श्रीहरिवंशपुराण हरिवंश पर्व षड्विंशोऽध्यायः
ऐलोत्पत्तिः
महाराज पुरूरवाके चरित्र और वंशका वर्णन, राजा पुरूरवाका त्रेताग्निकी रचना करना और गन्धर्वोंके लोकमें जाना
वैशम्पायन उवाच बुधस्य तु महाराज विद्वान् पुत्रः पुरूरवाः । तेजस्वी दानशीलश्च यज्वा विपुलदक्षिणः ॥ १ ॥ ब्रह्मवादी पराक्रान्तः शत्रुभिर्युधि दुर्जयः । अहर्ता चाग्निहोत्रस्य यज्ञानां च महीपतिः ॥ २ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-महाराज ! बुधके विद्वान् पुत्र पुरूरवा हुए, जो तेजस्वी, दानशील, यज्ञकर्ता, बहुतसी दक्षिणा देनेवाले, ब्रह्मवादी, युद्ध में पराक्रम दिखानेवाले और शत्रुओंसे दुर्जय थे । वे राजा अग्निहोत्र और यज्ञोंके अनुष्ठान करनेवाले थे ॥ १-२ ॥
सत्यवादी पुण्यमतिः काम्यः संवृतमैथुनः । अतीव त्रिषु लोकेषु यशसाप्रतिमः सदा ॥ ३ ॥
राजा पुरुरवा सत्यभाषी और पवित्र विचारवाले थे । उनका रूप बड़ा सुन्दर था और वे गुप्तरूपसे सहवास करनेवाले थे । वे अपने समयमें तीनों लोकोंमें अनुपम यशस्वी थे ॥ ३ ॥
तं ब्रह्मवादिनं क्षान्तं धर्मज्ञं सत्यवादिनम् । उर्वशी वरयामास हित्वा मानं यशस्विनी ॥ ४ ॥
उन ब्रह्मवादी, क्षमापरायण, धर्मज्ञ तथा सत्यभाषी राजाको यशस्विनी उर्वशी अप्सराने गर्वका परित्याग करके पतिरूपमें वरण कर लिया था ॥ ४ ॥
तया सहावसद् राजा वर्षाणि दश पञ्च च । पञ्च षट् सप्त चाष्टौ च दश चाष्टौ च भारत ॥ ५ ॥ वने चैत्ररथे रम्ये तथा मन्दाकिनीतटे । अलकायां विशालायां नन्दने च वनोत्तमे ॥ ६ ॥ उत्तरान् स कुरून् प्राप्य मनोरथफलद्रुमान् । गन्धमादनपादेषु मेरुपृष्ठे तथोत्तरे ॥ ७ ॥
भारत ! राजा पुरुरवा उस अप्सराके साथ दस वर्षतक रमणीय चैत्ररथ वनमें, पाँच वर्षतक मन्दाकिनीके तटपर बसी हुई अलकापुरीमें, पाँच वर्षतक बदरीनारायणके वनोंमें, छ: वर्षतक उत्तम उपवन नन्दनवनमें, सात वर्षतक मनोरथरूप फलको देनेवाले वृक्षोंसे परिपूर्ण उत्तरकुरुदेशोंमें, आठ वर्षतक गन्धमादन पर्वतके शिखरोंपर, दस वर्षतक मेरुपर्वतपर तथा आठ वर्षतक उत्तराचलपर विहार करते रहे ॥ ५-७ ॥
एतेषु वनमुख्येषु सुरैराचरितेषु च । उर्वश्या सहितो राजा रेमे परमया मुदा ॥ ८ ॥
राजा पुरूरवा उर्वशीको साथ लेकर देवताओंसे सेवित इन मुख्य-मुख्य वनोंमें बड़े आनन्दके साथ विहार किया करते थे ॥ ८ ॥
देशे पुण्यतमे चैव महर्षिभिरभिष्टुते । राज्यं च कारयामास प्रयागे पृथिवीपतिः ॥ ९ ॥
पृथ्वीपति पुरूरवा (उर्वशीके साथ) महर्षियोंसे प्रशंसित परम पवित्र देश प्रयागमें राज्य करते थे ॥ ९ ॥
तस्य पुत्रा बभूवुस्ते सप्त देवसुतोपमाः । दिवि जाता महात्मान आयुर्धीमानमावसुः ॥ १० ॥ विश्वायुश्चैव धर्मात्मा श्रुतायुश्च तथापरः । दृढायुश्च वनायुश्च शतायुश्चोर्वशीसुताः ॥ ११ ॥
राजाके द्वारा उर्वशीके गर्भसे स्वर्गमें देव-पुत्रोंके तुल्य आयु, बुद्धिमान् अमावसु, धर्मात्मा विश्वायु, श्रुतायु, दृढायु, वनायु और शतायु नामक सात पुत्र उत्पन्न हुए, जो सभी महान् आत्मबलसे सम्पन्न थे ॥ १०-११ ॥
जनमेजय उवाच गान्धर्वी चोर्वशी देवी राजानं मानुषं कथम् । देवानुत्सृज्य संप्राप्ता तन्नो ब्रूहि बहुश्रुत ॥ १२ ॥
जनमेजयने पूछा-बहुश्रुत वैशम्पायनजी ! उर्वशीदेवी तो अप्सरा थी, फिर देवताओंका परित्याग कर वह मनुष्य राजाके पास क्योंकर आयी ? यह मुझे बताइये ॥ १२ ॥
वैशम्पायन उवाच ब्रह्मशापाभिभूता सा मानुषं समपद्यत । ऐलं तु सा वरारोहा समयात्समुपस्थिता ॥ १३ ॥
वैशम्पायनजीने कहा-राजन् ! ब्रहाशापके कारण उर्वशीको मनुष्यलोकमें आना पड़ा था । वह सुन्दर अङ्गोंवाली उर्वशी कुछ शोंके साथ इला-नन्दन पुरुरवाके पास रही थी ॥ १३ ॥
आत्मनः शापमोक्षार्थं समयं सा चकार ह । अनग्नदर्शनं चैव सकामायां च मैथुनम् ॥ १४ ॥ द्वौ मेषौ शयनाभ्याशे सदा बद्धौ च तिष्ठतः । घृतमात्रो तथाऽऽहारः कालमेकं तु पार्थिव ॥ १५ ॥
भूपाल ! उसने अपने शापसे छूटनेके लिये यह शर्त करा ली थी कि 'मैं आपको नंगा न देयं, मेरे सकाम होनेपर ही आप सहवास करें, मेरे पलंगके पास सदा दो भेंड़ बँधे रहेंगे और मैं दिनमें एक बार थोड़ा सा घृतमात्र भोजन करूँगी ॥ १४-१५ ॥
यद्येष समयो राजन् यावत्कालं च ते दृढः । तावत्कालं तु वत्स्यामि त्वत्तः समय एष नः ॥ १६ ॥
राजन् ! जबतक इन प्रतिज्ञाओंका आप दृढ़ताके साथ पालन करते रहेंगे, तबतक मैं आपके पास रहूँगी-यह मैं आपसे प्रतिज्ञा करती हूँ ॥ १६ ॥
तस्यास्तं समयं सर्वं स राजा समपालयत् । एवं सा वसते तत्र पुरूरवसि भामिनी ॥ १७ ॥
राजा उसकी सब शर्तोका पालन करने लगे । इस प्रकार वह श्रेष्ठ अप्सरा पुरूरवाके यहाँ रहने लगी ॥ १७ ॥
वर्षाण्येकोनषष्टिस्तु तत्सक्ता शापमोहिता । उर्वश्यां मानुषस्थायां गन्धर्वाश्चिन्तयान्विताः ॥ १८ ॥
शापके कारण उर्वशीको जब राजामें आसक्त होकर रहते हुए उनसठ वर्ष बीत गये, तब गन्धवाँको मनुष्योंके बीच बसनेवाली उर्वशीकी चिन्ता हुई ॥ १८ ॥
गन्धर्वा ऊचुः चिन्तयध्वं महाभागा यथा सा तु वराङ्गना । समागच्छेत् पुनर्देवानुर्वशी स्वर्गभूषणम् ॥ १९ ॥
गन्धवोंने कहा-महाभागो ! वराङ्गना उर्वशी देवताओंमें फिर किस प्रकार आये ? इसका उपाय सोचो; क्योंकि वह स्वर्गका भूषण है ॥ १९ ॥
ततो विश्वावसुर्नाम तत्राह वदतां वरः । मया तु समयस्ताभ्यां क्रियमाणः श्रुतः पुरा ॥ २० ॥
तब वक्ताओंमें श्रेष्ठ विश्वावसु नामक गन्धर्वने कहा-'उन दोनोंने पहले जो प्रतिज्ञाएँ की थी, उन्हें मैंने सुना है ॥ २० ॥
व्युत्क्रान्तसमयं सा वै राजानं त्यक्ष्यते यथा । तदहं वेद्म्यशेषेण यथा भेत्स्यत्यसौ नृपः ॥ २१ ॥
राजाके प्रतिज्ञा भङ्ग करनेपर वह उसे छोड़ देगी । उस राजाकी प्रतिज्ञा जिस प्रकार टूटेगी, मैं उसे भी भलीभाँति जानता हूँ ॥ २१ ॥
ससहायो गमिष्यामि युष्माकं कार्यसिद्धये । एवमुक्त्वा गतस्तत्र प्रतिष्ठानं महायशाः ॥ २२ ॥
तुम्हारे कामको सिद्ध करनेके लिये अपने सहायकोंको साथ लेकर मैं वहाँ जाऊँगा । यों कहकर वे महायशस्वी गन्धर्व प्रतिष्ठानपुर ( सी-प्रयाग) में गये ॥ २२ ॥
निशायामथ चागम्य मेषमेकं जहार सः । मातृवद्वर्तते सा तु मेषयोश्चारुहासिनी ॥ २३ ॥
वहाँ आकर उन्होंने रातमें एक भेंड़ चुरा ली । मनोहर हासवाली वह उर्वशी उन भेड़ॉपर माताके समान स्नेह करती थी ॥ २३ ॥
गन्धर्वागमनं श्रुत्वा शापान्तं च यशस्विनी । राजानमब्रवित् तत्र पुत्रो मेऽह्रियतेति सा ॥ २४ ॥
यशस्विनी उर्वशीने गन्धर्वोके आगमनको सुनकर विचारा कि अब मेरे शापके अन्त होनेका समय आ गया, तब उसने राजासे कहा'राजन् ! मेरे एक बच्चेको चोर चुरा ले गये ॥ २४ ॥
एवमुक्तो विनिश्चित्य नग्नो नैवोदतिष्ठत । नग्नां मां द्रक्ष्यते देवी समयो वितथो भवेत् ॥ २५ ॥
यह कहनेपर भी वह यह विचारकर नंगा नहीं उठा कि यदि यह देवी मुझे नंगा देख लेगी तो मेरी प्रतिज्ञा झूठी हो जायगी ॥ २५ ॥
ततो भूयस्तु गन्धर्वा द्वितीयं मेषमाददुः । द्वितीये तु हृते मेषे ऐलं देव्यब्रवीदिदम् ॥ २६ ॥
इतनेहीमें गन्धर्व पुन: दूसरे भेंड़को भी उठा ले गये । दूसरे भेंड़के चुराये जानेपर देवी उर्वशीने पुरुरवासे यह कहा- ॥ २६ ॥
पुत्रो मेऽपहृतो राजन्ननाथाया इव प्रभो । एवमुक्तस्तथोत्थाय नग्नो राजा प्रधावितः ॥ २७ ॥ मेषयोः पदमन्विच्छन् गन्धर्वैर्विद्युदप्यथ । उत्पादिता सुमहती ययौ तद्भवनं महत् ॥ २८ ॥ प्रकाशितं वै सहसा ततो नग्नमवैक्षत । नग्नं दृष्ट्वा तिरोभूता साप्सरा कामरूपिणी ॥ २९ ॥
सामर्थ्यशाली राजन् । अनाथ स्वीके समान मेरे पुत्रोंको छीन लिया गया । यो उर्वशीके कहनेपर राजा नंगे ही उठकर भेड़ोंके पैरके चिह्नका अनुसरण करते हुए दौड़े । इसी समय गन्धोंने बड़ी भारी विजली चमकायी । उस समय वह विशाल भवन एक साथ प्रकाशित हो गया । तब तो उर्वशीने राजाको नंगा देख लिया । वह कामरूपिणी अप्सरा राजाको नंगा देखते ही अन्तर्धान हो गयी ॥ २७-२९ ॥
उत्सृष्टावुरणौ दृष्ट्वा राजा गृह्यागतो गृहे । अपश्यन्नुर्वशीं तत्र विललाप सुदुःखितः ॥ ३० ॥
उधर राजा भी (गन्धर्वोके) छोड़े हुए भेड़ोंको देख उन्हें साथ लेकर घरमें घुसे, पर वहाँ उन्हें उर्वशी नहीं दिखायी दी । तब वे परम दुःखित हो विलाप करने लगे ॥ ३० ॥
चचार पृथिवीं सर्वां मार्गमाण इतस्ततः । अथापश्यत्स तां राजा कुरुक्षेत्रे महाबलः ॥ ३१ ॥ प्लक्षतीर्थे पुष्करिण्यां हैमवत्यां समाप्लुताम् । क्रीडन्तीमप्सरोभिश्च पञ्चभिः सह शोभनाम् ॥ ३२ ॥
फिर वे उर्वशीको खोजते हुए पृथ्वीपर सर्वत्र घूमने लगे । कुछ समयके अनन्तर उन महाबली नरेशने उस शोभामयी अप्सराको कुरुक्षेत्रके प्लक्षतीर्थकी हैमवती नामवाली पुष्करिणीमें स्रानकर अपनी पाँच सखियोंके साथ क्रीड़ा करते देखा ॥ ३१-३२ ॥
तां क्रीडन्तीं ततो दृष्ट्वा विललाप स दुःखितः । सा चापि तत्र तं दृष्ट्वा राजानमविदूरतः ॥ ३३ ॥ उर्वशी ताः सखीः प्राह स एष पुरुषोत्तमः । यस्मिन्नहमवात्सं वै दर्शयामास तं नृपम् ॥ ३४ ॥
क्रीड़ा करती हुई उर्वशीको देखकर राजा दुःखित होकर विलाप करने लगे । इधर उर्वशीने भी उस राजाको समीप ही देखकर अपनी सखियोंसे राजाको दिखाया और कहा'ये वे ही पुरुषोत्तम हैं, जिनके पास मैं रही थी' ॥ ३३-३४ ॥
समाविग्नास्तु ताः सर्वाः पुनरेव नराधिप । जाये ह तिष्ठ मनसा घोरे वचसि तिष्ठ ह ॥ ३५ ॥ एवमादीनि सूक्तानि परस्परमभाषत । उर्वशी चाब्रवीदैलं सगर्भाहं त्वया प्रभो ॥ ३६ ॥
उस समय वे सभी अप्सराएँ (उर्वशीके पुनर्गमनकी आशङ्कासे) घबरा गयीं । इधर राजा उससे फिर कहने लगे-'प्रिये ! तू थोड़ा ठहर, ओ कठोर हृदयवाली ! ठहर जा और अपने वचनोंपर दृढ़ रह !' इस प्रकार वैदिक सूक्तोंको वे दोनों एक-दूसरेके प्रति उत्तर-प्रत्युत्तरके रूपमें कहने लगे । उस समय उर्वशीने इला-पुत्र पुरूरवासे कहा-'प्रभो ! मैं आपके द्वारा गर्भवती हूँ ॥ ३५-३६ ॥
संवत्सरात् कुमारास्ते भविष्यन्ति न संशयः । निशामेकां च नृपते निवत्स्यसि मया सह ॥ ३७ ॥
राजन् ! निस्संदेह एक-एक वर्षपर मेरे गर्भसे आपके कुमार उत्पन्न होंगे तथा प्रतिवर्ष एक रात्रि आप मेरे साथ रह सकेंगे ॥ ३७ ॥
हृष्टो जगाम राजाथ स्वपुरं तु महायशाः । गते संवत्सरे भूय उर्वशी पुनरागमत् ॥ ३८ ॥
तब वे महायशस्वी राजा प्रसन्न हो गये और अपने नगरमें आ गये । वर्ष समाप्त होनेपर उर्वशी उनके पास फिर आयी ॥ ३८ ॥
उषितश्च तया सार्धमेकरात्रं महायशाः । उर्वश्यथाब्रवीदैलं गन्धर्वा वरदास्तव ॥ ३९ ॥
महायशस्वी पुरुरवा उसके साथ एक रात्रि रहे । तदनन्तर उर्वशीने पुरूरवासे कहा—'गन्धर्व आपको वर देना चाहते हैं ॥ ३९ ॥
तान् वृणीष्व महाराज ब्रूहि चैनांस्त्वमेव हि । वृणीष्व समतां राजन् गन्धर्वाणां महात्मनाम् ॥ ४० ॥
महाराज ! अब आप वर माँग लीजिये । आप इनसे इन महात्मा गन्धर्वोकी समता माँग लीजिये' ॥ ४० ॥
तथेत्युक्त्वा वरं वव्रे गन्धर्वाश्च तथास्त्विति । पूरयित्वाग्निना स्थालीं गन्धर्वाश्च तमब्रुवन् ॥ ४१ ॥
तब पुरूरवाने 'बहुत अच्छा' कहकर गन्धर्वोसे वर माँग लिया । तब गन्धर्वांने 'बहुत अच्छा', 'ऐसा ही होगा', कहकर एक थालीमें अग्नि भरकर पुरूरवासे कहा- ॥ ४१ ॥
अनेनेष्ट्वा च लोकान्नः प्राप्स्यसि त्वं नराधिप । तानादाय कुमारांस्तु नगरायोपचक्रमे ॥ ४२ ॥
राजन् ! इस अग्निसे यज्ञ करके तुम हमारे लोकोंमें आ जाओगे । तब वे राजा (अग्नि और) अपने पुत्रोंको लेकर नगरकी ओर चले ॥ ४२ ॥
निक्षिप्याग्निमरण्ये तु सपुत्रस्तु गृहं ययौ । स त्रेताग्निं तु नापश्यदश्वत्थं तत्र दृष्टवान् ॥ ४३ ॥
(मार्गमें) उन्होंने वनमें अग्निको रख दिया और अपने पुत्रोंको लेकर घरमें प्रवेश किया । फिर वनमें जानेपर वहाँ उन्होंने अग्निको नहीं देखा; किंतु उसकी जगह एक पीपलके वृक्षको खड़ा देखा ॥ ४३ ॥
शमीजातं तु तं दृष्ट्वा अश्वत्थं विस्मितस्तदा । गन्धर्वेभ्यस्तदाशंसदग्निनाशं ततस्तु सः ॥ ४४ ॥
तब वे राजा (अग्निको अपने गर्भमें छिपानेवाले) शमी (जड़) के वृक्षमेंसे उत्पन्न हुए पीपलको देखकर विस्मयमें पड़ गये और उन्होंने गन्धर्वोसे अग्रिके न दीखनेका वृत्तान्त कहा ॥ ४४ ॥
श्रुत्वा तमर्थमखिलमरणीं तु समादिशत् । अश्वत्थादरणीं कृत्वा मथित्वाग्निं यथाविधि ॥ ४५ ॥ मथित्वाग्निं त्रिधा कृत्वा अयजत् स नराधिपः । इष्ट्वा यज्ञैर्बहुविधैर्गतस्तेषां सलोकताम् ॥ ४६ ॥
गन्धर्बोने सब बातको सुनकर कहा, 'तुम पीपलकी अरणी बना लो' तब उन्होंने पीपलकी अरणी बनाकर शास्त्रीय विधिके अनुसार उन अरणियोंको मथकर अग्निको उत्पन्न किया । फिर उस अग्निके तीन विभाग किये । तदनन्तर उस अग्निसे उन्होंने यजन किया था । वे उस त्रेताग्निसे अनेक प्रकारके यज्ञ कर गन्धवाँकी समानता पाकर गन्धवोंके लोकमें पहुँच गये ॥ ४५-४६ ॥
गन्धर्वेभ्यो वरं लब्ध्वा त्रेताग्निं समकारयत् । एकोऽग्निः पूर्वमेवासीदैलस्त्रेतामकारयत् ॥ ४७ ॥
राजा पुरूरवाने गन्धवोंसे वर पाकर त्रेताग्निकी रचना की थी । पहले अग्नि एक ही था, पुरूरवाने उसको तीन बनाया था ॥ ४७ ॥
एवंप्रभावो राजासीदैलस्तु नरसत्तम । देशे पुण्यतमे चैव महर्षिभिरभिष्टुते ॥ ४८ ॥ राज्यं स कारयामास प्रयागे पृथिवीपतिः । उत्तरे जाह्नवीतीरे प्रतिष्ठाने महायशाः ॥ ४९ ॥
नरश्रेष्ठ ! राजा पुरुरवा ऐसे प्रतापी थे । उन महायशस्वी पृथ्वीपतिने गङ्गाके उत्तर तटपर बसे हुए महर्षियोंसे प्रशंसित परम पवित्र प्रतिष्ठान (अँसी-प्रयाग)-में राज्य किया था ॥ ४८-४९ ॥
इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे हरिवंशपर्वणि ऐलोत्पत्तिर्नाम षड्विंशोऽध्यायः ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें पुरूरवाकी उत्पत्तिविषयक उच्चीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २६ ॥
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