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श्रीहरिवंशपुराण
हरिवंश पर्व
अष्टमोऽध्यायः


मन्वन्तरगणनायाम् -
चारों युगों, मन्वन्तरों और ब्रह्माजीके दिन एवं वर्षका मान


जनमेजय उवाच
मन्वन्तरस्य सङ्ख्यानं युगानां च महामते ।
ब्रह्मणोऽह्नः प्रमाणं च वक्तुमर्हसि मे द्विज ॥ १ ॥
जनमेजयने कहा- परम बुद्धिमान् द्विजवर ! आप मुझसे मन्वन्तरोंके युगोंकी संख्याका वर्णन कीजिये तथा ब्रह्माजीके दिनका प्रमाण भी बताइये ॥ १ ॥

वैशम्पायन उवाच
अहोरात्रं भजेत् सूर्यो मानवं लौकिकं परम् ।
तामुपादाय गणनां शृणु संख्यामरिंदम ॥ २ ॥
वैशम्पायनजी बोले-शत्रुदमन ! सूर्य मनुष्यों के दिन और रात्रिका विभाग करते हैं । इस लौकिक गणनासे आरम्भ करके मनुसे भी परे द्विपराध नामक ब्राह्म-गणनातकका वर्णन सुनो ॥ २ ॥

निमेषैः पञ्चदशभिः काष्ठा त्रिंशत्तु ताः कलाः ।
त्रिंशत्कलो मुहूर्तस्तु त्रिंशता तैर्मनीषिणः ॥ ३ ॥
अहोरात्रमिति प्राहुश्चन्द्रसूर्यगतिं नृप ।
विशेषेण तु सर्वेषु अहोरात्रे च नित्यशः ॥ ४ ॥
राजन् ! पंद्रह निमेषोंकी एक काष्ठा होती है और तीस काष्ठाओंकी एक कला होती है । तीस कलाओंका एक मुहूर्त होता है और बुद्धिमान् पुरुष तीस मुहूर्ताको एक दिन-रात कहते हैं, जिसका निर्माण चन्द्रमा तथा सूर्यको गतिद्वारा होता है । विशेषकर सूर्य-चन्द्रमाके उदय-अस्तसे मेरुके परिवर्ती भू-प्रदेशमें रात-दिन होता है ॥ ३-४ ॥

अहोरात्राः पञ्चदश पक्ष इत्यभिशब्दितः ।
द्वौ पक्षौ तु स्मृतो मासो मासौ द्वावृतुरुच्यते ॥ ५ ॥
पंद्रह अहोरात्र (दिन-रात)-का नाम पक्ष है और दो पक्षों-पखवाड़ोंका एक महीना माना जाता है तथा दो महीनोंकी एक ऋतु कहलाती है ॥ ५ ॥

अब्दं द्व्ययनमुक्तं च अयनं त्वृतुभिस्त्रिभिः ।
दक्षिणं चोत्तरं चैव संख्यातत्त्वविशारदैः ॥ ६ ॥
तीन ऋतुओंका एक अयन होता है और दो अयनोंका एक वर्ष होता है । संख्याके तत्वको जाननेमें चतुर पुरुषोंने उन दोनों अयनोंका नाम दक्षिणायन और उत्तरायण बताया है ॥ ६ ॥

मानेनानेन यो मासः पक्षद्वयसमन्वितः ।
पितॄणां तदहोरात्रमिति कालविदो विदुः ॥ ७ ॥
इस मानसे जो दो पक्षोंका (एक) मास होता है, उसे समयको जाननेवाले (चतुर पुरुष) पितरोंका (एक) दिन-रात कहते हैं ॥ ७ ॥

कॄष्णपक्षस्त्वहस्तेषां शुक्लपक्षस्तु शर्वरी ।
कृष्णपक्षं त्वहः श्राद्धं पितॄणां वर्तते नृप ॥ ८ ॥
कृष्णपक्ष उन पितरोंका दिन होता है और शुक्लपक्ष उनकी रात्रि होती है, इसलिये राजन् ! कृष्णपक्षरूप दिनमें पितरोंका श्राद्ध होता है * ॥ ८ ॥

मानुषेण तु मानेन यो वै संवत्सरः स्मृतः ।
देवानां तदहोरात्रं दिवा चैवोत्तरायणम् ।
दक्षिणायनं स्मृता रात्रिः प्राज्ञैस्तत्त्वार्थकोविदैः ॥ ९ ॥
मनुष्योंके मानसे जो एक वर्ष कहा गया है, वह देवताओंका एक दिन-रात होता है । तत्त्वको जानने में चतुर बुद्धिमान् पुरुषोंने उत्तरायणको देवताओंका दिन और दक्षिणायनको देवताओंकी रात्रि बताया है । ॥ ९ ॥

दिव्यमब्दं दशगुणमहोरात्रं मनोः स्मृतम् ।
अहोरात्रं दशगुणं मानवः पक्ष उच्यते ॥ १० ॥
देवताओंके दस वर्षोंका मनुका एक दिन-रात कहा है और इस दिन-रातका दसगुना मनुका एक पक्ष कहलाता है ॥ १० ॥

पक्षो दशगुणो मासो मासैर्द्वादशभिर्गुणैः ।
ऋतुर्मनूनां संप्रोक्तः प्राज्ञैस्तत्वार्थदर्शिभिः
ऋतुत्रयेण त्वयनं तद्‌द्वयेनैव वत्सरः ॥ ११ ॥
दस पक्षोंका मनुका एक मास होता है, बारह महीनोंकी एक ऋतु होती है । तत्त्वार्थदर्शी बुद्धिमानोंने तीन ऋतुओंका एक अयन माना है और दो अयनोंका एक वर्ष कहा है ॥ ११ ॥

चत्वार्येव सहस्राणि वर्षाणां तु कृतं युगम् ।
तावच्छती भवेत् सन्ध्या सन्ध्यांशश्च तथा नृप ॥ १२ ॥
राजन् ! देवताओंके चार हजार वर्षों का एक सत्ययुग होता है, चार सौ वर्षोंकी उसकी संध्या होती है और इतना ही उसका संध्यांश होता है $ ॥ १२ ॥

त्रीणि वर्षसहस्राणि त्रेता स्यात् परिमाणतः ।
तस्याश्च त्रिशती सन्ध्या सन्ध्यांशश्च तथाविधः ॥ १३ ॥
तीन हजार वर्षों के परिमाणका त्रेतायुग होता है और तीन सौ वर्षोंकी उसकी संध्या होती है तथा इतना ही उसका संध्यांश होता है ॥ १३ ॥

तथा वर्षसहस्रे द्वे द्वापरं परिकीर्तितम् ।
तस्यापि द्विशती सन्ध्या सन्ध्यांशश्च तथाविधः ॥ १४ ॥
इसी प्रकार दो हजार वर्षोंका द्वापरयुग कहा गया है, दो सौ वर्षोंकी उसकी संध्या होती है और इतना ही उसका संध्यांश होता है ॥ १४ ॥

कलिवर्षसहस्रं च संख्यातोऽत्र मनीषिभिः ।
तस्यापि शतिका सन्ध्या सन्ध्यांशश्चैव तद्विधः ॥ १५ ॥
इसी गणनाके अनुसार बुद्धिमान् पुरुषोंने कलियुगको एक हजार वर्षांवाला बताया है । सौ वर्षोंकी उसकी संध्या होती है और इतना ही उसका संध्यांश होता है ॥ १५ ॥

एषा द्वादशसाहस्री युगसंख्या प्रकीर्तिता ।
दिव्येनानेन मानेन युगसंख्यां निबोध मे ॥ १६ ॥
यह बारह हजार वर्षोंकी एक चतुर्युगकी संख्या कही गयी । राजन् ! इस दिव्यमानसे तुम युगोंके वर्षोंकी गिनती समझ लो * ॥ १६ ॥

कृतं त्रेता द्वापरं च कलिश्चैव चतुर्युगी ।
युगं तदेकसप्तत्या गणितं नृपसत्तम ॥ १७ ॥
मन्वन्तरमिति प्रोक्तं संख्यानार्थविशारदैः ।
अयनं चापि तत्प्रोक्तं द्वेऽयने दक्षिणोत्तरे ॥ १८ ॥
सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग-इन चारोंको चतुर्युगी कहते हैं । नृपश्रेष्ठ ! संख्या करनेमें चतुर पुरुषोंने इकहत्तर चौकड़ी यगों (-से कुछ अधिक काल)-का नाम मन्वन्तर कहा है (क्योंकि हजारका चौदहवाँ भाग इतना ही होता है) । इसके भी दक्षिणायन और उत्तरायण-ये दो अयन कहे गये हैं । ॥ १७-१८ ॥

मनुः प्रलीयते यत्र समाप्ते चायने प्रभोः ।
ततोऽपरो मनुः कालमेतावन्तं भवत्युत ॥ १९ ॥
उत्तरायणके पूर्ण होनेपर मनु ब्रह्ममें लीन हो जाते हैं । फिर इतने ही समयतक दूसरे मनु रहते हैं ॥ १९ ॥

समतीतेषु राजेन्द्र प्रोक्तः संवत्सरः स वै ।
तदेव चायुतं प्रोक्तं मुनिना तत्त्वदर्शिना ॥ २० ॥
राजेन्द्र ! तत्त्वदर्शी मुनिने दस हजार (अस्सी) मनुओंका ब्रह्माजीका एक वर्ष कहा है । ॥ २० ॥

ब्रह्मणस्तदहः प्रोक्तं कल्पश्चेति स कथ्यते ।
सहस्रयुगपर्यन्ता या निशा प्रोच्यते बुधैः ॥ २१ ॥
निमज्जत्यप्सु यत्रोर्वी सशैलवनकानना ।
तस्मिन् युगसहस्रे तु पूर्णे भरतसत्तम ॥ २२ ॥
ब्राह्मे दिवसपर्यन्ते कल्पो निःशेष उच्यते ।
युगानि सप्ततिस्तानि साग्राणि कथितानि ते ॥ २३ ॥
कृतत्रेतानिबद्धानि मनोरन्तरमुच्यते ।
चतुर्दशैते मनवः कीर्तिताः कीर्तिवर्धनाः ॥ २४ ॥
वेदेषु सपुराणेषु सर्वेषु प्रभविष्णवः ।
प्रजानां पतयो राजन् धन्यमेषां प्रकीर्तनम् ॥ २५ ॥
भरतसत्तम ! ब्रह्माजीका जो दिन कहा है, उसीका नाम कल्प है और विद्वान् पुरुषोंने हजार युगोंको ब्रह्माजीकी जो रात्रि कही है, उसमें वन और पर्वतोंसहित पृथ्वी जलमें डूब जाती है और उन हजार चतुर्युगियोंके पूर्ण होनेपर जो ब्रह्माजीका दिन आरम्भ होता है, उसकी समाप्तितकका समय एक कल्प कहलाता है । राजन् ! सत्ययुग, त्रेतायुगादिसहित इकहत्तर चतुर्युगीसे कुछ अधिक कालका एक मन्वन्तर कहलाता है । यह कीर्ति बढ़ानेवाले चौदह मनुओंका वर्णन कर दिया । सभी पुराणों और वेदोंमें इन प्रभावशाली प्रजापति मनुओंका वर्णन आता है । राजन् ! इनका कीर्तन करनेसे धनकी प्राप्ति होती है ॥ २१-२५ ॥

मन्वन्तरेषु संहाराः संहारान्तेषु संभवाः ।
न शक्यमन्तरं तेषां वक्तुं वर्षशतैरपि ॥ २६ ॥
मन्वन्तरोंमें कितने ही संहार होते हैं और संहारके बाद कितनी ही सृष्टियाँ होती रहती हैं । इनके अन्तरको सैकड़ों वर्षों में भी नहीं बताया जा सकता ॥ २६ ॥

विसर्गस्य प्रजानां वै संहारस्य च भारत ।
मन्वन्तरेषु संहाराः श्रूयन्ते भरतर्षभ ॥ २७ ॥
भारत ! भरतश्रेष्ठ ! प्रायः सभी मन्वन्तरोंमें यदा-कदा प्रजाकी सृष्टि और संहारकी परम्पराका उपसंहार हो जाता है-यह बात सुननेमें आती है ॥ २७ ॥

सशेषास्तत्र तिष्ठन्ति देवाः सप्तर्षिभिः सह ।
तपसा ब्रह्मचर्येण श्रुतेन च समाहिताः ॥ २८ ॥
मन्वन्तरोंके बाद जो संहार होता है, उसमें तपस्या, ब्रह्मचर्य और शास्त्र-ज्ञानसे सम्पन्न कुछ देवता और सप्तर्षि शेष रह जाते हैं ॥ २८ ॥

पूर्णे युगसहस्रे तु कल्पो निःशेष उच्यते ।
तत्र सर्वाणि भूतानि दग्धान्यादित्यतेजसा ॥ २९ ॥
सहस्र चतुर्युगियोंके पूर्ण होनेपर कल्प पूरा हो जाता है । उस समय सब भूत द्वादश आदित्योंकी किरणोंसे भस्म हो जाते हैं ॥ २९ ॥

ब्रह्माणमग्रतः कृत्वा सहादित्यगणैर्विभुम् ।
योगं योगीश्वरं देवमजं क्षेत्रज्ञमच्युतम् ।
प्रविशन्ति सुरश्रेष्ठं हरिं नारायणं प्रभुम् ॥ ३० ॥
और वे (द्वादश सूर्य) भी (जिसका इंधन जल गया है, ऐसे अग्निकी भांति अपनी आत्माका उपसंहार करके) देवताओंसहित ब्रह्माजीको आगे करके योगीश्वर योगस्वरूप, देव, अज, क्षेत्रज्ञ, अच्युत, सुरश्रेष्ठ, सर्वव्यापी, प्रभु श्रीहरि नारायणमें प्रवेश कर जाते हैं ॥ ३० ॥

यः स्रष्टा सर्वभूतानां कल्पान्तेषु पुनः पुनः ।
अव्यक्तः शाश्वतो देवस्तस्य सर्वमिदं जगत् ॥ ३१ ॥
जो प्रत्येक कल्पका अन्त होनेपर (दूसरे कल्पका आरम्भ होनेके समय) बारम्बार सब भूतोंको रचते हैं, जो अप्रकट, शाश्वत देव हैं, उन्हींका यह सम्पूर्ण जगत् है ॥ ३१ ॥

तत्र संवर्तते रात्रिः सकलैकार्णवे तदा ।
नारायणो दधे निद्रां ब्राह्म्यं वर्षसहस्रकम् ॥ ३२ ॥
(यह प्रलय सुषुप्तिके समय होता है, अतएव) जब सम्पूर्ण विश्व एकार्णवके जलमें निमग्न हो जाता है, तब रात्रि होती है और ब्रह्माजीके हजार वर्षों तक नारायण निद्रा लेते हैं ॥ ३२ ॥

तावन्तमिति कालस्य रात्रिरित्यभिशब्दिता ।
निद्रायोगमनुप्राप्तो यस्यां शेते पितामहः ॥ ३३ ॥
जितने समयतक ब्रह्माजी योगनिद्राका आश्रय लेकर शयन करते हैं, उतना समय उनकी रात्रि कहलाती है ॥ ३३ ॥

सा च रात्रिरपक्रान्ता सहस्रयुगपर्यया ।
तदा प्रबुद्धो भगवान्ब्रह्मा लोकपितामहः ॥ ३४ ॥
पुनः सिसृक्षया युक्तः सर्गाय विदधे मनः ।
सैव स्मृतिः पुराणेयं तद्वृत्तं तद्विचेष्टितम् ॥ ३५ ॥
जब वह रात्रि सहल चतुर्युगी बीतनेपर समाप्त होती है, तब लोकोंके पितामह भगवान् ब्रह्माजी जागते हैं । फिर रचनेकी इच्छासे युक्त होकर मनमें सृष्टि करनेका विचार करते हैं । उस समय उनकी चेष्टा और स्मृति पहले कल्पकी तरह ही होती है ॥ ३४-३५ ॥

देवस्थानानि तान्येव केवलं च विपर्ययः ।
ततो दग्धानि भूतानि सर्वाण्यादित्यरश्मिभिः ॥ ३६ ॥
देवर्षियक्षगन्धर्वाः पिशाचोरगराक्षसाः ।
जायन्ते च पुनस्तात युगे भरतसत्तम ॥ ३७ ॥
तात ! उस समय (ब्रह्माण्डमें सूर्य आदि) देवताओंके (और पिण्डमें चक्षु आदिके) स्थान भी ये ही होते हैं । परंतु (जीवोंका) विपर्यय (उलट-फेर) होता रहता है । भरतसत्तम ! सूर्यको किरणोंसे भस्म होकर (भगवान् विष्णुमें लीन हुए) सब भूत तथा देवता, ऋषि, गन्धर्व, यक्ष, पिशाच, सर्प और राक्षस भी फिर उस युगमें उत्पन्न हो जाते हैं । ३६-३७ ॥

यथर्तावृतुलिङ्गानि नानारूपाणि पर्यये ।
दृश्यन्ते तानि तान्येव तथा ब्राह्मीषु रात्रिषु ॥ ३८ ॥
जैसे (ग्रीष्म-शीत आदि) ऋतुओंके चिह्न उन ऋतुओंके आनेपर प्रकट होने लगते हैं, इसी प्रकार ब्रह्माजीकी रात्रियोंके बीतनेपर (पूर्व कल्पके समान) अनेक रूपोंवाले प्राणी (फिर) दीखने लगते हैं ॥ ३८ ॥

निष्क्रमित्वा प्रजाकारः प्रजापतिरसंशयम् ।
ये च वै मानवा देवाः सर्वे चैव महर्षयः ॥ ३९ ॥
ते सङ्गताः शुद्धसङ्गाः शश्वद्धर्मविसर्गतः ।
न भवन्ति पुनस्तात युगे भरतसत्तम ॥ ४० ॥
तात ! प्रजाओंको रचनेवाले प्रजापति (उस समय नारायणमेंसे) निकलकर (फिर भूतोंको रचने लगते हैं । ) जो-जो मनुष्य, देवता और महर्षिगण शाश्वतधर्म अर्थात् देहादिमें आत्मबुद्धिरूप स्वाभाविक दोषोंको त्यागकर शुद्ध ब्रह्ममें पहुंचकर उसमें लीन हो जाते हैं, भरतसत्तम ! वे फिर (दूसरे) कल्पमें उत्पन्न नहीं होते ॥ ३९-४० ॥

तत्सर्वं क्रमयोगेन कालसंख्याविभागवित् ।
सहस्रयुगसंख्यानं कृत्वा दिवसमीश्वरः ॥ ४१ ॥
रात्रिं युगसहस्रान्तां कृत्वा च भगवान् विभुः ।
संहरत्यथ भूतानि सृजते च पुनः पुनः ॥ ४२ ॥
कालकी संख्याका विभाग करनेमें चतुर वे सर्वसमर्थ भगवान् परमात्मा क्रमानुसार सहस युगोंकी संख्यावाले दिन और (इसी प्रकार) सहस चतुर्युगियोंकी रात्रिको बनाकर प्राणियोंकी बारम्बार रचना और संहार करते रहते हैं ॥ ४१-४२ ॥

व्यक्ताव्यक्तो महादेवो हरिर्नारायणः प्रभुः ।
तस्य ते कीर्तयिष्यामि मनोर्वैवस्वतस्य ह ॥ ४३ ॥
विसर्गं भरतश्रेष्ठ सांप्रतस्य महाद्युते।
वृष्णिवंशप्रसङ्गेन कथ्यमानं पुरातनम् ॥ ४४ ॥
यत्रोत्पन्नो महात्मा स हरिर्वृष्णिकुले प्रभुः ।
सर्वासुरविनाशाय सर्वलोकहिताय च ॥ ४५ ॥
महादेव श्रीहरिनारायण प्रभु ही स्थूल-सूक्ष्म-रूप (-से सर्वत्र विराजमान) हैं । महाद्युते । वर्तमान वैवस्वत मनु भी उनके ही अंश हैं । वृष्णिवंशके प्रसङ्गसे मैं उनकी पुरातन सृष्टिका वर्णन करूँगा । भरत श्रेष्ठ ! वे परमात्मा और प्रभु श्रीहरि सारे असुरोंका विनाश तथा सम्पूर्ण लोकोंका कल्याण करनेके लिये इसी वृष्णिवंशमें उत्पन्न हुए थे ॥ ४३-४५ ॥

इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशपर्वणि
मन्वन्तरगणनायामष्टमोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीमहाभारत खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें मन्वन्तरगणनाविषयक आठवां अध्याय पूरा हुआ ॥ ८ ॥




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