श्रीहरिवंशपुराण हरिवंश पर्व नवमोऽध्यायः
वैवस्वतोत्पत्तिः -
वैवस्वत मनु, यम, यमी (यमुना), अश्विनीकुमारों एवं शनैश्चरकी उत्पत्ति
वैशम्पायन उवाच विवस्वान् कश्यपाज्जज्ञे दाक्षायण्यामरिन्दम । तस्य भार्याभवत् संज्ञा त्वाष्ट्री देवी विवस्वतः ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-शत्रुदमन ! कश्यपजीसे दक्षकी पुत्रीमें विवस्वान् उत्पन्न हुए और त्वष्टाकी पुत्री संज्ञादेवी उन विवस्वान् (सूर्य)-की भार्या हुई ॥ १ ॥
सुरेणुरिति विख्याता त्रिषु लोकेषु भामिनी । सा वै भार्या भगवतो मार्तण्डस्य महात्मनः ॥ २ ॥
महात्मा मार्तण्डकी वह पवित्र अन्तःकरणवाली भार्या भगवती संज्ञा तीनों लोकोंमें सुरेणुके नामसे (भी) प्रसिद्ध है ॥ २ ॥
भर्तृरूपेण नातुष्यद् रूपयौवनशालिनी । संज्ञा नाम सुतपसा दीप्तेनेह समन्विता ॥ ३ ॥
वह रूपयौवनशालिनी संज्ञा अपने पति सूर्यदेवके मण्डलके तीव्र तप, तेज एवं दीप्तिके कारण प्रसन्न नहीं रहती थी ॥ ३ ॥
आदित्यस्य हि तद्रूपं मण्डलस्य सुतेजसा । गात्रेषु परिदग्धं वै नातिकान्तमिवाभवत् ॥ ४ ॥
उस संज्ञाका रूप सूर्यमण्डलके तेजसे अङ्गोंके संतप्त होनेके कारण (झुलस-सा गया । अतएव सूर्य उसको) बहुत अच्छे नहीं लगते थे ॥ ४ ॥
न खल्वयं मृतोऽण्डस्थ इति स्नेहादभाषत । अज्ञानात् कश्यपस्तस्मान्मार्तण्ड इति चोच्यते ॥ ५ ॥
(अदितिके) अज्ञानमें पड़नेपर कश्यपजीने स्नेहपूर्वक कहा था कि यह मरा नहीं है, किंतु अण्ड (गर्भ)-में स्थित है, इसलिये तबसे सूर्य 'मार्तण्ड' कहे जाते हैं* ॥ ५ ॥
तेजस्त्वभ्यधिकं तात नित्यमेव विवस्वतः । येनातितापयामास त्रीँल्लोकान्कश्यपात्मजः ॥ ६ ॥
तात ! (कश्यपके माहात्म्यके कारण जीवित हुए) विवस्वान्में सर्वदा अधिक तेज रहता है । उसी तेजसे कश्यपजीके पुत्र सूर्य तीनों लोकोंको तपाते रहते हैं ॥ ६ ॥
त्रीण्यपत्यानि कौरव्य संज्ञायां तपतां वरः । आदित्यो जनयामास कन्यां द्वौ च प्रजापती ॥ ७ ॥
कुरुवंशी राजन् ! तपानेवालोंमें श्रेष्ठ आदित्यने संज्ञाके गर्भसे दो प्रजापति और एक कन्या-इन तीन संतानोंको उत्पन्न किया ॥ ७ ॥
मनुर्वैवस्वतः पूर्वं श्राद्धदेवः प्रजापतिः । यमश्च यमुना चैव यमजौ सम्बभूवतुः ॥ ८ ॥
उनमें एक प्रजापति तो विवस्वान् (सूर्य)-के पुत्र वैवस्वत मनु थे और दूसरे प्रजापति श्राद्धदेव यम थे । इस तरह यम तथा यमुना नामक दो जुड़वीं संतान उत्पन्न हुई थी ॥ ८ ॥
सा विवर्णं तु तद्रूपं दृष्ट्वा संज्ञा विवस्वतः । असहन्ती च स्वां छायां सवर्णां निर्ममे ततः ॥ ९ ॥
तदनन्तर संज्ञाने सूर्यके कठिनतासे सहने योग्य तेजस्वी रूपको देखकर उनके तेजको न सह सकनेके कारण अपनी छायाको ही अपने समान नाम और रूपवाली बनाकर तैयार कर दिया * ॥ ९ ॥
मायामयी तु सा संज्ञा तस्याश्छाया समुत्थिता । प्राञ्जलिः प्रणता भूत्वा छाया संज्ञां नरेश्वर ॥ १० ॥ उवाच किं मया कार्यं कथयस्व शुचिस्मिते । स्थितास्मि तव निर्देशे शाधि मां वरवर्णिनि ॥ ११ ॥
वह मायामयी संज्ञा संज्ञाकी छायासे उत्पन्न हुई थी । नरेश्वर ! वह छाया संज्ञाको प्रणामकर हाथ जोड़कर बोली-'शुचिस्मिते ! बताओ, मुझे क्या करना चाहिये ? श्रेष्ठ अङ्गॉवाली ! मैं तुम्हारी आज्ञाका पालन करूँगी, तुम मुझे आज्ञा दो' ॥ १०-११ ॥
संज्ञोवाच अहं यास्यामि भद्रं ते स्वमेव भवनं पितुः । त्वयेह भवने मह्यं वस्तव्यं निर्विकारया ॥ १२ ॥ इमौ च बालकौ मह्यं कन्या चेयं सुमध्यमा । सम्भाव्यास्ते न चाख्येयमिदं भगवते क्वचित् ॥ १३ ॥
संज्ञाने कहा-तुम्हारा कल्याण हो ! मैं अब अपने पिताके घर जा रही हूँ, तुम मेरे इस घरमें शान्त होकर रहो । ये मेरे दोनों पुत्र हैं और यह एक सुमध्यमा (सुन्दर कटिचाली) कन्या है । इनका तू ध्यान रखना और इस रहस्यको भगवान् सूर्यसे कभी न बतलाना ॥ १२-१३ ॥
छायोवाच आ कचग्रहणाद् देवि आ शापान्नैव कर्हिचित् । आख्यास्यामि मतं तुभ्यं गच देवि यथासुखम् ॥ १४ ॥
छायाने कहा-देवि ! मेरे बाल पकड़े जाने तथा शाप देनेकी नौबत आनेके पूर्व मैं यह बात किसी प्रकार भी न कहूँगी । आप सुखपूर्वक (अपने पिताके यहाँ) जायें ॥ १४ ॥
वैशम्पायन उवाच समादिश्य सवर्णां तां तथेत्युक्ता च सा तया । त्वष्टुः समीपमगमद् व्रीडितेव तपस्विनी ॥ १५ ॥ पितुः समीपगा सा तु पित्रा निर्भर्त्सिता तदा । भर्तुः समीपं गच्छेति नियुक्ता च पुनः पुनः ॥ १६ ॥ अगच्छद् वडवा भूत्वाऽऽच्छाद्य रूपमनिन्दिता । कुरूनथोत्तरान् गत्वा तृणान्येव चचार ह ॥ १७ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-अपने समान नामरूपवाली छायाको आज्ञा देकर और उससे 'तथास्तु' कहे जानेपर वह तपस्विनी लज्जित-सी होती हुई अपने पिता त्वष्टाके यहाँ चली गयी । पिताके पास पहुँचनेपर उसके पिताने उसे बड़े जोरोंसे डाँटा तथा उससे बारबार पतिके पास ही जानेके लिये कहा । तब निन्दित कर्मोसे सदा दूर रहनेवाली वह संज्ञा अपने रूपको बदलकर घोड़ीका रूप धारण करके उत्तरकुरुके देशोंमें जाकर घास चरने लगी ॥ १५-१७ ॥
द्वितीयायां तु संज्ञायां संज्ञेयमिति चिन्तयन् । आदित्यो जनयामास पुत्रमात्मसमं तदा ॥ १८ ॥
उस दूसरी संज्ञाको भी संज्ञा ही समझते हुए सूर्य देवताने उसके गर्भसे अपने ही समान पुत्र उत्पन्न किया ॥ १८ ॥
पूर्वजस्य मनोस्तात सदृशोऽयमिति प्रभुः । सवर्णत्वान्मनोर्भूयः सावर्ण इति चोक्तवान् ॥ १९ ॥
तात ! ये अपने बड़े भाई मनुके समान वर्ण तथा शक्तिवाले थे, अतएव सावर्ण कहलाये ॥ १९ ॥
मनुरेवाभवन्नाम्ना सावर्ण इति चोच्यते । द्वितीयो यः सुतस्तस्याः स विज्ञेयः शनैश्चरः ॥ २० ॥
वे ही मनु हुए, जिनका नाम सावर्ण मनु हैं । उस (छाया)-से जो दूसरा पुत्र उत्पन्न हुआ, उनको तुम शनैश्चर समझो ॥ २० ॥
संज्ञा तु पार्थिवी तात स्वस्य पुत्रस्य वै तदा । चकाराभ्यधिकं स्नेहं न तथा पूर्वजेषु वै ॥ २१ ॥ मनुस्तस्याक्षमत्तत्तु यमस्तस्या न चक्षमे । तां स रोषाच्च बाल्याच्च भाविनोऽर्थस्य वै बलात् । यदा संतर्ज्जयामास संज्ञां वैवस्वतो यमः ॥ २२ ॥
वह पार्थिवी * संज्ञा अपने पुत्रसे तो अधिक स्नेह करती थी, परंतु वैसा स्रेह उनसे पहलेकी संतानोंसे नहीं करती थी । मनुने तो इस बातको सह लिया, परंतु यम इसे न सह सके । वे वैवस्वत यम बालस्वभाव एवं रोषके कारण तथा होनहार (भावी)-के वशीभूत हो संज्ञाको पैर दिखाकर डॉटने लगे ॥ २१-२२ ॥
तं शशाप ततः क्रोधात्सावर्णं जननी नृप । चरणः पततामेष तवेति भृशदुःखिता ॥ २३ ॥
राजन् ! इसपर सावर्णकी माताने अति दुःखित हो कोपमें भरकर उन्हें शाप दिया कि 'तुम्हारा यह चरण गिर जाय' ॥ २३ ॥
यमस्तु तत्पितुः सर्वं प्राञ्जलिः पर्यवेदयत् । भृशं शापभयोद्विग्नः संज्ञावाक्यप्रतोदितः ॥ २४ ॥
छाया-संज्ञाके उस वाक्यसे पीड़ित और शापके भयसे अत्यन्त व्याकुल होकर यमने हाथ जोड़कर पितासे वह सब बात कह दी ॥ २४ ॥
शापोऽयं विनिवर्तेत प्रोवाच पितरं तदा । मात्रा स्नेहेन सर्वेषु वर्तितव्यं सुतेषु वै ॥ २५ ॥
वे पितासे बोले-'मुझे यह शाप न लगे । (देखिये) माताको तो सब पुत्रोंके प्रति समानरूपसे स्नेहपूर्वक व्यवहार करना चाहिये ॥ २५ ॥
सेयमस्मानपाहाय यवीयांसं बुभूषति । तस्यां मयोद्यतः पादौ न तु देहे निपातितः ॥ २६ ॥ बाल्याद्वा यदि वा मोहात्तद्भवान् क्षन्तुमर्हति । यस्मात्ते पूजनीयाहं लङ्घितास्मि त्वया सुत ॥ २७ ॥ तस्मात् तवैष चरणः पतिष्यति न संशयः । अपत्यं दुरपत्यं स्यान्नाम्बा कुजननी भवेत् ॥ २८ ॥
पर यह हम सबको छोड़कर सबसे छोटेसे ही स्नेहका व्यवहार करती है । सो मैंने उसके ऊपर पैर उठाया ही था, शरीरपर मारा नहीं था । मैंने यह काम लड़कपनसे किया हो अथवा मोहवश, परंतु आप मुझे क्षमा कर दें' । (संज्ञाने कहा-) 'बेटा ! मैं तुम्हारी पूजनीया हूँ तो भी तुमने मेरा तिरस्कार किया है, अत: तुम्हारा यह पैर निःसंदेह गिर जायगा । ' संतान तो कुसंतान हो सकती है, परंतु माता कुमाता नहीं हो सकती ॥ २६-२८ ॥
शप्तोऽहमस्मि लोकेश जनन्या तपतां वर । तव प्रसादाच्चरणो न पतेन्मम गोपते ॥ २९ ॥
'लोकेश्वर ! माताने मुझे शाप दे दिया है, परंतु तपनेवालोंमें श्रेष्ठ गोपते ! आपकी कृपासे मेरा पैर न गिरे (ऐसी कृपा कीजिये)' ॥ २९ ॥
विवस्वानुवाच असंशयं पुत्र महद्भविष्यत्यत्र कारणम् । येन त्वामाविशत् क्रोधो धर्मज्ञं सत्यवादिनम् ॥ ३० ॥
सूर्यने कहा-पुत्र ! तुम धर्मज्ञ और सत्यवादी हो, तुमको जो क्रोध चढ़ आया इसमें नि:संदेह कोई बड़ा भारी कारण होगा ॥ ३० ॥
न शक्यमन्यथा कर्तुं मया मातुर्वचस्तव । कृमयो मांसमादाय यास्यन्ति धरणीतलम् ॥ ३१ ॥ तव पादान्महाप्राज्ञ ततस्त्वं प्राप्स्यसे सुखम् । कृतमेवं वचस्तथ्यं मातुस्तव भविष्यति ॥ ३२ ॥ शापस्य परिहारेण त्वं च त्रातो भविष्यसि । आदित्योऽथाब्रवीत् संज्ञां किमर्थं तनयेषु वै ॥ ३३ ॥ तुल्येष्वभ्यधिकः स्नेहः क्रियतेऽति पुनः पुनः । सा तत् परिहरन्ती तु नाचचक्षे विवस्वते ॥ ३४ ॥
मैं तुम्हारी माताके वचनको (सर्वथा तो) लौटा नहीं सकता । (पर) महाप्राज्ञ ! कीड़े तुम्हारे चरणमेंसे मांस लेकर पृथ्वीतलपर चले जायेंगे, तब तुम्हें सुख मिलेगा । इस प्रकार तुम्हारी माताका कहा हुआ वचन (भी) सत्य हो जायगा और शापका परिहार होनेसे तुम्हारी भी रक्षा हो जायगी । फिर सूर्यने संज्ञासे कहा-'सभी पुत्र बराबर हैं तो भी तू (किसीसे कम और किसीसे) अधिक स्नेह क्यों करती है । ' सूर्यने यह बात बार-बार कही, परंतु वह हँसती ही रह गयी और उसने सूर्यसे कुछ भी न कहा ॥ ३१-३४ ॥
आत्मानं सुसमाधाय योगात्तथ्यमपश्यत । तां शप्तुकामो भगवान्नाशाय कुरुनन्दन ॥ ३५ ॥ मूर्धजेषु च जग्राह समयेऽतिगतेऽपि च । सा तत्सर्वं यथावृत्तमाचचक्षे विवस्वते ॥ ३६ ॥
कुरुनन्दन ! भगवान् सूर्यने अपने चित्तको एकाग्र करके योगके द्वारा सत्य बात जान ली और शापद्वारा उसका विनाश करनेके लिये उसके केश पकड़ लिये । तब अपनी शपथके उतर जानेपर छायाने सूर्यनारायणसे सारी बात ज्यों की-त्यों बतला दी ॥ ३५-३६ ॥
विवस्वानथ तच्छ्रुत्वा क्रुद्धस्त्वष्टारमभ्यगात् । त्वष्टा तु तं यथान्यायमर्चयित्वा विभावसुम् । निर्दग्धुकामं रोषेण सान्त्वयामास वै तदा ॥ ३७ ॥
सूर्यनारायण इस बातको सुनते ही क्रोधमें भरकर त्वष्टाके पास पहुंचे । त्वष्टाने विधिपूर्वक उनकी पूजा करके जब देखा कि ये तो रोषसे मुझे भस्म ही करना चाहते हैं, तब उन्होंने सूर्यनारायणको इस प्रकार शान्त करना-समझाना आरम्भ किया ॥ ३७ ॥
त्वष्टोवाच तवातितेजसाविष्टमिदं रूपं न शोभते । असहन्ती च तत् संज्ञा वने चरति शाड्वले ॥ ३८ ॥
त्वष्टाने कहा-आदित्य ! आपका यह अतितेजस्वी रूप अच्छा नहीं लगता । इसको न सह सकनेके कारण ही संज्ञा हरी घासवाले वनमें (हरी घासोंको) चर रही है ॥ ३८ ॥
द्रष्टा हि तां भवानद्य स्वां भार्यां शुभचारिणीम् । नित्यं तपस्यभिरतां वडवारूपधारिणीम् ॥ ३९ ॥ पर्णाहारां कृशां दीनां जटिलां ब्रह्मचारिणीम् । हस्तिहस्तपरिक्लिष्टां व्याकुलां पद्मिनीमिव । श्लाघ्यां योगबलोपेतां योगमास्थाय गोपते ॥ ४० ॥
किरणोंके स्वामी ! आज आप हाथीके सूंडसे खींचे जानेके कारण पगिनीके समान व्याकुल हुई, शुद्ध आचरणवाली और योगके बलसे सम्पन्न अतएव योगसे घोड़ीका रूप धारण करके सदा तप करती हुई, पत्तोंका आहार करनेवाली, दुबली, दीन, जटाधारिणी और ब्रह्मचारिणी अपनी उस प्रशंसनीया भार्याको देखेंगे ॥ ३९-४० ॥
अनुकूलं तु देवेश यदि स्यान्मम तन्मतम् । रूपं निर्वर्तयाम्यद्य तव कान्तमरिन्दम ॥ ४१ ॥
देवेश ! यदि आपको मेरी बात ठीक लगे तो शत्रुदमन ! मैं आज आपके रूपको मनोहर बना दूँ ॥ ४१ ॥
रूपं विवस्वतश्चासीत् तिर्यगूर्ध्वसमं तु वै । तेनासौ सम्भृतो देवरूपेण तु विभावसुः ॥ ४२ ॥
पहले सूर्यका रूप तिरछा, ऊँचा और सब ओरसे एक-सा था । उस रूपसे सम्पन्न होनेके कारण ही वे विभावसु कहे जाते हैं ॥ ४२ ॥
तस्मात् त्वष्टुः स वै वाक्यं बहु मेने प्रजापतिः । समनुज्ञातवांश्चैव त्वष्टारं रूपसिद्धये ॥ ४३ ॥
इसलिये उन प्रजापति सूर्यनारायणने त्वष्टाकी बातको बहुत अच्छा समझा और उन्होंने अपना रूप ठीक करनेके लिये त्वष्टाको अनुमति दे दी ॥ ४३ ॥
ततोऽभ्युपगमात् त्वष्टा मार्तण्डस्य विवस्वतः । भ्रमिमारोप्य तत् तेजः शातयामास भारत ॥ ४४ ॥
भारत ! तब त्वष्टाने मार्तण्ड (सूर्य) के समीप जाकर उनको सानपर चढ़ाकर उनके तेजको खरादना आरम्भ कर दिया ॥ ४४ ॥
ततो निर्भासितं रूपं तेजसा संहृतेन वै । कान्तात्कान्ततरं द्रष्टुमधिकं शुशुभे तदा ॥ ४५ ॥
इस प्रकार तेजके छिल जानेसे उनका रूप खिल उठा और उनका रूप रम्यातिरम्य होकर अधिक सुशोभित होने लगा ॥ ४५ ॥
मुखे निवर्तितं रूपं तस्य देवस्य गोपतेः । ततः प्रभृति देवस्य मुखमासीत्तु लोहितम् । मुखरागं तु यत्पूर्वं मार्तण्डस्य मुखच्युतम् ॥ ४६ ॥ आदित्या द्वादशैवेह सम्भूता मुखसंभवाः । धातार्यमा च मित्रश्च वरुणोंऽशो भगस्तथा ॥ ४७ ॥ इन्द्रो विवस्वान् पूषा च पर्जन्यो दशमस्तथा । ततस्त्वष्टा ततो विष्णुरजघन्यो जघन्यजः ॥ ४८ ॥
तबसे किरणोंके स्वामी भगवान् सूर्यके मुखका रूप बदल गया । उस समयसे उनका मुख रक्तवर्णका हो गया । उन मार्तण्डके मुखसे जो मुखराग छूटा था, उससे बारह आदित्य उत्पन्न हुए । उनके मुखसे धाता, अर्यमा, मित्र, वरुण, अंश, भग, इन्द्र, विवस्वान्, पूषा, दसवें पर्जन्य, त्वष्टा, बारहवें विष्णु उत्पन्न हुए, जो अन्तमें प्रकट होनेके कारण सबसे छोटे होकर भी गुणोंमें सर्वश्रेष्ठ थे ॥ ४६-४८ ॥
हर्षं लेभे ततो देवो दृष्ट्वाऽऽदित्यान् स्वदेहजान् । गन्धैः पुष्पैरलङ्कारैर्भास्वता मुकुटेन च ॥ ४९ ॥
गन्ध, पुष्प, अलंकार और प्रकाशमान मुकुटोंसे सुशोभित अपने शरीरसे उत्पन्न हुए उन आदित्योंको देखकर भगवान् सूर्य बड़े प्रसन्न हुए ॥ ४९ ॥
एवं सम्पूजयामास त्वष्टा वाक्यमुवाच ह । गच देव निजां भार्यां कुरूंश्चरति सोत्तरान् ॥ ५० ॥
इस प्रकार सूर्यनारायणका पूजन कर त्वष्टाने उनसे कहा-'देव ! अब आप अपनी पत्रीके पास जाइये । वह उत्तर कुरु (देशों)-में भ्रमण कर रही है और हरी घाससे भरे हुए वनमें घोड़ीका रूप धारण करके विचर रही है' ॥ ५० ॥
वडवारूपमास्थाय वने चरति शाद्वले । स तथा रूपमास्थाय स्वभार्यारूपलीलया ॥ ५१ ॥ ददर्श योगमास्थाय स्वां भार्यां वडवां ततः । अधृष्यां सर्वभूतानां तेजसा नियमेन च ॥ ५२ ॥ वडवावपुषा राजंश्चरन्तीमकुतोभयाम् । सोऽश्वरूपेण भगवांस्तां मुखे समभावयत् ॥ ५३ ॥ मैथुनाय विचेष्टन्ती परपुंसोपशङ्कया । सा तन्निरवमच्छुक्रं नासिकायां विवस्वतः ॥ ५४ ॥
तब सूर्यनारायणने भी अपनी पत्नीके रूपके अनुसार घोड़ेके समान विचरण करनेके लिये घोड़ेका ही रूप धारण कर लिया । उस समय सूर्यने ध्यानसे देखा तो उन्हें तेज और नियमके कारण सब भूतोंसे अधृष्य घोड़ीका रूप धारण करके किसी ओरसे भी भयकी आशंका न कर निर्भय हो विचरती हुई अपनी भार्या (संज्ञा) दीख पड़ी । राजन् ! फिर तो घोड़ेके रूपमें भगवान् सूर्य उसके मुखके समीप पहुँचे । पर वह पर-पुरुषकी आशंकासे मैथुनके प्रतिकूल चेष्टा करने लगी और सूर्यके वीर्यको उसने अपनी नाकपरसे गिरा दिया ॥ ५१-५४ ॥
देवौ तस्यामजायेतामश्विनौ भिषजां वरौ । नासत्यश्चैव दस्रश्च स्मृतौ द्वावश्विनाविति ॥ ५५ ॥
उससे वैद्योंमें श्रेष्ठ अश्विनीकुमार नामक देवता उत्पन्न हुए । वे दोनों अश्विनीकुमार नासत्य और दस नामसे प्रसिद्ध हैं ॥ ५५ ॥
मार्तण्डस्यात्मजावेतावष्टमस्य प्रजापतेः । संज्ञायां जनयामास वडवायां स भारत । तां तु रूपेण कान्तेन दर्शयामास भास्करः ॥ ५६ ॥
भारत ! ये दोनों आठवें प्रजापति मार्तण्डके पुत्र हैं । इन्हें सूर्यभगवान्ने अश्वारूपा संज्ञाके गर्भसे उत्पन्न किया था । तदनन्तर सूर्यने उसे अपने मनोहर रूपमें दर्शन दिया ॥ ५६ ॥
सा च दृष्ट्वैव भर्तारं तुतोष जनमेजय । यमस्तु कर्मणा तेन भृशं पीडितमानसः ॥ ५७ ॥
जनमेजय ! तब वह स्वामीको देखकर बड़ी संतुष्ट हुई । इधर यम अपने उस कर्मसे मन-ही-मन बड़े दुःखित रहते थे ॥ ५७ ॥
धर्मेण रञ्जयामास धर्मराज इव प्रजाः । स लेभे कर्मणा तेन परमेण महाद्युतिः ॥ ५८ ॥ पितॄणामाधिपत्यं च लोकपालत्वमेव च । मनुः प्रजापतिस्त्वासीत् सावर्णः स तपोधनः ॥ ५९ ॥
अतएव वे अपने धर्मराजत्वके अनुरूप ही धर्मयुक्त आचरणसे प्रजाओंको प्रसन्न रखने लगे । उस श्रेष्ठ कर्मके कारण उन महाकान्तिमान् धर्मराजको पितरोंका आधिपत्य और लोकपालका पद मिला तथा वे तपस्याके धनी प्रजापति सावर्ण मनु हुए ॥ ५८-५९ ॥
भाव्यः सोऽनागते काले मनुः सावर्णिकेऽन्तरे । मेरुपृष्ठे तपो घोरमद्यापि चरति प्रभुः ॥ ६० ॥
वे सर्वसमर्थ सावर्ण भविष्यके (आठवें) मन्वन्तरके मनु होंगे । वे आज भी सुमेरुपर्वतके शिखरपर घोर तप कर रहे हैं ॥ ६० ॥
भ्राता शनैश्चरश्चास्य ग्रहत्वमुपलब्धवान् । नासत्यौ यौ समाख्यातौ स्वर्वैद्यौ तौ बभूवतुः ॥ ६१ ॥
इनके भाई शनैश्चर ग्रह बन गये और जिन नासत्योंका वर्णन किया है, वे स्वर्गके वैद्य बन गये ॥ ६१ ॥
सेवतोऽपि तथा राजन्नश्वानां शांतिदोऽभवत् । त्वष्टा तु तेजसा तेन विष्णोश्चक्रमकल्पयत् ॥ ६२ ॥ तदप्रतिहतं युद्धे दानवान्तचिकीर्षया ।
वे उपासना करनेवालेके घोड़ोंको शान्ति देते हैं । उसी तेज (-की छीलन)-से त्वष्टाने विष्णुभगवान्का (सुदर्शन) चक्र बनाया । वह दानवोंके अन्त करनेकी इच्छासे बनाया गया चक्र युद्धमें किसी प्रकार भी व्यर्थ नहीं जाता ॥ ६२.५ ॥
यवीयसी तयोर्या तु यमी कन्या यशस्विनी ॥ ६३ ॥ अभवत् सा सरिच्छ्रेष्ठा यमुना लोकभाविनी । मनुरित्युच्यते लोके सावर्ण इति चोच्यते ॥ ६४ ॥
उन दोनोंमें छोटी जो यमी नामकी यशस्विनी कन्या थी, वह नदियोंमें श्रेष्ठ, लोकोंको पवित्र करनेवाली यमुना हुई । मनु संसारमें मनु कहलाते हैं और सावर्ण भी कहलाते हैं ॥ ६३-६४ ॥
द्वितीयो यः सुतस्तस्य मनोर्भ्राता शनैश्चरः । ग्रहत्वं स च लेभे वै सर्वलोकाभिपूजितम् ॥ ६५ ॥
उनके दूसरे पुत्र और मनुके भ्राता जो शनैशर हैं, उन्होंने सब लोकोंसे पूजित ग्रहका पद प्राप्त किया ॥ ६५ ॥
य इदं जन्म देवानां शृणुयाद्वापि धारयेत् । आपद्भ्यः स विमुच्येत प्राप्नुयाच्च महद्यशः ॥ ६६ ॥
जो मनुष्य देवताओंके जन्म (-की इस कथा)-को सुनता है अथवा मनमें धारण करता है, वह आपत्तियोंसे छूट जाता और बड़ा भारी यश पाता है ॥ ६६ ॥
इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे वैवस्वतोत्पत्तौ नवमोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीमहाभारत खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें वैवस्वत मनु (आदि) की उत्पत्तिविषयक नवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ९ ॥
GO TOP
|