श्रीहरिवंशपुराण हरिवंश पर्व त्रिंशोऽध्यायः
ययातिचरित्रकथनम्
नहुष एवं ययातिके वंशका वर्णन तथा ययातिका चरित्र
वैशंपायन उवाच उत्पन्नाः पितृकन्यायां विरजायां महौजसः । नहुषस्य तु दायादाः षडिन्द्रोपमतेजसः ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-राजन् ! नहुषके उनकी पत्नी पितृकन्या विरजाके गर्भसे छ: महाबली पुत्र उत्पन्न हुए, जो इन्द्रके समान तेजस्वी थे ॥ १ ॥
यतिर्ययातिः संयातिरायतिः पाञ्चिको भवः । सुयातिः षष्ठस्तेषां वै ययातिः पार्थिवोऽभवत् । यतिर्ज्येष्ठस्तु तेषां वै ययातिस्तु ततः परम् ॥ २ ॥
उनके नाम इस प्रकार हैं-यति, ययाति, संयाति, आयाति, पाँचवाँ भव और छठा सुयाति । इनमेंसे ययाति ही राजा हुए । इन छ: भाइयोंमें सबसे बड़े थे यति और उनके बाद ययाति उत्पन्न हुए थे ॥ २ ॥
काकुत्स्थकन्यां गां नाम लेभे परमधार्मिकः । यतिस्तु मोक्षमास्थाय ब्रह्मभूतोऽभवन्मुनिः ॥ ३ ॥
परम धर्मात्मा यतिने ककुत्स्थकी कन्या गौको पनीरूपमें प्राप्त किया था । वे मोक्षधर्मका आश्रय ले ब्रह्मस्वरूप मुनि हो गये ॥ ३ ॥
तेषां ययातिः पञ्चानां विजित्य वसुधामिमाम् । देवयानीमुशनसः सुतां भार्यामवाप सः । शर्मिष्ठामासुरीं चैव तनयां वृषपर्वणः ॥ ४ ॥
शेष पाँच भाइयोंमें ययातिने इस पृथ्वीको जीतकर शुक्राचार्यकी पुत्री देवयानी तथा असुरराज वृषपर्वाकी कन्या शर्मिष्ठाको भी पत्नीके रूपमें प्राप्त किया ॥ ४ ॥
यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत । द्रुह्युं चानुं च पूरुं च शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी ॥ ५ ॥
देवयानीने यदु और तुर्वसुको जन्म दिया तथा वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठाने द्रुह्यु, अनु तथा पूरु-ये तीन पुत्र उत्पन्न किये ॥ ५ ॥
तस्मै शक्रो ददौ प्रीतो रथं परमभास्वरम् । असङ्गं काञ्चनं दिव्यं दिव्यैः परमवाजिभिः ॥ ६ ॥ युक्तं मनोजवैः शुभ्रैर्येन भार्यामुवाह सः । स तेन रथमुख्येन षड्रात्रेनाजयन्महीम् । ययातिर्युधि दुर्धर्षस्तथा देवान् सवासवान् ॥ ७ ॥
ययातिपर प्रसन्न होकर इन्द्रने उन्हें एक अत्यन्त प्रकाशमान रथ प्रदान किया, जिसमें मनके समान वेगशाली, दिव्य, उत्तम एवं श्वेतवर्णके अश्व जुते हुए थे । वह दिव्य रथ सोनेका बना हुआ था । उसकी गति कहीं भी अवरुद्ध नहीं होती थी । उसी रथके द्वारा वे अपनी भार्याको व्याहकर लाये थे । उस श्रेष्ठ रथके द्वारा दुर्धर्ष राजा ययातिने छः रातोंमें ही सम्पूर्ण पृथ्वी तथा देवताओं और दानवोंको भी जीत लिया था ॥ ६-७ ॥
स रथः पौरवाणां तु सर्वेषामभवत्तदा । ॥ यावत्तु वसुनाम्नो वै कौरवाज्जनमेजयः ॥ ८ ॥
जनमेजय ! कुरुवंशी राजा वसुतक सभी पौरव नरेशोंके पास वह रथ परम्परया प्राप्त होकर विद्यमान था ॥ ८ ॥
कुरोः पुत्रस्य राजेन्द्र राज्ञः पारीक्षितस्य ह । जगाम स रथो नाशं शापाद् गार्ग्यस्य धीमतः ॥ ९ ॥
राजेन्द्र ! कुरुवंशी परीक्षित्-कुमार इन्द्रोत जनमेजयको बुद्धिमान् गार्यका शाप प्राप्त होनेके कारण वह रथ उनके यहाँसे अदृश्य हो गया ॥ ९ ॥
गर्ग्यस्य हि सुतं बालं स राजा जनमेजयः । वाक्छूरं हिंसयामास ब्रह्महत्यामवाप सः ॥ १० ॥
बात यह थी कि गायके एक बालक पुत्र था, जो बड़ा ही बाचाल था । उसे इन्द्रोत नामवाले राजा जनमेजयने मार डाला । इससे उन्हें ब्रह्महत्या प्राप्त हुई ॥ १० ॥
स लोहगन्धी राजर्षिः परिधावन्नितस्ततः । पौरजानपदैस्त्यक्तो न लेभे शर्म कर्हिचित् ॥ ११ ॥
पुरवासियों तथा जनपदके लोगोंने उन्हें त्याग दिया । उनके शरीरसे लोहेकी-सी गन्ध आती थी । (अथवा वे पतितके समान जान पड़ते थे । ) राजर्षि इन्द्रोत इधर-उधर भागते-फिरते थे, किंतु कहीं भी उन्हें शान्ति नहीं मिलती थी ॥ ११ ॥
ततः स दुःखसंतप्तो नालभत् संविदं क्वचित् । इन्द्रोतः शौनकं राजा शरणं प्रत्यपद्यत ॥ १२ ॥
जब कहीं भी स्वस्थ होनेका उपाय नहीं सूझा, तब दुःखसे संतप्त हुए राजा इन्द्रोत शौनक मुनिकी शरणमें गये ॥ १२ ॥
याजयामास चेन्द्रोतं शौनको जनमेजयम् । अश्वमेधेन राजानं पावनार्थं द्विजोत्तमः ॥ १३ ॥
द्विजश्रेष्ठ शौनकने राजा इन्द्रोत जनमेजयको शुद्ध करनेके लिये उनसे अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान करवाया ॥ १३ ॥
स लोहगन्धो व्यनशत् तस्यावभृथमेत्य ह । स च दिव्यो रथो राजन् वसोश्चेदिपतेस्तदा । दत्तः शक्रेण तुष्टेन लेभे तस्माद्बृहद्रथः ॥ १४ ॥
उस यज्ञके अन्तमें अवभृथ स्रान कर लेनेपर इन्द्रोतका पाप दूर हो गया और उनके शरीरसे जो लोहेकी-सी गन्ध आती थी, वह मिट गयी । राजन् ! तत्पश्चात् इन्द्रने संतुष्ट होकर वह दिव्य रथ चेदिराज उपरिचर वसुको दे दिया । फिर वसुसे वह रथ मगधराज बृहद्रथको मिला ॥ १४ ॥
बृहद्रथात् क्रमेणैव गतो बार्हद्रथम् नृपम् । ततो हत्वा जरासंधं भीमस्तं रथमुत्तमम् ॥ १५ ॥ प्रददौ वासुदेवाय प्रीत्या कौरवनन्दनः । सप्तद्वीपां ययातिस्तु जित्वा पृथ्वीं ससागराम् ॥ १६ ॥ व्यभजत् पञ्चधा राजन् पुत्राणां नाहुषस्तदा । दिशि दक्षिणपूर्वस्यां तुर्वसुं मतिमान् नृपः ॥ १७ ॥ प्रतीच्यामुत्तरस्यां च द्रुह्युं चानुं च नाहुषः । दिशि पूर्वोत्तरस्यां वै यदुं ज्येष्ठं न्ययोजयत् ॥ १८ ॥
बृहद्रथसे क्रमश: वह रथ उनके पुत्र राजा जरासंधको प्राप्त हुआ । तत्पश्चात् कौरवकुलको आनन्दित करनेवाले भीमसेनने जरासंधको मारकर वह उत्तम रथ प्रसन्नतापूर्वक भगवान् श्रीकृष्णको दे दिया । राजन् ! नहुषनन्दन राजा ययातिने समुद्र और सातों द्वीपोंसहित सारी पृथ्वीको जीतकर उसके पाँच भाग किये और उन्हें अपने पाँचों पुत्रोंमें बाँट दिया । उन बुद्धिमान् नरेशने दक्षिण-पूर्व दिशा तुर्वसुको, पश्चिममें दुाको और उत्तर दिशामें अनुको अभिषिक्त करके पूर्वोत्तर दिशाके (ईशानकोण) राज्यपर ज्येष्ठ पुत्र यदुको नियुक्त कर दिया ॥ १५-१८ ॥
मध्ये पूरुं च राजानमभ्यषिञ्चत नाहुषः । ॥ तैरियं पृथिवी सर्वा सप्तद्वीपा सपत्तना ॥ १९ ॥ यथाप्रदेशमद्यापि धर्मेण प्रतिपाल्यते । प्रजास्तेषां पुरस्तात् तु वक्ष्यामि नृपसत्तम ॥ २० ॥
इसके बाद नहुषनन्दन ययातिने मध्यदेशके राज्य-सिंहासनपर पूरुका अभिषेक किया । नृपश्रेष्ठ ! वे तथा उनके वंशज आज भी सातों द्वीपों और नगरॉसहित इस सारी पृथ्वीका अपने-अपने प्रदेशके अनुसार धर्मपूर्वक पालन करते हैं । अब आगे मैं उनकी संतानोंका वर्णन करूँगा ॥ १९-२० ॥
धनुर्न्यस्य पृषत्कांश्च पञ्चभिः पुरुषर्षभैः । जरावानभवद् राजा भारमावेश्य बन्धुषु । निःक्षिप्तशस्त्रः पृथिवीं निरीक्ष्य पृथिवीपतिः ॥ २१ ॥
पाँच पुरुषप्रवर पुत्रोंसे कृतकृत्य हो राजा ययातिने राज्यका भार अपने उन बन्धु-बान्धवोंपर रखकर धनुष और बार्गोका भी त्याग कर दिया । तत्पश्चात् उन्हें जरावस्थाने काबूमें कर लिया ॥ २१ ॥
प्रीतिमानभवद् राजा ययातिरपराजितः । एवं विभज्य पृथिवीं ययातिर्यदुमब्रवीत् ॥ २२ ॥
किसीसे परास्त न होनेवाले पृथ्वीपति राजा ययाति अस्त्र-शस्त्रोंका त्याग करके पृथ्वीको सुव्यवस्थित देख बड़े प्रसन्न हुए । इस तरह भूमण्डलका विभाग करके ययातिने बदुसे कहा- ॥ २२ ॥
जरां मे प्रतिगृह्णीष्व पुत्र कृत्यान्तरेण वै । तरुणस्तव रूपेण चरेयं पृथिवीमिमाम् । जरां त्वयि समाधाय तं यदुः प्रत्युवाच ह ॥ २३ ॥
'बेटा ! यह दूसरा कार्य उपस्थित हुआ है, जिसके लिये मुझे तुम्हारी युवावस्था चाहिये । तुम मेरा बुढ़ापा ग्रहण करो और मैं तुममें अपनी वृद्धावस्था स्थापित करके तुम्हारे रूपसे तरुण होकर इस पृथ्वीपर विचरण करूँ । ' तब यदुने उन्हें यों उत्तर दिया- ॥ २३ ॥
अनिर्दिष्टा मया भिक्षा ब्राह्मणस्य प्रतिश्रुता । अनपाकृत्य तां राजन् न गृहीष्यामि ते जराम् ॥ २४ ॥
'महाराज ! मैंने एक ब्राह्मणको मुंहमांगी भिक्षा देनेकी प्रतिज्ञा कर ली है, अभीतक उसने यह स्पष्टरूपसे बताया नहीं है कि 'मुझे अमुक वस्तु चाहिये । ' मैं जबतक उसकी भिक्षाका ऋण उतार न हूँ, तबतक आपका बुढ़ापा नहीं ले सकूँगा ॥ २४ ॥
जरायां बहवो दोषाः पानभोजनकारिताः । तस्माज्जरां न ते राजन् ग्रहीतुमहमुत्सहे ॥ २५ ॥
राजन् । बुढ़ापेमें खान-पानसम्बन्धी बहुत-से दोष हैं, अतः मैं आपका बुढ़ापा नहीं ग्रहण करूँगा ॥ २५ ॥
सन्ति ते बहवः पुत्राः मत्तः प्रियतरा नृप । प्रतिग्रहीतुं धर्मज्ञ पुत्रमन्यं वृणीष्व वै ॥ २६ ॥
नरेश्वर ! आपके तो बहुत-से पुत्र हैं, जो मुझसे भी बढ़कर प्रिय हैं । अतः धर्मज्ञ महाराज ! जरावस्था ग्रहण करनेके लिये किसी दूसरे पुत्रका वरण कीजिये' ॥ २६ ॥
स एवमुक्तो यदुना राजा कोपसमन्वितः । उवाच वदतां श्रेष्ठो ययातिर्गर्हयन् सुतम् ॥ २७ ॥
यदुके ऐसा कहनेपर वक्ताओंमें श्रेष्ठ राजा ययाति कुपित हो उठे और अपने उस पुत्रकी निन्दा करते हुए बोले- ॥ २७ ॥
क आश्रयस्तवान्योऽस्ति को वा धर्मो विधीयते । मामनादृत्य दुर्बुद्धे यदहं तव देशिकः ॥ २८ ॥
'दुर्बुद्धे ! मेरा अनादर करके तेरा दूसरा कौन-सा आश्रय है ? अथवा तू किस धर्मका पालन कर रहा है ? मैं तो तेरा गुरु हूँ (फिर मेरी आज्ञाका उल्लङ्कन कैसे कर रहा है ?)' ॥ २८ ॥
एवमुक्त्वा यदुं तात शशापैनं स मन्युमान् । अराज्या ते प्रजा मूढ भवित्रीति नराधम ॥ २९ ॥
तात ! अपने पुत्र यदुसे ऐसा कहकर कुपित हुए राजा ययातिने उसे शाप दे दिया-'मूढ ! नराधम ! तेरी संतान सदा राज्यसे वश्चित रहेगी' ॥ २९ ॥
स तुर्वसुं च द्रुह्युं चाप्यनुं च भरतर्षभ । एवमेवाब्रवीद् राजा प्रत्याख्यातश्च तैरपि ॥ ३० ॥
भरतश्रेष्ठ ! तदनन्तर राजा ययातिने क्रमश: तुर्वसु, द्वा और अनुको भी बुलाकर उनसे ऐसी ही बात कही, परंतु उन्होंने भी उनकी बात माननेसे इन्कार कर दिया ॥ ३० ॥
शशाप तानतिक्रुद्धो ययातिरपराजितः । यथा ते कथितं पूर्वं मया राजर्षिसत्तम ॥ ३१ ॥
तब किसीसे भी पराजित न होनेवाले राजर्षिशिरोमणि ययातिने अत्यन्त कुपित हो उनको भी वैसा ही शाप दिया जैसा यदुके प्रसङ्गमें पहले तुम्हें बताया गया है ॥ ३१ ॥
एवं शप्त्वा सुतान् सर्वांश्चतुरः पूरुपूर्वजान् । तदेव वचनं राजा पूरुमप्याह भारत ॥ ३२ ॥
भारत ! इस प्रकार पूरुसे पहले उत्पन्न हुए अपने चारों पुत्रोंको शाप देकर राजा ययातिने पूरुके सामने भी वही प्रस्ताव रखा ॥ ३२ ॥
तरुणस्तव रूपेण चरेयं पृथिवीमिमाम् । जरां त्वयि समाधाय त्वं पूरो यदि मन्यसे ॥ ३३ ॥
'पूरो ! यदि तुम स्वीकार करो तो मैं अपने बुढ़ापेका भार तुमपर रखकर तुम्हारे रूपसे तरुण होकर इस पृथ्वीपर विचाँ' ॥ ३३ ॥
स जरां प्रतिजग्राह पितुः पूरुः प्रतापवान् । ययातिरपि रूपेण पूरोः पर्यचरन्महीम् ॥ ३४ ॥
यह सुनकर प्रतापी पूरुने पिताका बुढ़ापा ले लिया और ययाति भी पूरुके रूपसे तरुण हो इस पृथ्वीपर बिचरने लगे ॥ ३४ ॥
स मार्गमाणः कामानामन्तं भरतसत्तम । विश्वाच्या सहितो रेमे वने चैत्ररथे प्रभुः ॥ ३५ ॥
भरतश्रेष्ठ ! प्रभावशाली ययाति कामनाओंका अन्त ढूंढ़ते हुए चैत्ररथ नामक वनमें गये और वहाँ विश्वाची नामक अप्सराके साथ रमण करने लगे ॥ ३५ ॥
यदावितृष्णः कामानां भोगेषु स नराधिपः । तदा पूरोः सकाशाद् वै स्वां जरां प्रत्यपद्यत ॥ ३६ ॥
इतनेपर भी जब उन्हें कामोपभोगसे तृप्ति नहीं हुई, तब उन नरेशने घर आकर पूरुसे अपना बुढ़ापा ले लिया । ३६ ॥
तत्र गाथा महाराज शृणु गीता ययातिना । याभिः प्रत्याहरेत् कामान् सर्वतोऽङ्गानि कूर्मवत् ॥ ३७ ॥
महाराज ! वहाँ ययातिने जो गाथाएँ गायीं (उद्गार प्रकट किये), उन्हें सुनो । उनपर ध्यान देनेसे मनुष्य सब भोगोंकी ओरसे अपने मनको उसी प्रकार हटा सकता है जैसे कछुआ अपने अङ्गोंको सब ओरसे समेट लेता है ॥ ३७ ॥
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ॥ ३८ ॥
ययातिने कहा—'भोगोंकी इच्छा उन्हें भोगनेसे कभी शान्त नहीं होती; अपितु घीसे आगकी भाँति और भी बढ़ती ही जाती है ॥ ३८ ॥
यत् पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः । नालमेकस्य तत् सर्वमिति पश्यन्न मुह्यति ॥ ३९ ॥
इस पृथ्वीपर जितने भी धान, जौ, सुवर्ण, पशु तथा स्त्रियाँ हैं, वे सब एक पुरुषके लिये भी पर्याप्त नहीं हैं । ऐसा समझकर विद्वान् पुरुष मोहमें नहीं पड़ता ॥ ३९ ॥
यदा भावं न कुरुते सर्वभूतेषु पापकम् । कर्मणा मनसा वाचा ब्रह्म संपद्यते तदा ॥ ४० ॥
जब जीव मन, वाणी और क्रियाद्वारा किसी भी प्राणीके प्रति पापबुद्धि नहीं करता, तब वह ब्रह्मभावको प्राप्त हो जाता है ॥ ४० ॥
यदान्येभ्यो न बिभ्येत यदा चास्मान्न बिभ्यति । यदा नेच्छति न द्वेष्टि ब्रह्म संपद्यते तदा ॥ ४१ ॥
जब वह दूसरे प्राणियोंसे नहीं डरता, जब उससे भी दूसरे प्राणी नहीं डरते तथा जब वह इच्छा-द्वेषसे परे हो जाता है, उस समय ब्रह्मभावको प्राप्त होता है ॥ ४१ ॥
या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्यति जीर्यतः । योऽसौ प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम् ॥ ४२ ॥
खोटी बुद्धिवाले पुरुषोंद्वारा जिसका त्याग होना कठिन है, जो मनुष्यके बूढ़े होनेपर भी स्वयं बूढ़ी नहीं होती तथा जो प्राण-नाशक रोगके समान है, उस तृष्णाका त्याग करनेवालेको ही सुख मिलता है ॥ ४२ ॥
जीर्यन्ति जीर्यतः केशा दन्ता जीर्यन्ति जीर्यतः । जीविताशा धनाशा च जीर्यतोऽपि न जीर्यति ॥ ४३ ॥
बूढ़े होनेवाले मनुष्यके बाल पक जाते हैं, उसके दाँत भी टूटने लगते हैं, परंतु धन और जीवनको आशा उस मनुष्यके जीर्ण होनेपर भी जीर्ण (शिथिल) नहीं होती ॥ ४३ ॥
यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम् । तृष्णाक्षयसुखस्यैते नार्हतः षोडशीं कलाम् ॥ ४४ ॥
संसारमें जो कामजनित सुख है तथा जो दिव्य महान् सुख हैं, वे सब मिलकर तृष्णा-क्षयसे होनेवाले सुखके सोलहवीं कलाके बराबर भी नहीं हो सकते' ॥ ४४ ॥
एवमुक्त्वा स राजर्षिः सदारः प्राविशद् वनम् । कालेन महता वापि चचार विपुलं तपः ॥ ४५ ॥
ऐसा कहकर राजर्षि ययाति स्त्रीसहित बनमें चले गये । वहाँ बहुत समयतक उन्होंने भारी तपस्या की ॥ ४५ ॥
भृगुतुङ्गे तपस्तप्त्वा तपसोऽन्ते महातपाः । अनश्नन् देहमुत्सृज्य सदारः स्वर्गमाप्तवान् ॥ ४६ ॥
उन महातपस्वी नरेशने भृगुतुङ्ग नामक शिखरपर तपस्या करके स्त्रीसहित उपवासके द्वारा देहको त्याग दिया और स्वर्गलोक प्राप्त किया ॥ ४६ ॥
तस्य वंशे महाराज पञ्च राजर्षिसत्तमाः । यैर्व्याप्ता पृथिवी सर्वा सूर्यस्येव गभस्तिभिः ॥ ४७ ॥
महाराज ! उनके वंशमें यदु आदि पाँच राजर्षिशिरोमणि हुए, जिनके वंशजोंसे यह सारी पृथ्वी उसी प्रकार व्याप्त है, जैसे सूर्यकी किरणोंसे वह व्याप्त होती है । ॥ ४७ ॥
यदोस्तु शृणु राजर्षेर्वंशं राजर्षिसत्कृतम् । यत्र नारायणो जज्ञे हरिर्वृष्णिकुलोद्वहः ॥ ४८ ॥
राजर्षि यदुका वंश समस्त राजर्षियोंद्वारा सम्मानित है । तुम उसका वर्णन सुनो । उसी वंशमें वृष्णिकुलभूषण श्रीकृष्णके रूपमें श्रीनारायण हरिका अवतार (प्रादुर्भाव) हुआ था ॥ ४८ ॥
धन्यः प्रजावानायुष्मान् कीर्तिमांश्च भवेन्नरः । ययातेश्चरितं पुण्यं पठञ्छृण्वन् नराधिप ॥ ४९ ॥
नरेश्वर ! जो मनुष्य ययातिके इस पुण्यमय चरित्रको पढ़ता और सुनता है, वह धनसम्पन्न, संतानवान्, दीर्घायु तथा यशस्वी होता है ॥ ४९ ॥
इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे ॥ हरिवंशपर्वणि ययातिचरिते त्रिंशोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीमहाभारत खिलभाग हरिवंशफे अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें यथातिका चरित्रविषयक तीसवां अध्याय पूरा हुआ ॥ ३० ॥
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