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श्रीहरिवंशपुराण
हरिवंश पर्व
एकविंशोऽध्यायः


पितृकल्पः
पितृकल्प-मार्कण्डेयजीद्वारा श्राद्धकी महिमाका वर्णन, श्राद्धके फलसे कौशिक-पुत्रोंको उत्तम जन्मकी प्राप्ति


मार्कण्डेय उवाच
श्राद्धे प्रतिष्ठितो लोकः श्राद्धे योगः प्रवर्तते ।
हन्त ते वर्तयिष्यामि श्राद्धस्य फलमुत्तमम् ॥ १ ॥
मार्कण्डेयजी बोले-यह सारा संसार श्राद्धमें ही प्रतिष्ठित है और श्राद्धसे ही योग सम्पन्न होता है । अतः मैं तुमसे श्राद्धके उत्तम फलका वर्णन करता हूँ ॥ १ ॥

ब्रह्मदत्तेन यत्प्राप्तं सप्तजातिषु भारत ।
तत एव हि धर्मस्य बुद्धिर्निर्वर्तते शनैः ॥ २ ॥
भारत ! ब्रह्मदत्तने (भारद्वाज, कौशिक, व्याध, मृग, चक्रवाक, हंस और श्रोत्रिय-इन) सात जन्मोंमें जो (श्राद्ध) धर्मका फल पाया था, उसको सुननेसे शनैः शनैः धर्म-बुद्धि प्राप्त हो जाती है ॥ २ ॥

पीडयाप्यथ धर्मस्य कृते श्राद्धे पुरानघ ।
यत् प्राप्तं ब्राह्मणैः पूर्वं तन्निबोध महामते ॥ ३ ॥
निष्पाप महामते ! प्राचीन कालमें कुछ ब्राह्मणोंने (हिंसारूपी अधर्मके द्वारा) धर्मको पीड़ित करनेपर भी श्राद्ध करके जो फल पाया था, उसे तुम सुनो ॥ ३ ॥

ततोऽहं तात धर्मिष्ठान् कुरुक्षेत्रे पितृव्रतान् ।
सनत्कुमारनिर्दिष्टानपश्यं सप्त वै द्विजान् ॥ ४ ॥
दिव्येन चक्षुषा तेन यानुवाच पुरा विभुः ।
वाग्दुष्टः क्रोधनो हिंस्रः पिशुनः कविरेव च ।
खसृमः पितृवर्ती च नामभिः कर्मभिस्तथा ॥ ५ ॥
विभु सनत्कुमारजीने जिनका वर्णन किया था, मैंने अपने दिव्य नेत्रसे सनत्कुमारजीके बताये हुए उन सात ब्राह्मणोंको अधर्ममें परायण होनेपर भी कुरुक्षेत्रमें श्राद्ध करते देखा । उनके नाम इस प्रकार थे-वाग्दुष्ट, क्रोधन, हिंस्र, पिशुन, कवि, खसम (ख अर्थात् आकाशमें सरण करने-विचरनेके स्वभाववाला परलोकार्थी) और पितवर्ती । जैसे उनके नाम थे, वैसे ही उनके कर्म थे ॥ ४-५ ॥

कौशिकस्य सुतास्तात शिष्या गार्ग्यस्य भारत ।
पितर्युपरते सर्वे व्रतवन्तस्तदाभवन् ॥ ६ ॥
तात ! भारत ! वे कौशिक (विश्वामित्र)-के पुत्र थे और जब इनके पिता विश्वामित्र* शाप देकर दिवंगत हो गये, तब वे सभी गाग्यके शिष्य बनकर (ब्रह्मचर्य-) व्रतका पालन करनेके लिये उनके यहाँ रहने लगे ॥ ६ ॥

विनियोगाद् गुरोस्तस्य गां दोग्ध्रीं समकालयन् ।
समानवत्सां कपिलां सर्वे न्यायागतां तदा ॥ ७ ॥
तेषां पथि क्षुधार्तानां बाल्यान्मोहाच्च भारत ।
क्रूरा बुद्धिः समभवत् तां गां वै हिंसितुं तदा ॥ ८ ॥
भारत ! एक समय वे सब गुरुके आज्ञा देनेपर उनकी दुधार कपिला गौ और उसके कपिल वर्णके बछड़ेको वनमें चरानेके लिये ले गये । वह गौ गुरु गार्यको न्यायतः प्राप्त हुई थी । मार्गमें क्षुधासे पीड़ित होनेके कारण उन्होंने मोह और मूर्खताके कारण गौको मारनेका क्रूर विचार किया ॥ ७-८ ॥

तान् कविः खसृमश्चैव याचेते नेति वै तदा ।
न चाशक्यन्त ते ताभ्यां तदा वारयितुं द्विजाः ॥ ९ ॥
उस समय कवि और खस्मने उनसे ऐसा न करनेकी प्रार्थना की; परंतु वे ब्राह्मण इनके द्वारा किसी प्रकार भी रोके न जा सके ॥ ९ ॥

पितृवर्ती तु यस्तेषां नित्यं श्राद्धाह्निको द्विजः ।
स सर्वानब्रवीद् भ्रातॄन् कोपाद्धर्मे समाहितः ॥ १० ॥
तब उनमें जो प्रतिदिन श्राद्ध करनेवाला धर्मात्मा पितृवर्ती नामक द्विज था, वह उन सब भाइयोंसे बिगड़कर बोला ॥ १० ॥

यद्यवश्यं प्रहन्तव्या पितॄनुद्दिश्य साध्विमां ।
प्रकुर्वीमहि गां संयक् सर्व एव समाहितः ॥ ११ ॥
यदि इसे अवश्य ही मारना है तो हमें चित्तको सावधानकर इसे पितरोंके निमित्त ही मारना चाहिये ॥ ११ ॥

एवमेषापि गौर्धर्मं प्राप्स्यते नात्र संशयः ।
पितॄनभ्यर्च्य धर्मेण नाधर्मोऽस्मान् भविष्यति ॥ १२ ॥
ऐसा करनेसे इस गौको भी नि:संदेह धर्मकी प्राप्ति होगी और धर्मपूर्वक पितरोंका पूजन कर देनेसे हमें भी अधर्म न लगेगा ॥ १२ ॥

तथेत्युक्त्वा च ते सर्वे प्रोक्षयित्वा च गां ततः ।
पितृभ्यः कल्पयित्वैनामुपायुञ्जन्त भारत ॥ १३ ॥
भारत ! तब उन सबने 'तथास्तु' कहकर गौका प्रोक्षण किया और उसको पितरोंके निमित्त अर्पित करके उसका मनमाना उपयोग किया ॥ १३ ॥

उपयुज्य च गां सर्वे गुरोस्तस्य न्यवेदयन् ।
शार्दूलेन हता धेनुर्वत्सोऽयं गृह्यतामिति ॥ १४ ॥
गौको उपयोगमें लाकर उन सबोंने गुरुजीसे निवेदन किया कि 'गायको तो सिंहने मार डाला, यह उसका बछड़ा है, इसे आप ग्रहण कीजिये' ॥ १४ ॥

आर्जवात्स तु तं वत्सं प्रतिजग्राह वै द्विजः ।
मिथ्योपचर्य ते तं तु गुरुमन्यायतो द्विजाः ।
कालेन समयुज्यन्त सर्व एवायुषः क्षये ॥ १५ ॥
सरलस्वभाव होनेके कारण उन ब्राह्मणने भी उस बछड़ेको ग्रहण कर लिया । इस प्रकार वे ब्राह्मण अन्यायद्वारा अपने गुरुको धोखा देकर आयु समाप्त होनेपर मृत्युको प्राप्त हुए ॥ १५ ॥

ते वै क्रूरतया हिंस्रा अनार्यत्वाद् गुरौ तथा ।
उग्रा हिंसाविहाराश्च सप्ताजायन्त सोदराः ॥ १६ ॥
तत्पश्चात् अपनी क्रूरता और गुरुसे अनार्यताका व्यवहार करनेके कारण वे सात भाई उग्र स्वभाववाले, हिंसाविहारी व्याध बनकर उत्पन्न हुए ॥ १६ ॥

लुब्धकस्यात्मजास्तात बलवन्तो मनस्विनः ।
पितॄनभ्यर्च्य धर्मेण प्रोक्षयित्वा च गां तदा ॥ १७ ॥
स्मृतिः प्रत्यवमर्शश्च तेषां जात्यन्तरेऽभवत् ।
जाता व्याधा दशार्णेषु सप्त धर्मविचक्षणाः ॥ १८ ॥
तात ! उस समय वे एक बहेलियेके बलवान् एवं मनस्वी पुत्र हुए । उन्होंने धर्मतः पितरोंका पूजनकर गौका प्रोक्षण किया था; इसलिये दूसरा जन्म पानेपर भी उनको अपने पूर्वजन्म और पूर्वजन्ममें किये हुए कर्मोंका स्मरण बना रहा । वे सातों दशार्ण देशमें धर्मकुशल व्याध बनकर उत्पन्न हुए थे ॥ १७-१८ ॥

स्वकर्मनिरताः सर्वे लोभानृतविवर्जिताः ।
तावन्मात्रं प्रकुर्वन्ति यावता प्राणधारणम् ॥ १९ ॥
वे सब लोभ और असत्यसे दूर रहते हुए अपने कर्ममें तत्पर रहते थे और उतना ही भोजन करते थे, जिससे प्राण टिके रहें ॥ १९ ॥

शेषं ध्यानपराः कालामनुध्यायन्ति कर्म तत् ।
नामधेयानि चाप्येषामिमान्यासन्नराधिप ॥ २० ॥
राजन् उनके पास जो समय बचता था, उसमें ध्यानमग्न हो वे अपने (पूर्वजन्मके) कर्मका चिन्तन करते रहते थे । इस जन्ममें उनके नाम इस प्रकार थे- ॥ २० ॥

निर्वैरो निर्वृतिः शान्तो निर्मन्युः कृतिरेव च ।
वैधसो मातृवर्ती च व्याधाः परमधार्मिकाः ॥ २१ ॥
निर्वैर, निवृति, शान्त, निर्मन्यु, कृति, वैधस और मातृवर्ती । ये सभी व्याध परम धार्मिक थे ॥ २१ ॥

तैरेवमुषितैस्तात हिंसाधर्मरतैः सदा ।
माता च पूजिता वृद्धा पिता च परितोषितः ॥। २२ ॥
तात ! इस प्रकार वे दशार्ण देशमें रहकर हिंसामें भी धर्मका पालन करते रहते थे । वे अपनी वृद्धा माताका सत्कार करते थे और पिताको भी संतुष्ट रखते थे ॥ २२ ॥

यदा माता पिता चैव संयुक्तौ कालधर्मणा ।
तदा धनूंषि ते त्यक्त्वा वने प्राणानवासृजन् ॥ २३ ॥
जब उनके मातापिता मर गये, तब उन्होंने अपने-अपने धनुषका परित्याग कर वनमें (अनशन आदिके द्वारा) अपने प्राण त्याग दिये ॥ २३ ॥

शुभेन कर्मणा तेन जाता जातिस्मरा मृगाः ।
त्रासानुत्पाद्य संविग्ना रम्ये कालञ्जरे गिरौ ॥ २४ ॥
(माता-पिताके सेवारूप) शुभ कर्मके कारण वे पूर्वजन्मका स्मरण रखनेवाले मृग बनकर उत्पन्न हुए । (पहले हिंसाके द्वारा दूसरोंको) त्रास देनेके कारण वे रमणीय कालञ्जर पर्वतपर सदा उद्विग्न रहते थे ॥ २४ ॥

उन्मुखो नित्यवित्रस्तः स्तब्धकर्णो विलोचनः ।
पण्डितो घस्मरो नादी नामतस्तेऽभवन् मृगाः ॥ २५ ॥
उन मृगोंके नाम उन्मुख, नित्यवित्रस्त, स्तब्धकर्ण, विलोचन, पण्डित, घस्मर और नादी थे ॥ २५ ॥

तमेवार्थमनुध्यायन्तो जातिस्मरणसंभवम् ।
आसन्वनचराः क्षान्ता निर्द्वन्द्वा निष्परिग्रहाः ॥ २६ ॥
(उस जन्ममें भी) पूर्वजन्मकी स्मृति होनेसे याद आये हुए उन्हीं कों और उनके फलोंका स्मरण करते हुए वे मग धैर्यपूर्वक कष्ट सहन करते, शीत-उष्ण आदि द्वन्द्वोंकी परवा नहीं करते और परिग्रह (हिरनियोंके संग)-से दूर रहकर वनमें घूमते रहते थे ॥ २६ ॥

ते सर्वे शुभकर्माणः सधर्माणो वनेचराः ।
योगधर्ममनुप्राप्ता विहरन्ति स्म तत्र ह ॥ २७ ॥
वे सब समानरूपसे धर्मका पालन करते और शुभकर्मोंमें तत्पर रहते थे एवं योगधर्मका आश्रय लेकर (आत्मविचार करते हुए) वनमें इधर-उधर घूमते रहते थे ॥ २७ ॥

जहुः प्राणान्मरुं साध्य लघ्वाहारास्तपस्विनः ।
तेषां मरुं साधयतां पदस्थानानि भारत ।
तथैवाद्यापि दृश्यन्ते गिरौ कालञ्जरे नृप ॥ २८ ॥
भारत ! उन मृगोंने हल्का आहार तथा मरु (निर्जल रहने)-की साधना करके तपस्यामें तत्पर हो वहाँ अपने प्राण त्याग दिये । राजन् ! जल न पीनेकी साधना करनेवाले उन मृगोंके पैरोंके चिह्न कालजर पर्वतपर अब भी पूर्ववत् दिखायी देते हैं ॥ २८ ॥

कर्मणा तेन ते तात शुभेनाशुभवर्जिताः ।
शुभाच्छुभतरां योनिं चक्रवाकत्वमागताः ॥ २९ ॥
तात ! इस शुभ कर्मके कारण वे अशुभ योनिसे छूटकर अति शुभ चक्रवाककी योनिमें उत्पन्न हुए ॥ २९ ॥

शुभे देशे शरद्वीपे सप्तैवासञ्जलौकसः ।
त्यक्त्वा सहचरीधर्मं मुनयो ब्रह्मचारिणः ॥ ३० ॥
वे सातों कल्याणमय शरद्वीप (जलद्वीप)-में जलचर पक्षी बनकर उत्पन्न हुए । वहाँ भी वे सहचरीधर्म अर्थात् सहवासका त्यागकर ब्रह्मचारी मुनि बनकर रहने लगे ॥ ३० ॥

निःस्पृहो निर्ममः क्षान्तो निर्द्वन्द्वो निष्परिग्रहः ।
निर्वृत्तिर्निभृतश्चैव शकुना नामतः स्मृताः ॥ ३१ ॥
(इस चक्रवाक-जन्ममें) उनके नाम नि:स्पृह, निर्मम, क्षान्त, निर्द्वन्दु, निष्परिग्रह, निवृत्ति और निभृत थे ॥ ३१ ॥

ते तत्र पक्षिणः सर्वे शकुना धर्मचारिणः ।
निराहारा जहुः प्राणांस्तपोयुक्ताः सरित्तटे ॥ ३२ ॥
उन सब धर्माचारी पक्षियोंने नदीके किनारेपर निराहार रहकर तप करते-करते अपने प्राणोंको त्याग दिया ॥ ३२ ॥

अथ ते सोदरा जाता हंसा मानसचारिणः ।
जातिस्मराः सुसंयुक्ताः सप्तैव ब्रह्मचारिणः ॥ ३३ ॥
तदनन्तर वे सातों सहोदर भाई मानसरोवरपर विचरनेवाले हंसके रूपमें उत्पन्न हुए । इस जन्ममें भी उनको अपने (पूर्व) जन्मोंका स्मरण बना रहता था । अत: वे सातों ही सदा साथ रहकर पूर्णरूपसे ब्रह्मचर्यका पालन करते थे ॥ ३३ ॥

विप्रयोनौ यतो मोहान्मिथ्योपचरितो गुरुः ।
तिर्यग्योनौ ततो जाताः संसारे परिबभ्रमुः ॥ ३४ ॥
उन्होंने ब्राह्मणयोनिमें मोहवश अपने गुरुसे मिध्या-भाषण किया था, इसलिये वे तिर्यक्-योनिमें उत्पन्न होकर संसारमें भटक रहे थे ॥ ३४ ॥

यतश्च पितृवाक्यार्थः कृतः स्वार्थे व्यवस्थितैः ।
ततो ज्ञानं च जातिं च ते हि प्रापुर्गुणोत्तराम् ॥ ३५ ॥
स्वार्थमें तत्पर रहनेपर भी उन्होंने पितरोंके श्राद्धनिमित्त संकल्प बोलकर कार्य किया था, इसलिये उन्हें उत्तरोत्तर उत्कृष्ट गुणसे युक्त ज्ञान और जन्म मिलता गया ॥ ३५ ॥

सुमनाः शुचिवाक्छुद्धः पञ्चमश्छिद्रदर्शनः ।
सुनेत्रश्च स्वतन्त्रश्च शकुना नामतः स्मृताः ॥ ३६ ॥
(इस जन्ममें) उन हंसोंके नाम थे-सुमना, शुचिवाक्, शुद्ध, पझम, छिद्रदर्शन, सुनेत्र और स्वतन्त्र ॥ ३६ ॥

पञ्चमः पाञ्चिकस्तत्र सप्तजातिष्वजायत ।
षष्ठस्तु कण्डरीकोऽभूद् ब्रह्मदत्तस्तु सप्तमः ॥ ३७ ॥
उन (वाग्दुष्ट आदि कौशिकपुत्रों) में जो पाँचवाँ (कवि) था, वह भावी सातवें जन्ममें पाश्चिक (नामक राजमन्त्री) हुआ । छठा (खसृम भावी मनुष्य-जन्ममें) कण्डरीक हुआ और सातवाँ (पितृवर्ती भावी सातवें जन्ममें) ब्रह्मदत्त हुआ ॥ ३७ ॥

तेषां तु तपसा तेन सप्तजातिकृतेन वै ।
योगस्य चापि निर्वृत्त्या प्रतिभानाच्च शोभनात् ॥ ३८ ॥
पूर्वजातिषु यद् ब्रह्म श्रुतं गुरुकुलेषु वै ।
तथैवावस्थिता बुद्धिः संसारेष्वपि वर्तताम् ॥ ३९ ॥
उन्होंने सातों जन्मोंमें जो तप किया उससे, योगसिद्धिसे, पूर्वजन्मके कौकी स्मृति होनेसे तथा पूर्वजन्ममें गुरुकुलमें रहकर जो वेदाध्ययन किया गया था, उसके प्रभावसे संसारमें भ्रमण करनेपर भी उनकी बुद्धि वैसी ही बनी रही, बदली नहीं ॥ ३८-३९ ॥

ते ब्रह्मचारिणः सर्वे विहङ्गा ब्रह्मवादिनः ।
योगधर्ममनुध्यान्तो विहरन्ति स्म तत्र ह ॥ ४० ॥
वे सभी आकाशचारी हंस ब्रह्मचारी तथा ब्रह्मवादी होकर योगधर्मका पालन करते हुए विचरते रहे ॥ ४० ॥

तेषां तत्र विहङ्गानां चरतां सहचारिणाम् ।
नीपानामीश्वरो राजा विभ्राजः पौरवान्वयः ॥ ४१ ॥
विभ्राजमानो वपुषा प्रभावेन समन्वितः ।
श्रीमानन्तःपुरवृतो वनं तत्प्रविवेश ह ॥ ४२ ॥
इस प्रकार वे सब पक्षी वहाँ साथ-साथ विचर रहे थे, इतनेहीमें नीपोंका स्वामी पौरववंशी श्रीमान् विभ्राज अपने शरीरकी कान्तिसे प्रकाशित होता और अपना प्रभाव दिखाता हुआ अपने अन्तःपुरको लेकर उस वनमें आया ॥ ४१-४२ ॥

स्वतन्त्रश्च विहङ्गोऽसौ स्पृहयामास तं नृपम् ।
दृष्ट्वाऽऽयान्तं श्रियोपेतं भवेयमहमीदृशः ॥ ४३ ॥
यद्यस्ति सुकृतं किञ्चित्तपो वा नियमोऽपि वा ।
खिन्नोऽस्मि ह्युपवासेन तपसा निष्फलेन च ॥ ४४ ॥
तब स्वतन्त्र नामवाले हंसने वहाँ आये हुए उस लक्ष्मीवान् राजाको देखकर उसके समान बननेकी कामना की । (वह विचारने लगा कि) यदि मेरे पास कुछ भी पुण्य, तप या नियम हो तो मैं इस राजाके समान हो जाऊँ । अब मैं इस उपवास और निष्फल तपसे खिन्न हो रहा हूँ ॥ ४३-४४ ॥

इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे हरिवंशपर्वणि
पितृकल्पे एकविंशोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीमहाभारत खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्व में पितकल्पाविषयक इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २१ ॥




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