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श्रीहरिवंशपुराण
हरिवंश पर्व
षोडशोऽध्यायः


श्राद्धकल्पप्रसङ्गः -
श्राद्धकल्प-जनमेजयद्वारा पिताका श्राद्ध तथा पितृस्वरूपनिर्णयसम्बन्धी प्रश्न, शन्तनुका अपने श्राद्धमें स्वयं हाथ बढ़ाकर भीष्मसे पिण्ड माँगना


जनमेजय उवाच
कथं वै श्राद्धदेवत्वमादित्यस्य विवस्वतः ।
श्रोतुमिच्छामि विप्राग्र्य श्राद्धस्य च परं विधिम् ॥ १ ॥
जनमेजयने पूछा-द्विज श्रेष्ठ ! अदितिनन्दन भगवान् सूर्यके पुत्र यम श्राद्धदेव क्यों कहलाते हैं ? और श्राद्धकी उत्तम विधि क्या है ? इसे मैं सुनना चाहता हूँ ॥ १ ॥

पितॄणामादिसर्गं च क एते पितरः स्मृताः ।
एवं च श्रुतमस्माभिः कथ्यमानं द्विजातिभिः ॥ २ ॥
स्वर्गस्थाः पितरो ये च देवानामपि देवताः ।
इति वेदविदः प्राहुरेतदिच्छामि वेदितुम् ॥ ३ ॥
पितरोंकी आदि सृष्टि कैसे हुई ? ये पितर कौन हैं ? हमने ब्राह्मणोंके मुखसे यह बात सुनी है कि जो पितर स्वर्गमें स्थित हैं, वे देवताओंके भी देवता हैं । वेदके जाननेवाले भी ऐसा ही कहते हैं । अतः मैं इस बातको भलीभांति जानना चाहता हूँ ॥ २-३ ॥

ये च तेषां गणाः प्रोक्ता यच्च तेषां बलं परम् ।
यथा च कृतमस्माभिः श्राद्धं प्रीणाति वै पितॄन् ॥ ४ ॥
प्रीताश्च पितरो ये स्म श्रेयसा योजयन्ति हि ।
एवं वेदितुमिच्छामि पितॄणां सर्गमुत्तमम् ॥ ५ ॥
उनके जो गण कहे गये हैं, उनका जो परम बल है और हमारा किया हुआ श्राद्ध जिस प्रकार उन्हें तृप्त करता है तथा जो पितर प्रसन्न होकर मनुष्योंका कल्याण करते हैं, उन सबको एवं उत्तम पितृसर्गको मैं जानना चाहता हूँ ॥ ४-५ ॥

वैशम्पायन उवाच
हन्त ते कथयिष्यामि पितॄणां सर्गमुत्तमम् ।
यथा च कृतमस्माभिः श्राद्धं प्रीणाति वै पितॄन् ।
प्रीताश्च पितरो ये स्म श्रेयसा योजयन्ति हि ॥ ६ ॥
मार्कण्डेयेन कथितं भीष्माय परिपृच्छते ।
अपृच्छद्धर्मराजो हि शरतल्पगतं पुरा ।
एवमेव पुरा प्रश्नं यन्मां त्वं परिपृच्छसि ॥ ७ ॥
तत्तेऽनुपूर्व्या वक्ष्यामि भीष्मेणोदाहृतं यथा ।
गीतं सनत्कुमारेण मार्कण्डेयाय पृच्छते ॥ ८ ॥
वैशम्पायनजी बोले-बहुत अच्छा, मैं तुमसे पितरोंके उत्तम सर्गका वर्णन करूँगा, हमारा किया हुआ श्राद्ध जिस प्रकार पितरोंको तृप्त करता है तथा जो पितर श्राद्धसे संतुष्ट होकर हमें कल्याणके भागी बनाते हैं, उनका परिचय दूंगा । पूर्वकालमें भीष्मके पूछनेपर मार्कण्डेयजीने उनसे इस विषयका वर्णन किया था । फिर महाभारतकालमें शरशय्यापर पड़े हुए भीष्मजीसे धर्मराज युधिष्ठिरने भी पहले ऐसा ही प्रश्न किया था, जैसा इस समय तुम मुझसे पूछ रहे हो । भीष्मजीने युधिष्ठिरको जिस प्रकार उत्तर दिया था, वह सब मैं तुम्हें क्रमशः बताऊँगा । पहले मार्कण्डेयजीके पूछनेपर सनत्कुमारजीने जो उपदेश दिया था, वही युधिष्ठिर और भीष्मके संवादमें कहा गया है ॥ ६-८ ॥

युधिष्ठिर उवाच
पुष्टिकामेन धर्मज्ञ कथं पुष्टिरवाप्यते ।
एतद्वै श्रोतुमिच्छामि किं कुर्वाणो न शोचति ॥ ९ ॥
युधिष्ठिरने पूछा-धर्मज्ञ ! पुष्टि चाहनेवाला पुरुष किस प्रकार पुष्टि पा सकता है और कैसा कर्म करनेसे मनुष्यको शोक नहीं करना पड़ता ? इसे मैं सुनना चाहता हूँ ॥ ९ ॥

भीष्म उवाच
श्राद्धैः प्रीणाति हि पितॄन्सर्व काम फलैस्तु यः ।
तत्परः प्रयतः श्राद्धी प्रेत्य चेह च मोदते ॥ १० ॥
भीष्मजीने कहा-युधिष्ठिर ! जो समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाले श्राद्धोंद्वारा तत्पर होकर पितरोंको तृप्त करता है, वह पितरोंकी प्रीतिमें लीन रहनेवाला श्राद्धकर्ता इस संसारमें आनन्दभागी होता है और मरनेके बाद परलोकमें सुख भोगता है ॥ १० ॥

पितरो धर्मकामस्य प्रजाकामस्य च प्रजाम् ।
पुष्टिकामस्य पुष्टिं च प्रयच्छन्ति युधिष्ठिर ॥ ११ ॥
युधिष्ठिर ! पितर धर्म चाहनेवालेको धर्म, संतान चाहनेवालेको संतान और पुष्टि चाहनेवालेको पुष्टि भी प्रदान करते हैं ॥ ११ ॥

युधिष्ठिर उवाच
वर्तन्ते पितरः स्वर्गे केषांचिन्नरके पुनः ।
प्राणिनां नियतं वापि कर्मजं फलमुच्यते ॥ १२ ॥
युधिष्ठिरने पूछा-किन्हींके पितर स्वर्गमें रहते हैं और किन्हींके नरकमें; क्योंकि यह बात प्रसिद्ध है कि प्राणियोंको (अपने) कर्मोसे उत्पन्न होनेवाला फल अवश्य भोगना पड़ता है ॥ १२ ॥

श्राद्धानि चैव कुर्वन्ति फलकामाः सद नराः ।
अभिसन्धाय पितरं पितुश्च पितरं तथा ॥ १३ ॥
पितुः पितामहं चैव त्रिषु पिण्डेषु नित्यशः ।
तानि श्राद्धानि दत्तानि कथं गच्छन्ति वै पितॄन् ॥ १४ ॥
फल चाहनेवाले पुरुष सदा पिता, पितामह और प्रपितामहको लक्ष्य करके श्राद्ध करते हैं । सर्वदा इन तीन पिण्डोंमें ही दिये गये श्राद्ध पितरोंको कैसे प्राप्त होते हैं ? ॥ १३-१४ ॥

कथं च शक्तास्ते दातुं नरकस्थाः फलं पुनः ।
के वा ते पितरोऽन्ये स्म कान् यजामो वयं पुनः ॥ १५ ॥
और वे पितर (जब स्वयं) नरकमें निवास कर रहे हैं, तब वे फल भी कैसे दे सकते हैं ? अथवा यदि वे पितर उनसे भिन्न हैं तो कौन हैं-उनका क्या परिचय है ? हम किन पितरोंकी पूजा करें ? ॥ १५ ॥

देवा अपि पितॄन्स्वर्गे यजन्तीति च नः श्रुतम् ।
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं विस्तरेण महाद्युते ॥ १६ ॥
हमने सुना है कि स्वर्गमें (रहनेवाले) देवता भी पितरोंका पूजन करते हैं । महाद्युते ! इन सब बातोंको मैं विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ ॥ १६ ॥

स भवान्कथयत्वेतां कथाममितबुद्धिमान् ।
यथा दत्तं पितॄणां वै तारणायेह कल्पते ॥ १७ ॥
पितरोंके निमित्त किया हुआ श्राद्ध किस प्रकार प्राणियोंका उद्धार करता है ? इस कथाका आप वर्णन कीजिये, क्योंकि आपकी बुद्धि अथाह है ॥ १७ ॥

भीष्म उवाच
अत्र ते कीर्तयिष्यामि यथाश्रुतमरिंदम ।
ये च ते पितरोऽन्ये स्म यान् यजामो वयं पुनः ।
पित्रा मम पुरा गीतं लोकान्तरगतेन वै ॥ १८ ॥
भीष्मजीने कहा-शत्रुमर्दन ! हमलोग जिनकी पूजा करते हैं, इस विषयको जैसा मैंने सुना है, वह सब तुमसे कहूँगा । जो अन्य (पिता-पितामह आदिसे भिन्न) पितर हैं, इस विषयमें मेरे परलोकवासी पिताने भी गाथा गायी है ॥ १८ ॥

श्राद्धकाले मम पितुर्मया पिण्डः समुद्यतः ।
तं पिता मम हस्तेन भित्त्वा भूमिमयाचत ॥ १९ ॥
श्राद्धके समय जब मैं अपने पिताको पिण्ड देने लगा, तब उनका हाथ भूमिको फाड़कर निकल आया और वे उस हाथमें ही मुझसे पिण्ड माँगने लगे ॥ १९ ॥

हस्ताभरणपूर्णेन केयूराभरणेन च ।
रक्ताङ्गुलितलेनाथ यहा दॄष्टः पुरा मया ॥ २० ॥
उनका बाजूबंद आदि हाथके आभूषणोंसे विभूषित और लाल-लाल अङ्गलियाँवाला वह हाथ वैसा ही था जैसा मैंने पहले (जीवित अवस्थामें) देखा था ॥ २० ॥

नैष कल्पे विधिर्दृष्ट इति संचिन्त्य चाप्यहम् ।
कुशेष्वेव तपः पिण्डं दत्तवानविचारयन् ॥ २१ ॥
उस समय मैंने विचारा कि कल्पसूत्रोंमें तो मैंने ऐसी विधि कहीं नहीं देखी है, यह विचारकर मैंने बिना कुछ परवा किये ही पिण्डको कुशाओंपर ही रख दिया ॥ २१ ॥

ततः पिता मे सुप्रीतो वाचा मधुरया तदा ।
उवाच भरतश्रेष्ठ प्रीयमाणो मयानघ ॥ २२ ॥
निष्पाप भरतश्रेष्ठ ! उस समय मेरे द्वारा संतुष्ट किये गये पिता परम प्रसन्न हुए और मधुर वाणीमें मुझसे कहने लगे ॥ २२ ॥

त्वया दायादवानस्मि कृतार्थोऽमुत्र चेह च ।
सत्पुत्रेण त्वया पुत्र धर्मज्ञेन विपश्चिता ॥ २३ ॥
'पुत्र ! तू धर्मज्ञ और विद्वान् है । तुझ-सरीखा सुपुत्र होनेसे मुझे पुत्रवान् होनेका फल मिल गया तथा मैं इस लोक और परलोकदोनोंमें कृतार्थ हो गया ॥ २३ ॥

मया तु तव जिज्ञासा प्रयुक्तैषा दृढव्रत ।
व्यवस्थानं तु धर्मेषु कर्तुं लोकस्य चानघ ॥ २४ ॥
दृढ़तापूर्वक ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करनेवाले निष्पाप भीष्म ! धर्ममें लोगोंकी आस्था दृढ़ करनेके लिये ही मैंने यह तेरी परीक्षा ली है । ॥ २४ ॥

यथा चतुर्थं धर्मस्य रक्षिता लभते फलम् ।
पापस्य हि तथा मूढः फलं प्राप्नोत्यरक्षिता ॥ २५ ॥
धर्मकी रक्षा करनेवालेको जैसे धर्मका चौथाई फल मिलता है, इसी प्रकार धर्मकी रक्षा न करनेवाला मूढ़ मनुष्य पापके चौथाई फलको पाता है ॥ २५ ॥

प्रमाणं यद्धि कुरुते धर्माचारेषु पार्थिवः ।
प्रजास्तदनुवर्तन्ते प्रमाणाचरितं सदा ॥ २६ ॥
धर्मविषयक आचारमें राजा जिस बातको प्रामाणिक बता देता है, प्रजा उस प्रमाणभूत राजाके आचरणका अनुकरण करती है ॥ २६ ॥

त्वया च भरतश्रेष्ठ वेदधर्माश्च शाश्वताः ।
कृताः प्रमाणं प्रीतिश्च मम निर्वर्तितातुला । २७ ॥
भरतश्रेष्ठ ! तूने सनातन वैदिक धर्मको ही प्रमाण माना है, इसलिये मैं तुमपर बहुत ही प्रसन्न हुआ हूँ ॥ २७ ॥

तस्मात्तवाहं सुप्रीतः प्रीत्या च वरमुत्तमम् ।
ददामि तं प्रतीच्छ त्वं त्रिषु लोकेषु दुर्लभम् ॥ २८ ॥
अब इस प्रसन्नताके कारण मैं तुम्हें श्रेष्ठ वर देना चाहता हूँ । तू तीनों लोकोंमें दुर्लभ वरको ग्रहण कर ॥ २८ ॥

न ते प्रभविता मृतुर्यावज्जीवितुमिच्छसि ।
त्वत्तोऽभ्यनुज्ञां सम्प्राप्य मृत्युः प्रभविता तव ॥ २९ ॥
तू जबतक जीवित रहना चाहेगा, तबतक तुझपर मृत्युका प्रभाव न होगा । तेरी आजा पानेपर ही तुझपर मृत्यु प्रभाव डाल सकेगी ॥ २९ ॥

किं वा ते प्रार्थितं भूयो ददामि वरमुत्तमम् ।
तद् ब्रूहि भरतश्रेष्ठ यत्ते मनसि वर्तते ॥ ३० ॥
भरतश्रेष्ठ ! और जो बात तेरे मनमें हो उसे बता, मैं तुझे तेरी प्रार्थनाके अनुसार और कौन-सा उत्तम वर दूं ?' ॥ ३० ॥

इत्युक्तवन्तं तमहमभिवाद्य कृताञ्जलिः ।
अब्रुवं कृतकृत्योऽहं प्रसन्ने त्वयि सत्तम ॥ ३१ ॥
पिताजीके इस प्रकार कहनेपर मैंने उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम किया और कहा-'श्रेष्ठतम पुरुष ! मैं आपकी प्रसन्नतासे ही कृतकृत्य हो गया ॥ ३१ ॥

यदि त्वनुग्रहं भूयस्त्वत्तोऽर्हामि महाद्युते ।
प्रश्नमिच्छामि वै किञ्चिद् व्याहृतं भवता स्वयम् ॥ ३२ ॥
महाधुते ! यदि मैं इससे भी अधिक आपके अनुग्रहका पात्र होऊँ, तो मैं आपके मुखसे एक प्रश्रका उत्तर सुनना चाहता हूँ' ॥ ३२ ॥

स मामुवाच धर्मात्मा ब्रूहि भीष्म यदिच्छसि ।
छेत्तास्मि सम्शयं सर्वं यन्मां पृच्छसि भारत ॥ ३३ ॥
तब उन धर्मात्माने मुझसे कहा-'भीष्म ! बता, तू मुझसे क्या पूछना चाहता है ? भारत ! तू मुझसे जो कुछ पूछेगा, तेरे उस संदेहको मैं दूर करूँगा' ॥ ३३ ॥

अपृच्छं तमहं तातं तत्रान्तर्हितमेव च ।
गतं सुकृतिनां लोकं कौतूहलसमन्वितः ॥ ३४ ॥
तब मैंने वहाँ अदृश्य होकर खड़े और पुण्यात्माओंके लोकोंमें पहुंचे हुए अपने पितासे कौतूहलमें भरकर पूछा ॥ ३४ ॥

भीष्म उवाच
श्रूयन्ते पितरो देवा देवानामपि देवताः ।
देवाश्च पितरोऽन्ये च कान् यजामो वयं पुनः ॥ ३५ ॥
भीष्मजीने पूछा-पिताजी ! पितगण देवताओंके भी देवता सुने जाते हैं । देवता ही पितर हैं या दोनों भिन्न-भिन्न हैं ? हम किनकी पूजा करें* ॥ ३५ ॥

कथं च दत्तमस्माभिः श्राद्धं प्रीणात्यथो पितॄन् ।
लोकान्तरगतांस्तात किन्नु श्राद्धस्य वा फलम् ॥ ३६ ॥
तात ! दूसरे लोकोंमें गये हुए पितरोंको हमारा दिया हुआ श्राद्ध कैसे तृप्त करता है ? और श्राद्धका क्या फल है ? ॥ ३६ ॥

कान् यजन्ति स्म लोका वै सदेवनरदानवाः ।
सयक्षोरगगन्धर्वाः सकिन्नरमहोरगाः ॥ ३७ ॥
देवता, दानव और मनुष्य तथा यक्ष, नाग, गन्धर्व, किन्नर और महासर्प आदि किसकी पूजा करते हैं ? ॥ ३७ ॥

अत्र मे संशयस्तीव्रः कौतूहलमतीव च ।
तद् ब्रूहि मम धर्मज्ञ सर्वज्ञो ह्यसि मे मतः ।
एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्य भीष्मस्योवाच वै पिता ॥ ३८ ॥
धर्मज्ञ ! इस विषयमें मुझे बड़ा कौतूहल और संदेह है; अतः आप इसका मुझसे वर्णन कीजिये, क्योंकि मेरे विचारसे आप सर्वज्ञ हैं । भीष्मके इस वचनको सुनकर पिता (शन्तनु) बोले ॥ ३८ ॥

शन्तनुरुवाच
संक्षेपेणैव ते वक्ष्ये यन्मां पृच्छसि भारत ।
पितरश्च यथोद्भूताः फलं दत्तस्य चानघ ॥ ३९ ॥
पितॄणां कारणं श्राद्धे शृणु सर्वं समाहितः ।
आदिदेवसुतास्तात पितरो दिवि देवताः॥ ४० ॥
शन्तनुजीने कहा-भारत ! जो बात तू मुझसे पूछता है, उसे मैं संक्षेपसे कहता हूँ । निष्पाप ! पितर जिस प्रकार उत्पन्न हुए हैं और उनको (अन्न आदि) देनेसे जो फल मिलता है, श्राद्धमें पितरोंके कारणको अर्थात् जिनके ये कार्य हैं, उनको तू सावधान होकर सुन । तात ! स्वर्गमें स्थित पितृदेवता आदिदेव ब्रह्माजीके पुत्र हैं ॥ ३९-४० ॥

तान् यजन्ति स्म वै लोकाः सदेवासुरमानुषाः ।
सयक्षोरगगन्धर्वाः सकिन्नरमहोरगाः ॥ ४१ ॥
देवता, असुर, मनुष्य, यक्ष, नाग, गन्धर्व, किन्नर और महासर्प आदि उनकी ही पूजा करते हैं ॥ ४१ ॥

आप्यायिताश्च ते श्राद्धे पुनराप्याययन्ति च ।
जगत्सदेवगन्धर्वमिति ब्रह्मानुशासनम् ॥ ४२ ॥
वे श्राद्धोंमें तृप्त किये जानेपर देवताओं और गन्धर्वोसहित जगत्को तृप्त करते हैं-यह वेद (अथवा ब्रह्माजी)-का अनुशासन है ॥ ४२ ॥

तान् यजस्व महाभाग श्राद्धैरग्र्यैरतन्द्रितः ।
ते ते श्रेयो विधास्यन्ति सर्वकामफलप्रदाः ॥ ४३ ॥
महाभाग ! तू आलस्यरहित होकर श्रेष्ठ श्राद्धोंद्वारा उन पितरोंका यजन कर, तब वे सब कामनाओंका फल देनेवाले पितर तेरा कल्याण करेंगे ॥ ४३ ॥

त्वया चाराध्यमानास्ते नामगोत्रादिकीर्तनैः ।
अस्मानाप्याययिष्यन्ति स्वर्गस्थानपि भारत ॥ ४४ ॥
भारत ! यदि तू नाम-गोत्र आदिका उच्चारण करके उनकी आराधना करेगा तो वे पितर हमें और हमारे स्वर्गीय पितरोंको भी तृप्त करेंगे ॥ ४४ ॥

मार्कण्डेयस्तु ते शेषमेतत् सर्वं प्रवक्ष्यति ।
एष वै पितृभक्तश्च विदितात्मा च भारत ॥ ४५ ॥ ॥
और बाकी सब बातोंको मार्कण्डेयजी तुझसे कहेंगे । भारत ! वे पितृभक्त और आत्मज्ञानसे परिपूर्ण हैं ॥ ४५ ॥

उपस्थितश्च श्राद्धेऽद्य ममैवानुग्रहाय वै ।
एनं पृच्छ महाभागमित्युक्त्वान्तरधीयत ॥ ४६ ॥
आज ये मेरे ऊपर अनुग्रह करनेके लिये ही श्राद्धमें आये हैं, अतः इन महाभाग्यवान् मार्कण्डेयजीसे ही तू इन प्रश्नोंको पूछ । इतना कहकर शन्तनुजी अन्तर्धान हो गये ॥ ४६ ॥

इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे हरिवंशपर्वणि
श्राद्धकल्पप्रसङ्गो नाम षोडशोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीमहाभारत खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें श्राद्धकल्पविषयक सोलहवां अध्याय पूरा हुआ ॥ १६ ॥




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