श्रीहरिवंशपुराण हरिवंश पर्व एकोनत्रिंशोऽध्यायः
काश्यपवर्णनम्
अनेनाके वंशका वर्णन, धन्वन्तरिका काशिराज धन्वके यहाँ पुत्ररूपमें अवतार, दिवोदासके राज्यकालमें भगवान् शिवकी आज्ञासे गणेश्वर निकुम्भके द्वारा वाराणसीको जनशून्य बनानेका प्रयत्न, वहाँ शिव और पार्वतीका निवास, दिवोदासका वाराणसीपर अधिकार और अलर्ककी प्रशंसा
वैशंपायन उवाच रम्भोऽनपत्यस्तत्रासीद् वंशं वक्ष्याम्यनेनसः । अनेनसः सुतो राजा प्रतिक्षत्रो महायशाः ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! आयुपुत्र रम्भके कोई संतान नहीं हुई । अब मैं अनेनाके वंशका वर्णन करूंगा । अनेनाके पुत्र महायशस्वी राजा प्रतिक्षत्र हुए ॥ १ ॥
प्रतिक्षत्रसुतश्चापि सृञ्जयो नाम विश्रुतः । सृञ्जयस्य जयः पुत्रो विजयस्तस्य चात्मजः ॥ २ ॥
प्रतिक्षत्रके पुत्र सृञ्जय नामसे विख्यात हुए । सृञ्जयके पुत्र जय और जयके पुत्र विजय हुए ॥ २ ॥
विजयस्य कृतिः पुत्रस्तस्य हर्यश्वतः सुतः । हर्यश्वतसुतो राजा सहदेवः प्रतापवान् ॥ ३ ॥
विजयके पुत्र कृति, कृतिके हर्यश्व और हर्यश्वके पुत्र प्रतापी राजा सहदेव हुए ॥ ३ ॥
सहदेवस्य धर्मात्मा नदीन इति विश्रुतः । नदीनस्य जयत्सेनो जयत्सेनस्य संकृतिः ॥ ४ ॥
सहदेवका धर्मात्मा पुत्र नदीन नामसे विख्यात हुआ । नदीनका पुत्र जयत्सेन और जयत्सेनका संकृति था ॥ ४ ॥
संकृतेरपि धर्मात्मा क्षत्रधर्मा महायशाः । अनेनसः समाख्याताः क्षत्रवृद्धस्य मे शृणु ॥ ५ ॥
संकृतिके पुत्र महायशस्वी धर्मात्मा क्षत्रधर्मा हुए । यहाँतक अनेनाके पुत्रोंका वर्णन हुआ । अब मुझसे क्षत्रवृद्धको संततिका वर्णन सुनो ॥ ५ ॥
क्षत्रवृद्धात्मजस्तत्र सुनहोत्रो महायशाः । सुनहोत्रस्य दायादास्त्रयः परमधार्मिकाः ॥ ६ ॥ काशः शलश्च द्वावेतौ तथा गृत्समदः प्रभुः । पुत्रो गृत्समदस्यापि शुनको यस्य शौनकः ॥ ७ ॥
क्षत्रवृद्धके पुत्र महायशस्वी सुनहोत्र हुए । सुनहोत्रके परम धार्मिक तीन पुत्र थे-काश, शल और प्रभावशाली गृत्समद । गृत्समदके पुत्र शुनक हुए, जिससे शौनकवंशका विस्तार हुआ ॥ ६-७ ॥
ब्राह्मणाः क्षत्रियाश्चैवं वैश्याः शूद्रास्तथैव च । शलात्मजश्चार्ष्टिषेणस्तनयस्तस्य काशकः ॥ ८ ॥
शौनक-वंशमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी वर्गों के लोग हुए । शलके पुत्रका नाम आर्टिषेण था । उनके पुत्र काशक हुए ॥ ८ ॥
काशस्य काशयो राजन् पुत्रो दीर्घतपास्तथा । धन्वस्तु दीर्घतपसो विद्वान् धन्वन्तरिस्ततः ॥ ९ ॥
राजन् ! काशके वंशज (पुत्र) काशि कहलाये । इनमें दीर्घतपा सबसे प्रथम पुत्र थे । दीर्घतपाके धन्व और धन्वसे विद्वान् धन्वन्तरिका प्रादुर्भाव हुआ ॥ ९ ॥
तपसोऽन्ते सुमहतो जातो वृद्धस्य धीमतः । पुनर्धन्वन्तरिर्देवो मानुषेष्विह जज्ञिवान् ॥ १० ॥
अपनी महान् तपस्या पूरी करके अन्तमें धन्वन्तरिदेवने बुद्धिमान् एवं वृद्ध राजा धन्वके यहाँ इस मनुष्यरूपमें पुनः जन्म ग्रहण किया ॥ १० ॥
जनमेजय उवाच कथं धन्वन्तरिर्देवो मानुषेष्विह जज्ञिवान् । एतद् वेदितुमिच्छामि तन्मे ब्रूहि यथातथम् ॥ ११ ॥
जनमेजयने पूछा-ब्रान् ! धन्वन्तरिदेव इस मनुष्यलोकमें किस प्रकार उत्पन्न हुए ? यह मैं जानना चाहता हूँ । अतः यह प्रसङ्ग मुझे ठीक-ठीक बताइये ॥ ११ ॥
वैशंपायन उवाच धन्वन्तरेः सम्भवोऽयं श्रूयतां भरतर्षभ । जातः स हि समुद्रात्तु मथ्यमाने पुरामृते ॥ १२ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-भरत श्रेष्ठ ! धन्वन्तरिके जन्मका यह प्रसङ्ग सुनो । वे पूर्वकालमें अमृतमन्थनके समय समुद्रसे प्रकट हुए थे ॥ १२ ॥
उत्पन्नः कलशात् पूर्वं सर्वतश्च श्रिया वृतः । अभ्यसन् सिद्धिकार्ये हि विष्णुं दृष्ट्वा हि तस्थिवान् ॥ १३ ॥
पहले जब वे समुद्रसे प्रकट हुए. उस समय भगवान् विष्णुके नामोंका जप और आरोग्य-साधक कार्यका चिन्तन करते हुए सब ओरसे दिव्य कान्तिसे प्रकाशित हो रहे थे । वे अपने सामने भगवान् विष्णुको देखकर खड़े हो गये ॥ १३ ॥
अब्जस्त्वमिति होवाच तस्मादब्जस्तु स स्मृतः । अब्जः प्रोवाच विष्णुं वै तव पुत्रोऽस्मि वै प्रभो ॥ १४ ॥ विधत्स्व भागं स्थानं च मम लोके सुरेश्वर । एवमुक्तः स दृष्ट्वा वै तथ्यं प्रोवाच तं प्रभुः ॥ १५ ॥
भगवान् विष्णुने उनसे कहा-'तुम अप् अर्थात् जलसे प्रकट हुए हो, इसलिये अब्ज हो । ' उनके ऐसा कहनेसे वे अब्ज कहलाने लगे । उस समय अब्जने भगवान् विष्णुसे कहा-'प्रभो ! मैं आपका पुत्र हूँ । सुरेश्वर ! मेरे लिये यज्ञभागकी व्यवस्था कीजिये और लोकमें मेरे लिये कोई स्थान दीजिये । ' उनके ऐसा कहनेपर भगवान् विष्णुने उनकी ओर देखकर यह यथार्थ बात कही- ॥ १४-१५ ॥
कृतो यज्ञविभागो हि यज्ञियैर्हि सुरैः पुरा । देवेषु विनुयुक्तं हि विद्धि होत्रं महर्षिभिः ॥ १६ ॥
पूर्वकालमें यज्ञसम्बन्धी देवताओंने यज्ञका विभाग कर लिया है । महर्षियोंने हवनीय पदार्थोका देवताओंके लिये ही विनियोग किया है । इस बातको तुम अच्छी तरह समझ लो ॥ १६ ॥
न शक्यमुपहोमा वै तुभ्यं कर्तुं कदाचन । अर्वाग्भूतोऽसि देवानां पुत्र त्वं तु न हीश्वरः ॥ १७ ॥
बेटा ! तुम्हें छोटेमोटे उपहोम कभी नहीं अर्पित किये जा सकते (क्योंकि वे तुम्हारे योग्य नहीं हैं) । तुम देवताओंसे पीछे उत्पन्न हुए हो । अतः तुम्हारे लिये वेद-विरुद्ध यज्ञभागकी कल्पना नहीं की जा सकती और वैदिक यज्ञभाग पानेके तुम अधिकारी नहीं हो ॥ १७ ॥
द्वितीयायां तु संभूत्यां लोके ख्यातिं गमिष्यसि । अणिमादिश्च ते सिद्धिर्गर्भस्थस्य भविष्यति ॥ १८ ॥
दूसरे जन्ममें तुम संसारमें विख्यात होओगे । वहाँ गर्भावस्थामें ही तुम्हें अणिमा आदि सिद्धि प्राप्त हो जायगी ॥ १८ ॥
तेनैव त्वं शरीरेण देवत्वं प्राप्स्यसे प्रभो । चरुमन्त्रैर्व्रतैर्जाप्यैर्यक्ष्यन्ति त्वां द्विजातयः ॥ १९ ॥
प्रभो ! तुम उसी शरीरसे देवत्व प्राप्त कर लोगे और ब्राह्मणलोग चरु, मन्त्र, व्रत एवं जपनीय मन्त्रोंद्वारा तुम्हारा यजन करेंगे ॥ १९ ॥
अष्टधा त्वं पुनश्चैवमायुर्वेदं विधास्यसि । अवश्यभावी ह्यर्थोऽयं प्राग्दृष्टस्त्वब्जयोनिना ॥ २० ॥
फिर तुम उस जन्ममें आयुर्वेदको आठ भागोंमें विभक्त करके उसे आठ अङ्गोंसे युक्त' बना दोगे, यह बात अवश्य होनेवाली है । कमलयोनि ब्रह्माजीने इसे पहलेसे ही देख लिया है' ॥ २० ॥
द्वितीयं द्वापरं प्राप्य भविता त्वं न संशयः । इमं तस्मै वरं दत्त्वा विष्णुरन्तर्दधे पुनः ॥ २१ ॥
'दूसरा द्वापर आनेपर तुम संसारमें प्रकट होओगे, इसमें संशय नहीं है ।' धन्वन्तरिको यह वर देकर भगवान् विष्णु फिर अन्तर्धान हो गये ॥ २१ ॥
द्वितीये द्वापरं प्राप्ते सौनहोत्रिः स काशिराट् । पुत्रकामस्तपस्तेपे धिन्वन्दीर्घतपास्तदा ॥ २२ ॥
जब दूसरा द्वापर आया, तब सुनहोत्रके पुत्र काशिराज धन्व पुत्रकी कामनासे दीर्घकालीन तपस्या करने लगे ॥ २२ ॥
प्रपद्ये देवतां तां तु या मे पुत्रं प्रदास्यति । अब्जं देवं सुतार्थाय तदाऽऽराधितवान् नृपः ॥ २३ ॥
उन्होंने मन-ही-मन सोचा कि 'मैं उस देवताकी शरण लूँ, जो मुझे पुत्र प्रदान करेगा । ' ऐसा विचारकर राजाने पुत्रके लिये अब्जदेव (भगवान् धन्वन्तरि)-की आराधना की ॥ २३ ॥
ततस्तुष्टः स भगवानब्जः प्रोवाच तं नृपम् । यदिच्छसि वरं ब्रूहि तत् ते दास्यामि सुव्रत ॥ २४ ॥
उस आराधनासे संतुष्ट होकर भगवान् अब्ज राजा धन्वसे बोले-'उत्तम व्रतका पालन करनेवाले नरेश ! तुम जो वर प्राप्त करना चाहते हो, उसे बताओ । वह मैं तुम्हें दूंगा' ॥ २४ ॥
नृप उवाच भगवन् यदि तुष्टस्त्वं पुत्रो मे ख्यातिमान् भव । तथेति समनुज्ञाय तत्रैवान्तरधीयत ॥ २५ ॥
राजा बोले-भगवन् ! यदि आप मुझसे संतुष्ट हैं तो मेरे पुत्र हो जायें और इसी रूपमें आपकी ख्याति हो । तब 'तथास्तु' कहकर भगवान् धन्वन्तरि वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ २५ ॥
तस्य गेहे समुत्पन्नो देवो धन्वन्तरिस्तदा । काशिराजो महाराज सर्वरोगप्रणाशनः ॥ २६ ॥
महाराज ! तदनन्तर धन्वन्तरिदेव धन्वके घरमें अवतीर्ण हुए । काशिराज धन्वन्तरि समस्त रोगोंका नाश करनेमें समर्थ थे ॥ २६ ॥
आयुर्वेदं भरद्वाजात् प्राप्येह भिषजां क्रियाम् । तमष्टधा पुनर्व्यस्य शिष्येभ्यः प्रत्यपादयत् ॥ २७ ॥
उन्होंने मुनिवर भरद्वाजसे आयुर्वेद तथा चिकित्साकर्मका ज्ञान प्राप्त करके उसे आठ भागोंमें विभक्त किया और उन सबकी विस्तृत विवेचना की । फिर बहुतसे शिष्योंको उस अष्टाङ्गयुक्त आयुर्वेदकी शिक्षा दी ॥ २७ ॥
धन्वन्तरेस्तु तनयः केतुमानिति विश्रुतः । अथ केतुमतः पुत्रो वीरो भीमरथः स्मृतः ॥ २८ ॥
धन्वन्तरिके पुत्र केतुमान् नामसे विख्यात हुए । केतुमान्के वीर पुत्रका नाम भीमरथ था ॥ २८ ॥
सुतो भीमरथस्यापि दिवोदासः प्रजेश्वरः । दिवोदासस्तु धर्मात्मा वाराणस्यधिपोऽभवत् ॥ २९ ॥
भीमरथके पुत्र धर्मात्मा राजा दिवोदास हुए, जो वाराणसीपुरीके स्वामी थे ॥ २९ ॥
एतस्मिन्नेव काले तु पुरीं वाराणसीं नृप । शून्यां निवासयामास क्षेमको नाम राक्षसः ॥ ३० ॥
नरेश्वर ! राजा दिवोदासके राज्यकालमें ही शापवश वाराणसीपुरी जनशून्य हो गयी थी, जिसे पीछे भगवान् रुद्रका अनुचर क्षेमक नामक राक्षसने बसाया था ॥ ३० ॥
शप्ता हि सा मतिमता निकुंभेन महात्मना । शून्या वर्षसहस्रं वै भवित्री नात्र संशयः ॥ ३१ ॥
भगवान् रुद्रके पार्षद बुद्धिमान् महात्मा निकुम्भने यह शाप दे दिया था कि 'वाराणसीपुरी एक हजार वर्षांतक जनशून्य बनी रहेगी । इसमें संशय नहीं है' ॥ ३१ ॥
तस्यां तु शप्तमात्रायां दिवोदासः प्रजेश्वरः । विषयान्ते पुरीं रम्यां गोमत्यां संन्यवेशयत् ॥ ३२ ॥
उस पुरीके शापग्रस्त हो जानेपर राजा दिवोदासने अपने राज्यकी सीमापर गोमती नदीके किनारे एक रमणीय नगरी बसायी ॥ ३२ ॥
भद्रश्रेण्यस्य पूर्वं तु पुरी वाराणसीत्यभूत् । भद्रश्रेण्यस्य पुत्राणां शतमुत्तमधन्विनाम् ॥ ३३ ॥ हत्वा निवेशयामास दिवोदासो नरर्षभः । भद्रश्रेण्यस्य तद् राज्यं हृतं तेन बलीयसा ॥ ३४ ॥
पहले वाराणसीपुरी (यदुवंशी महिष्मान्के पुत्र) भद्रश्रेण्यके अधिकारमें थी । भद्रश्रेण्यके सौ पुत्र थे, जो श्रेष्ठ धनुर्धर माने जाते थे, नरश्रेष्ठ दिवोदासने उन सबको मारकर वहाँ अपना राज्य स्थापित किया । उन महाबली नरेशने भद्र श्रेण्यके उस राज्यका बलपूर्वक अपहरण कर लिया ॥ ३३-३४ ॥
जनमेजय उवाच वाराणसीं निकुम्भस्तु किमर्थं शप्तवान् प्रभुः । निकुम्भकश्च धर्मात्मा सिद्धिक्षेत्रं शशाप यः ॥ ३५ ॥
जनमेजयने पूछा-मुने ! वाराणसी तो सिद्धिक्षेत्र (मोक्षधाम) है और प्रभावशाली निकुम्भ बड़े धर्मात्मा हैं । फिर उन्होंने उस पुरीको शाप किसलिये दिया ? ॥ ३५ ॥
वैशंपायन उवाच दिवोदासस्तु राजर्षिर्नगरीं प्राप्य पार्थिवः । वसति स्म महातेजाः स्फीतायां तु नराधिपः ॥ ३६ ॥
वैशम्पायनजीने कहा-राजन् ! महातेजस्वी नरेश्वर राजर्षि दिवोदास वाराणसी नगरीको पाकर वहाँके राजा हो गये । वे उस समृद्धिशालिनी नगरीमें सदा ही निवास करते थे ॥ ३६ ॥
एतस्मिन्नेव काले तु कृतदारो महेश्वरः । देव्याः स प्रियकामस्तु न्यवसच्छ्वशुरान्तिके ॥ ३७ ॥
इन्हीं दिनों भगवान् शङ्कर विवाह करके देवी पार्वतीका प्रिय करनेकी इच्छासे अपने श्वशुरके पास ही निवास करते थे ॥ ३७ ॥
देवाज्ञया पार्षदा ये त्वधिरूपास्तपोधनाः । पूर्वोक्तैरुपदेशैश्च तोषयन्ति स्म पार्वतीम् ॥ ३८ ॥
उस समय महादेवजीको आज्ञासे उनके सुयोग्य पार्षद, जो तपस्याके धनी थे, उनके पहले दिये हुए उपदेशके अनुसार पार्वतीदेवीको संतुष्ट करते रहते थे ॥ ३८ ॥
हृष्यते वै महादेवी मेना नैव प्रहृष्यति । जुगुप्सत्यसकृत् तां वै देवीं देवं तथैव सा ॥ ३९ ॥
इससे महादेवी पार्वती तो प्रसन्न रहती थीं, परंतु उनकी माता मेनाको संतोष नहीं होता था । वे महादेवी पार्वती तथा भगवान् शङ्करकी बारम्बार निन्दा ही करती थीं ॥ ३९ ॥
सपार्षदस्त्वनाचारस्तव भर्ता महेश्वरः । दरिद्रः सर्वदैवासौ शीलं तस्य न वर्तते ॥ ४० ॥
उन्होंने एक दिन कहा-'उमे ! तेरे पति महादेव और उनके पार्षद सभी अनाचारी हैं । साथ ही वे भोलेनाथ सदाके दरिद्र हैं । शील तो उनमें नाममात्रको भी नहीं है' ॥ ४० ॥
मात्रा तथोक्ता वरदा स्त्रीस्वभावाच्च चुक्रुधे । स्मितं कृत्वा च वरदा भवपार्श्वमथागमत् ॥ ४१ ॥
वरदायिनी उमा माताके ऐसा कहनेपर स्त्रीस्वभाववश कुपित हो उठी और किञ्चित् मुसकराकर महादेवजीके पास आयीं ॥ ४१ ॥
विवर्णवदना देवी महादेवमभाषत । नेह वत्स्याम्यहं देव नय मां स्वं निकेतनम् ॥ ४२ ॥
उस समय उनका मुख मलिन हो रहा था । निकट आकर देवीने महादेवजीसे कहा-'देव ! अब मैं यहाँ (नैहरमें) नहीं रहूँगी । आप मुझे अपने घर ले चलें' ॥ ४२ ॥
तथा कर्तुं महादेवः सर्वलोकानवैक्षत । वासार्थं रोचयामास पृथिव्यां कुरुनन्दन ॥ ४३ ॥ वाराणसी महातेजाः सिद्धिक्षेत्रं महेश्वरः । दिवोदासेन तां ज्ञात्वा निविष्टां नगरीं भवः ॥ ४४ ॥ पार्श्वे तिष्ठन्तमाहूय निकुम्भमिदमब्रवीत् । गणेश्वर पुरीं गत्वा शून्यां वाराणसीं कुरु ॥ ४५ ॥ मृदुनैवाभ्युपायेन ह्यतिवीर्यः स पार्थिवः । ततो गत्वा निकुम्भस्तु पूरीं वाराणसीं तदा ॥ ४६ ॥ स्वप्ने निदर्शयामास कण्डुकं नाम नापितम् । श्रेयस्तेऽहं करिष्यामि स्थानं मे रोचयानघ ॥ ४७ ॥ मद्रूपां प्रतिमां कृत्वा नगर्यन्ते तथैव च । ततः स्वप्ने यथोद्दिष्टं सर्वं कारितवान् नृप ॥ ४८ ॥
कुरुनन्दन ! पार्वतीजीके कथनानुसार कार्य करनेके लिये महादेवजीने सम्पूर्ण लोकोंपर दृष्टिपात किया । उन महातेजस्वी महेश्वरने पृथ्वीपर अपने रहनेके लिये सिद्धिक्षेत्र वाराणसीपुरीको पसंद किया । परंतु उस नगरीमें राजा दिवोदास निवास करते हैं, यह जानकर महादेवजीने अपने पास खड़े हुए निकुम्भसे इस प्रकार कहा'गणेश्वर ! तुम जाकर वाराणसीपुरीको मनुष्योंसे सूनी कर दो; परंतु इसके लिये कोमल उपायसे ही काम लेना, क्योंकि वे राजा दिवोदास बड़े बलवान् हैं' । तब निकुम्भने वाराणसीपुरीमें जाकर कण्डुक नाईको स्वप्रमें दर्शन दिया और कहा-'अनघ ! तू नगरकी सीमापर मेरी प्रतिमा बनाकर मेरे लिये निवासस्थानकी व्यवस्था कर । ऐसा करनेसे मैं तेरा कल्याण करूँगा । ' नरेश्वर ! तब उस नाईने स्वपमें जैसा कहा गया था उसके अनुसार सब कुछ किया और कराया ॥ ४३-४८ ॥
पुरीद्वारे तु विज्ञाप्य राजानं च यथाविधि । पूजां तु महतीं तस्य नित्यमेव प्रयोजयत् ॥ ४९ ॥
राजाको सूचना देकर उसने नगरके द्वारपर विधिपूर्वक निकुम्भ-प्रतिमाकी स्थापना की । फिर वह प्रतिदिन बड़े समारोहके साथ उस प्रतिमाकी पूजा करने लगा ॥ ४९ ॥
गन्धैश्च धूपमाल्यैश्च प्रोक्षणीयैस्तथैव च । अन्नपानप्रयोगैश्च अत्यद्भुतमिवाभवत् ॥ ५० ॥
गन्ध, पुष्प, माला, धूप, प्रोक्षणीय जल तथा अन्न-पान आदि अर्पण करके वह नाई निकुम्भकी पूजा करता था । यह वहाँ अत्यन्त अद्भुत-सी बात हुई ॥ ५० ॥
एवं संपूज्यते तत्र नित्यमेव गणेश्वरः । ततो वरसहस्रं तु नागराणां प्रयच्छति । पुत्रान् हिरण्यमायुश्च सर्वान् कामांस्तथैव च ॥ ५१ ॥
इस प्रकार वहाँ नित्य ही निकुम्भ नामक गणेशकी पूजा होती और वे नागरिकोंको सहस्रों वर प्रदान करते थे । पुत्र, सुवर्ण, आयु तथा सम्पूर्ण मनोवाञ्छित वस्तुएँ सबको देते थे ॥ ५१ ॥
राज्ञस्तु महिषी श्रेष्ठा सुयशा नाम विश्रुता । पुत्रार्थमागता देवी साध्वी राज्ञा प्रचोदिता ॥ ५२ ॥
राजा दिवोदासकी श्रेष्ठ महारानी सुयशा नामसे विख्यात थीं । राजाकी आज्ञा लेकर वे साध्वी महारानी पुत्रकी कामनासे वहाँ आयीं ॥ ५२ ॥
पूजां तु विपुलां कृत्वा देवी पुत्रमयाचत । पुनः पुनरथागम्य बहुशः पुत्रकारणात् ॥ ५३ ॥
वहाँ जाकर बड़े विस्तारके साथ पूजा करके देवी सुयशाने निकुम्भसे पुत्रके लिये याचना की । उन्होंने बारम्बार आकर पूजन किया और अनेक बार पुत्रके लिये प्रार्थना की ॥ ५३ ॥
न प्रयच्छति पुत्रं हि निकुंभः कारणेन हि । राजा तु यदि नः कुप्येत् कार्यसिद्धिस्ततो भवेत् ॥ ५४ ॥
परंतु निकुम्भ कारणवश उन्हें पुत्र नहीं देते थे । उन्होंने सोचा-'यदि राजा किसी तरह हमपर कुपित हो जाय तो हमारा काम बन जाय ॥ ५४ ॥
अथ दीर्घेण कालेन क्रोधो राजानमाविशत् । भूत एष महान् द्वारि नागराणां प्रयच्छति ॥ ५५ ॥ प्रीतो वरान्वै शतशो मम किं न प्रयच्छति । मामकैः पूज्यते नित्यं नगर्यां मे सदैव हि ॥ ५६ ॥ विज्ञापितो मयात्यर्थं देव्या मे पुत्रकारणात् । ॥ न ददाति च पुत्रं मे कृतघ्नः केन हेतुना ॥ ५७ ॥ ततो नार्हति सत्कारं मत्सकाशाद् विशेषतः । तस्मात् तु नाशयिष्यामि स्थानमस्य दुरात्मनः ॥ ५८ ॥
तदनन्तर दीर्घकालके पश्चात् राजाके मनमें क्रोध हुआ । वे सोचने लगे-'मेरे नगरके द्वारपर बैठा हुआ यह महान् भूत प्रसन्न होकर नागरिकोंको सैकड़ों प्रकारके वर देता है, परंतु मुझे क्यों नहीं देता ? सदा मेरी ही नगरीमें, मेरे ही लोग इसकी नित्य पूजा करते हैं । मैंने भी देवीको पुत्र प्रदान करनेके लिये बार-बार निवेदन किया; परंतु यह कृतघ्न न जाने किस कारणसे मुझे पुत्र नहीं दे रहा है । अतः अब यह विशेषतः मुझसे सत्कार पानेके योग्य नहीं रहा । इसलिये इस दुरात्माके स्थानका मैं नाश कर दूंगा' ॥ ५५-५८ ॥
एवं स तु विनिश्चित्य दुरात्मा राजकिल्बिषी । स्थानं गणपतेस्तस्य नाशयामास दुर्मतिः ॥ ५९ ॥
ऐसा निश्चय करके दुरात्मा, दुर्बुद्धि एवं पापी राजाने गणपति निकुम्भके उस स्थानको नष्ट करा दिया ॥ ५९ ॥
भग्नमायतनं दृष्ट्वा राजानमशपत् प्रभुः । यस्मादनपराधस्य त्वया स्थानं विनाशितम् । पुर्यकस्मादियं शून्या तव नूनं भविष्यति ॥ ६० ॥
अपने वासस्थानको भग्न हुआ देख भगवान् निकुम्भने राजाको शाप देते हुए कहा-'राजन् ! तुमने बिना किसी अपराधके मेरे स्थानको नष्ट कराया है, इसलिये निश्चय ही तुम्हारी यह नगरी अकस्मात् जनशून्य हो जायगी' ॥ ६० ॥
ततस्तेन तु शापेन शून्या वाराणसी तदा । शप्त्वा पुरीं निकुंभस्तु महादेवमथागमत् ॥ ६१ ॥
तदनन्तर उस शापसे उस समय वाराणसीपुरी सूनी हो गयी । उस पुरीको शाप देकर निकुम्भ महादेवजीके पास चले गये ॥ ६१ ॥
अकस्मात् तु पुरी सा तु विद्रुता सर्वतोदिशम् । तस्यां पुर्यां ततो देवो निर्ममे पदमात्मनः ॥ ६२ ॥
वाराणसीमें रहनेवाले सब लोग अकस्मात् सम्पूर्ण दिशाओंमें भाग गये । तब महादेवजीने उस पुरीमें अपना निवास स्थान बनाया ॥ ६२ ॥
रमते तत्र वै देवो रममाणो गिरेः सुताम् । न रतिं तत्र वै देवी लभते गृहविस्मयात् । वसाम्यत्र न पुर्यां तु देवी देवमथाब्रवीत् ॥ ६३ ॥
फिर वे भगवान् शिव गिरिराजनन्दिनी उमाका मनोरञ्जन करते हुए वहाँ आनन्दपूर्वक रहने लगे । परंतु देवी पार्वतीका मन वहाँ नहीं लगता था, क्योंकि वहाँ कोई निश्चित गृह न होनेसे वे विस्मयमें पड़ी रहती थीं । (अथवा पिताके घरके लिये उत्कण्ठित होनेके कारण देवीको वहाँ प्रसन्नता नहीं प्राप्त होती थी । ) उन्होंने महादेवजीसे कहा-'भगवन् ! मैं इस पुरीमें नहीं रहूँगी (आप मेरे घरको चलिये) ॥ ६३ ॥
देव उवाच नाहं वेश्मनि वत्स्यामि अविमुक्तं हि मे गृहम् । नाहं तत्र गमिष्यामि गच्छ देवि गृहं प्रति ॥ ६४ ॥
महादेवजी बोले-देवि ! मैं और किसी घरमें नहीं रहूँगा । यह अविमुक्त क्षेत्र ही मेरा घर है । अत: मैं वहाँ नहीं चलूँगा । तुम जाना चाहो तो अपने उस घरको जाओ ॥ ६४ ॥
हसन्नुवाच भगवांस्त्र्यम्बकस्त्रिपुरान्तकः । तस्मात् तदविमुक्तं हि प्रोक्तं देवेन वै स्वयम् ॥ ६५ ॥ एवं वाराणसी शप्ता अविमुक्तं च कीर्तितम् ॥ ६६ ॥
त्रिपुराका विनाश करनेवाले त्रिनेत्रधारी भगवान् शिवने हँसते हुए पूर्वोक्त बात कही थी । महादेवजीने स्वयं ही उस क्षेत्रको अविमुक्त कहा था, इसलिये वह अविमुक्त नामसे प्रसिद्ध हो गया । इस तरह वाराणसीपुरीको शाप प्राप्त हुआ और उसे अविमुक्त क्षेत्र कहा गया ॥ ६५-६६ ॥
यस्मिन् वसति वै देवः सर्वदेवनमस्कृतः । युगेषु त्रिषु धर्मात्मा सह देव्या महेश्वरः ॥६७ ॥
सर्वदेववन्दित धर्मात्मा देव महेश्वर सत्ययुग आदि तीन युगोंमें देवी पार्वतीके साथ उस अविमुक्त क्षेत्रमें प्रत्यक्ष निवास करते हैं । ६७ ॥
अन्तर्धानं कलौ याति तत्पुरं हि महात्मनः । अन्तर्हिते पुरे तस्मिन् पुरी सा वसते पुनः । एवं वाराणसी शप्ता निवेशं पुनरागता ॥ ६८ ॥
कलियुग आनेपर महात्मा महादेवजीका वह नगर अदृश्य हो जाता है । उसके अदृश्य हो जानेपर वाराणसीपुरी फिरसे बसती है । इस प्रकार वाराणसी नगरी शापग्रस्त होकर उजड़ी और पुनः बसी थी ॥ ६८ ॥
भद्रश्रेण्यस्य पुत्रो वै दुर्दमो नाम विश्रुतः । दिवोदासेन बालेति घृणया स विवर्जितः ॥ ६९ ॥
भद्र श्रेण्यका एक पुत्र दुर्दम नामसे विख्यात था । दिवोदासने उसे बालक समझकर दयावश जीवित छोड़ दिया था ॥ ६९ ॥
हैहयस्य तु दायाद्यं कृतवान् वै महीपतिः । आजह्रे पितृदायाद्यं दिवोदासहृतं बलात् ॥ ७० ॥
उस राजाने हैहयका पुत्र होना स्वीकार किया और उन्हींकी सहायतासे उसने दिवोदासद्वारा बलपूर्वक अपहत हुई अपनी पैतृक सम्पत्तिको फिर वापस लौटाया ॥ ७० ॥
भद्रश्रेण्यस्य पुत्रेण दुर्दमेन महात्मना । वैरस्यान्तं महाराज क्षत्रियेण विधित्सता ॥ ७१ ॥
महाराज ! भद्र श्रेण्यका महामनस्वी पुत्र दुर्दम एक वीर क्षत्रिय था । उसने वैरका बदला लेनेके लिये ही वैसा किया था ॥ ७१ ॥
दिवोदासाद् दृषद्वत्यां वीरो जज्ञे प्रतर्दनः । तेन पुत्रेण बालेन प्रहृतं तस्य वै पुनः ॥ ७२ ॥
दिवोदासके द्वारा उनकी पत्नी दुषद्वतीके गर्भसे वीर प्रतर्दनका जन्म हुआ । उस राजकुमारने बालक होनेपर भी दुर्दमसे पुनः राज्य छीन लिया ॥ ७२ ॥
प्रतर्दनस्य पुत्रौ द्वौ वत्सभार्गौ बभूवतुः । वत्सपुत्रो ह्यलर्कस्तु सन्नतिस्तस्य चात्मजः ॥ ७३ ॥
प्रतर्दनके दो पुत्र थे-वत्स और भार्ग । वत्सके पुत्र अलर्क और अलर्कके संनति हुए ॥ ७३ ॥
अलर्कः काशिराजस्तु ब्रह्मण्यः सत्यसङ्गरः । अलर्कं प्रति राजर्षिं श्लोको गीतः पुरातनैः ॥ ७४ ॥
काशिराज अलर्क बड़े ब्राह्मणभक्त और सत्यप्रतिज्ञ थे । राजर्षि अलर्कके विषयमें प्राचीन पुरुषोंने निम्नाङ्कित श्लोकका गान किया है ॥ ७४ ॥
षष्टिवर्षसहस्राणि षष्टिं वर्षशतानि च । युवा रूपेण संपन्न आसीत् काशिकुलोद्वहः ॥ ७५ ॥
काशिवंशावतंस अलर्क छाछठ हजार वर्षांतक युवावस्था तथा सुन्दर रूप-वैभवसे सम्पन्न रहे' ॥ ७५ ॥
लोपामुद्राप्रसादेन परमायुरवाप सः । तस्यासीत्सुमहद्राज्यं रूपयौवनशालिनः ॥ ७६ ॥
उन्होंने लोपामुद्राकी कृपासे उत्तम आयु प्राप्त की थी । रूप और युवावस्थासे सुशोभित होनेवाले अलर्कका राज्य बहुत विशाल था ॥ ७६ ॥
शापस्यान्ते महाबाहुर्हत्वा क्षेमकराक्षसम् । ॥ रम्यां निवेशयामास पुरीं वाराणसीं पुनः ॥ ७७ ॥
महाबाहु अलर्कने निकुम्भके शापका अन्त होनेपर क्षेमक नामक राक्षसको मारकर पुनः रमणीय वाराणसीपुरी बसायी थी ॥ ७७ ॥
सन्नतेरपि दायादः सुनीथो नाम धार्मिकः । ॥ सुनीथस्य तु दायादः क्षेम्यो नाम महायशाः ॥ ७८ ॥
संनतिके पुत्र धर्मात्या सुनीथ हुए और सुनीथका महायशस्वी पुत्र क्षेभ्य नामसे प्रसिद्ध हुआ ॥ ७८ ॥
क्षेम्यस्य केतुमान् पुत्रः सुकेतुस्तस्य चात्मजः । ॥ सुकेतोस्तनयश्चापि धर्मकेतुरिति स्मृतः ॥ ७९ ॥
क्षेम्यके पुत्र केतुमान्, केतुमान्के पुत्र सुकेतु और सुकेतुके भी पुत्र धर्मकेतु हुए ॥ ७९ ॥
धर्मकेतोस्तु दायादः सत्यकेतुर्महारथः । ॥ सत्यकेतुसुतश्चापि विभुर्नाम प्रजेश्वरः ॥ ८० ॥
धर्मकेतुके पुत्र महारथी सत्यकेतु हुए और सत्यकेतुके पुत्र प्रजापालक विभु हुए ॥ ८० ॥
आनर्तस्तु विभोः पुत्रः सुकुमारस्तु तत्सुतः । सुकुमारस्य पुत्रस्तु धृष्टकेतुः सुधार्मिकः । धृष्टकेतोस्तु दायादो वेणुहोत्रः प्रजेश्वरः ॥ ८१ ॥
विभुके पुत्रका नाम आनत था । आनर्तका पुत्र सुकुमार हुआ । सुकुमारके पुत्र परम धर्मात्मा धृष्टकेतु हुए और धृष्टकेतुके पुत्र राजा वेणुहोत्र थे ॥ ८१ ॥
वेणुहोत्रसुतश्चापि भर्गो नाम प्रजेश्वरः । वत्सस्य वत्स्भूमिस्तु भृगुभूमिस्तु भार्गवात् ॥ ८२ ॥
वेणुहोत्रका पुत्र राजा भर्गक नामसे विख्यात हुआ । प्रतर्दनके जो वत्स और भार्ग नामक दो पुत्र बतलाये गये हैं, उनमेंसे वत्सके वत्सभूमि तथा भार्गक भृगुभूमि नामक पुत्र हुए ॥ ८२ ॥
एते त्वङ्गिरसः पुत्रा जाता वंशेऽथ भार्गवे । ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्यास्तयोः पुत्राः सहस्रशः । इत्येते काशयः प्रोक्ता नहुषस्य निबोध मे ॥ ८३ ॥
ये अङ्गिरागोत्री गालवके वंशज हैं, जो भार्गववंशमें उत्पन्न हुए । इनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य-तीनों वर्गों के लोग हैं । वत्सभूमि और भृगुभूमिके सहस्रों पुत्र कहे गये हैं । इस प्रकार ये राजा काशिके कुलमें उत्पन्न हुए क्षत्रिय बताये गये हैं । अब तुम मुझसे नहुषकी संतानोंका वर्णन सुनो ॥ ८३ ॥
इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे हरिवंशपर्वणि ॥ काश्यपवर्णनं नाम एकोनत्रिंशोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीमहाभारत खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें उनतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २९ ॥
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