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श्रीहरिवंशपुराण
हरिवंश पर्व
एकोनविंशोऽध्यायः


पितृकल्पः - ३
पितृकल्प-भरद्वाजके पुत्रोंकी कथा, योगभ्रष्ट पुरुषोंकी गति, योगसिद्धिके अधिकारी पुरुषोंके लक्षण तथा मार्कण्डेय-सनत्कुमार-संवादकी समाप्ति


मार्कण्डेय उवाच
आसन्पूर्वयुगे तात भरद्वाजात्मजा द्विजाः ।
योगधर्ममनुप्राप्य भ्रष्टा दुश्चरितेन वै ॥ १ ॥
मार्कण्डेयजी कहते हैं-(सनत्कुमारजीने अन्तर्धान होनेसे पहले मुझसे इस प्रकार कहा-) तात ! पूर्वयुगमें कुछ ब्राह्मण रहते थे, जो भरद्वाजके पुत्र थे । वे योगधर्मका सेवन करते-करते दुराचारमें फँस जानेके कारण (स्वर्गसे) भ्रष्ट हो गये थे ॥ १ ॥

अपभ्रंशमनुप्राप्ता योगधर्मापचारिणः ।
महतः सरसः पारे मानसस्य विसंज्ञिताः ॥ २ ॥
वे योगधर्मका उल्लङ्घन करनेवाले ब्राह्मण अचेतन-से होकर महान् मानसरोवरके तटपर आकर गिरे ॥ २ ॥

तमेवार्थमनुध्यायन्तो नष्टमप्स्विव मोहिताः ।
अप्राप्य योगं ते सर्वे संयुक्ताः कालधर्मणा ॥ ३ ॥
वे सभी जलमें डूबते हुए पुरुषके समान मोहमें पड़ गये और उसी योगविषयका विचार करते-करते योगके तत्त्वको बिना पाये ही मर गये ॥ ३ ॥

ततस्ते योगविभ्रष्टा देवेषु सुचिरोषिताः ।
जाताः कौषिकदायादाः कुरुक्षेत्रे नरर्षभाः ॥ ४ ॥
अब वे योगभ्रष्ट नरश्रेष्ठ भरद्वाजपुत्र, जो दीर्घकालतक देवताओंमें रह चुके हैं, कुरुक्षेत्रमें कौशिकके पुत्र बनकर उत्पन्न होंगे ॥ ४ ॥

हिंसया विहरिष्यन्तो धर्मं पितृकृतेन वै ।
ततस्ते पुनराजातिं भ्रष्टाः प्राप्स्यन्ति कुत्सिताम् ॥ ५ ॥
वे (ब्राह्मण होनेपर भी) पितरोंके लिये धर्म (श्राद्ध)-के बहाने हिंसा करेंगे, फिर वह हिंसारूपी पाप करनेके कारण भ्रष्ट होकर कुत्सित योनिमें उत्पन्न होंगे ॥ ५ ॥

तेषां पितृप्रसादेन पूर्वजातिकृतेन वै ।
स्मृतिरुत्पत्स्यते प्राप्य तां तां जातिं जुगुप्सिताम् ॥ ६ ॥
परंतु पूर्वजन्मके पितरोंकी कृपाके कारण उस-उस निन्दित योनिमें उत्पन्न होनेपर भी उनको पूर्वजन्मकी स्मृति बनी रहेगी ॥ ६ ॥

ते धर्मचारिणो नित्यं भविष्यन्ति समाहिताः ।
ब्राह्मण्यं प्रतिलप्स्यन्ति ततो भूयः स्वकर्मणा ॥ ७ ॥
वे प्रत्येक जन्ममें धर्मात्मा रहकर अपने चित्तको सावधान रखेंगे और (अन्तमें) अपने कर्मवश फिर ब्राह्मणत्वको प्राप्त कर लेंगे ॥ ७ ॥

ततश्च योगं प्राप्स्यन्ति पूर्वजातिकृतं पुनः ।
भूयः सिद्धिमनुप्राप्ताः स्थानं प्राप्स्यन्ति शाश्वतम् ॥ ८ ॥
उस जन्ममें वे पुनः अपने पूर्वजन्मके योगको पायेंगे और फिर सिद्धिको पाकर शाश्वत स्थानको प्राप्त करेंगे ॥ ८ ॥

एवं धर्मे च ते बुद्धिर्भविष्यति पुनः पुनः ।
योगधर्मे च नितरां प्राप्स्यसे बुद्धिमुत्तमाम् ॥ ९ ॥
इसी प्रकार तुम्हारी बुद्धि भी बारम्बार धर्ममें ही लगी रहेगी और तुम्हें योगधर्मके विषयमें सब प्रकारसे उत्तम बुद्धि प्राप्त होगी ॥ ९ ॥

योगो हि दुर्लभो नित्यमल्पप्रज्ञैः कदाचन ।
लब्ध्वापि नाशयन्त्येनं व्यसनैः कटुतामिताः ।
अधर्मेष्वेव वर्तन्ते प्रार्दयन्ते गुरूनपि ॥ १० ॥
अल्पबुद्धि मनुष्योंको योगसिद्धि मिलना सदा दुर्लभ है । उन्हें कदाचित् योगसिद्धि मिल भी जाय तो वे (मृगया आदि) व्यसनोंसे क्रूर होकर उसे नष्ट कर डालते हैं । वे अधर्मके कामों में ही लगे रहते हैं तथा अपने गुरुजनोंको भी कष्टमें डालते रहते हैं ॥ १० ॥

याचन्ते न त्वयाच्यानि रक्षन्ति शरणागतान् ।
नावजानन्ति कृपणान् माद्यन्ते न धनोष्मणा ॥ ११ ॥
युक्ताहारविहाराश्च युक्तचेष्टाः स्वकर्मसु ।
ध्यानाध्ययनयुक्ताश्च न नष्टानुगवेषिणः ॥ १२ ॥
नोपभोगरता नित्यं न मांसमधुभक्षणाः ।
न च कामपरा नित्यं न विप्रासेविनस्तथा ॥ १३ ॥
नानार्यसंकथासक्ता नालस्योपहतास्तथा ।
नात्यन्तमानसंसक्ता गोष्ठीषु निरतास्तथा ॥ १४ ॥
प्राप्नुवन्ति नरा योगं योगो वै दुर्लभो भुवि ।
प्रशान्ताश्च जितक्रोधा मानाहङ्कारवर्जिताः ॥ १५ ॥
जो अयाच्यसे याचना नहीं करते, शरणागतोंकी रक्षा करते हैं, कृपण (दीन) पुरुषोंका अपमान नहीं करते तथा जो धनकी गर्मीसे मदमत्त नहीं होते, जिनका आहार-विहार शास्त्रानुकूल होता है, जो अपने कर्मों में शास्त्रानुसार चेष्टा करते हैं, ईश्वरके ध्यान तथा स्वाध्यायमें परायण रहते हैं, नष्ट हुई वस्तुको पानेके लिये चोर आदिको नहीं ढूँढते, सर्वदा भोगमें ही लीन नहीं रहते, सर्वदा मधु-मांसका भक्षण नहीं करते और सर्वदा कामपरायण भी नहीं रहते तथा जो सर्वदा ब्राह्मणोंकी सेवा करते हैं, अनार्य पुरुषोंकी बातोंमें आसक्त नहीं होते, जिनको कभी आलस्य नहीं सताता, जो अत्यन्त अभिमानमें आसक्त नहीं रहते, सदा आत्ममीमांसा करने में लगे रहते हैं, ऐसे शान्त चित्तवाले, क्रोधको जीतनेवाले, मान तथा अहंकाररहित मनुष्योंको योगसिद्धि मिलती है; क्योंकि पृथ्वीमें योगकी प्राप्ति अति दुर्लभ है ॥ ११-१५ ॥

कल्याणभाजनं ये तु ते भवन्ति यतव्रताः ।
एवंविधास्तु ते तात ब्राह्मणा ह्यभवंस्तदा ॥ १६ ॥
ऐसे व्रतोंका पालन करनेवाले मनुष्य ही कल्याणके पात्र होते हैं । तात ! वे (भरद्वाजपुत्र) ऐसे ही ब्राह्मण बनकर उत्पन्न हुए हैं ॥ १६ ॥

स्मरन्ति ह्यात्मनो दोषं प्रमादकृतमेव तु ।
ध्यानाध्ययनयुक्ताश्च शान्ते वर्त्मनि संस्थिताः ॥ १७ ॥
वे अपने प्रमादवश हुए दोषका स्मरण करते रहते हैं और ध्यान तथा स्वाध्यायमें लगे रहकर शान्त मार्गमें स्थित रहते थे ॥ १७ ॥

योगधर्माद्धि धर्मज्ञ न धर्मोऽस्ति विशेषवान् ।
वरिष्ठः सर्वधर्माणां तमेवाचर भार्गव ॥ १८ ॥
धर्मज्ञ भार्गव ! योगधर्मसे श्रेष्ठ और कोई धर्म नहीं है । वह सभी धर्मोंसे श्रेष्ठ है, अतः तुम उसीका आचरण करो ॥ १८ ॥

कालस्य परिणामेन लघ्वाहारो जितेन्द्रियः ।
तत्परः प्रयतः श्राद्धी योगधर्ममवाप्स्यसि ॥ १९ ॥
यदि तुम श्रद्धापूर्वक प्रयत्नशील एवं योगधर्ममें परायण रहकर हलका भोजन करते हुए जितेन्द्रिय रहोगे तो कालक्रमसे तुम्हें योगसिद्धि प्राप्त हो जायगी ॥ १९ ॥

इत्युक्त्वा भगवान् देवस्तत्रैवान्तरधीयत ।
अष्टादशैव वर्षाणि त्वेकाहमिव मेऽभवत् ॥ २० ॥
(मार्कण्डेयजी कहते हैं कि) इतनी बातें कहकर भगवान् सनत्कुमार वहाँ अन्तर्धान हो गये । ये (सनत्कुमारकी सेवामें बीते हुए) अठारह वर्ष मुझे एक दिनके समान प्रतीत हुए ॥ २० ॥

उपासतस्तं देवेशं वर्षाण्यष्टादशैव मे ।
प्रसादात् तस्य देवस्य न ग्लानिरभवत् तदा ॥ २१ ॥
अठारह वर्षतक उन देवेशकी उपासना करते रहनेपर भी उनकी कृपाके कारण उस समय मुझे कुछ भी ग्लानि नहीं हुई ॥ २१ ॥

न क्षुत्पिपासे कालं वा जानामि स्म तदानघ ।
पश्चाच्छिष्यसकाशात् तु कालः संविदितो मया ॥ २२ ॥
निष्पाप ! मुझे भूख, प्यास और समय आदि कुछ न मालूम हुआ । बादमें शिष्यके द्वारा मुझे समयका पता लगा ॥ २२ ॥

इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे हरिवंशपर्वणि
पितृकल्पे एकोनविंशोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीमहाभारत खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें पितृकल्पविषयक उनीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १९ ॥




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