श्रीहरिवंशपुराण हरिवंश पर्व पञ्चविंशोऽध्यायः
सोमोत्पत्तिवर्णनम्
चन्द्रमाकी उत्पत्ति और राजसूय यज्ञ, देवासुरसंग्राम तथा बुधकी उत्पत्ति
वैशम्पायन उवाच पिता सोमस्य वै राजन् जज्ञेऽत्रिर्भगवानृषिः । ब्रह्मणो मानसात्पूर्वं प्रजासर्गं विधित्सतः ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-राजन् ! प्राचीन कालमें ब्रह्माजीने प्रजाकी सृष्टि करनेका विचार किया । उस समय उनके मानसिक संकल्पसे सोम (चन्द्रमा) के पिता भगवान् अत्रि ऋषि उत्पन्न हुए ॥ १ ॥
तत्रात्रिः सर्वभूतानां तस्थौ स्वतनयैर्युतः । कर्मणा मनसा वाचा शुभान्येव चचार सः ॥ २ ॥
अत्रि ऋषि भी प्रजाकी सृष्टि में ही संलग्न हुए । वे तथा उनके पुत्र मन, वाणी और कर्मसे सब प्राणियोंका कल्याण करनेवाले कार्य ही करते थे ॥ २ ॥
अहिंस्रः सर्वभूतेषु धर्मात्मा संशितव्रतः । काष्ठकुड्यशिलाभूत ऊर्ध्वबाहुर्महाद्युतिः ॥ ३ ॥ अनुत्तरं नाम तपो येन तप्तं महत्पुरा । त्रीणि वर्षसहस्राणि दिव्यानीति हि नः श्रुतम् ॥ ४ ॥
हमने सुना है कि प्राचीन कालमें प्रशंसनीय व्रतका पालन करनेवाले, महातेजस्वी, धर्मात्मा अत्रि ऋषिने तीन हजार दिव्य वर्षांतक अपनी भुजाएँ ऊपर उठाकर काठ, दीवार और पत्थरके समान निश्चल रहकर किसी प्राणीको तनिक भी कष्ट पहुँचाये बिना ही अनुत्तर* नामक महान् तप किया था ॥ ३-४ ॥
तत्रोर्ध्वरेतसस्तस्य स्थितस्यानिमिषस्य ह । सोमत्वं तनुरापेदे महासत्त्वस्य भारत ॥ ५ ॥
भारत ! अत्रि ऋषि महान् सत्त्वगुणसे सम्पन्न थे । वे एकटक देखते हुए ऊर्ध्वरेता (ब्रह्मचारी) रहकर सोमकी भावनासे खड़े-खड़े तपस्या करते थे, अतः उनका शरीर सोमरूपमें परिणत हो गया ॥ ५ ॥
ऊर्ध्वमाचक्रमे तस्य सोमत्वं भावितात्मनः । नेत्राभ्यां वारि सुस्राव दशधा द्योतयद् दिशः ॥ ६ ॥
शुद्ध अन्त:करणवाले मुनिके नेत्रोंसे वह सोमरूप तेज, जलरूपमें बह निकला और दसों दिशाओंको प्रकाशित करता हुआ आकाशमें चढ़ने लगा ॥ ६ ॥
तं गर्भं विधिना हृष्टा दश देव्यो दधुस्तदा । समेत्य धारयामासुर्न च ताः समशक्नुवन् ॥ ७ ॥
तब प्रसन्नतामें भरी हुई दस दिशारूपी देवियोंने सम्मिलित हो उस तेजको अपने गर्भमें विधिपूर्वक धारण किया, परंतु वे उस तेजको धारण करनेमें समर्थ न हो सकीं ॥ ७ ॥
स ताभ्यः सहसैवाथ दिग्भ्यो गर्भः प्रभान्वितः । पपात भासयँल्लोकाञ्छीतांशुः सर्वभावनः ॥ ८ ॥
तब (औषध आदिके द्वारा) सब लोकोंको पुष्ट करनेवाला शीतल किरणोंसे सुशोभित वह प्रकाशमान गर्भ लोकोंको प्रकाशित करता हुआ दिग्देवियोंकि उदरसे सहसा गिर पड़ा ॥ ८ ॥
यदा न धारणे शक्तास्तस्य गर्भस्य ता दिशः । ततस्ताभिः सहैवाशु निपपात वसुन्धराम् ॥ ९ ॥
जब दिशाएँ उस गर्भके तेजको न रोक सकीं तो वह गर्भ उनके साथ ही पृथ्वीपर गिर पड़ा ॥ ९ ॥
पतितं सोममालोक्य ब्रह्मा लोकपितामहः । रथमारोपयामास लोकानां हितकाम्यया ॥ १० ॥
सोमको गिरा हुआ देख लोकपितामह ब्रह्माजीने संसारका हित करनेकी भावनासे उसे स्थपर रख लिया ॥ १० ॥
स हि वेदमयस्तात धर्मात्मा सत्यसंग्रहः । युक्तो वाजिसहस्रेण सितेनेति हि नः श्रुतम् ॥ ११ ॥
तात ! हमने सुना है कि वह रथ वेदमय, धर्मस्वरूप तथा सत्यसे नियन्त्रित था । उसमें एक हजार श्वेत घोड़े जुते हुए थे ॥ ११ ॥
तस्मिन्निपतिते देवाः पुत्रेऽत्रेः परमात्मनि । तुष्टुवुर्ब्रह्मणः पुत्रा मानसाः सप्त ये श्रुताः ॥ १२ ॥
अत्रिपुत्र भगवान् सोमके गिरनेपर ब्रह्माजीके सुप्रसिद्ध सात मानस पुत्र उनकी स्तुति करने लगे ॥ १२ ॥
तथैवाङ्गिरसस्तत्र भृगुरेवात्मजैः सह । ऋग्भिर्यजुर्भिर्बहुलैरथर्वाङ्गिरसैरपि ॥ १३ ॥
अङ्गिरागोत्री भृगु ऋषि और उनके पुत्र ऋग्वेद, यजुर्वेद (सामवेद) और अथर्ववेदकी अनेक श्रुतियोंसे सोमकी स्तुति करने लगे ॥ १३ ॥
तस्य संस्तूयमानस्य तेजः सोमस्य भास्वतः । आप्यायमानं लोकांस्त्रीन् भासयामास सर्वशः ॥ १४ ॥
('अंशुरंशुष्टे देव सोमाप्यायताम्' इत्यादि मन्त्रोंके द्वारा) स्तुति करनेपर पुष्ट हुआ प्रकाशमान सोमका तेज तीनों लोकोंको सर्वधा प्रकाशित करने लगा ॥ १४ ॥
स तेन रथमुख्येन सागरान्तां वसुन्धराम् । त्रिःसप्तकृत्वोऽतियशाश्चकाराभिप्रदक्षिणम् ॥ १५ ॥
तब उन परम यशस्वी (ब्रह्माजी)-ने उस (सोमवान्) श्रेष्ठ रथमें बैठकर समुद्रतककी पृथ्वीकी इक्कीस बार प्रदक्षिणा की ॥ १५ ॥
तस्य यच्च्यावितं तेजः पृथिवीमन्वपद्यत । ओषध्यस्ताः समुद्भूतास्तेजसा प्रज्वलन्त्युत ॥ १६ ॥
उस समय (रथके वेगसे छलककर) सोमका जो तेज पृथ्वीपर टपकने लगा, उस तेजसे प्रकाशपूर्ण ओषधियाँ उत्पन्न हुई ॥ १६ ॥
ताभिर्धार्यास्त्रयो लोकाः प्रजाश्चैव चतुर्विधाः । पोष्टा हि भगवान् सोमो जगतो जगतीपते ॥ १७ ॥
उन ओषधियोंसे भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्गलोकइन तीनों लोकोंका और जरायुज, अण्डज, स्वेदज तथा उद्भिज-इन चार प्रकारकी प्रजाओंका पालन होता रहता है । राजन् ! इस प्रकार भगवान् सोम सम्पूर्ण जगत्का पोषण करते हैं ॥ १७ ॥
स लब्धतेजा भगवान् संस्तवैस्तैश्च कर्मभिः । ॥ तपस्तेपे महाभाग पद्मानां दशतीर्दश ॥ १८ ॥
महाभाग ! उन स्तुतिरूप कर्मोसे तेजस्वी होकर भगवान् सोमने एक हजार पद्य वर्षातक तप किया ॥ १८ ॥
हिरण्यवर्णां या देव्यो धारयन्त्यात्मना जगत् । निधिस्तासामभूद्देवः प्रख्यातः स्वेन कर्मणा ॥ १९ ॥
चाँदीके समान शुक्ल वर्णवाली जो जलकी अधिष्ठात्री देवियाँ अपने स्वरूपभूत जलसे जगत्का पालन करती हैं, चन्द्रदेव उनकी निधि हुए । वे अपने कर्मोसे विख्यात हैं ॥ १९ ॥
ततस्तस्मै ददौ राज्यं ब्रह्मा ब्रह्मविदां वरः । बीजौषधीनां विप्राणामपां च जनमेजय ॥ २० ॥
जनमेजय ! तदनन्तर ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ब्रह्माजीने चन्द्रमाको बीज, ओषधि, ब्राह्मण और जलका राजा बना दिया ॥ २० ॥
सोऽभिषिक्तो महाराज राजराज्येन राजराट् । लोकांस्त्रीन्भासयामास स्वभासा भास्वतां वरः ॥ २१ ॥
महाराज ! जब प्रकाशवानोंमें श्रेष्ठ चन्द्रमाका इन चारोंके राज्यपर सम्राटके रूपमें अभिषेक हो गया, तब (सम्राट्) चन्द्रमा अपनी कान्तिसे तीनों लोकोंको प्रकाशित करने लगे ॥ २१ ॥
सप्तविंशतिमिन्दोस्तु दाक्षायण्यो महाव्रताः । ददौ प्राचेतसो दक्षो नक्षत्राणीति या विदुः ॥ २२ ॥
उस समय प्रचेताओंके पुत्र दक्षने अपनी महाव्रतधारिणी सत्ताईस कन्याएँ चन्द्रमाको व्याह दी, जिन्हें विद्वान् पुरुष सत्ताईस नक्षत्रोंके रूपमें जानते हैं ॥ २२ ॥
स तत्प्राप्य महद्राज्यं सोमः सोमवतां वरः । समाजह्रे राजसूयं सहस्रशतदक्षिणम् ॥ २३ ॥
इस बड़े भारी राज्यको पाकर पितृदेवताओंमें श्रेष्ठ सोमने राजसूय यज्ञका अनुष्ठान किया, जिसमें उन्होंने एक लाख गौएँ दक्षिणामें दी थीं ॥ २३ ॥
होताऽस्य भगवानत्रिरध्वर्युर्भगवान् भृगुः । हिरण्यगर्भश्चोद्गाता ब्रह्मा ब्रह्मत्वमेयिवान् ॥ २४ ॥
सोमके (उस यज्ञमें) भगवान् अनि होता बने । भगवान् भृगु अध्वर्यु, हिरण्यगर्भ उगाता तथा वसिष्ठजी ब्रह्मा बने ॥ २४ ॥
सदस्यस्तत्र भगवान् हरिर्नारायणः स्वयम् । सनत्कुमारप्रमुखैराद्यैर्ब्रह्मर्षिभिर्वृतः ॥ २५ ॥
उस यज्ञमें सनत्कुमार आदि प्राचीन ब्रह्मर्षियोंने स्वयं भगवान् नारायण हरिको ही सदस्य बनाया था ॥ २५ ॥
दक्षिणामददात् सोमस्त्रीँल्लोकानिति नः श्रुतम् । तेभ्यो ब्रह्मर्षिमुख्येभ्यः सदस्येभ्यश्च भारत ॥ २६ ॥
भारत ! हमने सुना है कि उन ब्रह्मर्षियोंमें श्रेष्ठ सदस्योंको सोमने तीनों लोक दक्षिणामें दे दिये थे ॥ २६ ॥
तं सिनिश्च कुहूश्चैव द्युतिः पुष्टिः प्रभा वसुः ॥ कीर्तिर्धृतिश्च लक्ष्मीश्च नव देव्यः सिषेविरे ॥ २७ ॥
उस समय सिनीवाली, कुह, द्युति, पुष्टि, प्रभा, वसु, कीर्ति, धृति और लक्ष्मी (शोभा)-ये नौ देवियाँ नित्यप्रति चन्द्रमाकी सेवामें लगी रहती थीं ॥ २७ ॥
प्राप्यावभृथमव्यग्रः सर्वदेवर्षिपूजितः । विरराजाधिराजेन्द्रो दशधा भासयन् दिशः ॥ २८ ॥
इस प्रकार सभी ऋषि और देवताओंसे सत्कार पाकर द्विजराज चन्द्रमाने अवभृथ स्नान किया, फिर वे दसों दिशाओंको प्रकाशित करने लगे ॥ २८ ॥
तस्य तत् प्राप्य दुष्प्राप्यमैश्वर्यं मुनिसत्कृतम् । विबभ्राम मतिस्तात विनयादनयाऽऽहता ॥ २९ ॥
तात ! मुनियोंद्वारा सम्मानित उस दुर्लभ ऐश्वर्यको पाकर चन्द्रमाकी बुद्धि विनयसे भ्रष्ट हो गयी और उन्हें अनीतिने धर दबाया ॥ २९ ॥
बृहस्पतेः स वै भार्यां तारां नाम यशस्विनीम् । जहार तरसा सर्वानवमत्याङ्गिरःसुतान् ॥ ३० ॥
तब उन्होंने अङ्गिराके सब पुत्रोंका तिरस्कार करके बृहस्पतिकी यशस्विनी भार्या ताराका बलपूर्वक अपहरण कर लिया ॥ ३० ॥
स याच्यमानो देवैश्च यथा देवर्षिभिः सह । नैव व्यसर्जयत् तारां तस्मा आङ्गिरसे तदा । स संरब्धस्ततस्तस्मिन् देवाचार्यो बृहस्पतिः ॥ ३१ ॥
देवताओं तथा देवर्षियोंके याचना करनेपर भी उन्होंने बृहस्पतिकी स्त्री उनको नहीं लौटायी । तब तो देवताओंके आचार्य बृहस्पतिजी उनके ऊपर अत्यन्त कुपित हो उठे ॥ ३१ ॥
उशना तस्य जग्राह पार्ष्णिमाङ्गिरसस्तदा । स हि शिष्यो महातेजाः पितुः पूर्वो बृहस्पतेः ॥ ३२ ॥
उस समय शुक्राचार्यने चन्द्रमाका पक्ष लिया और रुद्रने बृहस्पतिका; क्योंकि महातेजस्वी रुद्र बृहस्पतिके पिता अङ्गिराके शिष्य थे ॥ ३२ ॥
तेन स्नेहेन भगवान् रुद्रस्तस्य बृहस्पतेः । पार्ष्णिग्राहोऽभवद् देवः प्रगृह्याजगवं धनुः ॥ ३३ ॥
उसी गुरुभाईके स्नेहसे भगवान् शिव अपना आजगव नामक धनुष लेकर बृहस्पतिजीके पाणिग्राह (सहायक) बने थे ॥ ३३ ॥
तेन ब्रह्मशिरो नाम परमास्त्रं महात्मना । उद्दिश्य दैत्यानुत्सृष्टं येनैषां नाशितं यशः ॥ ३४ ॥
महात्मा रुद्रने दैत्योंको लक्ष्य करके ब्रह्मशिर नामक श्रेष्ठ अस्त्र छोड़ा, जिसने उन (दैत्यों) के सारे यशपर ही पानी फेर दिया ॥ ३४ ॥
तत्र तद्युद्धमभवत्प्रख्यातं तारकामयम् । देवानां दानवानां च लोकक्षयकरं महत् ॥ ३५ ॥
वहाँ ताराके लिये देवताओं और दानवोंमें बड़ा भारी युद्ध हुआ, जो तारकामय महासंग्रामके नामसे प्रसिद्ध है । इसमें संसारका बड़ा भारी संहार हुआ ॥ ३५ ॥
तत्र शिष्टास्तु ये देवास्तुषिताश्चैव भारत । ब्रह्माणं शरणं जग्मुरादिदेवं सनातनम् ॥ ३६ ॥
भारत ! इस युद्धमें मरनेसे बचे हुए देवता और तुषितगण आदिदेव सनातन ब्रह्माजीको शरणमें गये ॥ ३६ ॥
ततो निवार्योशनसं रुद्रं ज्येष्ठं च शङ्करम् । ददावङ्गिरसे तारां स्वयमेव पितामहः ॥ ३७ ॥
तब ब्रह्माजीने शुक्राचार्य तथा रुद्रोंमें ज्येष्ठ शङ्करको भी समझा-बुझाकर युद्ध करनेसे रोका; फिर उन्होंने स्वयं ही ताराको लाकर बृहस्पतिजीको दिया ॥ ३७ ॥
तामन्तःप्रसवां दृष्ट्वा तारां प्राह बृहस्पतिः। मदीयायां न ते योनौ गर्भो धार्यः कथञ्चन ॥ ३८ ॥
उस समय ताराको गर्भवती देख बृहस्पतिजीने कहा-'तुझे मेरे क्षेत्रमें किसी तरह पराया गर्भ नहीं धारण करना चाहिये' ॥ ३८ ॥
अयोनावुत्सृजत् तं सा कुमारं दस्युहन्तमम् । इषीकास्तम्बमासाद्य ज्वलन्तमिव पावकम् ॥ ३९ ॥
तब ताराने अयोग्य स्थान-ससकोंके झुरमुटमें जाकर प्रचलित अग्निके समान तेजस्वी उस भारी दस्युहन्ता कुमारको उत्पन्न किया ॥ ३९ ॥
जातमात्रः स भगवान् देवानामक्षिपद् वपुः । ततः संशयमापन्ना इमामकथयन् सुराः ॥ ४० ॥
उस ऐश्वर्यवान् कुमारने उत्पन्न होते ही अपने शरीरको कान्तिसे देवताओंका तेज फीका कर दिया । तब तो देवता संदेहमें पड़कर तारासे कहने लगे- ॥ ४० ॥
सत्यं ब्रुहि सुतः कस्य सोमस्याथ बृहस्पतेः । पृच्छ्यमाना यदा देवैर्नाह सा साध्वसाधु वा ॥ ४१ ॥ तदा तां शप्तुमारब्धः कुमारो दस्युहन्तमः । तं निवार्य ततो ब्रह्मा तारां पप्रच्छ संशयम् ॥ ४२ ॥
'अरी ! सच बता, यह पुत्र चन्द्रमाका है अथवा बृहस्पतिका ?' परंतु देवताओंके पूछनेपर भी जब उसने भला-बुरा कुछ उत्तर न दिया, तब वह दस्युहन्ता कुमार उसे शाप देनेके लिये तैयार हो गया । उस समय ब्रह्माजीने उसे रोककर तारासे इस संदेहको पूछा- ॥ ४१-४२ ॥
यदत्र तथ्यं तद् ब्रूहि तारे कस्य सुतस्त्वयम् । सा प्राञ्जलिरुवाचेदं ब्रह्माणं वरदं प्रभुम् ॥ ४३ ॥
'तारे ! यह किसका पुत्र हैइस बातको तू ठीक-ठीक बता । ' तब उसने दोनों हाथ जोड़कर वर देनेवाले प्रभु ब्रह्माजीसे कहा- ॥ ४३ ॥
सोमस्येति महात्मानं कुमारं दस्युहन्तमम् । ततस्तं मूर्ध्न्युपाघ्राय सोमो धाता प्रजापतिः ॥ ४४ ॥ बुध इत्यकरोन्नाम तस्य पुत्रस्य धीमतः । प्रतिकूलं च गगने समभ्युत्तिष्ठते बुधः ॥ ४५ ॥
'प्रभो ! यह सोमका ही पुत्र है । ' तब उस गर्भको धारण करानेवाले प्रजापति चन्द्रमाने उस महामना दस्युहन्ता कुमारका मस्तक सूंघकर उस बुद्धिमान् पुत्रका नाम 'बुध' रखा । यह बुध जब आकाशमें उदय होता है, तब प्रतिकूल चेष्टा (उत्पात) किया करता है । ४४-४५ ॥
उत्पादयामास ततः पुत्रं वै राजपुत्रिका । तस्यापत्यं महाराजो बभूवैलः पुरूरवाः ॥ ४६ ॥
तदनन्तर वैराज मनुकी पुत्री इलाने बुधसे एक पुत्र उत्पन्न किया । उनके वे पुत्र महाराज पुरूरवा हुए ॥ ४६ ॥
ऊर्वश्यां जज्ञिरे यस्य पुत्राः सप्त महात्मनः । प्रसह्य धर्षितस्तत्र सोमो वै राजयक्ष्मणा ॥ ४७ ॥
महात्मा पुरूरवाके उर्वशीके गर्भसे सात पुत्र उत्पन्न हुए । इधर सोमको हठात् राजयक्ष्माने धर दबाया ॥ ४७ ॥
ततो यक्ष्माभिभूतस्तु सोमः प्रक्षीणमण्डलः । जगाम शरणार्थाय पितरं सोऽत्रिमेव तु ॥ ४८ ॥
यक्ष्मासे ग्रस्त होनेपर चन्द्रमाका मण्डल क्षीण होने लगा, तब वे अपने पिता अत्रिकी शरणमें पहुँचे ॥ ४८ ॥
तस्य तत्तापशमनं चकारात्रिर्महातपाः । स राजयक्ष्मणा मुक्तः श्रिया जज्वाल सर्वतः ॥ ४९ ॥
महातपस्वी अत्रिने उनके तापको दूर कर दिया । वे (चन्द्रमा) राजयक्ष्मारोगसे मुक्त होकर सब औरसे प्रकाशित हो उठे ॥ ४९ ॥
एवं सोमस्य वै जन्म कीर्तितं कीर्तिवर्धनम् । वंशमस्य महाराज कीर्त्यमानं च मे शृणु ॥ ५० ॥
महाराज ! इस प्रकार मैंने तुमसे चन्द्रमाके जन्मका वर्णन किया, जो कीर्तिको बढ़ानेवाला है । अब मेरे द्वारा चन्द्रमाके वंशका वर्णन सुनो ॥ ५० ॥
धन्यमारोग्यमायुष्यं पुण्यं संकल्पसाधनम् । सोमस्य जन्म श्रुत्वैव पापेभ्यो विप्रमुच्यते ॥ ५१ ॥
मनुष्य चन्द्रमाके जन्मको सुनते ही सब पापोंसे मुक्त हो जाता है । यह चन्द्रमाके जन्मकी कथा धन, आयु, आरोग्य और पुण्य देनेवाली है । इसे सुननेसे मनुष्यके सारे संकल्प–मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं ॥ ५१ ॥
इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे हरिवंशपर्वणि ॥ सोमोत्पत्तिकथने पञ्चविंशोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीमहाभारत खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें चन्द्रमाको उत्पत्तिका वर्णनविषयक पचीसा अध्याय पूरा हुआ ॥ २५ ॥
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