श्रीहरिवंशपुराण हरिवंश पर्व अष्टत्रिंशोऽध्यायः
अक्रूरचरितम्
भजमानके वंशका वर्णन और स्यमन्तकमणिकी कथा
वैशम्पायन उवाच भजमानस्य पुत्रोऽथ रथमुख्यो विदूरथः । राजाधिदेवः शूरस्तु विदूरथसुतोऽभवत् ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-राजन् ! अन्धकपुत्र भजमानके रथियोंमें मुख्य विदूरथ नामक पुत्र हुआ । विदूरथके पुत्र शूरवीर राजाधिदेव हुए ॥ १ ॥
राजाधिदेवस्य सुता जज्ञिरे वीर्यवत्तराः । दत्तातिदत्तबलिनौ शोणाश्वः श्वेतवाहनः ॥ २ ॥ शमी च दण्डशर्मा च दण्डशत्रुश्च शत्रुजित् । श्रवणा च श्रविष्ठा च स्वसारौ संबभूवतुः ॥ ३ ॥
राजाधिदेवके बलवान् दत्त और अतिदत्त, शोणाश्च, श्वेतवाहन, शमी, दण्डशर्मा, दण्डशत्रु एवं शत्रुजित् नामक परम बलवान् पुत्र उत्पन्न हुए और श्रवणा तथा अविष्ठा नामकी दो कन्याएँ हुई थीं ॥ २-३ ॥
शमीपुत्रः प्रतिक्षत्रः प्रतिक्षत्रस्य चात्मजः । स्वयंभोजः स्वयंभोजाद्धृदीकः संबभूव ह ॥ ४ ॥
शमीके पुत्र प्रतिक्षत्र हुए, प्रतिक्षत्रके पुत्र स्वयंभोज और स्वयंभोजके पुत्र हृदीक हुए ॥ ४ ॥
तस्य पुत्रा बभूवुर्हि सर्वे भीमपराक्रमाः । कृतवर्माग्रजस्तेषां शतधन्वाथ मध्यमः ॥ ५ ॥
हदीकके सभी पुत्र भयंकर पराक्रमी थे, उनमें कृतवर्मा सबसे पहले उत्पन्न हुए और शतधन्वा उनके मझले पुत्र थे ॥ ५ ॥
देवर्षेर्वचनात् तस्य भिषग् वैतरणश्च यः । सुदान्तश्च विदान्तश्च कामदा कामदन्तिका ॥ ६ ॥
देवर्षि च्यवनके वचनसे शतधन्वाके भिषक, वैतरण, सुदान्त एवं विदान्त नामक चार पुत्र उत्पन्न हुए तथा कामदा और कामदन्तिका नामकी दो पुत्रियाँ उत्पन्न हुई ॥ ६ ॥
देववांश्चाभवत् पुत्रो विद्वान् कम्बलबर्हिषः । असमौजास्तथा वीरो नासमौजाश्च तावुभौ ॥ ७ ॥
(अन्धकपुत्र) कम्बलबर्हिषके पुत्र विद्वान् देववान् हुए तथा वीर असमौजा एवं नासमौजा नामक दो पुत्र और हुए ॥ ७ ॥
अजातपुत्राय सुतान् प्रददावसमौजसे । सुदंष्ट्रं चारुरूपं च कृष्णमित्यन्धकास्त्रयः ॥ ८ ॥
अन्धकके (कुकुर आदिके अतिरिक्त) सुर्दष्ट्र, चारुरूप और कृष्ण नामके तीन पुत्र (और) थे । अन्धकने उन तीनों पुत्रोंको पुत्रहीन असमौजाको दे दिया ॥ ८ ॥
एते चान्ये च बहवो अन्धकाः कथितास्तव । अन्धकानामिमं वंशं धारयेद् यस्तु नित्यशः ॥ ९ ॥ आत्मनो विपुलं वंशं लभते नात्र संशयः । गान्धारी चैव माद्री च क्रोष्टुर्भार्ये बभूवतुः ॥ १० ॥ गान्धारी जनयामास अनमित्रं महाबलम् । माद्री युधाजितं पुत्रं ततो वै देवमीढुषम् ॥ ११ ॥ अनमित्रममित्राणां जेतारमपराजितम् । अनमित्रसुतौ निघ्नो निघ्नतो द्वौ बभूवतुः ॥ १२ ॥ प्रसेनश्चाथ सत्राजिच्छत्रुसेनाजितावुभौ । प्रसेनो द्वारवत्यां तु निवसन्त्यां महामणिम् ॥ १३ ॥ दिव्यं स्यमन्तकं नाम समुद्रादुपलब्धवान् । तस्य सत्राजितः सूर्यः सखा प्राणसमोऽभवत् ॥ १४ ॥
इनका तथा और भी बहुत-से अन्धकवंशी राजाओंका आपसे वर्णन कर दिया । जो पुरुष नित्यप्रति अन्धकोंके इस वंशका वर्णन सुनता है, उसका वंश अति विस्तृत हो जाता है, इसमें कुछ संदेह नहीं है । यदुपुत्र क्रोष्टाके गान्धारी और माद्री नामकी दो भार्याएँ थीं । गान्धारीके पुत्र महाबली अनमित्र हुए तथा माद्रीके पुत्र युधाजित् और देवमीदवान् हुए । अपराजित अनमित्र शत्रुओंको जीतनेवाले थे । अनमित्रके पुत्र निघ्न हुए, निघ्नके प्रसेन और सत्राजित् नामके दो पुत्र उत्पन्न हुए, वे दोनों शत्रुओंकी सेनाओंको जीतनेवाले थे । द्वारकापुरीमें बसते समय प्रसेनको स्यमन्तक नामकी दिव्य मणि समुद्रके तटपर परम्परासे प्राप्त हुई थी । प्रसेनके भाई सत्राजित्के सूर्यनारायण प्राणके समान प्रिय मित्र थे ॥ ९-१४ ॥
स कदाचिन्निशापाये रथेन रथिनां वरः । अब्धिकूलमुपस्प्रष्टुं उपस्थातुं ययौ रविम् ॥ १५ ॥
रथियोंमें श्रेष्ठ सत्राजित् एक समय रात्रि बीतनेपर नान एवं सूर्योपस्थान करनेके लिये समुद्र-तटपर गये थे ॥ १५ ॥
तस्योपतिष्ठतः सूर्यं विवस्वानग्रतः स्थितः । अस्पष्टमूर्तिर्भगवांस्तेजोमण्डलवान् प्रभुः ॥ १६ ॥ अथ राजा विवस्वन्तमुवाच स्थितमग्रतः । यथैवं व्योम्नि पश्यामि सदा त्वां ज्योतिषाम्पते ॥ १७ ॥ तेजोमण्डलिनं देवं तथैव पुरतः स्थितम् । को विशेषोऽस्ति मे त्वत्तः सख्येनोपगतस्य वै ॥ १८ ॥
वे सूर्योपस्थान कर रहे थे कि इतने में सूर्यनारायण उनके सामने आकर खड़े हो गये । उस समय सर्वशक्तिसम्पन्न भगवान् सूर्यदेव अपने तेजस्वी मण्डलके मध्यमें विराजमान थे, इस कारण उनका रूप स्पष्ट नहीं दीख रहा था । उस समय राजाने अपने सामने खड़े हुए भगवान् सूर्यसे कहा- 'ज्योतिर्मय ग्रह आदिके स्वामिन मैं आपको जैसे नित्यप्रति आकाशमें देखता हूँ, वैसे ही मैं आपको तेजका मण्डल धारणकर अपने सामने खड़ा हुआ देख रहा है तो फिर आप जो मेरे पास मित्रतावश पधारे, इसमें विशेषता क्या हुई ?' ॥ १६-१८ ॥
एतच्छ्रुत्वा तु भगवान् मणिरत्नं स्यमन्तकम् । स्वकण्ठादवमुच्यैव एकान्ते न्यस्तवान् विभुः । ततो विग्रहवन्तं तं ददर्श नृपतिस्तदा ॥ १९ ॥
इतना सुनते ही प्रभु सूर्यनारायणने अपने कण्ठसे मणिरत्र स्यमन्तकको उतारकर एकान्तमें अलग रख दिया ॥ १९ ॥
प्रीतिमानथ तं दृष्ट्वा मुहूर्तं कृतवान् कथाम् ॥ २० ॥ तमपि प्रस्थितं भूयो विवस्वन्तं स सत्रजित् ।
तब राजा स्पष्ट अवयवोंवाले सूर्यनारायणके शरीरको देखकर प्रसन्न हुए और उन्होंने सूर्यनारायणके साथ मुहूर्तभर (दो घड़ीतक) वार्तालाप किया ॥ २० ॥
लोकानुद्भासयस्येतान् येन त्वं सततं प्रभो । तदेतन्मणिरत्नं मे भगवन् दातुमर्हसि ॥ २१ ॥
बातचीत करनेके अनन्तर जब सूर्यनारायण फिर चलने लगे, तब सत्राजित्ने उनसे कहा-'भगवन् ! आप जिससे सदा इन तीनों लोकोंको प्रकाशित करते रहते हैं, उस स्यमन्तकमणिको मुझे दे दीजिये ॥ २१ ॥
ततः स्यमन्तकमणिं दत्तवांस्तस्य भास्करः । स तमाबध्य नगरीं प्रविवेश महीपतिः ॥ २२ ॥
तब सूर्यनारायणने वह स्यमन्तकमणि उन्हें दे दी और राजाने उसे बाँधकर नगरमें प्रवेश किया ॥ २२ ॥
तं जनाः पर्यधावन्त सूर्योऽयं गच्छतीति ह । पुरीं विस्मापयित्वा च राजा त्वन्तःपुरं ययौ ॥ २३ ॥
तब तो मनुष्य 'ये सूर्य जा रहे हैं' कहते हुए उनके पीछे दौड़े । इस प्रकार नगरीको विस्मित करते हुए वे राजा अपने रनवासमें चले गये ॥ २३ ॥
तत्प्रसेनजितं दिव्यं मणिरत्नं स्यमन्तकम् । ददौ भ्रात्रे नरपतिः प्रेम्णा सत्राजिदुत्तमम् ॥ २४ ॥
तदनन्तर राजा सत्राजित्ने मणियोंमें रत्नरूप वह दिव्य स्यमन्तकमणि प्रेमके कारण अपने भाई प्रसेनजित्को दे दी ॥ २४ ॥
स मणिः स्यन्दते रुक्मं वृष्ण्यन्धकनिवेशने । कालवर्षी च पर्जन्यो न च व्याधिभयं ह्यभूत् ॥ २५ ॥
वह मणि जिस वृष्णि और अन्धककुलवालेके घरमें रहती थी, उसके यहाँ वह सुवर्णकी वर्षा करती रहती थी । उस देशमें मेघ समयपर वर्षा करते थे और वहाँ व्याधिका भय भी नहीं होता था ॥ २५ ॥
लिप्सां चक्रे प्रसेनात्तु मणिरत्ने स्यमन्तके । गोविन्दो न च तल्लेभे शक्तोऽपि न जहार सः ॥ २६ ॥
श्रीकृष्णने प्रसेनजित्से मणियोंमें रत्नके समान वह दिव्य मणि स्यमन्तक लेनी चाही, परंतु उसने नहीं दी । श्रीकृष्ण यद्यपि समर्थ थे, तथापि वह मणि उन्होंने बलपूर्वक नहीं छीनी ॥ २६ ॥
कदाचिन्मृगयां यातः प्रसेनस्तेन भूषितः । स्यमन्तककृते सिंहाद् वधं प्राप वनेचरात् ॥ २७ ॥
प्रसेन एक समय उस मणिसे विभूषित होकर शिकार खेलने गये और मणिके कारण ही वनमें विचरण करनेवाले सिंहके द्वारा मारे गये ॥ २७ ॥
अथ सिंहं प्रधावन्तमृक्षराजो महाबलः । निहत्य मणिरत्नं तदादाय बिलमाविशत् ॥ २८ ॥
तदनन्तर महाबली ऋक्षराज जाम्बवान्ने उस दौड़ते हुए सिंहको मार डाला और उस मणिरत्नको लेकर वे अपने बिल (गुफा)-में घुस गये ॥ २८ ॥
ततो वृष्ण्यन्धकाः कृष्णं प्रसेनवधकारणात् । प्रार्थनां तां मणेर्बुद्ध्वा सर्व एव शशङ्किरे ॥ २९ ॥
उस समय प्रसेनके मारे जानेसे सभी वृष्णि और अन्धकोंने यह समझा कि श्रीकृष्णने सत्राजित्से मणि माँगी थी, अतएव उन्होंने ही उसको मार डाला होगा ॥ २९ ॥
स शङ्क्यमानो धर्मात्मा नकारी तस्य कर्मणः । आहरिष्ये मणिमिति प्रतिज्ञाय वनं ययौ ॥ ३० ॥
यद्यपि उन्होंने यह कार्य नहीं किया था, फिर भी उन धर्मात्मापर ऐसी शंका की जा रही थी । अतएव 'मैं मणिको लाऊँगा' यह प्रतिज्ञा करके वे वनको चले ॥ ३० ॥
यत्र प्रसेनो मृगयामाचरत् तत्र चाप्यथ । प्रसेनस्य पदं गृह्य पुरुषैराप्तकारिभिः ॥ ३१ ॥
उन्होंने विश्वासी मनुष्योंसे जहाँ प्रसेनने शिकार खेला था, वहाँ उनके पैरोंके चिह्नोंका पता लगाया ॥ ३१ ॥
ऋक्षवन्तं गिरिवरं विन्ध्यं च गिरिमुत्तमम् । आन्वेषयन् परिश्रान्तः स ददर्श महामनाः ॥ ३२ ॥
उन चिह्नोंके सहारे खोज लगातेलगाते जब महात्मा श्रीकृष्ण थक गये, तब उन्होंने ऋक्षवान् और विन्ध्य नामक श्रेष्ठ पर्वतोंको देखा ॥ ३२ ॥
साश्वं हतं प्रसेनं वै नाविन्दच्चेच्छितं मणिम् । अथ सिंहः प्रसेनस्य शरीरस्याविदूरतः ॥ ३३ ॥ ऋक्षेण निहतो दृष्टः पादैर्ऋक्षश्च सूचितः । पादैरन्वेषयामास गुहामृक्षस्य माधवः ॥ ३४ ॥
श्रीकृष्णने वहाँ प्रसेनको और उसके घोड़ेको मरा हुआ पाया; परंतु जिसकी उनको इच्छा थी, वह मणि उन्हें वहाँ नहीं मिली । तदनन्तर प्रसेनकी लाशसे थोड़ी दूरपर ही रीछके द्वारा मारा हुआ सिंह उन्हें पड़ा हुआ दीखा, मारनेवालेके पैरोंसे यह पता चलता था कि यह रीछ था । तदनन्तर माधवने रीछके पदचिह्नोंसे रीछकी गुफाको ढूँढ़ना आरम्भ किया ॥ ३३-३४ ॥
महत्यृक्षबिले वाणीं शुश्राव प्रमदेरिताम् । धात्र्या कुमारमादाय सुतं जाम्बवतो नृप । क्रीडापयन्त्या मणिना मा रोदीरित्यथेरिताम् ॥ ३५ ॥
राजन् ! उस समय श्रीकृष्णने (रीछके बिलके पास पहुँचनेपर) एक स्त्रीकी वाणी सुनी । उन्हें ऐसा लगा कि धाय जाम्बवान्के बालक पुत्रको लेकर मणिसे खिलाती हुई उससे कह रही थी, तू रो मत ॥ ३५ ॥
धात्र्युवाच सिंहः प्रसेनमवधीत् सिंहो जाम्बवता हतः । सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्यमन्तकः ॥ ३६ ॥
धाय कह रही थी-मेरे मुना ! सिंहने प्रसेनको मार डाला और सिंहको जाम्बवान्ने मार डाला; अब तू रो मत, यह स्यमन्तकमणि अब तेरी ही है ॥ ३६ ॥
सुव्यक्तीकृतशब्दस्तु तूष्णीं बिलमथाविशत् । प्राविश्य चापि भगवांस्तमृक्षबिलमञ्जसा ॥ ३७ ॥ स्थापयित्वा बिलद्वारि यदूँल्लाङ्गलिना सह । शार्ङ्गधन्वा बिलस्थं तु जाम्बवन्तं ददर्श ह ॥ ३८ ॥
जब धायकी बात उन्होंने स्पष्ट सुन ली, तब भगवान्ने बलरामको तथा यादवोंको तो गुफाके द्वारपर खड़ा कर दिया और स्वयं मौन होकर सीधे बिलमें जा घुसे । इस प्रकार शार्ङ्गधनुषधारी भगवान्ने गुफामें आगे बढ़कर जाम्बवान्को देखा ॥ ३७-३८ ॥
युयुधे वासुदेवस्तु बिले जाम्बवता सह । बाहुभ्यामेव गोविन्दो दिवसानेकविंशतिम् ॥ ३९ ॥
वसुदेवनन्दन गोविन्द जाम्बवान्के साथ अपनी भुजाओंसे ही इक्कीस दिनतक बिलमें युद्ध करते रहे ॥ ३९ ॥
प्रविष्ते तु बिलं कृष्णे बलदेवपुरःसराः । पुरीं द्वारवतीमेत्य हतं कृष्णं न्यवेदयन् ॥ ४० ॥
श्रीकृष्णके बिलमें प्रवेश करनेके बाद बहुत दिनोंतक न लौटनेपर बलदेव आदिने द्वारकामें जाकर कहा कि श्रीकृष्ण मारे गये ॥ ४० ॥
वासुदेवस्तु निर्जित्य जांबवन्तं महाबलम् । भेजे जांबवतीं कन्यामृक्षराजस्य संमताम् । मणिं स्यमन्तकं चैव जग्राहात्मविशुद्धये ॥ ४१ ॥
(उधर) श्रीकृष्णने महाबली जाम्बवान्को जीतकर ऋक्षराजकी प्यारी पुत्री जाम्बवतीसे विवाह किया और अपनी निर्दोषता सिद्ध करनेके लिये स्यमन्तकमणिको भी ले लिया ॥ ४१ ॥
अनुनीयर्क्षराजानं निर्ययौ च तदा बिलात् । द्वारकामगमत् कृष्णः श्रिया परमया युतः ॥ ४२ ॥
तदनन्तर श्रीकृष्ण जाम्बवान्से अनुनयविनय करके बिलसे निकल आये और परम शोभा पाते हुए द्वारकाको चल दिये ॥ ४२ ॥
एवं स मणिमाहृत्य विशोद्ध्यात्मनमच्युतः । ददौ सत्राजिते तं वै सर्वसात्त्वतसंसदि ॥ ४३ ॥
भगवान् अच्युतने इस प्रकार मणिको लाकर सब सात्त्वतोंकी सभामें अपनी विशुद्धताको प्रमाणित कर वह मणि सत्राजितको दे दी ॥ ४३ ॥
एवं मिथ्याभिशप्तेन कॄष्णेनामित्रघातिना । आत्मा विशोधितः पापाद् विनिर्जित्य स्यमन्तकम् ॥ ४४ ॥
शत्रुनाशक श्रीकृष्णने इस प्रकार मिथ्या दोष लगनेके कारण स्यमन्तकमणिको जीतकर लानेके बाद अपने-आपको निर्दोष सिद्ध कर दिया ॥ ४४ ॥
सत्राजितो दश त्वासन्भार्यास्तासां शतं सुताः । ख्यातिमन्तस्त्रयस्तेषां भङ्गकारस्तु पूर्वजः ॥ ४५ ॥ वीरो वातपतिश्चैव उपस्वावांश्च ते त्रयः । कुमार्यश्चापि तिस्रो वै दिक्षु ख्याता नराधिप ॥ ४६ ॥ सत्यभामोत्तमा स्त्रीणां व्रतिनी च दृढव्रता । तथा प्रस्वापिनी चैव भार्यां कृष्णाय तां ददौ ॥ ४७ ॥
सत्राजित्के दस भार्याएँ थीं और उनसे सौ पुत्र हुए थे; उनमें तीन प्रसिद्ध थे, जिनमें सबसे बड़ा भङ्गकार था । (दूसरा) वीर वातपति था और तीसरेका नाम उपस्वावान् था । राजन् ! इसी प्रकार स्त्रियोंमें रत्लस्वरूपा सत्यभामा, दृढव्रतधारिणी तिनी और प्रस्वापिनी-ये उनकी तीन पुत्रियाँ थीं, जो दिशा-विदिशाओं में प्रसिद्ध थीं । इनमेंसे उसने सत्यभामाका विवाह श्रीकृष्णके साथ कर दिया ॥ ४५-४७ ॥
समाक्षो भङ्गकारिस्तु नारेयश्च नरोत्तमौ । जज्ञाते गुणसंपन्नौ विश्रुतौ रूपसंपदा ॥ ४८ ॥
भङ्गकारके पुत्र समाक्ष और नारेय हुए, ये दोनों अपने रूप और गुणोंके कारण मनुष्योंमें उत्तम माने जाते थे ॥ ४८ ॥
माद्रीपुत्रस्य जज्ञेऽथ पृश्निः पुत्रो युधाजितः । जज्ञाते तनयौ पृश्नेः श्वफल्कश्चित्रकस्तथा ॥ ४९ ॥
(अब क्रोष्टाकी छोटी रानी माद्रीके पुत्र युधाजित्के वंशका वर्णन किया जाता है-) माद्रीकुमार युधाजित्के पुत्र पृश्नि हुए तथा पृश्निके पुत्र वफल्क और चित्रक हुए ॥ ४९ ॥
श्वफल्कः काशिराजस्य सुतां भार्यामविन्दत । गांदिनीं नाम तस्याश्च सदा गाः प्रददौ पिता ॥ ५० ॥
श्वफल्कका विवाह काशिराजकी पुत्री गान्दिनीसे हुआ था; इन गान्दिनीके पिता अपनी पुत्रीसे प्रतिदिन गोदान कराया करते थे ॥ ५० ॥
तस्यां जज्ञे महाबाहुः श्रुतवानिति विश्रुतः । अक्रूरोऽथ महाभागो यज्वा विपुलदक्षिणः ॥ ५१ ॥
उन गान्दिनीसे महाभाग्यवान् अक्रूरजी उत्पन्न हुए, ये महाबाहु अक्रूर शास्त्रके रूपमें प्रसिद्ध थे, इन्होंने बज्ञ करके बड़ी-बड़ी दक्षिणाएँ दी थीं ॥ ५१ ॥
उपासङ्गस्तथा मद्गुर्मृदुरश्चारिमेजयः । अविक्षिपस्तथोपेक्षः शत्रुहा चारिमर्दनः ॥ ५२ ॥ धर्मधृग् यतिधर्मा च गृध्रभोजोऽन्धकस्तथा । आवाहप्रतिवाहौ च सुन्दरी च वराङ्गना ॥ ५३ ॥
गान्दिनीके अक्रूरजीके अतिरिक्त उपासङ्ग, मद्गु, मृदुर, अरिमेजय, अविक्षिप, उपेक्ष, शत्रुघ्न, अरिमर्दन, धर्मधृक्, यतिधर्मा, गृध्र, भोज, अन्धक, आवाह और प्रतिवाह नामक पुत्र तथा वराङ्गना नामकी सुन्दरी कन्या भी उत्पन्न हुई थी ॥ ५२-५३ ॥
विश्रुता सांबमहिषी कन्या चास्य वसुन्धरा । रूपयौवनसंपन्ना सर्वसत्त्वमनोहरा ॥ ५४ ॥
वे साम्बदेशकी रानी प्रसिद्ध हैं, इनकी रूप-यौवनसे सम्पन्न एवं सब प्राणियोंके मनको मोहित करनेवाली कन्याका नाम वसुन्धरा था ॥ ५४ ॥
अक्रूरेणोग्रसेन्यां तु सुतौ द्वौ कुरुनन्दन । प्रसेनश्चोपदेवश्च जज्ञाते देववर्चसौ ॥ ५५ ॥
कुरुनन्दन । अकूरसे उग्रसेनीके द्वारा देवताके समान कान्तिवाले प्रसेन और उपदेव नामके दो पत्र उत्पन्न हुए थे ॥ ५५ ॥
चित्रकस्याभवन् पुत्राः पृथुर्विपृथुरेव च। ॥ अश्वग्रीवोऽश्वबाहुश्च सुपार्श्वकगवेषणौ ॥ ५६ ॥ अरिष्टनेमेरश्वश्च सुधर्मा धर्मभृत् तथा । ॥ सुबाहुर्बहुबाहुश्च श्रविष्ठाश्रवणे स्त्रियौ ॥ ५७ ॥
(अक्रूरजीके चाचा) चित्रकके श्रवणा और श्रविष्ठा नामकी दो धर्मपलियाँ थीं; उनसे पृथु, विपृथु, अश्वग्रीव, अश्वबाहु, सुपार्श्वक, गवेषण, अरिष्टनेमि, अश्व, सुधर्मा, धर्मभृत, सुबाहु और बहुबाहु नामक पुत्र हुए ॥ ५६-५७ ॥
इमां मिथ्याभिशस्तिं यः कृष्णस्य समुदाहृताम् । वेद मिथ्याभिशापास्तं न स्पृशन्ति कदाचन ॥ ५८ ॥
जो पुरुष श्रीकृष्णके इस मिथ्या कलंककी कथाको पढ़ता है, उसको झूठे दोष कभी नहीं लगते ॥ ५८ ॥
इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे हरिवंशपर्वणि अष्टत्रिंशोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीमहाभारत खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें (स्यमन्तकमणिकी कथाविषयक) अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३८ ॥
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