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श्रीहरिवंशपुराण
हरिवंश पर्व
सप्तदशोऽध्यायः


पितृकल्पः - १
पितृकल्प-भीष्म-मार्कण्डेय-संवाद और मार्कण्डेयजीके साथ सनत्कुमारजीकी बातचीत


भीष्म उवाच
ततोऽहं तस्य वचनान्मार्कण्डेयं समाहितः ।
प्रश्नं तमेवान्वपृच्छं यन्मे पृष्ठः पुरा पिता ॥ १ ॥
भीष्मजी कहते हैं-युधिष्ठिर ! तब मैंने पिताजीके कथनानुसार एकाग्रचित्त हो मार्कण्डेयजीसे फिर वही प्रश्न पूछा, जिसके विषयमें पहले पिताजीसे जिज्ञासा की थी ॥ १ ॥

स मामुवच धर्मात्मा मार्कण्डेयो महातपाः ।
भीष्म वक्ष्यामि कर्त्स्न्येन शृणुष्व प्रयतोऽनघ ॥ २ ॥
तब महातपस्वी धर्मात्मा मार्कण्डेयजी मुझसे कहने लगे-निष्पाप भीष्म ! मैं तुझसे सब बात कहता हूँ, तू सावधान होकर सुन ॥ २ ॥

अहं पितृप्रसादाद् वै दीर्घायुष्ट्वमवाप्तवान् ।
पितृभक्त्यैव लब्धं च प्राग्लोके परमं यशः ॥ ३ ॥
प्राचीन कालमें मैंने पितृप्रसादसे ही दीर्घायु प्राप्त की थी और पितृभक्तिसे ही इस संसारमें बड़ा भारी यश पाया है ॥ ३ ॥

सोऽहं युगस्य पर्यन्ते बहुवर्षसहस्रिके ।
अधिरुह्य गिरिं मेरुं तपोऽतप्यं सुदुश्चरम् ॥ ४ ॥
एक समय मैं मेरुपर्वतके ऊपर जाकर अनेक सहस्र वर्षों में पूर्ण होनेवाले युगान्त कालतक घोर तप करता रहा ॥ ४ ॥

ततः कदाचित् पश्यामि दिवं प्रज्वाल्य तेजसा ।
विमानं महदायान्तमुत्तरेण गिरेस्तदा ॥ ५ ॥
इसी बीच मैंने एक समय पर्वतके उत्तरकी ओरसे एक बड़े भारी विमानको आते हुए देखा, वह अपने तेजसे (सम्पूर्ण) आकाशको प्रकाशित कर रहा था ॥ ५ ॥

तस्मिन् विमाने पर्यङ्के ज्वलितादित्यसन्निभम् ।
अपश्यं तत्र चैवाहं शयानं दीप्ततेजसम् ॥ ६ ॥
अङ्गुष्ठमात्रं पुरुषमग्नावग्निमिवाहितम् ।
सोऽहं तस्मै नमस्कृत्य प्रणम्य शिरसा विभुम् ॥ ७ ॥
सन्निविष्टं विमानस्थं पाद्यार्घ्याभ्यामपूजयम् ।
अपृच्छं चैव दुर्धर्षं विद्याम त्वां कथं विभो ॥ ८ ॥
उस विमानके सिंहासनपर मैंने चमकते हुए सूर्यके समान दीप्स तेजवाले तथा अग्निमें स्थापित किये हुए अग्निके समान अङ्गष्ठमात्र पुरुषको लेटे हुए देखा । मैंने उन विभुको सिर झुकाकर प्रणाम किया और विमानमें विराजमान उन दुर्धर्ष पुरुषकी पाद्य और अयंसे पूजाकर उनसे पूछा-विभो ! हम आपको कैसे जानें कि आप कौन हैं ? ॥ ६-८ ॥

तपोवीर्यात् समुत्पन्नं नारायणगुणात्मकम् ।
दैवतं ह्यसि देवानमिति मे वर्तते मतिः ॥ ९ ॥
'नारायण ! यद्यपि आपका यह स्वरूप नारायणके गुण शुद्ध सत्त्वसे निर्मित तथा तपके प्रभावसे प्रकट हुआ है, मेरा विचार है कि आप देवताओंके भी देवता हैं' ॥ ९ ॥

स मामुवाच धर्मात्मा स्मयमान इवानघ ।
न ते तपः सुचरितं येन मां नावबुद्ध्यसे ॥ १० ॥
'तब वे धर्मात्मा मुसकराकर कहने लगे-निष्पाप ! तुमने (अभी) भली प्रकार तप नहीं किया है, इस कारण तुम मुझे पहचान न सके' ॥ १० ॥

क्षणेनैव प्रमाणं सः बिभ्रदन्यदनुत्तमम् ।
रूपेण न मया कश्चिद् दृष्टपूर्वः पुमान् क्वचित् ॥ ११ ॥
'क्षणभरमें ही उन्होंने दूसरे उत्तम स्वरूपको धारण कर लिया । ऐसे रूपवाला दूसरा कोई पुरुष मैंने पहले कभी नहीं देखा था' ॥ ११ ॥

सनत्कुमार उवाच
विद्धि मां ब्रह्मणः पुत्रं मानसं पूर्वजं विभोः ।
तपोवीर्यसमुत्पन्नं नारायणगुणात्मकम् ॥ १२ ॥
सनत्कुमारजी बोले-मुने ! तुम मुझे विभु ब्रह्माजीका ज्येष्ठ मानस पुत्र जानो । मैं उनके तपके प्रभावसे उत्पन्न हुआ हूँ और मेरा शरीर नारायणके गुण-शुद्ध सत्त्वसे भरा हुआ है ॥ १२ ॥

सनत्कुमार इति यः श्रुतो देवेषु वै पुरा ।
सोऽस्मि भार्गव भद्रं ते कं कामं करवाणि ते ॥ १३ ॥
प्राचीन कालसे ही देवताओंमें जो सनत्कुमार प्रसिद्ध हैं, मैं वही हूँ । भार्गव ! तुम्हारा कल्याण हो, मैं तुम्हारी किस कामनाको पूर्ण करूँ ? ॥ १३ ॥

ये त्वन्ये ब्रह्मणः पुत्राः यवीयांसस्तु ते मम ।
भ्रातरः सप्त दुर्धर्षास्तेषां वंशाः प्रतिष्ठिताः ॥ १४ ॥
ब्रह्माजीके जो दूसरे पुत्र हैं, वे मेरे छोटे भाई हैं । वे मेरे सात भाई परम दुर्धर्ष हैं, उनके वंश प्रतिष्ठित हैं ॥ १४ ॥

क्रतुर्वसिष्ठः पुलहः पुलस्त्योऽत्रिस्तथाङ्गिराः ।
मरीचिस्तु तथा धीमान् देवगन्धर्वसेविताः ।
त्रीँल्लोकान् धारयन्तीमान् देवगन्धर्वपूजिताः ॥ १५ ॥
(उनके नाम इस प्रकार हैं-) क्रतु, वसिष्ठ, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अङ्गिरा और बुद्धिमान् मरीचि-इन सबकी देवता और गन्धर्व सेवा करते हैं । ये देवता और गन्धर्वांसे पूजित ऋषि तीनों लोकोंको (अपने तपसे) धारण किये हुए हैं ॥ १५ ॥

वयं तु यतिधर्माणः संयोज्यात्मानमात्मनि ।
प्रजा धर्मं च कामं च व्यपहाय महामुने ॥ १६ ॥
महामुने ! हम (सनत्कुमार, सनक आदि) तो अपने आत्माको आत्मामें लीनकर प्रजा (उत्पन्न करने)-के धर्म और कामको दूर करके यतिधर्मका पालन करनेवाले हैं ॥ १६ ॥

यथोत्पन्नस्तथैवाहं कुमार इति विद्धि माम् ।
तस्मात् सनत्कुमारेति नामैतन्मे प्रतिष्ठितम् ॥ १७ ॥
मैं जैसे उत्पन्न हुआ हूँ, वैसा ही कुमार हूँ । अर्थात् बालकके समान राग-द्वेष आदिसे शून्य हूँ; अतः तुम मुझे कुमार जानो । इसीलिये मेरा नाम सनत्कुमार' प्रसिद्ध है ॥ १७ ॥

मद्भक्त्या ते तपश्चीर्णं मम दर्शनकाङ्क्षया ।
एष दृष्टोऽस्मि भवता कं कामं करवाणि ते ॥ १८ ॥
तुमने मेरा दर्शन करनेकी अभिलाषासे भक्ति (श्रद्धा)-पूर्वक तपस्या की है, अतः मैं तुम्हारे सामने प्रकट हुआ हूँ । बताओ ! अब मैं तुम्हारी किस इच्छाको पूर्ण करूँ ? ॥ १८ ॥

इत्युक्तवन्तं तमहं प्रत्यवोचं सनातनम् ।
अनुज्ञातो भगवता प्रीयमाणेन भारत ॥ १९ ॥
भारत ! वे सनातन कुमार सनत्कुमार जब इस प्रकार कह चुके और जब प्रसन्न होकर उन्होंने मुझे प्रश्न करनेकी आज्ञा दे दी, तब मैंने उनसे वार्तालाप किया था ॥ १९ ॥

ततोऽहमेनमर्थं वै तमपृच्छं सनातनम् ।
पृष्टः पितॄणां सर्गं च फलं श्राद्धस्य चानघ ॥ २० ॥
चिच्छेद संशयं भीष्म स तु देवेश्वरो मम ।
स मामुवाच धर्मात्मा कथान्ते बहुवार्षिके ।
रमे त्वयाऽहं विप्रर्षे शृणु सर्वं यथातथम् ॥ २१ ॥
निष्पाप भीष्म ! तब मैंने उन सनातन ऋषिसे पितरोंकी उत्पत्ति और श्राद्धके फल-सम्बन्धी विषयको लेकर ही प्रश्न किया । मेरे पूछनेपर उन देवेश्वरने मेरे संदेहको दूर कर दिया । बहुत कालसे आरम्भ की हुई कथाके अन्तमें उन धर्मात्माने मुझसे कहा-'विप्रर्षे ! मैं तुम्हारे प्रश्नसे संतुष्ट हूँ । तुम इन सब प्रश्नोंका उत्तर यथार्थ रीतिसे सुनो ॥ २०-२१ ॥

देवानसृजत ब्रह्मा मां यक्ष्यन्तीति भार्गव ।
तमुत्सृज्य तथात्मानमयजंस्ते फलार्थिनः ॥ २२ ॥
भार्गव ! देवतालोग मेरी पूजा करेंगे-इस विचारसे ब्रह्माजीने उनकी रचना की, किंतु वे फलके लोभमें पड़कर ब्रह्माजीको छोड़ अपनी ही पूजामें लग गये-इन्द्रियतृप्तिके चक्करमें ही पड़ गये ॥ २२ ॥

ते शप्ता ब्रह्मणा मूढा नष्टसंज्ञा दिवौकसः ।
न स्म किञ्चिद्विजानन्ति ततो लोकोऽप्यमुह्यत ॥ २३ ॥
इसपर ब्रह्माजीने उन्हें शाप दे दिया, जिससे उन मोहग्रस्त देवताओंकी चेतना नष्ट हो गयी और उन्हें कुछ भी ज्ञान न रह गया । फिर तो उनका अनुसरण करनेवाला संसार भी मोहमें पड़ गया ॥ २३ ॥

ते भूयः प्रणताः शप्ताः प्रायाचन्त पितामहम् ।
अनुग्रहाय लोकानां ततस्तानब्रवीदिदम् ॥ २४ ॥
इस प्रकार शाप हो जानेपर वे फिर ब्रह्माजीके चरणोंमें जाकर गिरे और उनसे क्षमा याचना की । तब ब्रह्माजीने लोककल्याणकी दृष्टिसे उन देवताओंसे इस प्रकार कहा- ॥ २४ ॥

प्रायश्चित्तं चरध्वं वै व्यभिचारो हि वः कृतः ।
पुत्रांश्च परिपृच्छध्वं ततो ज्ञानमवाप्स्यथ ॥ २५ ॥
अब तुम प्रायश्चित्त करो; क्योंकि तुमने व्यभिचार (पूज्य-पूजाका व्यतिक्रम) किया है । इसलिये तुम अपने पुत्रोंसे पूछो, तब तुमलोगोंको ज्ञान प्राप्त होगा ॥ २५ ॥

प्रायश्चित्तक्रियार्थं ते पुत्रान्पप्रच्छुरार्तवत् ।
तेभ्यस्ते प्रयतात्मानः शशंसुस्तनयास्तदा ॥ २६ ॥
तब देवताओंने दुःखी होकर अपने पुत्रोंसे प्रायश्चित्त-कर्मके विषयमें पूछा । फिर तो वे जितात्मा पुत्र बहुत सोच-विचारकर उनसे बोले ॥ २६ ॥

प्रायश्चित्तानि धर्मज्ञा वाङ्मनःकर्मजानि वै ।
शंसन्ति कुशला नित्यं चक्षुर्भ्यामपि नित्यशः ॥ २७ ॥
धर्म-ज्ञानमें निपुण पुरुषोंका कहना है कि वाणी, मन और कर्मसे तथा नेत्रोंसे भी सदा प्रायश्चित्त होता है ॥ २७ ॥

प्रायश्चित्तार्थतत्त्वज्ञा लब्धसंज्ञा दिवौकसः ।
गम्यन्तां पुत्रकाश्चेति पुत्रैरुक्ताश्च ते तदा ॥ २८ ॥
अतः देवताओ ! तुम प्रायश्चित्तके तत्त्वको जानकर सचेत हो जाओ ! फिर पुत्रोंने उनसे कहा कि पुत्रो ! अब तुम जाओ ॥ २८ ॥

अभिशप्तास्तु ते देवाः पुत्रवाक्येन निन्दिताः ।
पितामहमुपागच्छन् संशयच्छेदनाय वै ॥ २९ ॥
तब वे देवता पुत्रोंद्वारा पुत्र कहे जानेपर अपनी निन्दा समझते हुए तथा पुत्रोंसे भी अभिशप्त होकर अपना संशय दूर करनेके लिये ब्रह्माजीके पास पहुँचे ॥ २९ ॥

ततस्तानब्रवीद् देवो यूयं वै ब्रह्मवादिनः ।
तस्माद् यदुक्तं युष्माकं तत् तथा न तदन्यथा ॥ ३० ॥
तब ब्रह्माजीने देवताओंसे कहा-तुमलोग ब्रह्मवादी हो । इसलिये उन्होंने तुमसे जो कुछ कहा है, वह ठीक ही है । इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है ॥ ३० ॥

यूयं शरीरकर्तारस्तेषां देवा भविष्यथ ।
ते तु ज्ञानप्रदातारः पितरो वो न संशयः ॥ ३१ ॥
तुम तो उनके शरीरकी रचना करनेवाले देवता होगे और वे ज्ञान प्रदान करनेवाले तुम्हारे पितर होंगे-इसमें तनिक भी संदेह नहीं है ॥ ३१ ॥

अन्योन्यं पितरो यूयं ते चैवेति न संशयः ।
देवाश्च पितरश्चैव तद्बुध्यध्वं दिवौकसः ॥ ३२ ॥
देवताओ और पितरो ! तुम दोनों आपसमें एक-दूसरेके पितर हो, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है । स्वर्गवासियो ! इस बातको तुम भलीभाँति जान लो ॥ ३२ ॥

ततस्ते पुनरागम्य पुत्रानूचुर्दिवौकसः ।
ब्रह्मणा च्छिन्नसंदेहाः प्रीतिमन्तः परस्परम् ॥ ३३ ॥
तब वे देवता, जिनका सारा संशय ब्रह्माजीद्वारा नष्ट हो गया था और जो परस्पर प्रीतियुक्त थे, पुनः पुत्रोंके पास आये और उनसे बोले- ॥ ३३ ॥

यूयं वै पितरोऽस्माकं यैर्वयं प्रतिबोधिताः ।
धर्मज्ञाः कश्च वः कामः को वरो वः प्रदीयताम् । ३४ ॥
तुम हमारे पितर हो, क्योंकि तुमने हमको ज्ञान प्रदान किया है, तुम धर्मज्ञ हो, तुम्हारी क्या इच्छा है ? तुम्हें क्या वर दिया जाय ? ॥ ३४ ॥

यदुक्तं चैव युष्माभिस्तत्तथा न तदन्यथा ।
उक्ताश्च यस्माद् युष्माभिः पुत्रका इति वै वयम् ।
तस्माद् भवन्तः पितरो भविष्यन्ति न संशयः ॥ ३५ ॥
तुमने जो बात कही है, वह ठीक है, इसमें कुछ अनुचित नहीं है । परंतु तुमने जो हमें 'पुत्रकाः' कहकर सम्बोधित किया है, इस कारण तुम पितर होओगे, इसमें कुछ संदेह नहीं है ॥ ३५ ॥

योऽनिष्ट्वा तु पितॄञ्छ्राद्धैः क्रियाः काश्चित्करिष्यति ।
राक्षसा दानवा नागाः फलं प्राप्स्यन्ति तस्य तत् ॥ ३६ ॥
जो प्राणी श्राद्धोंद्वारा (पहले) पितरोंका पूजन किये बिना ही जो कुछ क्रियाएँ करेगा, उन क्रियाओंका फल राक्षस, दानव और सोको प्राप्त होगा ॥ ३६ ॥

श्राद्धैराप्यायिताश्चैव पितरः सोममव्ययम् ।
आप्याय्यमाना युष्माभिर्वर्धयिष्यति नित्यदा ॥ ३७ ॥
तुम दिव्य पितर हो, तुम्हारे द्वारा श्राद्धोंसे परिपुष्ट किये गये लौकिक पितर स्वयं तृप्त हो अपने अधिदेवता सोमकी वृद्धि करेंगे ॥ ३७ ॥

श्राद्धैराप्यायितः सोमो लोकानाप्याययिष्यति ।
समुद्रपर्वतवनं जङ्गमाजङ्गमैर्वृतम् ॥ ३८ ॥
श्राद्धोंसे आप्यायित होता हुआ चन्द्रमा समुद्र, पर्वत, वन और चर-अचर प्राणियोंसे भरे हुए लोकोंको आप्यायित (तृप्त) करेगा ॥ ३८ ॥

श्राद्धानि पुष्टिकामाश्च ये करिष्यन्ति मानवाः ।
तेभ्यः पुष्टिं प्रजाश्चैव दास्यन्ति पितरः सदा ॥ ३९ ॥
जो मनुष्य पुष्टि पानेकी इच्छासे श्राद्ध करेंगे, पितर उनको सदा पुष्टि और संतान देंगे ॥ ३९ ॥

श्राद्धे ये च प्रदास्यन्ति त्रीन्पिण्डान् नामगोत्रतः ।
सर्वत्र वर्तमानांस्तान् पितरः सपितामहान् ।
भावयिष्यन्ति सततं श्राद्धदानेन तर्पिताः ॥ ४० ॥
जो पुरुष सर्वत्र विद्यमान पिता, पितामह और प्रपितामहको उनके नाम और गोत्रका उच्चारण कर तीन पिण्ड देंगे, श्राद्ध-दानसे तृप्त हुए वे पितर उनकी सदा वृद्धि करेंगे ॥ ४० ॥

एवमाज्ञापितं पूर्वं ब्रह्मणा परमेष्ठिना ।
इति तद्वचनं सत्यं भवत्वद्य दिवौकसः ।
पुत्राश्च पितरश्चैव वयं सर्वे परस्परम् ॥ ४१ ॥
परमेष्ठी ब्रह्माजीने पहले ही ऐसी आज्ञा दी है । स्वर्गवासियो ! उनका वचन अब सत्य हो, हम सब परस्पर पुत्र और पितर हैं ॥ ४१ ॥

सनत्कुमार उवाच
त एते पितरो देवा देवाश्च पितरस्तथा ।
अन्योन्यं पितरो ह्येते देवाश्च पिरतश्च ह ॥ ४२ ॥
सनत्कुमारजीने कहा-मुने ! जो देवता हैं, वे ही पितर हैं और जो पितर हैं, वे ही देवता हैं । इस प्रकार ये देवता और पितर आपसमें एक-दूसरेके पिता और पूज्य हैं ॥ ४२ ॥

इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे हरिवंशपर्वणि
पितृकल्पे सप्तदशोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीमहाभारत खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें पितरोंका उत्पत्तिविषयक सत्रहवां अध्याग पूरा हुआ ॥ १७ ॥




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