंको नि:संदेह उनकी पूजा तथा वन्दना करनी चाहिये । वेद-वेदाङ्गके पारगामी महात्मा ब्राह्मणोंको भी (अत्रिकुलमें उत्पन्न होनेके कारण) ब्रह्मयोनि एवं सनातन पुरुष (विष्णुरूप) पृथुके प्रति निश्चय ही नमस्कार करना चाहिये ॥ ४८.५ ॥
पार्थिवैश्च महाभागैः पार्थिवत्वमभीप्सुभिः ॥ ४९ ॥ आदिराजो नमस्कार्यः पृथुर्वैन्यः प्रतापवान् ।
पृथ्वीके स्वामित्वको चाहनेवाले महाभाग्यवान् राजाओंको भी आदि राजा वेनपुत्र प्रतापी पृथुको प्रणाम करना चाहिये । ४९.५ ॥
योधैरपि च विक्रान्तैः प्राप्तुकामैर्जयं युधि । पृथुरेव नमस्कार्यो योधानां प्रथमो नृपः ॥ ५० ॥
जो पराक्रमी राजा युद्धमें विजय चाहते हों उनको भी योद्धाओंमें अग्रणी राजा पृथुको अवश्य प्रणाम करना चाहिये ॥ ५० ॥
यो हि योद्धा रणं याति कीर्तयित्वा पृथुं नृपम् स घोररूपान् संग्रामान् क्षमी तरति कीर्तिमान् ॥ ५१ ॥
जो योद्धा राजा पृथुका कीर्तन करके युद्ध में जाता है, वह भयङ्कर संग्रामको कुशलपूर्वक तर जाता (उसमें विजय प्राप्त करता) और यशस्वी होता है ॥ ५१ ॥
वैश्यैरपि च वित्ताढ्यैः पण्यवृत्तिमनुष्ठितैः। पृथुरेव नमस्कार्यो वृत्तिदाता महायशाः ॥ ५२ ॥
वाणिज्य आदिसे आजीविका चलानेवाले धनवान् वैश्योंको भी चाहिये कि वे वृत्ति (आजीविका) प्रदान करनेवाले महायशस्वी पृथुको अवश्य प्रणाम करें ॥ ५२ ॥
तथैव शूद्रैः शुचिभिस्त्रिवर्णपरिचारिभिः । आदिराजो नमस्कार्यः श्रेयः परमभीप्सुभिः ॥ ५३ ॥
इसी प्रकार परम कल्याण चाहनेवाले एवं ब्राह्मण, अत्रिय, वैश्य-इन तीनों वर्गों की सेवामें परायण रहनेवाले पवित्र शूद्रोंको भी आदि राजा पृथुको प्रणाम करना चाहिये ॥ ५३ ॥
एते वत्सविशेषाश्च दोग्धारः क्षीरमेव च । पात्राणि च मयोक्तानि किं भूयो वर्णयामि ते ॥ ५४ ॥
मैंने तुमसे इन बछड़ोंका, पात्रोंका, दुहनेवालोंका और दुग्धोंका वर्णन कर दिया । अब मैं तुमसे और क्या कहूँ ॥ ५४ ॥
य इदं शृणुयान्नित्यं पृथोश्चरितमादितः । पुत्रपौत्रसमायुक्तो मोदते सुचिरं भुवि ॥ ५५ ॥
जो पुरुष (प्रत्येक कल्पमें होनेवाले अतएव) नित्य इस पृथु-चरित्रको आदिसे (अन्ततक) सुनता है, वह पुरुष पुत्र-पौत्रोंके साथ इस पृथ्वीपर चिरकालतक आनन्द करता है ॥ ५५ ॥
इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशपर्वणि पृथूपाख्याने षष्ठोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीमहाभारत खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें पृथके उपाख्यानको समातिविषयक छठा अध्याय पूरा हुआ ॥ ६ ॥
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