श्रीहरिवंशपुराण हरिवंश पर्व अष्टाविंशोऽध्यायः
आयुवंशकथनम्
राजा रजि और उनके पुत्रोंका चरित्र, इन्द्रका अपने स्थानसे भ्रष्ट होकर पुन: उसपर प्रतिष्ठित होना
वैशंपायन उवाच ॥ आयोः पुत्रास्तथा पञ्च सर्वे वीरा महारथाः । स्वर्भानुतनयायां च प्रभायां जज्ञिरे नृप ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-नरेश्वर ! स्वर्भानुकुमारी प्रभा आयुकी पत्नी थी । उसके गर्भसे आयुके पाँच पुत्र उत्पन्न हुए, जो सब-के-सब वीर और महारथी थे ॥ १ ॥
नहुषः प्रथमं जज्ञे वृद्धशर्मा ततः परम् । रम्भोरजिरनेनाश्च त्रिषु लोकेषु विश्रुताः ॥ २ ॥
उनमें सबसे पहले नहुषका जन्म हुआ । तत्पश्चात् वृद्धशर्मा उत्पन्न हुए । तदनन्तर क्रमशः रम्भ, रजि और अनेना प्रकट हुए । ये तीनों लोकोंमें विख्यात थे ॥ २ ॥
रजिः पुत्रशतानीह जनयामास पञ्च वै । राजेयमिति विख्यातं क्षत्रमिन्द्रभयावहम् ॥ ३ ॥
रजिने पाँच सौ पुत्रोंको जन्म दिया । वे सभी क्षत्रिय राजेय नामसे विख्यात हुए । उनसे इन्द्र भी डरते थे ॥ ३ ॥
यत्र देवासुरे युद्धे समुत्पन्ने सुदारुणे । देवाश्चैवासुराश्चैव पितामहमथाब्रुवन् ॥ ४ ॥ आवयोर्भगवन् युद्धे को विजेता भविष्यति । ब्रूहि नः सर्वभूतेश श्रोतुमिच्छामि ते वचः ॥ ५ ॥
पूर्वकालमें देवताओं तथा असुरोंमें अत्यन्त भयंकर युद्ध आरम्भ होनेपर उन दोनों पक्षोंके लोगोंने पितामह ब्रह्माजीसे पूछा-'भगवन् ! सर्वभूतेश्वर ! बताइये, हम दोनोंके युद्ध में कौन विजयी होगा ? हम इस विषयमें आपकी यथार्थ बात सुनना चाहते हैं' ॥ ४-५ ॥
ब्रह्मोवाच येषामर्थाय संग्रामे रजिरात्तायुधः प्रभुः । योत्स्यते ते जयिष्यन्ति त्रीँल्लोकान्नात्र संशयः ॥ ६ ॥
ब्रह्माजीने कहा-शक्तिशाली राजा रजि हाथमें हथियार लेकर जिनके लिये संग्रामभूमिमें खड़े हो युद्ध करेंगे, वे तीनों लोकोंपर विजय प्राप्त कर लेंगे । इसमें संशय नहीं है ॥ ६ ॥
यतो रजिर्धृतिस्तत्र श्रीश्च तत्र यतो धृतिः । यतो धृतिश्च श्रीश्चैव धर्मस्तत्र जयस्तथा ॥ ७ ॥
जिस पक्षमें रजि हैं, उधर ही धृति है जहाँ धृति है वहीं लक्ष्मी है तथा जहाँ धृति और लक्ष्मी हैं वहीं धर्म एवं विजय है ॥ ७ ॥
ते देवदानवाः प्रीता देवेनोक्ता रजेर्जये । अभ्ययुर्जयमिच्छन्तो वृण्वाना भरतर्षभम् ॥ ८ ॥
भरतकुलभूषण जनमेजय ! रजिकी विजयके विषयमें ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर देवता और दानव प्रसन्न हो अपनी-अपनी विजय चाहते हुए रजिका वरण करनेके लिये उनके पास गये ॥ ८ ॥
स हि स्वर्भानुदौहित्रः प्रभायां समपद्यत । राजा परमतेजस्वी सोमवंशप्रवर्धनः ॥ ९ ॥
वे राहुके दौहित्र थे । राहुकी पुत्री प्रभाके गर्भसे उनका जन्म हुआ था । सोमवंशकी वृद्धि करनेवाले वे राजा रजि बड़े तेजस्वी थे ॥ ९ ॥
ते हृष्टमनसः सर्वे रजिं देवाश्च दानवाः । ऊचुरस्मज्जयाय त्वं गृहाण वरकार्मुकम् ॥ १० ॥
समस्त देवता और दानव दोनों प्रसन्नचित्त हो रजिके पास जाकर बोले'राजन् ! आप हमारी विजयके लिये अपना श्रेष्ठ धनुष धारण कीजिये ॥ १० ॥
अथोवाच रजिस्तत्र तयोर्वै देवदैत्ययोः । स्वार्थज्ञः स्वार्थमुद्दिश्य यशः स्वं च प्रकाशयन् ॥ ११ ॥
तब स्वार्थको समझनेवाले रजिने वहाँ स्वार्थको सामने रखकर अपने यशको प्रकाशमें लाते हुए देवता और दानव दोनों पक्षके लोगोंसे कहा ॥ ११ ॥
रजिरुवाच यदि दैत्यगणान्सर्वाञ्जित्वा शक्रपुरोगमाः । इन्द्रो भवामि धर्मेण ततो योत्स्यामि संयुगे ॥ १२ ॥
रजि बोले-इन्द्रादि देवताओ ! यदि मैं समस्त दैत्योंको जीतकर धर्मतः इन्द्र हो सकूँ तो तुम्हारी ओरसे रणभूमिमें युद्ध करूँगा ॥ १२ ॥
देवाः प्रथमतो भूयः प्रत्यूचुर्हृष्टमानसाः । एवं यथेष्टं नृपते कामः संपद्यतां तव ॥ १३ ॥
यह सुनकर देवताओंने फिर प्रसन्नचित्त हो पहले ही उत्तर दिया-'नरेश्वर ! ऐसा ही होगा । तुम्हारी अभीष्ट कामना पूर्ण हो' ॥ १३ ॥
श्रुत्वा सुरगणानां तु वाक्यं राजा रजिस्तत्दा । पप्रच्छासुरमुख्यांस्तु यथा देवानपृच्छत ॥ १४ ॥
देवताओंकी यह बात सुनकर उस समय राजा रजिने मुख्य-मुख्य असुरॉसे भी वैसी ही बात पूछी जैसी देवताओंसे पूछी थी ॥ १४ ॥
दानवा दर्पपूर्णास्तु स्वार्थमेवानुगम्य ह । प्रत्यूचुस्ते नृपवरं साभिमानमिदं वचः ॥ १५ ॥
तब अहंकारी दानवोंने स्वार्थको ही सामने रखकर अनुसरण करते हुए उन नृपश्रेष्ठको अभिमानपूर्वक यों उत्तर दिया- ॥ १५ ॥
अस्माकमिन्द्रः प्रह्रादो यस्यार्थे विजयामहे । अस्मिंस्तु समये राजंस्तिष्ठेथा राजसत्तम ॥ १६ ॥
राजशिरोमणे ! हमारे इन्द्र तो प्रहाद ही हैं, जिनके लिये हम विजय प्राप्त करना चाहते हैं । राजन् ! आपको इसी शर्तपर हमारे पक्षमें खड़ा होना चाहिये ॥ १६ ॥
स तथेति ब्रुवन्नेव देवैरप्यभिचोदितः । भविष्यसीन्द्रो जित्वैवं देवैरुक्तस्तु पार्थिवः । जघान दानवान् सर्वान् ये वध्या वज्रपाणिनः ॥ १७ ॥
वे 'बहुत अच्छा' कहकर असुरोंकी बात मानना ही चाहते थे कि देवताओंने फिर उन्हें अपने पक्षमें आनेके लिये प्रेरणा देते हुए कहा-'राजन् ! तुम इस प्रकार विजय पाकर हमारे इन्द्र हो जाओगे । ' देवताओंके ऐसा कहनेपर राजा रजिने उन समस्त दानवोंका संहार कर डाला, जो वज्रपाणि इन्द्रके द्वारा मारे जाने योग्य थे ॥ १७ ॥
स विप्रनष्टां देवानां परमश्रीः श्रियं वशी । निहत्य दानवान् सर्वानाजहार रजिः प्रभुः ॥ १८ ॥
मनको वशमें रखनेवाले परमकान्तिमान् एवं शक्तिशाली राजा रजिने समस्त दानवोंका संहार करके देवताओंकी रसोयी हुई सम्पत्तिको फिर वापस ला दिया ॥ १८ ॥
ततो रजिं महावीर्यं देवैः सह शतक्रतुः । रजेः पुत्रोऽहमित्युक्त्वा पुनरेवाब्रवीद् वचः ॥ १९ ॥
तब देवताओंसहित इन्द्रने अपनेको रजिका पुत्र बताकर उन महापराक्रमी रजिसे पुनः इस प्रकार कहा- ॥ १९ ॥
इन्द्रोऽसि तात देवानां सर्वेषां नात्र संशयः । यस्याहमिन्द्रः पुत्रस्ते ख्यातिं यास्यामि कर्मभिः ॥ २० ॥
तात ! आप हम सब देवताओंके इन्द्र हैं, इसमें संशय नहीं है । क्योंकि मैं इन्द्र आजसे आपके इन वीरोचित कर्मोद्वारा अनुगृहीत हो आपका पुत्र कहलाऊँगा । आपके पुत्ररूपमें ही मेरी ख्याति होगी ॥ २० ॥
स तु शक्रवचः श्रुत्वा वञ्चितस्तेन मायया । तथेत्येवाब्रवीद् राजा प्रीयमाणः शतक्रतुम् ॥ २१ ॥
इन्द्रको यह बात सुनकर उनकी मायासे वशित हो महाराज रजिने 'तथास्तु' कह दिया । वे इन्द्रपर बहुत प्रसन्न थे ॥ २१ ॥
तस्मिंस्तु देवसदृशे दिवं प्राप्ते महीपतौ । दायाद्यमिन्द्रादाजह्रुराचारात्तनया रजेः ॥ २२ ॥
उन देवोपम भूपाल रजिके ब्रह्मलोकवासी हो जानेपर उनके पुत्रोंने लोकव्यवहारके अनुसार इन्द्रसे अपना दायभाग माँगा और बलपूर्वक ले लिया ॥ २२ ॥
पञ्चपुत्रशतान्यस्य तद्वै स्थानं शतक्रतोः । समाक्रमन्त बहुधा स्वर्गलोकं त्रिविष्टपम् ॥ २३ ॥
रजिके पाँच सौ पुत्र थे । उन्होंने इन्द्रके त्रिविष्टप नामसे प्रसिद्ध स्वर्गलोकपर बारम्बार आक्रमण करके उसे ले लिया ॥ २३ ॥
ततो बहुतिथे काले समतीते महाबलः । हृतराज्योऽब्रवीच्छक्रो हृतभागो बृहस्पतिम् ॥ २४ ॥
तदनन्तर बहुत समय बीत जानेपर राज्य और यज्ञभागसे वञ्चित हो अत्यन्त दुर्बल हुए इन्द्रने एक दिन एकान्तमें बृहस्पतिजीसे कहा ॥ २४ ॥
इन्द्र उवाच बदरीफलमात्रं वै पुरोडाशं विधत्स्व मे । ब्रह्मर्षे येन तिष्ठेयं तेजसाऽऽप्यायितः सदा ॥ २५ ॥
इन्द्र बोले-ब्रह्मर्षे ! आप एक बेरके बराबर भी पुरोडाशखण्डकी व्यवस्था मेरे लिये कर दें, जिससे मैं भी सदा तेजसे परिपुष्ट होता रहूँ ॥ २५ ॥
ब्रह्मन् कृशोऽहं विमना हृतराज्यो हृताशनः । हतौजा दुर्बलो मूढो रजिपुत्रैः कृतः प्रभो ॥ २६ ॥
ब्रह्मन् । प्रभो ! रजिके पुत्रोंने मेरा राज्य और भोजन छीनकर मुझे अत्यन्त कृश, खिन्नचित्त, हतोत्साह, दुर्बल एवं मूढ़ बना दिया है ॥ २६ ॥
बृहस्पतिरुवाच यद्येवं चोदितः शक्र त्वयास्यां पूर्वमेव हि । नाभविष्यत्त्वत्प्रियार्थमकर्तव्यं ममानघ ॥ २७ ॥
बृहस्पतिजीने कहा-निष्पाप इन्द्र ! यदि ऐसी बात है तो तुम्हें मुझसे पहले ही यह कहना चाहिये था । तुम्हारा प्रिय करनेके लिये ऐसा कोई कार्य नहीं है, जो मैं न कर सकूँ ॥ २७ ॥
प्रयतिष्यामि देवेन्द्र त्वत्प्रियार्थं न संशयः । यथा भागं च राज्यं च न चिरात् प्रतिलप्स्यसे ॥ २८ ॥
देवेन्द्र ! मैं तुम्हारे प्रिय मनोरथकी सिद्धिके लिये निःसंदेह ऐसा प्रयत्न करूँगा, जिससे तुम अपना राज्य और यज्ञभाग शीघ्र प्राप्त कर लोगे ॥ २८ ॥
तथा तात करिष्यामि मा भूत् ते विक्लवं मनः । ततः कर्म चकारास्य तेजसो वर्धनं तदा ॥ २९ ॥
तात ! तुम जैसा चाहते हो वैसा ही करूँगा । तुम्हारा मन व्याकुल न हो । ऐसा कहकर बृहस्पतिजीने उस समय इन्द्रके तेजको बढ़ानेवाले कर्मका अनुष्ठान किया ॥ २९ ॥
तेषां च बुद्धिसंमोहमकरोद् द्विजसत्तमः । नास्तिवादार्थशास्त्रं हि धर्मविद्वेषणम् परम् ॥ ३० ॥
द्विजश्रेष्ठ बृहस्पतिने रजिके पुत्रोंकी बुद्धिमें मोह उत्पन्न करनेके लिये ऐसे शास्त्रका निर्माण किया, जो नास्तिकवादसे परिपूर्ण तथा धर्मके प्रति अत्यन्त द्वेष उत्पन्न करनेवाला था ॥ ३० ॥
परमं तर्कशास्त्राणामसतां तन्मनोऽनुगम् । न हि धर्मप्रधानानां रोचते तत्कथान्तरे ॥ ३१ ॥
केवल तर्कके आधारपर अपने सिद्धान्तका प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रों में वह उत्कृष्ट माना गया है । बृहस्पतिका वह नास्तिक दर्शन दुष्ट पुरुषोंके ही मनको अधिक भाता है । धर्मप्रधान पुरुषोंको बातचीतके प्रसंगमें भी उसकी चर्चा नहीं सुहाती है ॥ ३१ ॥
ते तद् बृहस्पतिकृतं शास्त्रं श्रुत्वाल्पचेतसः । पूर्वोक्तधर्मशास्त्राणामभवन् द्वेषिणः सदा ॥ ३२ ॥
बृहस्पतिके उस शास्त्रको सुनकर वे मन्दबुद्धि रजिपुत्र पहलेके धर्मशास्त्रोंसे सदा द्वेष रखने लगे ॥ ३२ ॥
प्रवक्तुर्न्यायरहितं तन्मतं बहु मेनिरे । तेनाधर्मेण ते पापाः सर्व एव क्षयं गताः ॥ ३३ ॥
वक्ताका वह न्यायरहित मत उन्हें बहुत उत्तम जान पड़ने लगा । उसी अधर्मसे वे सब पापी नष्ट हो गये ॥ ३३ ॥
त्रैलोक्यराज्यं शक्रस्तु प्राप्य दुष्प्रापमेव च । बृहस्पतिप्रसादाद्धि परां निर्वृतिमभ्ययात् ॥ ३४ ॥
इस तरह बृहस्पतिकी कृपासे त्रिलोकीका वह दुर्लभ राज्य पाकर इन्द्र बड़े प्रसन्न हुए ॥ ३४ ॥
ते यदा तु सुसंमूढा रागोन्मत्ता विधर्मिणः । ब्रह्मद्विषश्च संवृत्ता हतवीर्यपराक्रमाः ॥ ३५ ॥ ततो लेभे सुरैश्वर्यमिन्द्रः स्थानं तथोत्तमम् । हत्वा रजिसुतान् सर्वान् कामक्रोधपरायणान् ॥ ३६ ॥
वे रजिके पुत्र जब नास्तिकवादका आश्रय ले विवेकशून्य, रागोन्मत्त, धर्मके विपरीत चलनेवाले, ब्रह्मद्रोही, शक्तिहीन और पराक्रमशून्य हो गये, तब काम-क्रोधमें तत्पर रहनेवाले उन समस्त रजिपुत्रोंको मारकर इन्द्रने देवताओंका ऐश्वर्य और उत्तम स्थान प्राप्त कर लिया ॥ ३५-३६ ॥
य इदं च्यावनं स्थानात् प्रतिष्ठां च शतक्रतोः । शृणुयाद् धारयेद्वापि न स दौरात्म्यमाप्नुयात् ॥ ३७ ॥
जो इन्द्रके अपने स्थानसे भ्रष्ट होने और पुनः उसपर प्रतिष्ठित होनेके इस प्रसङ्गको सुनता और अपने हृदयमें धारण करता है, उसके मनमें कभी दुर्भावना नहीं आती ॥ ३७ ॥
इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे हरिवंशपर्वणि ॥ आयोर्वंशकीर्तनं नाम अष्टाविंशोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीमहाभारत खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें आयुके वंशका वर्णनविषयक अठ्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ २८ ॥
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