श्रीहरिवंशपुराण हरिवंश पर्व त्रयोविंशोऽध्यायः
पितृकल्पः - ७
हंसोंका काम्पिल्य नगरमें ब्रह्मदत्त आदिके रूपमें उत्पन्न होना और चार हंसोंका अपने पितासे आज्ञा लेकर मुक्त हो जाना
मार्कण्डेय उवाच ते योगधर्मनिरताः सप्त मानसचारिणः । पद्मगर्भोऽरविन्दाक्षः क्षीरगर्भः सुलोचनः ॥ १ ॥ उरुबिन्दुः सुबिन्दुश्च हैमगर्भस्तु सप्तमः । वाय्वम्बुभक्षाः सततं शरीराण्युपशोषयन् ॥ २ ॥
मार्कण्डेयजीने कहा-तदनन्तर योगधर्ममें निरत रहनेवाले उन सात मानसचारी हंसोंने, जो पद्मगर्भ, अरविन्दाक्ष, क्षीरगर्भ, सुलोचन, उरुबिन्दु, सुबिन्दु और हैमगर्भ नाम धारण करते थे, केवल जल और वायुका ही भक्षण करके अपने शरीरको सुखाना आरम्भ कर दिया ॥ १-२ ॥
राजा विभ्राजमानस्तु वपुषा तद्वनं तदा । चचारान्तःपुरवृतो नन्दनं मघवानिव ॥ ३ ॥
इधर वह राजा अपने शरीरसे प्रकाश फैलाता हुआ अपनी स्त्रियोंको साथ ले उस वनमें इस प्रकार घूमने लगा, जैसे नन्दनवनमें इन्द्र घूमते हों ॥ ३ ॥
स तानपश्यत्खचरान् योगधर्मात्मकान् नृप । निर्वेदाच्च तमेवार्थमनुध्यायन् पुरं ययौ ॥ ४ ॥
राजन् । उस राजाने उन पक्षियोंको (एकाग्रता आदि बाह्य लक्षणोंसे) योगधर्ममें परायण देखा । इससे वह (पक्षी भी योगसाधन करते हैं । हाय ! मैं मनुष्य होकर भी योगसाधन न कर सका । इस प्रकार) कुछ निर्विण्ण होकर, उसी बातको सोचता हुआ अपने नगरको चला गया ॥ ४ ॥
अणुहो नाम तस्याऽऽसीत्पुत्रः परमधार्मिकः । अणुर्धर्मरतिर्नित्यमणुं सोऽध्यगमत्पदम् ॥ ५ ॥
उसके अणुह । नामक परम धार्मिक पुत्र था । वह अणुह धर्मके सूक्ष्म तत्त्वके चिन्तनमें अनुरक्त था । इसलिये उसे अणुपद (ब्रह्मके सूक्ष्म स्वरूपका बोध) प्राप्त हुआ था ॥ ५ ॥
प्रादात्कन्यां शुकस्तस्मै कृत्वीं पूजितलक्षणाम् । सत्यशीलगुणोपेतां योगधर्मरतां सदा ॥ ६ ॥
उसको शुकने श्रेष्ठ लक्षणोंवाली सत्यशील एवं अन्यान्य गुणों से सम्पन्न और सदा योगधर्मका पालन करनेवाली अपनी कन्या कृत्वी अर्पित की थी ॥ ६ ॥
सा ह्युद्दिष्टा पुरा भीष्म पितृकन्या मनीषिणी । सनत्कुमारेण तदा सन्निधौ मम शोभना ॥ ७ ॥
भीष्म ! जैसा कि सनत्कुमारजीने पहले मुझे बताया था, वह सुन्दरी कन्या कृत्वी पितरोंकी ही बुद्धिमती कन्या (पीवरी) थी ॥ ७ ॥
सत्यधर्मभृतां श्रेष्ठा दुर्विज्ञेया कृतात्मभिः । योगा च योगपत्नी च योगमाता तथैव च ॥ ८ ॥
वह सत्यधर्मका पालन करनेवाली नारियोंमें श्रेष्ठ थी । पुण्यात्मा पुरुष भी उसके स्वरूपको बड़ी कठिनतासे समझ सकते थे । वह स्वयं तो योगिनी थी ही, योगीकी ही पत्नी और योगीकी ही माता भी थी ॥ ८ ॥
यथा ते कतिथं पूर्वं पितृकल्पेषु वै मया । विभ्राजस्त्वणुहं राज्ये स्थापयित्वा नरेश्वरः ॥ ९ ॥ आमन्त्र्य पौरान् प्रीतात्मा ब्राह्मणान् स्वति वाच्य च । प्रायात् सरस्तपश्चर्तुं यत्र ते सहचारिणः ॥ १० ॥
मैंने पहले पितृकल्पके समय ये सब बातें तुम्हें बतायी थीं । राजा विभ्राज अणुहको राज्यसिंहासनपर बैठाकर प्रसन्नचित्त हो पुरवासियोंसे विदा ले ब्राह्मणोंसे स्वस्तिवाचन कराकर जहाँ वे सहचारी हंस रहते थे, उस सरोवरपर तप करनेके लिये चले गये ॥ ९-१० ॥
स वै तत्र निराहारो वायुभक्षो महातपाः । त्यक्त्वा कामांस्तपस्तेपे सरसस्तस्य पार्श्वतः ॥ ११ ॥
वे उस सरोवरके तटपर सब कामनाओंको त्याग निराहार रह वायुको ही पीकर तपस्या करने लगे ॥ ११ ॥
तस्य संकल्प आसीच्च तेषामेकतरस्य वै । पुत्रत्वं प्राप्य योगेन युज्येयमिति भारत ॥ १२ ॥
भारत ! उनका यह संकल्प था कि मैं उन (योगी हंसोंमेंसे) किसी एकका पुत्र बनकर उत्पन्न होऊँ तो मैं भी योगधर्मका पालन कर सकूँगा ॥ १२ ॥
कृत्वाभिसन्धिं तपसा महता स समन्वितः । महातपाः स विभ्राजो विरराजांशुमानिव ॥ १३ ॥
इस प्रकार विचार करके वे महातपस्वी विभ्राज बड़ा भारी तप करके सूर्यके समान सुशोभित होने लगे ॥ १३ ॥
ततो विभ्राजितं तेन वैभ्राजं नाम तद्वनम् । सरस्तच्च कुरुश्रेष्ठ वैभ्राजमिति संज्ञितम् ॥ १४ ॥
कुरुश्रेष्ठ ! उन्होंने (अपने तपसे) उस वनको विभाजित (प्रकाशित) कर दिया । इसलिये वह सरोवर और वह वन भी वैधाज सरोवर और वैभ्राज वनके नामसे प्रसिद्ध हो गये ॥ १४ ॥
यत्र ते शकुना राजंश्चत्वारो योगधर्मिणः । योगभ्रष्टास्त्रयश्चैव देहन्यासकृतोऽभवन् ॥ १५ ॥
राजन् । (इसी समय) उस सरोवरपर उन योगधर्मका पालन करनेवाले चार हंसोंने तथा योगभ्रष्ट तीन हंसोंने भी अपने शरीरको त्याग दिया ॥ १५ ॥
काम्पिल्ये नगरे ते तु ब्रह्मदत्तपुरोगमाः । जाताः सप्त महात्मानः सर्वे विगतकल्मषाः ॥ १६ ॥
वे सातों निष्पाप महात्मा काम्पिल्य नगरमें ब्रह्मदत्त आदि (नामोंसे) उत्पन्न हुए ॥ १६ ॥
ज्ञानध्यानतपःपुजावेदवेदाङ्गपारगाः । स्मृतिमन्तोऽत्र चत्वारस्त्रयस्तु परिमोहिताः ॥ १७ ॥
ये सब ज्ञान, ध्यान, तप और पूजामें लगे रहते थे तथा वेद-वेदाङ्गके पारगामी विद्वान् थे । इनमें चारको तो अपने पूर्वजन्मोंका स्मरण था और तीन शापसे मोहित होनेके कारण अपने पूर्वजन्मकी स्मृतिसे वञ्चित थे ॥ १७ ॥
स्वतन्त्रस्त्वणुहाज्जज्ञे ब्रह्मदत्तो महायशाः । यथा ह्यासीत्पक्षिभावे संकल्पः पूर्वचिन्तितः । ज्ञानध्यानतपःपूतो वेदवेदाङ्गपारगः ॥ १८ ॥
स्वतन्त्रने अपने पक्षी-शरीरमें जैसा संकल्प किया था, उसीके अनुसार वह अणुहके महायशस्वी पुत्र ब्रह्मदत्तके रूपमें उत्पन्न हुआ । वह ज्ञान, ध्यान और तप करके पवित्र हो गया था तथा वेद और वेदाङ्गका पारगामी विद्वान् था ॥ १८ ॥
छिद्रदर्शी सुनेत्रश्च तथा बाभ्रव्यवत्सयोः । जातौ श्रोत्रियदायादौ वेदवेदाङ्गपारगौ ॥ १९ ॥
बाभ्रव्य और वत्स-(ये दोनों वहाँ राजा अणुहके मन्त्री तथा श्रोत्रिय ब्राह्मण थे । ) छिद्रदर्शन और सुनेत्र नामक हंस उन्हीं श्रोत्रिय राजमन्त्रियोंके कुलमें वेदवेदाङ्गके पारगामी श्रोत्रिय पुत्र बनकर उत्पन्न हुए ॥ १९ ॥
सहायौ ब्रह्मदत्तस्य पूर्वजातिसहोषितौ । पाञ्चालः पाञ्चिकश्चैव कण्डरीकस्तथापरः ॥ २० ॥
ये दोनों पहले जन्ममें ब्रह्मदत्तके साथ रहे थे और उनकी सहायता करनेके लिये उत्पन्न हुए थे । (इनमें जो पूर्ववर्ती छ: जन्मोंमें अपने सात भाइयोंमेंसे) पाँचवाँ (होकर उत्पन्न हुआ था, वह कवि सातवें जन्ममें) पाञ्चाल नामक श्रोत्रिय हुआ और छठा (खसम) कण्डरीक नामसे प्रसिद्ध हुआ ॥ २० ॥
पाञ्चालो बह्वृचस्त्वासीदाचार्यत्वं चकार ह । द्विवेदः कण्डरीकस्तु छन्दोगोऽध्वर्युरेव च ॥ २१ ॥
इनमें पाशाल बढ़च अर्थात् ऋग्वेदी था । वह आचार्य (पुरोहित)-का काम करने लगा और कण्डरीक छन्दोंका गान करनेवाला सामवेदी तथा अध्वर्यु (यजुर्वेदी) हुआ, इस प्रकार वह दो वेदोंका ज्ञाता था ॥ २१ ॥
सर्वसत्त्वरुतज्ञस्तु राजाऽऽसीदणुहात्मजः । पाञ्चालकण्डरीकाभ्यां तस्य सख्यमभूत् तदा ॥ २२ ॥
अणुहका पुत्र राजा ब्रह्मदत्त सब प्राणियोंकी बोलीको समझ लेता था । उसकी पाञ्चाल और कण्डरीकसे मित्रता हो गयी ॥ २२ ॥
ते ग्राम्यधर्माभिरताः कामस्य वशवर्तिनः । पूर्वजातिकृतेनासन् धर्मकामार्थकोविदाः ॥ २३ ॥
वे तीनों ग्राम्यधर्म (संसारी पुरुषोंके धर्म)-में मग्न रहते थे और काम (इच्छा)-के वशमें होकर चलते थे । उन्होंने पूर्वजन्ममें जो सत्कर्म किया था, उसके फलसे वे धर्म, अर्थ और कामके तत्त्वज्ञ हुए ॥ २३ ॥
अणुहस्तु नृपश्रेष्ठो ब्रह्मदत्तमकल्मषम् । राज्येऽभिषिच्य योगात्मा परां गतिमवाप्तवान् ॥ २४ ॥
राजाओंमें श्रेष्ठ अणुह निष्पाप ब्रह्मदत्तका राज्यपर अभिषेक करके स्वयं योग-साधन कर परम गतिको प्राप्त हो गये ॥ २४ ॥
ब्रह्मदत्तस्य भार्या तु देवलस्यात्मजाभवत् । असितस्य हि दुर्धर्षा सन्नतिर्नाम नामतः ॥ २५ ॥
असित देवलकी पुत्री, जिसका नाम संनति था तथा जिसका तिरस्कार करना किसीके लिये भी बहुत कठिन था, राजा ब्रह्मदत्तकी धर्मपत्नी हुई ॥ २५ ॥
तामेकभावसंपन्नां लेभे कन्यामनुत्तमाम् । सन्नतिं सन्नतिमतीं देवलाद् योगधर्मिणीम् ॥ २६ ॥
उस एकभाव (ब्रह्मभाव)-से सम्पन्न, नम्रताकी मूर्ति, योगधर्मका पालन करनेवाली संनति नामकी श्रेष्ठ कन्याको ब्रह्मदत्तने देवल ऋषिसे पत्नीके रूपमें प्राप्त किया था ॥ २६ ॥
पञ्चमः पाञ्चिकस्तत्र सप्तजातिषु भारत । षष्ठस्तु कण्डरीकोऽभूद् ब्रह्मदत्तस्तु सप्तमः ॥ २७ ॥
भारत ! जन्मोंमें पाँचवा होकर उत्पन्न होनेवाला पाश्चिक (कवि) पाञ्चाल हुआ, छठा कण्डरीक हुआ और सातवाँ ब्रह्मदत्त हुआ ॥ २७ ॥
शेषा विहङ्गमा ये वै काम्पिल्ये सहचारिणः । ते जाताः श्रोत्रियकुले सुदरिद्रे सहोदराः ॥ २८ ॥
जो शेष सहचारी पक्षी थे, वे काम्पिल्य नगरमें अत्यन्त दरिद्र श्रोत्रियकुलमें सगे भाई बनकर उत्पन्न हुए ॥ २८ ॥
धृतिमान् सुमना विद्वांस्तत्त्वदर्शी च नामतः । वेदाध्ययनसंपन्नाश्चत्वारश्छिद्रदर्शिनः ॥ २९ ॥
वे चारों धृतिमान, सुमना, विद्वान् और तत्त्वदर्शीके नामसे प्रसिद्ध थे और वेदोंके अध्ययन करनेमें लगे रहते थे । साथ ही योगसाधनके लिये गृह-त्यागका अवसर ढूंढ़ते थे अथवा अपने सहचारियोंके भोगासक्तिरूप दूषणपर भी दृष्टि रखते थे ॥ २९ ॥
तेषां संवित्तथोत्पन्ना पूर्वजातिकृता तदा । ये योगनिरताः सिद्धाः प्रस्थिताः सर्व एव हि ॥ ३० ॥
उनकी पूर्वजन्मोंमें जैसी वैराग्यपूर्ण बुद्धि थी, वैसी ही इस जन्ममें प्रकट हुई । अतः ये सब सिद्ध पुरुष योगपरायण हो घरसे चलनेके लिये उद्यत हुए ॥ ३० ॥
आमन्त्र्य पितरं तात पिता तानब्रवीत्तदा । अधर्म एष युष्माकं यन्मां त्यक्त्वा गमिष्यथ ॥ ३१ ॥
तात ! जब उन्होंने अपने पितासे पूछकर जानेका विचार किया, तब पिताने उनसे यह बात कही-'तुमलोग यदि मुझको छोड़कर वनमें जाओगे तो यह तुम्हारे लिये अधर्म ही होगा ॥ ३१ ॥
दारिद्र्यमनपाकृत्य पुत्रार्थांश्चैव पुष्कलान् । शुश्रूषामप्रयुज्यैव कथं वै गन्तुमर्हथ ॥ ३२ ॥
तुमलोग मेरी दरिद्रता दूर न करके तथा पुत्रद्वारा सिद्ध होनेवाले प्रचुर प्रयोजनोंकी भी सिद्धि एवं मेरी सेवा भी न करके कैसे चले जाना चाहते हो ? क्या यही उचित है ? ॥ ३२ ॥
ते तमूचुर्द्विजाः सर्वे पितरं पुनरेव च । करिष्यामो विधानं ते येन त्वं वर्तयिष्यसि ॥ ३३ ॥
तब उन सब द्विजोंने अपने पितासे कहा-'हमलोग ऐसा उपाय करेंगे जिससे आप जीवन-निर्वाह कर सकेंगे' (तथा हम-जैसे पुत्रोंको पाकर आपको अपने उद्धारके लिये भी चिन्ता करनेकी आवश्यकता नहीं है) ॥ ३३ ॥
इमं श्लोकं महार्थं त्वं राजानं सहमन्त्रिणम् । श्रावयेथाः समागम्य ब्रह्मदत्तमकल्मषम् ॥ ३४ ॥
आप निष्पाप राजा ब्रह्मदतसे मिलकर यह महत्त्वपूर्ण ('सप्त व्याधा दशाणेषु' इत्यादि) श्लोक उनको और उनके मन्त्रियोंको सुनाइयेगा ॥ ३४ ॥
प्रीतात्मा दास्यति स ते ग्रामान् भोगांश्च पुष्कलान् । यथेप्सितांश्च सर्वार्थान् गच्छ तात यथेप्सितम् ॥ ३५ ॥
तात ! इससे प्रसन्न होकर वे आपको बहुतसे ग्राम, प्रचुर भोग और आपके इच्छानुसार सब पदार्थ देंगे । आपकी जब इच्छा हो तब (ब्रह्मदत्तके पास) चले जायें ॥ ३५ ॥
एतावदुक्त्वा ते सर्वे पूजयित्वा च तं गुरुम् । योगधर्ममनुप्राप्य परां निर्वृतिमाययुः ॥ ३६ ॥
इतनी बातें कहकर उन सबोंने अपने पिताकी पूजा की और योगधर्मका साधन कर वे परमानन्दमय मोक्षको प्राप्त हो गये ॥ ३६ ॥
इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे हरिवंशपर्वणि ॥ पितृकल्पे त्रयोविंशोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीमहाभारत खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्व में पितृकल्पविषयक तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २३ ॥
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