श्रीहरिवंशपुराण हरिवंश पर्व अष्टादशोऽध्यायः
पितृकल्पः - २
पितृकल्प-मार्कण्डेय-सनत्कुमार-संवादमें पितरोंके गण, लोक, शक्ति और कन्याओंका वर्णन तथा पितरोंके प्रभावको देखनेके लिये मार्कण्डेयजीको दिव्य दृष्टिकी प्राप्ति
मार्कण्डेय उवाच इत्युक्तोऽहं भगवता देवदेवेन भास्वता । सनत्कुमारेण पुनः पृष्टवान् देवमव्ययम् ॥ १ ॥ संदेहममरश्रेष्ठं भगवन्तमरिन्दमम् । निबोध तन्मे गाङ्गेय निखिलं सर्वमादितः ॥ २ ॥
मार्कण्डेयजी कहते हैं-गङ्गानन्दन भीष्म ! तेजस्वी देवदेव भगवान् सनत्कुमारके इस प्रकार कहनेपर मैंने काम क्रोधादि शत्रुओंका दमन करनेवाले उन देवश्रेष्ठ अव्यय भगवान् सनत्कुमारसे अपने जिन सारे संदेहोंको आरम्भसे पूछा था, उन्हें मुझसे सुनो ॥ १-२ ॥
कियन्तो वै पितृगणाः कस्मिँल्लोके प्रतिष्ठिताः । वर्तन्ते देवप्रवरा देवानां सोमवर्द्धनाः ॥ ३ ॥
(श्राद्धके द्वारा) चन्द्रमाको पुष्ट करनेवाले तथा देवताओंके भी श्रेष्ठ देवता पितरोंके कितने गण हैं और वे किस लोकमें प्रतिष्ठित रहते हैं ? ॥ ३ ॥
सनत्कुमार उवाच सप्तैते यजतां श्रेष्ठ स्वर्गे पितृगणाः स्मॄताः । चत्वारो मूर्तिमन्तश्च त्रयस्तेषाममूर्तयः ॥ ४ ॥
सनत्कुमारजीने कहा-याजकोंमें श्रेष्ठ मार्कण्डेय ! स्वर्गमें रहनेवाले सात पितर माने गये हैं, उनमें चार तो मूर्तिमान् हैं और तीन मूर्तिरहित * ॥ ४ ॥
तेषां लोकं विसर्गं च किर्तयिष्यामि तच्छृणु । प्रभावं च महत्त्वं च विस्तरेण तपोधन ॥ ५ ॥
तपोधन ! मैं उनके लोक, सृष्टि, प्रभाव और महत्त्वका विस्तारपूर्वक वर्णन करता हूँ, उसे सुनिये ॥ ५ ॥
धर्ममूर्तिधरास्तेषां त्रयो ये परमा गणाः । तेषां नामानि लोकांश्च कथयिष्यामि तच्छृणु ॥ ६ ॥
(साथ ही) धर्ममय शरीर धारण करनेवाले पितरोंके जो तीन परम गण हैं, उनके नाम और लोकोंका भी मैं वर्णन करता हूँ, उसे भी सुनिये ॥ ६ ॥
लोकाः सनातना नाम यत्र तिष्ठन्ति भास्वराः । अमूर्तयः पितृगणास्ते वै पुत्राः प्रजापतेः ॥ ७ ॥
उन पितरोंके 'सनातन' नामवाले लोक हैं, जहाँ वे तेजस्वी, भौतिक शरीरसे रहित-दिव्य रूपवाले पितृगण, जो प्रजापतिके पुत्र हैं, निवास करते हैं ॥ ७ ॥
विराजस्य द्विजश्रेष्ठ वैराजा इति विश्रुताः । यजन्ति तान् देवगणाः विधिदृष्टेन कर्मणा ॥ ८ ॥
द्विज श्रेष्ठ ! विराज प्रजापतिके पुत्र होनेके कारण वे वैराज नामसे प्रसिद्ध हैं । देवगण शास्त्रोक्त विधिसे इन वैराज पितरोंका पूजन करते हैं ॥ ८ ॥
एते वै योगविभ्रष्टा लोकान् प्राप्य सनातनान् । पुनर्युगसहस्रान्ते जायन्ते ब्रह्मवादिनः ॥ ९ ॥
ये योगभ्रष्ट होनेके कारण सनातन ब्रह्मलोकमें पहुँचनेपर भी सहस्र युगोंके अन्तमें ब्रह्माजीके साथ मुक्त नहीं होते; अतः दूसरे कल्पमें (प्रजापतिसे ही) ब्रह्मवादी मुनिके रूपमें फिर प्रकट हो जाते हैं ॥ ९ ॥
ते तु प्राप्य स्मृतिं भूयः साङ्ख्यं योगमनुत्तमम् । यान्ति योगगतिं सिद्धाः पुनरावृत्तिदुर्लभाम् ॥ १० ॥
वे फिर पूर्व-कल्पको स्मृति होनेसे परम उत्तम सांख्ययोगका अनुष्ठान करके सिद्ध हो जाते हैं और पुनरावृत्ति (जन्म-मरण)-से रहित योगगतिको प्राप्त होते हैं ॥ १० ॥
एते स्युः पितरस्तात योगिनां योगवर्द्धनाः । आप्याययन्ति ये पूर्वं सोमं योगबलेन च ॥ ११ ॥
तात ! जो पहले योगबलसे सोमको पुष्ट करते हैं, वे ही ये पितर योगियोंके योगको बढ़ानेवाले हैं ॥ ११ ॥
तस्माच्छ्राद्धानि देयानि योगिनां तु विशेषतः । एष वै प्रथमः सर्गः सोमपानां महात्मनाम् ॥ १२ ॥
इसलिये इन योगियोंके लिये विशेषरूपसे श्राद्ध करना चाहिये । यही सोमकी वृद्धि करनेवाले 'सोमपा' नामक पितरोंका प्रथम सर्ग है ॥ १२ ॥
एतेषां मानसी कन्या मेना नाम महागिरेः । पत्नी हिमवतः श्रेष्ठा यस्या मैनाक उच्यते ॥ १३ ॥
इन (वैराज पितरों)की मानसी कन्याका नाम मेना है । वह महागिरि हिमाचलकी श्रेष्ठ पत्नी है । उसका पुत्र मैनाक कहा जाता है ॥ १३ ॥
मैनाकस्य सुतः श्रीमान् क्रौञ्चो नाम महागिरिः । पर्वतप्रवरः पुत्रो नानारत्नसमन्वितः ॥ १४ ॥
मैनाकका पुत्र महागिरि श्रीमान् क्रौड (पर्वत) है, जो पर्वतोंमें श्रेष्ठ और नाना प्रकारके रनोंसे भरा-पूरा है ॥ १४ ॥
तिस्रः कन्यास्तु मेनायां जनयामास शैलराट् । अपर्णामेकपर्णां च त्रितीयामेकपाटलाम् ॥ १५ ॥
पर्वतराज हिमालयने मेनाके गर्भसे तीन कन्याएँ उत्पन्न कॉ, जिनके नाम थे-अपर्णा, एकपर्णा तथा तीसरी एकपाटला ॥ १५ ॥
तपश्चरन्त्यः सुमहद् दुश्चरं देवदानवैः । लोकान्सन्तापयामासुस्तास्तिस्रः स्थाणुजङ्गमान् ॥ १६ ॥
इन तीनों कन्याओंने ऐसी घोर तपस्याका अनुष्ठान प्रारम्भ किया, जो देवताओं और दानवोंके लिये भी दुष्कर थी, इससे उन तीनोंने स्थावर-जङ्गमसहित समस्त लोकोंको संतप्त कर दिया ॥ १६ ॥
आहारमेकपर्णेन एकपर्णा समाचरत् । पाटलापुष्पमेकं च आदधावेकपाटला ॥ १७ ॥
(उन दिनों) एकपर्णा एक ही पत्ता खाकर रह जाती थी और एकपाटला पाटला (ताम्रपुष्पी)-के एक ही पुष्पको आहाररूपमें ग्रहण करती थी ॥ १७ ॥
एका तत्र निराहारा तां माता प्रत्यषेधयत् । 'उ' 'मा' इति निषेधन्ती मातृस्नेहेन दुःखिता ॥ १८ ॥
उनमेंसे एक (अपर्णा सर्वथा) निराहार रहने लगी । तब मातृस्नेहके कारण दुःखित हो उसकी माताने उससे 'उ' 'मा' (अरी ! ऐसा मत कर) कहकर (निराहार रहनेका) निषेध किया ॥ १८ ॥
सा तथोक्ता तया मात्रा देवी दुश्चरचारिणी। उमेत्येवाभवत् ख्याता त्रिषु लोकेषु सुन्दरी ॥ १९ ॥
वह दुश्वर तप करनेवाली सुन्दरी देवी इस प्रकार माताद्वारा कहे जानेपर इस 'उमा' नामसे ही तीनों लोकोंमें विख्यात हो गयी ॥ १९ ॥
तथैव नाम्ना तेनेह विश्रुता योगधर्मिणी । एतत्तु त्रिकुमारीकं जगत्स्थास्यति भार्गव ॥ २० ॥
उसी प्रकार वह योगधर्मका पालन करनेवाली उसी नामसे विख्यात हुई । भार्गव ! इन तीन कुमारियों (-की तपःशक्ति)से युक्त होकर ही यह जगत् स्थिर रहेगा ॥ २० ॥
तपःशरीरास्ताः सर्वास्तिस्रो योगबलान्विताः । सर्वाश्च ब्रह्मवादिन्यः सर्वाश्चैवोर्ध्वरेतसः ॥ २१ ॥
इन तीनोंका शरीर तपोमय है, ये सब योगबलसे सम्पन्न हैं तथा ये सभी ब्रह्मवादिनी और ऊर्ध्वरेता हैं ॥ २१ ॥
उमा तासां वरिष्ठा च ज्येष्ठा च वरवर्णिनी । महायोगबलोपेता महादेवमुपस्थिता ॥ २२ ॥
उमा उन सबमें ज्येष्ठ, श्रेष्ठ, सुन्दरी तथा महान् योगबलसे सम्पन्न थीं । उनका विवाह महादेवजीसे हुआ ॥ २२ ॥
असितस्यैकपर्णा तु देवलस्य महात्मनः । पत्नी दत्ता महाब्रह्मन् योगाचार्याय धीमते ॥ २३ ॥
महाब्रह्मन् । एकपर्णा बुद्धिमान् महात्मा योगाचार्य असितदेवलको पनीरूपमें दी गयी ॥ २३ ॥
जैगीषव्याय तु तथा विद्धि तामेकपातलाम् । एते चापि महाभागे योगाचार्यावुपस्थिते ॥ २४ ॥
इसी प्रकार एकपाटला जैगीषव्यको ब्याही गयी थी, ये दोनों महाभाग्यवती कन्याएँ योगाचार्योंकी सेवामें उपस्थित हुई हैं ॥ २४ ॥
लोकाः सोमपदा नाम मरीचेर्यत्र वै सुताः । पितरो यत्र वर्तन्ते देवास्तान् भावयन्त्युत ॥ २५ ॥
(अब दूसरे गण अग्निष्वात्त पितरोंका वर्णन करते हैं-) पितरोंके लिये दूसरे सोमपद नामवाले लोक हैं, जहाँ मरीचि प्रजापतिके पुत्र 'पितर' होकर रहते हैं । वहाँ देवता इनकी पूजा करते हैं ॥ २५ ॥
अग्निष्वात्ता इति ख्याताः सर्व एवामितौजसः । एतेषां मानसी कन्या अच्छोदा नाम निम्नगा ॥ २६ ॥
ये सब अमिततेजस्वी पितर अग्निष्वात्त नामसे प्रसिद्ध हैं । अच्छोदा नामकी नदी इनकी मानसी कन्या है ॥ २६ ॥
अच्छोदं नाम विख्यातं सरो यस्याः समुत्थितम् । तया न दृष्टपूर्वास्ते पितरस्तु कदाचन ॥ २७ ॥
उसीसे अच्छोद नामक प्रसिद्ध सरोवर प्रकट हुआ है । उस (नदीरूपी मानसी कन्या)-ने इन पितरोंको पहले कभी नहीं देखा था ॥ २७ ॥
अप्यमूर्तानथ पितॄन् सा ददर्श शुचिस्मिता । संभूता मनसा तेषां पितॄन् स्वान्नाभिजानती ॥ २८ ॥
उस पवित्र मुसकानवालीने अमूर्त पितरोंको भी दिव्यदृष्टिसे देखा । पर उन्हें देखकर भी वह यह न जान सकी कि ये मेरे पिता हैं और मैं इनके मनसे उत्पन्न हुई हूँ ॥ २८ ॥
व्रीडिता तेन दुःखेन बभूव वरवर्णिनी । सा दृष्ट्वा पितरं वव्रे वसुं नामान्तरिक्षगम् ॥ २९ ॥ अमावसुरिति ख्यातमायोः पुत्रं यशस्विनम् । अद्रिकाऽप्सरसायुक्तं विमानेऽधिष्ठितं दिवि ॥ ३० ॥
तब वह सुन्दरी अच्छोदा उस दुःखके कारण लजित हो गयी । फिर उसने वसुको, जो आयुके यशस्वी पुत्र, अमावसु नामसे विख्यात, अन्तरिक्षचारी और स्वर्गमें अद्रिका अप्सराके साथ विमानमें बैठे थे, देखा और उन्हींको अपना पिता मान लिया ॥ २९-३० ॥
सा तेन व्यभिचारेण मनसः कामरूपिणी । पितरं प्रार्थयित्वान्यं योगभ्रष्टा पपात ह ॥ ३१ ॥
वह इच्छानुसार रूप धारण करनेवाली स्त्री दूसरेको पिता बनाकर मानसिक व्यभिचारके कारण योगभ्रष्ट होकर गिरने लगी ॥ ३१ ॥
त्रीण्यपश्यद्विमानानि पतमाना दिवश्च्युता । त्रसरेणुप्रमाणानि साऽपश्यत् तेषू तान् पितॄन् ॥ ३२ ॥ सुसूक्ष्मानपरिव्यक्तानग्नीनग्नीष्विवाहितान् । त्रायध्वमित्युवाचार्ता पतन्ती तानवाक्शिराः ॥ ३३ ॥
स्वर्गसे भ्रष्ट होकर नीचेको गिरती हुई अच्छोदाने त्रसरेणुके आकारके तीन विमानोंको देखा । तदनन्तर उसने उनमें (बैठे हुए) उन पितरोंको देखा, जो अत्यन्त सूक्ष्म, स्पष्ट न दीख पड़नेवाले और अग्नियोंमें स्थापित अनिके समान उद्दीप्त हो रहे थे । नीचे सिर करके गिरती हुई अच्छोदाने उनसे आर्त स्वरमें कहा-'मेरी रक्षा कीजिये' ॥ ३२-३३ ॥
तैरुक्ता सा तु मा भैषीरिति व्योम्नि व्यवस्थिता । ततः प्रसादयामास तान् पितॄन् दीनया गिरा ॥ ३४ ॥
उन पितरोंने कहा-'डरो मत' उनके ऐसा कहते ही अच्छोदा आकाशमें रुक गयी और फिर दीन वाणीसे उन पितरोंको प्रसन्न करने लगी ॥ ३४ ॥
ऊचुस्ते पितरः कन्यां भ्रष्टैश्वर्यां व्यतिक्रमात् । भ्रष्टैश्वर्या स्वदोषेण पतसि त्वं शुचिस्मिते ॥ ३५ ॥
व्यतिक्रमके कारण पुत्रीको ऐश्वर्यसे भ्रष्ट हुई देख वे पितर कहने लगे-'शुचिस्मिते ! तू अपने ही दोषसे ऐश्वर्यसे भ्रष्ट होकर गिर रही है' ॥ ३५ ॥
यैः क्रियन्ते हि कर्माणि शरीरैर्दिवि देवतैः । तैरेव तत्कर्मफलं प्राप्नुवन्तीह देवताः ॥ ३६ ॥
स्वर्गस्थ देवता जिन शरीरोंके द्वारा जैसा कर्म करते हैं, उन कर्मोका फल वे उन शरीरोंको ही धारण करके भोगते हैं ॥ ३६ ॥
सद्यः फलन्ति कर्माणि देवत्वे प्रेत्य मानुषे । तस्मात्त्वं तपसः पुत्रि प्रेत्येदं प्राप्स्यसे फलम् ॥ ३७ ॥
देवयोनिमें दैवयोगवश बने हुए कर्म तत्काल ही फल देते हैं और मनुष्ययोनिमें किये हुए कर्मोंका फल मरनेके बाद मिला करता है, अत: पुत्रि ! तू मरनेके बाद तपस्याका फल प्राप्त करेगी ॥ ३७ ॥
इत्युक्ता पितृभिः सा तु पितॄन् प्रासादयत्स्वकान् । ध्यात्वा प्रसादं ते चक्रुस्तस्याः सर्वेऽनुकम्पया ॥ ३८ ॥
पितरोंके इस प्रकार कहनेपर उसने अपने पितरोंको प्रसन्न किया । तब उन लोगोंने दयापूर्वक उसके कल्याणके विषयमें विचार किया ॥ ३८ ॥
अवश्यं भाविनं ज्ञात्वा तेऽर्थमूचुस्ततस्तु ताम् । अस्य राज्ञो वसोः कन्या त्वमपत्यं भविष्यसि ॥ ३९ ॥ उत्पन्नस्य पृथिव्यां तु मानुषेषु महात्मनः । कन्या च भूत्वा लोकान् स्वान् पुनः प्राप्स्यसि दुर्लभान् ॥ ४० ॥
वे अवश्य होनेवाली घटनाको जानकर उससे कहने लगे-'जब यह महात्मा वसु मृत्युलोकमें मनुष्ययोनिमें उत्पन्न होगा, तब तू इस राजाकी कन्या होगी । इस प्रकार इसकी कन्या बनकर तू फिर अपने दुर्लभ लोकोंको प्राप्त करेगी ॥ ३९-४० ॥
पराशरस्य दायादं त्वं पुत्रं जनयिष्यसि । स वेदमेकं ब्रह्मर्षीश्चतुर्धा विभजिष्यति ॥ ४१ ॥ महाभिषस्य पुत्रौ द्वौ शन्तनोः कीर्तिवर्द्धनौ । विचित्रवीर्यं धर्मज्ञं तथा चित्राङ्गदं शुभम् ॥ ४२ ॥
तू पराशर ऋषिका वंशधर पुत्र उत्पन्न करेगी । वह ब्रह्मर्षि एक वेदको चार भागोंमें विभक्त करेगा । फिर तू (जो) महाभिष* शन्तनु नामवाले राजाकी कीर्तिको बढ़ानेवाले दो पुत्रोंको उत्पत्र करेगी, उनमेंसे एक धर्मज्ञ पुत्रका नाम विचित्रवीर्य होगा और दूसरे कल्याणमय पुत्रका नाम चित्राङ्गद ॥ ४१-४२ ॥
एतानुत्पाद्य पुत्रांस्त्वं पुनर्लोकानवाप्स्यसि । व्यतिक्रमात् पितॄणां च जन्म प्राप्स्यसि कुत्सितम् ॥ ४३ ॥
इन पुत्रोंको उत्पन्न करके तू अपने लोकोंमें फिर आ जायगी । पितरोंका व्यतिक्रम करनेके कारण तुझे कुत्सित जन्म मिलेगा ॥ ४३ ॥
अस्यैव राज्ञः कन्या त्वमद्रिकायां भविष्यसि । अष्टाविंशे भवित्री त्वं द्वापरे मत्स्ययोनिजा ॥ ४४ ॥
तू इसी राजाके द्वारा अद्रिकाके गर्भसे कन्यारूपमें उत्पन्न होगी और अट्ठाईस द्वापर में मछलीकी संतानके रूपमें प्रकट होगी ॥ ४४ ॥
एवमुक्त्वा तु दाशेयी जाता सत्यवती तदा । मत्स्ययोनौ समुत्पन्ना राज्ञस्तस्य वसोः सुता ॥ ४५ ॥
पितरोंके इस प्रकार कहनेपर वह राजा वसुकी पुत्री (बनकर) मत्स्ययोनिमें उत्पन्न हुई । वही दाशेयी (दाशराजकी पुत्री) तथा सत्यवती कहलाती है ॥ ४५ ॥
वैभ्राजा नाम ते लोका दिवि सन्ति सुदर्शनाः । यत्र बर्हिषदो नाम पितरो दिवि विश्रुताः ॥ ४६ ॥
(अब पितरोंके तीसरे गण बर्हिषदोंका वर्णन करते हैं-) स्वर्गमें वैभ्राज* नामके दर्शनीय लोक हैं । जहाँ बर्हिषद् नामवाले धुलोक-विख्यात पितृगण निवास करते हैं ॥ ४६ ॥
तान् वै देवगणाः सर्वे यक्षगन्धर्वराक्षसाः । नागाः सर्पाः सुपर्णाश्च भावयन्त्यमितौजसः ॥ ४७ ॥
समस्त देवगण, यक्ष, गन्धर्व, राक्षस, नाग, सर्प तथा अमिततेजस्वी गरुड आदि उन (बर्हिषद् नामवाले पितरों)-की उपासना करते हैं ॥ ४७ ॥
एते पुत्रा महात्मानः पुलस्त्यस्य प्रजापतेः । महात्मानो महाभागास्तेजोयुक्तास्तपस्विनः ॥ ४८ ॥
ये बर्हिषद् नामक पितर महाभाग्यवान्, तेजस्वी, तपस्वी और महात्मा हैं तथा महान् आत्मबलसे युक्त प्रजापति पुलस्त्यके पुत्र हैं ॥ ४८ ॥
एतेषां मानसी कन्या पीवरी नाम विश्रुता । योगा च योगिपत्नी च योगिमाता तथैव च ॥ ४९ ॥ भवित्री द्वापरं प्राप्य युगं धर्मभृतां वरा पराशरकुलोद्भूतः शुको नाम महातपाः ॥ ५० ॥ भविष्यति युगे तस्मिन्महायोगी द्विजर्षभः । व्यासादरण्यां संभूतो विधूमोऽग्निरिव ज्वलन् ॥ ५१ ॥
इन (बर्हिषद् पितरों)-की मानसी कन्या पीवरी नामसे विख्यात है । पीवरी स्वयं योगिनी, योगीकी पत्नी तथा योगियोंकी माता है । धर्मधारिणी स्त्रियोंमें श्रेष्ठ यह पीवरी द्वापरमें उत्पन्न होनेवाली है । उसी युगमें पराशरके कुलमें व्यासजीके द्वारा अरणीसे आविर्भूत धूमरहित अग्निके समान प्रकाशमान, महातपस्वी, महायोगी, द्विजत्रेष्ठ शुक उत्पन्न होंगे ॥ ४९-५१ ॥
स तस्यां पितृकन्यायां पीवर्यां जनयिष्यति । कन्यां पुत्रांश्च चतुरो योगाचार्यान् महाबलान् ॥ ५२ ॥ कृष्णं गौरं प्रभुं शंभुं कृत्वीं कन्यां तथैव च । ब्रह्मदत्तस्य जननीं महिषीं त्वणुहस्य च ॥ ५३ ॥
वे ही शुकदेव पितरोंकी इस कन्या पीवरीमें कृष्ण, गौर, प्रभु और शम्भु-इन चार महाबली योगाचार्य पुत्रों तथा ब्रह्मदत्तकी जननी और अणुहकी पनी कृत्वी नामवाली कन्याको उत्पन्न करेंगे ॥ ५२-५३ ॥
एतानुत्पाद्य धर्मात्मा योगाचार्यान् महाव्रतान् । श्रुत्वा स्वजनकाद् धर्मान् व्यासादमितबुद्धिमान् ॥ ५४ ॥ महायोगी ततो गन्ता पुनरावर्तिनीं गतिं । यत्तत्पदमनुद्विग्नमव्ययं ब्रह्म शाश्वतम् ॥ ५५ ॥
वे धर्मात्मा इन महाव्रतधारी योगाचार्योंको उत्पन्न कर अपने पिता व्यासजीसे धर्मोका रहस्य सुनेंगे । तदनन्तर अपार बुद्धिवाले महायोगी शुक अपुनरावर्तिनी गतिको प्राप्त होंगे । वह परमगति उद्वेगरहित, कभी नष्ट न होनेवाला तथा सनातन ब्रह्मपदरूप है ॥ ५४-५५ ॥
अमूर्तिमन्तः पितरो धर्ममूर्तिधरा मुने । कथा यत्रेयमुत्पन्ना वृष्ण्यन्धककुलान्वया ॥ ५६ ॥
मुने ! अमूर्तिमान् पितर धर्ममय शरीर धारण करनेवाले हैं । इन्हींसे वृष्णि और अन्धक कुलोंसे सम्बन्ध रखनेवाली यह कथा आरम्भ होती है ॥ ५६ ॥
सुकाला नाम पितरो वसिष्ठस्य प्रजापतेः । निरता दिवि लोकेषु ज्योतिर्भासिषु भासुराः । सर्वकामसमृद्धेषु द्विजास्तान्भावयन्त्युत ॥ ५७ ॥
सुकाल नामक पितर प्रजापति वसिष्ठके पुत्र हैं । वे दीप्तिमान् पितर स्वर्गमें सभी कामोपभोगोंसे परिपूर्ण तथा ज्योतिर्मय लोकोंमें निवास करते हैं । ब्राह्मणलोग उनकी आराधना करते हैं ॥ ५७ ॥
तेषां वै मानसी कन्या गौर्नाम्ना दिवि विश्रुता । तवैव वंशे या दत्ता शुकस्य महिषी प्रिया । एकशृङ्गेति विख्याता साध्यानां किर्तिवर्द्धिनी ॥ ५८ ॥
(मार्कण्डेयजी कहते हैं-भीष्म !) इन (सुकाल नामक पितरों)-की मानसी कन्या स्वर्गमें गौ नामसे विख्यात है । वह तुम्हारे ही वंशमें दी गयी है । वह शुककी प्रिया भार्या है । साध्योंकी कीर्ति बढ़ानेवाली वह गौ (यहाँ) एकशृङ्गा नामसे प्रसिद्ध है ॥ ५८ ॥
मरीचिगर्भांस्ताँल्लोकान् समाश्रित्य व्यवस्थिताः । ये त्वथाङ्गिरसः पुत्राः साध्यैः संवर्द्धिताः पुरा ॥ ५९ ॥
(अब क्षत्रियोंद्वारा पूज्य आङ्गिरस पितरोंका वर्णन करते हैं-) पहले जिनका साध्योंने पोषण किया था, वे अङ्गिरा ऋषिके पुत्र आङ्गिरस पितर सूर्यकी किरणोंसे प्रकाशित होनेवाले लोकोंका आश्रय लेकर रहते हैं ॥ ५९ ॥
तान् क्षत्रियगणांस्तात भावयन्ति फलार्थिनः । तेषां तु मानसी कन्या यशोदा नाम विश्रुता ॥ ६० ॥
तात ! फल चाहनेवाले क्षत्रिय लोग उन (आङ्गिरस पितरों)-का पूजन करते हैं । उन (आगिरस पितरों)-की मानसी कन्या यशोदा नामसे प्रसिद्ध है ॥ ६० ॥
पत्नी सा विश्वमहतः स्नुषा वै वृद्धशर्मणः । राजर्षेर्जननी चापि दिलीपस्य महात्मनः ॥ ६१ ॥
वह विश्वमहान्की पत्नी, वृद्धशर्माकी पुत्रवधू एवं राजर्षि महात्मा दिलीपकी माता है ॥ ६१ ॥
तस्य यज्ञे पुरा गीता गाथाः प्रीतैर्महर्षिभिः । तदा देवयुगे तात वाजिमेधे महामखे ॥ ६२ ॥
तात ! उस समय देवयुगमें उस (दिलीप)-के अश्वमेध नामक महायज्ञमें महर्षियोंने प्रसन्न होकर यह गाथा गायी थी- ॥ ६२ ॥
अग्नेर्जन्म तथा श्रुत्वा शांडिल्यस्य महात्मनः । दिलीपं यजमानं ये पश्यन्ति सुसमाहिताः । सत्यवन्तं महात्मानं तेऽपि स्वर्गजितो नराः ॥ ६३ ॥
जो मनुष्य चित्तको एकाग्र करके शाण्डिल्यगोत्रमें उत्पन्न महात्मा अग्निके जन्मको सुनकर सत्यवादी महात्मा दिलीपको यज्ञ करते देखते हैं, वे भी स्वर्गको जीत लेंगे ॥ ६३ ॥
सुस्वधा नाम पितरः कर्दमस्य प्रजापतेः । समुत्पन्नास्तु पुलहान्महात्मानो द्विजर्षभाः ॥ ६४ ॥
कर्दम प्रजापतिके सुस्वधा नामवाले पितर हैं, जो ब्राह्मणोंमें श्रेष्ठ और महान् आत्मबलसे सम्पन्न हैं तथा महर्षि पुलहसे उत्पन्न हुए हैं ॥ ६४ ॥
लोकेषु दिवि वर्तन्ते कामगेषु विहङ्गमाः । तांश्च वैश्यगणांस्तात भावयन्ति फलार्थिनः ॥ ६५ ॥
तात ! ये आकाशमें विचरण करनेवाले (सुस्वधा संज्ञक पितर) स्वर्गमें इच्छानुसार सब कामनाओंकी पूर्ति करनेवाले लोकोंमें रहते हैं । फल-कामुक वैश्यगण इनकी उपासना करते हैं ॥ ६५ ॥
तेषां वै मानसी कन्या विरजा नाम विश्रुता । ययातेर्जननी ब्रह्मन्महिषी नहुषस्य च ॥ ६६ ॥
(सनत्कुमारजी कहते हैं-) ब्रान् ! उनको मानसी कन्या विरजा नामसे प्रसिद्ध है । वह ययातिको माता और नहुषकी पत्नी है ॥ ६६ ॥
त्रय एते गणाः प्रोक्ताश्चतुर्थं तु निबोध मे । उत्पन्ना ये स्वधायां ते सोमपा वै कवेः सुताः । हिरण्यगर्भस्य सुताः शूद्रास्तान्भावयन्त्युत ॥ ६७ ॥
यह मैंने मनुष्यपूज्य पितरोंके तीन गणोंका वर्णन कर दिया । अब चौथे गणका वर्णन सुनी । ये पितृगण कविकी पुत्री स्वधाके गर्भसे उत्पन्न हुए पुत्र हैं और सोमपा कहलाते हैं । ये अग्निके आत्मज हैं । शूद्र इनकी उपासना करते हैं ॥ ६७ ॥
मानसा नाम ते लोका यत्र तिष्ठन्ति ते दिवि । तेषां वै मानसी कन्या नर्मदा सरितां वरा ॥ ६८ ॥
वे स्वर्गमें जिन लोकोंमें निवास करते हैं, वे मानसलोक कहलाते हैं । उनकी मानसी कन्या नर्मदा कहलाती है, जो नदियोंमें श्रेष्ठ है । ६८ ॥
या भावयति भूतानि दक्षिणापथगामिनी । पुरुकुत्सस्य या पत्नी त्रसद्दस्योर्जनन्यपि ॥ ६९ ॥
वह दक्षिणापथकी ओर बहकर प्राणियोंको पवित्र करती है । वह पुरुकुत्सकी पत्नी और त्रसदस्युकी माता है ॥ ६९ ॥
तेषामथाभ्युपगमान्मनुस्तात युगे युगे । प्रवर्तयति श्राद्धानि नष्टे धर्मे प्रजापतिः ॥ ७० ॥
तात ! प्रजापति मनु प्रत्येक युगके आरम्भमें इन पितरोंको पूज्य समझकर लुप्त हुए श्राद्ध-धर्मका उद्धार करनेके लिये श्राद्धोंको फिर प्रचलित किया करते हैं ॥ ७० ॥
पितॄणामादिसर्गेण सर्वेषां द्विजसत्तम । तस्मादेनं स्वधर्मेण श्राद्धदेवं वदन्ति वै ॥ ७१ ॥
द्विजसत्तम ! (यम) इन सब सात प्रकारके पितरोंके आदिमें उत्पन्न होते हैं और ये अपने धर्मके प्रवर्तक हैं । इस कारण इनको श्राद्धदेव कहते हैं । ७१ ॥
सर्वेषां राजतं पात्रमथ वा रजतान्वितम् । दत्तं स्वधां पुरोधाय श्राद्धं प्रीणाति वै पितॄन् ॥ ७२ ॥
इन सब पितरोंको चाँदीका या चाँदी मिला हुआ पात्र तथा 'स्वधा पितृभ्यः' कहकर दिया हुआ श्राद्ध तृति एवं प्रसन्नता प्रदान करता है ॥ ७२ ॥
सोमस्याप्यायनं कृत्वा अग्नेर्वैवस्वतस्य च । उदगायनमप्यग्नावग्न्यभावेऽप्सु वा पुनः ॥ ७३ ॥ पितृन् प्रीणाति यो भक्त्या पितरः प्रीणयन्ति तम् । यच्छन्ति पितरः पुष्टिं प्रजाश्च विपुलास्तथा ॥ ७४ ॥ स्वर्गमारोग्यमेवाथ यदन्यदपि चेप्सितम् । देवकार्यादपि मुने पितृकार्यं विशिष्यते ॥ ७५ ॥
जो मनुष्य सोम, अग्नि और वैवस्वत यमका आप्यायन करके फिर अग्निमें उदगायन करता है अथवा अग्निके अभावमें जलमें उदगायन करके पितरोंको भक्तिपूर्वक तृप्त करता है, उसे पितर तृप्त करते हैं तथा बहुत-सी संतान, पुष्टि, स्वर्ग एवं आरोग्य और समस्त अभीष्ट वस्तुएँ प्रदान करते हैं । मुने ! पितृकार्य देवकार्यसे भी श्रेष्ठ है ॥। ७३-७५ ॥
देवतानां हि पितरः पूर्वमाप्यायनं स्मृतम् । शीघ्रप्रसादा ह्यक्रोधा लोकस्याप्यायनं परम् ॥ ७६ ॥
पितर आप्यायन (तृप्त) करनेपर देवताओंसे भी पहले प्रसन्न हो जाते हैं । ये पितर शीघ्र प्रसन्न होनेवाले तथा क्रोधरहित हैं और लोकोंको प्रसन्न रखनेवाले हैं ॥ ७६ ॥
स्थिरप्रसादाश्च सदा तान् नमस्यस्व भार्गव । पितृभक्तोऽसि विप्रर्षे मद्भक्तश्च विशेषतः ॥ ७७ ॥
(सनत्कुमारजी मार्कण्डेय ऋषिसे कहते हैं-) भार्गव ! पितरोंका प्रसाद सदा स्थिर रहनेवाला होता है, इसलिये तुम उन्हें प्रणाम किया करो । विप्रर्षे ! तुम पितरोंके भक्त हो और मेरे तो बहुत बड़े भक्त हो ॥ ७७ ॥
श्रेयस्तेऽद्य विधास्यामि प्रत्यक्षं कुरु तत्स्वयम् । दिव्यं चक्षुः सविज्ञानं प्रदिशामि च तेऽनघ ॥ ७८ ॥
निष्पाप महर्षे ! इसलिये मैं आज तुम्हारा कल्याण करूँगा, उसे तुम स्वयं प्रत्यक्ष देख लो । मैं तुम्हें विज्ञानसहित दिव्य नेत्र प्रदान करता हूँ ॥ ७८ ॥
गतिमेतामप्रमत्तो मार्कण्डेय निशामय । न हि योगगतिर्दिव्या पितृणां च परा गतिः ॥ ७९ ॥ त्वद्विधेनापि सिद्धेन दृश्यते मांसचक्षुषा । स एवमुक्त्वा देवेशो मामुपस्थितमग्रतः ॥ ८० ॥ चक्षुर्दत्त्वा सविज्ञानं देवानामपि दुर्लभम् । जगाम गतिमिष्टां वै द्वितीयोऽग्निरिव ज्वलन् ॥ ८१ ॥
मार्कण्डेय ! अब तुम (श्राद्धके फलरूपमें मिलनेवाली) इस गतिको सावधान होकर देखो । तुमजैसा सिद्ध पुरुष भी इस मांसमय चक्षुसे योगियोंकी दिव्य गतिको और पितरोंको परा गतिको नहीं देख सकता । यों कहकर वे देवेश सामने खड़े हुए मुझको देवताओंके लिये भी दुर्लभ विज्ञानसहित दिव्य नेत्र देकर द्वितीय अग्निके समान प्रकाशित होते हुए अपने इष्टस्थानको चले गये ॥ ७९-८१ ॥
तन्निबोध कुरुश्रेष्ठ यन्मयासीन्निशामितम् । प्रसादात् तस्य देवस्य दुर्ज्ञेयं भुवि मानुषैः ॥ ८२ ॥
कुरुश्रेष्ठ भीष्य ! उन देवताकी कृपासे मैंने जो घटना देखी थी, उसे तुम सुनौ । पृथिवीमें उस घटनाका जानना मनुष्योंके लिये महा कठिन है ॥ ८२ ॥
इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे हरिवंशपर्वणि पितृकल्पे अष्टादशोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीमहाभारत खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें पितृकल्पविषयक अठारहवां अध्याय पूरा हुआ ॥ १८ ॥
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