श्रीहरिवंशपुराण हरिवंश पर्व द्वाविंशोऽध्यायः
पितृकल्पः
पितृकल्प-शुचिवाक् पक्षीका स्वतन्त्र आदि तीन पक्षियोंको शाप देना, सुमना पक्षीका अनुग्रहपूर्वक उन्हें शापसे मुक्त करना
मार्कण्डेय उवाच ततस्तं चक्रवाकौ द्वावूचतुः सहचारिणौ । आवां ते सचिवौ स्यावस्तव प्रियहितैषिणौ ॥ १ ॥
मार्कण्डेयजी बोले-उस समय उस स्वतन्त्र पक्षीके साथमें रहनेवाले दो चक्रवाकोंने उससे कहाहम आपका प्रिय एवं हित चाहनेवाले आपके मन्त्री बनेंगे ॥ १ ॥
तथेत्युक्त्वा च तस्यासीत् तदा योगात्मिका मतिः । एवं ते समयं चक्रुः शुचिवाक् तमुवाच ह ॥ २ ॥
तब स्वतन्त्रने कहा-'बहुत अच्छा' । यों कहकर वह पुन: अपने योगधर्मका विचार करने लगा । जब इस प्रकार उन तीनोंने प्रतिज्ञा कर ली, तब शुचिवाक्ने उस (स्वतन्त्र)-से कहा ॥ २ ॥
यस्मात् कामप्रधानस्त्वं योगधर्ममपास्य वै । एवं वरं प्रार्थयसे तस्माद् वाक्यं निबोध मे ॥ ३ ॥
तू योगधर्मको छोड़कर कामप्रधान धर्मकी कामनासे ऐसा वर माँग रहा है, इसलिये तू मेरा यह शाप सुन ले ॥ ३ ॥
राजा त्वं भविता तात काम्पिल्ये नात्र संशयः । भविष्यतः सखायौ च द्वाविमौ सचिवौ तव ॥ ४ ॥
तात ! तू काम्पिल्य नगरका राजा बनकर उत्पन्न होगा, इसमें संदेह नहीं । तेरे ये दोनों मित्र भी तेरे मन्त्री बनकर उत्पन्न होंगे ॥ ४ ॥
शप्त्वा चानभिभाष्यांस्ताञ्चत्वारश्चक्रुरण्डजाः । तांस्त्रीनभीप्सतो राज्यं व्यभिचारप्रदर्शितान् ॥ ५ ॥
(इस प्रकार) शेष चार पक्षियोंने राज्यकी इच्छा करके योगधर्मसे भ्रष्ट होनेवाले उन तीन पक्षियोंको शाप देकर उनसे बोलना भी छोड़ दिया ॥ ५ ॥
शप्ताः खगास्त्रयस्ते तु योगभ्रष्टा विचेतसः । तानयाचन्त चतुरस्त्रयस्ते सहचारिणः ॥ ६ ॥
इस प्रकार योगभ्रष्ट होनेके कारण शापसे ग्रस्त हुए वे तीनों पक्षी डरके मारे अचेत हो गये । उन तीनों साथियोंने चारों पक्षियोंसे (शापका अनुग्रह करनेकी) प्रार्थना की ॥ ६ ॥
तेषां प्रसादं ते चक्रुरथैतान् सुमनाब्रवीत् । सर्वेषामेव वचनात्प्रसादानुगतं वचः ॥ ७ ॥
तब उन्होंने उनके ऊपर कृपा की और सबकी सम्मतिसे सुमनाने अनुग्रहपूर्वक यह बात कही- ॥ ७ ॥
अन्तवान् भविता शापो युष्माकं नात्र संशयः । इतश्च्युताश्च मानुष्यं प्राप्य योगमवाप्स्यथ ॥ ८ ॥
इसमें संदेह नहीं कि तुम्हारे इस शापका शीघ्र ही अन्त होगा । यहाँ योगसे भ्रष्ट होकर तुम मनुष्ययोनिमें उत्पन्न होगे और अन्तमें फिर तुम्हें योगज्ञान प्राप्त होगा ॥ ८ ॥
सर्वसत्त्वरुतज्ञश्च स्वतन्त्रोऽयं भविष्यति । पितृप्रसादो ह्यस्माभिरस्य प्राप्तः कृतेन वै ॥ ९ ॥ गां प्रोक्षयित्वा धर्मेण पितृभ्य उपकल्प्यताम् । अस्माकं ज्ञानसंयोगः सर्वेषां योगसाधनः ॥ १० ॥
यह स्वतन्त्र नामक हंस सब जीवोंकी बोली समझनेवाला होगा । पूर्वजन्ममें इसीके कथनानुसार कार्य करनेसे हमें पितरोंकी कृपा प्राप्त हुई । इसने कहा था कि 'गौका प्रोक्षण करके इसे पितरोंको अर्पित किया जाय । ' इसौके पालनसे हम सबको योगसाधक ज्ञानकी प्राप्ति हुई है ॥ ९-१० ॥
इमं च वाक्यसंदर्भश्लोकमेकमुदाहृतम् । पुरुषान्तरितं श्रुत्वा ततो योगमवाप्स्यथ ॥ ११ ॥
उस मनुष्य-जन्ममें जब कोई पुरुष तुम्हें यह आगे बताया जानेवाला वाक्य संदर्भरूप ('सप्त व्याधा दशाणेषु' आदि) श्लोक सुनायेगा, तब तुम्हें यह मोक्ष देनेवाला ज्ञानमय योगधर्म फिर प्राप्त हो जायगा ॥ ११ ॥
इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे हरिवंशपर्वणि ॥ पितृवाक्ये द्वाविंशोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीमहाभारत खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें पितृकल्पविषयक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २२ ॥
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