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श्रीहरिवंशपुराण
हरिवंश पर्व
चतुर्विंशोऽध्यायः


पितृकल्पः
विभ्राजका ब्रह्मदत्तका पुत्र बनकर उत्पन्न होना, रानी संनतिका ब्रह्मदत्तसे रूठना, एक ब्राह्मणके कहे हुए श्लोकोंसे ब्रह्मदत्त, पाञ्चाल्य और कण्डरीकको अपने पूर्वजन्मका ज्ञान होना तथा ब्रह्मदत्त आदिका तप करके मुक्त हो जाना


मार्कण्डेय उवाच
ब्रह्मदत्तस्य तनयः स विभ्राजस्त्वजायत ।
योगात्मा तपसा युक्तो विष्वक्सेन इति श्रुतः ॥ १ ॥
मार्कण्डेयजीने कहा-जिसके मनमें योग-साधनविषयक संकल्प हुआ था, वह तपस्वी राजा विभ्राज ब्रह्मदत्तका पुत्र होकर उत्पन्न हुआ और (उस जन्ममें) वह विष्वक्सेन नामसे प्रसिद्ध हुआ ॥ १ ॥

कदाचिद् ब्रह्मदत्तस्तु भार्यया सहितो वने ।
विजहार प्रहृष्टात्मा यथा शच्या शचीपतिः ॥ २ ॥
एक समयकी बात है, राजा ब्रह्मदत्त प्रसन्नचित्तसे अपनी भार्याको साथमें लिये उपवनमें इस प्रकार विहार कर रहे थे, जैसे इन्द्र इन्द्राणीके साथ विहार कर रहे हों ॥ २ ॥

ततः पिपीलिकरुतं स शुश्राव नराधिपः ।
कामिनीं कामिनस्तस्य याचतः क्रोशतो भृशम् ॥ ३ ॥
उसी समय राजाने एक चींटेका स्वर सुना, जो कामके वशमें होकर अपनी कामिनी चींटीसे बहुत गिड़गिड़ाकर प्रार्थना कर रहा था ॥ ३ ॥

श्रुत्वा तु याच्यमानां तां क्रुद्धां सूक्ष्मां पिपीलिकाम् ।
ब्रह्मदत्तो महाहासमकस्मादेव चाहसत् ॥ ४ ॥
छोटी-सी चींटी कुपित हो मान किये बैठी है और चींटा उससे याचना कर रहा है, यह देख-सुनकर ब्रह्मदत्त अचानक ही बड़े जोरसे हँस पड़े ॥ ४ ॥

ततः सा संनतिर्दीना व्रीडितेवाभवत् तदा ।
निराहारा बहुतिथं बभूव वरवर्णिनी ॥ ५ ॥
उस समय सुन्दरी रानी संनति लज्जित-सी हो गयी और दीन होकर बहुत दिनोंतक उसने खाना-पीनातक छोड़ दिया ॥ ५ ॥

प्रसाद्यमाना भर्त्रा सा तमुवाच शुचिस्मिता ।
त्वया च हसिता राजन्नाहं जीवितुमुत्सहे ॥ ६ ॥
जब पतिदेव उसे मनाने लगे, तब पवित्र मुसकानवाली संनतिने उनसे कहा-'राजन् ! आपने मेरी हँसी उड़ायी है, अतः मैं जीवित रहना नहीं चाहती' ॥ ६ ॥

स तत्कारणमाचख्यौ न च सा श्रद्दधाति तत् ।
उवाच चैनं कुपिता नैष भावोऽस्ति मानुषे ॥ ७ ॥
तब राजाने हँसनेका कारण बताया, परंतु संनतिने उस बातपर विश्वास नहीं किया और कोपमें भरकर कहा-'मनुष्यमें ऐसी शक्ति (सब प्राणियोंकी बोलीको समझनेकी शक्ति) नहीं हो सकती' ॥ ७ ॥

को वै पिपीलिकरुतं मानुषो वेत्तुमर्हति ।
ऋते देवप्रसादाद् वा पूर्वजातिकृतेन वा ॥ ८ ॥
तपोबलेन वा राजन् विद्यया वा नराधिप ।
यद्येष वै प्रभावस्ते सर्वसत्त्वरुतज्ञता ॥ ९ ॥
यथाहमेतज्जानीयां तथा प्रत्याययस्व माम् ।
प्राणान् वापि परित्यक्ष्ये राजन् सत्येन ते शपे ॥ १० ॥
राजन् ! देवताओंकी कृपा, पूर्वजन्ममें किये हुए तप अथवा विद्या (योगशक्ति)के बिना ऐसा कौन मनुष्य है, जो चीटेकी बोलीको समझ सके । यदि आपमें सब प्राणियोंकी भाषाको समझनेकी शक्ति है तो मैं जिस प्रकार इस बातको समझ सकूँ, उस प्रकार मुझे विश्वास दिलाइये । राजन् ! यदि आप ऐसा न करेंगे तो मैं आपसे सत्यकी शपथ खाकर कहती हूँ, अपने प्राण त्याग दूंगी ॥ ८-१० ॥

तत् तस्या वचनं श्रुत्वा महिष्याः परुषाक्षरम् ।
स राजा परमापन्नो देवश्रेष्ठमगात् ततः ॥ ११ ॥
शरण्यं सर्वभूतेशं भक्त्या नारायणं हरिम् ।
समाहितो निराहारः षड्‌रात्रेण महायशाः ॥ १२ ॥
रानीके इन कठोर शब्दोंको सुनकर राजा बड़ी विपत्तिमें पड़ गये । तब उन्होंने शरणागतरक्षक, समस्त प्राणियोंके स्वामी, देव श्रेष्ठ भगवान् नारायण हरिकी शरण ली । उन महायशस्वी महात्मा राजाको निराहार रह भक्तिपूर्वक समाहितचित्तसे उपासना करते हुए छ: रातें बीत गयीं ॥ ११-१२ ॥

ददर्श दर्शने राजा देवं नारायणं प्रभुम् ।
उवाच चैनं भगवान् सर्वभूतानुकम्पकः ॥ १३ ॥
छठी रातमें राजाने प्रभु नारायणदेवका दर्शन किया । समस्त प्राणियोंपर अकारण दया करनेवाले भगवान्ने राजासे कहा- ॥ १३ ॥

ब्रह्मदत्त प्रभाते त्वं कल्याणं समवाप्स्यसि ।
इत्युक्त्वा भगवान् देवस्तत्रैवान्तरधीयत ॥ १४ ॥
'ब्रह्मदत्त ! प्रातःकाल होनेपर तुझे कल्याणकी प्राप्ति होगी । ' इतनी बात कहकर भगवान् वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ १४ ॥

चतुर्णां तु पिता योऽसौ ब्राह्मणानां महात्मनाम् ।
श्लोकं सोऽधीत्य पुत्रेभ्यः कृतकृत्य इवाभवत् ॥ १५ ॥
इधर जो चारों महात्मा ब्राहाणोंके पिता थे, वे पुत्रोंसे श्लोक सीखकर कृतकृत्य-से हो गये ॥ १५ ॥

स राजानमथान्विच्छन्सहमन्त्रिणमच्युतम् ।
न ददर्शान्तरं किञ्चिच्छ्लोकं श्रावयितुं तदा ॥ १६ ॥
वे धर्मसे कभी च्युत न होनेवाले राजा ब्रह्मदत्त तथा उसके मन्त्रियोंको खोजने लगे, परंतु उन्हें श्लोक सुनानेका कोई अवसर न मिला ॥ १६ ॥

अथ राजा सरःस्नातो लब्ध्वा नारायणाद्वरम् ।
प्रविवेश पुरीं प्रीतो रथमारुह्य काञ्चनम् ।
इतनेमें भगवान् नारायणसे वर पाकर राजा सरोवरमें स्नान करके सुवर्णजटित रथमें बैठे और प्रसन्नतापूर्वक अपनी नगरीमें प्रवेश करने लगे ॥ १७ ॥

तस्य रश्मीन्प्रत्यगृह्णात् कण्डरीको द्विजर्षभः ॥ १७ ॥
चामरं व्यजनं चापि बाभ्रव्यः समवाक्षिपत् ॥ १८ ॥
उस समय ब्राह्मणश्रेष्ठ कण्डरीकने अपने हाथमें ब्रह्मदत्तके घोड़ोंकी बागडोर ले रखी थी और बाभ्रव्य-पुत्र पाशाल उनके ऊपर चैवर और व्यजन (पंखा) डुला रहे थे ॥ १८ ॥

इदमन्तरमित्येव ततः स ब्राह्मणस्तदा ।
श्रावयामास राजानं श्लोकं तं सचिवौ च तौ ॥ १९ ॥
'यही अवसर है' यह समझकर वे ब्राह्मण राजाको और उनके दोनों मन्त्रियोंको उसी समय श्लोक सुनाने लगे ॥ १९ ॥

सप्त व्याधा दशार्णेषु मृगाः कालञ्जरे गिरौ ।
चक्रवाकाः शरद्वीपे हंसाः सरसि मानसे ॥ २० ॥
तेऽभिजाताः कुरुक्षेत्रे ब्राह्मणा वेदपारगाः ।
प्रस्थिता दीर्घमध्वानं यूयं किमवसीदथ ॥ २१ ॥
जो दशार्ण देशमें व्याध, कालकर पर्वतपर मृग, शरद्वीपमें चक्रवाक तथा मानस-सरोवरमें हंस हुए थे, उनमेंसे हम चार तो कुरुक्षेत्रमें वेद-पारगामी कुलीन ब्राह्मण होकर दीर्घमार्गपर चले आये हैं, (अर्थात् योगसाधना करके मुक्त हो गये । अब शेष बचे हुए) तुम (तीन व्यक्ति योगमार्गसे भ्रष्ट होकर) क्यों कष्ट पा रहे हो ? ॥ २०-२१ ॥

तच्छ्रुत्वा मोहमगमद्ब्रह्मदत्तो नराधिपः ।
सचिवश्चास्य पाञ्चाल्यः कण्डरीकश्च भारत ॥ २२ ॥
भारत ! राजा ब्रह्मदत्त वह श्लोक सुनकर मूर्चित हो गये और उनके मन्त्री पाचाल तथा कण्डरीककी भी वही दशा हुई ॥ २२ ॥

स्रस्तरश्मिप्रतोदौ तौ पतितव्यजनावुभौ ।
दृष्ट्वा बभूवुरस्वस्थाः पौराश्च सुहृदस्तथा ॥ २३ ॥
कण्डरीकके हाथमेंसे चाबुक और बागडोर छूट गयीं तथा पाशालके हाथमेंसे भी चँवर और पंखा छूटकर नीचे गिर पड़े । नगरनिवासी और मित्रवर्ग राजा तथा दोनों मन्त्रियोंकी इस दशाको देखकर खित्र हो गये ॥ २३ ॥

मुहुर्तमेव राजा स सह ताभ्यां रथे स्थितः ।
प्रतिलभ्य ततः संज्ञां प्रत्यागच्छदरिन्दमः ॥ २४ ॥
दोनों मन्त्रियोंसहित शत्रुदमन राजा ब्रह्मदत रथमें दो घड़ीतक मूञ्छित पड़े रहे । तत्पश्चात् उन्हें होश आया और ये अपने नगरमें लौट आये ॥ २४ ॥

ततस्ते तत्सरः स्मृत्वा योगं तमुपलभ्य च ।
ब्राह्मणं विपुलैरर्थैर्भोगैश्च समयोजयन् ॥ २५ ॥
तदनन्तर उन तीनोंको उस सरोवरका ध्यान आ गया और अपने पूर्वजन्मके योगका भी स्मरण होने लगा । तब उन्होंने उस ब्राह्मणको बहुत-सा धन और भोग-पदार्थ दिये ॥ २५ ॥

अभिषिच्य स्वराज्ये तु विष्वक्सेनमरिन्दमम् ।
जगाम ब्रह्मदत्तोऽथ सदारो वनमेव ह ॥ २६ ॥
फिर ब्रह्मदत्तने अपने राज्यपर शत्रुदमन विष्वक्सेनका अभिषेक किया और अपनी स्त्रीको साथमें लेकर वनको चल दिये ॥ २६ ॥

अथैनं सन्नतिर्धीरा देवलस्य सुता तदा ।
उवाच परमप्रीता योगाद् वनगतं नृपम् ॥ २७ ॥
तदनन्तर योगसाधन करनेके लिये बनमें आये हुए राजा ब्रह्मदत्तसे देवलकी पुत्री धीरस्वभावा संनतिने परम प्रसन्न होकर कहा- ॥ २७ ॥

जानन्त्या ते महाराज पिपीलिकरुतज्ञताम् । ॥
चोदितः क्रोधमुद्दिश्य सक्तः कामेषु वै मया ॥ २८ ॥
महाराज ! मैं यह बात जानती थी कि आप चाँटीकी बोलीको समझ सकते हैं, तब भी मैंने आपको संसारके भोगोंमें आसक्त देख यह क्रोधका नाटक रचकर आपको योगकी ओर प्रेरित किया है ॥ २८ ॥

इतो वयं गमिष्यामो गतिमिष्टामनुत्तमाम् ।
तव चान्तर्हितो योगस्ततः संस्मारितो मया ॥ २९ ॥
अब हम परम उत्तम अभीष्ट गतिको प्राप्त करेंगे, इसी उद्देश्यसे मैंने आपको भूले हुए योगका स्मरण दिलाया है ॥ २९ ॥

स राजा परमप्रीतः पत्न्याः श्रुत्वा वचस्तदा ।
प्राप्य योगं बलादेव गत्ं प्राप सुदुर्लभाम् ॥ ३० ॥
तब अपनी पत्नीकी यह बात सुनकर राजा बड़े प्रसन्न हुए और योगसाधना करके उन्होंने उसके बलसे ही परम दुर्लभ गति पायी ॥ ३० ॥

कण्डरीकोऽपि धर्मात्मा साङ्ख्ययोगमनुत्तमम् ।
प्राप्य योगगतिः सिद्धो विशुद्धस्तेन कर्मणा ॥ ३१ ॥
धर्मात्मा कण्डरीक भी परमश्रेष्ठ सांख्ययोगका ज्ञान पाकर योगका आश्रय ले उसके साधनसे शुद्ध एवं सिद्ध (मुक्त) हो गये ॥ ३१ ॥

क्रमं प्रणीय पाञ्चाल्यः शिक्षां चोत्पाद्य केवलाम् ।
योगाचार्यगतिं प्राप यशश्चाग्र्यं महातपाः ॥ ३२ ॥
महातपस्वी पाञ्चालने भी वैदिकोंमें प्रसिद्ध क्रमपाठकी विधि एवं विशुद्ध 'शिक्षा' (नामक वेदाङ्ग अथवा योगविषयक शिक्षा)-की रचना करके योगाचार्यकी गति (मोक्ष) तथा उत्तम यश प्राप्त किया ॥ ३२ ॥

एवमेतत्पुरावृत्तं मम प्रत्यक्षमच्युत ।
तद्धारयस्व गाङ्गेय श्रेयसा योक्ष्यसे ततः ॥ ३३ ॥
(मार्कण्डेयजी कहते हैं-) अच्युत भीष्म ! प्राचीन कालमें घटित हुआ यह बाड-माहात्म्य-सूचक वृत्तान्त मैंने प्रत्यक्ष देखा है । तुम भी इसे धारण करो तो तुम्हारा कल्याण होगा ॥ ३३ ॥

ये चान्ये धारयिष्यन्ति तेषां चरितमुत्तमम् ।
तिर्यग्योनिषु ते जातु न गमिष्यन्ति कर्हिचित् ॥ ३४ ॥
जो दूसरे सजन भी उन वागदुष्ट आदिके उत्तम चरित्रको सुनेंगे, वे भी कभी तिर्यक्-योनिमें उत्पन्न न होंगे ॥ ३४ ॥

श्रुत्वा चेदमुपाख्यानं महार्थं महतां गतिम् ।
योगधर्मो हृदि सदा परिवर्तति भारत ॥ ३५ ॥
भारत ! महात्माओंकी सद्रति देनेवाले इस महत्त्वमय उपाख्यानको सुननेसे हृदयमें योगधर्म पूर्णरूपसे प्रकाशित होने लगता है ॥ ३५ ॥

स तेनैवानुबन्धेन कदाचिल्लभते शमम् ।
ततो योगगतिं याति शुद्धां तां भुवि दुर्लभाम् ॥ ३६ ॥
हृदयमें उस योगधर्मको धारण करनेसे ही मनुष्य कभी शान्ति-लाभ करता है । फिर उसे पृथ्वीमें दुर्लभ योगियोंकी शुद्धगति प्राप्त होती है ॥ ३६ ॥

वैशम्पायन उवाच
एवमेतत्पुरा गीतं मार्कण्डेयेन धीमता ।
श्राद्धस्य फलमुद्दिश्य सोमस्याप्यायनाय वै ॥ ३७ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-प्राचीन कालमें बुद्धिमान् मार्कण्डेयजीने श्राद्धके फलको लक्ष्यमें रखकर सोम (चन्द्रमा)-का आप्यायन (पोषण) करनेके लिये यह ऐसी कथा कही थी ॥ ३७ ॥

सोमो हि भगवान् देवो लोकस्याप्यायनं परम् ।
वृष्णिवंशप्रसङ्गेन तस्य वंशं निबोध मे ॥ ३८ ॥
भगवान् सोम ही लोकोंको परम तृप्ति देनेवाले हैं । अब वृष्णिवंशके प्रसङ्गमें तुम चन्द्रवंशका वर्णन सुनो- ॥ ३८ ॥

इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे हरिवंशपर्वणि ॥
पितृकल्पसमाप्तिर्नाम चतुर्विंशोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीमहाभारत खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें पितृकल्पका उपसंहार नामक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २४ ॥




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