श्रीहरिवंशपुराण हरिवंश पर्व एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः
अक्रूरचरितम्
स्यमन्तकमणिके कारण प्रसेन, सत्राजित् और शतधन्वाका मारा जाना, बलदेवजीका दुर्योधनको गदा-विद्या सिखाना, अक्रूरजीका श्रीकृष्णको मणि देना और श्रीकृष्णका पुनः अक्रूरको मणि लौटा देना
वैशम्पायन उवाच यत् तत् सत्राजिते कृष्णो मणिरत्नं स्यमन्तकम् । अदात् तद्धारयामास बभ्रुर्वै शतधन्वना ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! श्रीकृष्णने सत्राजित्को जो मणियोंमें रत्नस्वरूप स्यमन्तकमणि लौटाकर दी, बभ्रु (अक्रूर) उसको शतधन्वाके द्वारा चुरवाना चाहने लगे ॥ १ ॥
यदा हि प्रार्थयामास सत्यभामामनिन्दिताम् । अक्रूरोऽन्तरमन्विच्छन् मणिं चैव स्यमन्तकम् ॥ २ ॥
मणि सुवर्ण देती थी, इस कारण उसको चाहते हुए अक्रूर अनिन्द्यसुन्दरी सत्यभामाको भी सदा चाहते थे ॥ २ ॥
सत्राजितं ततो हत्वा शतधन्वा महाबलः । रात्रौ तन्मणिमादाय ततोऽक्रूराय दत्तवान् ॥ ३ ॥
एक दिन मौका पाकर महाबली शतधन्वाने रात्रिमें सत्राजित्को मारकर वह मणि लाकर अक्रूरजीको दे दी ॥ ३ ॥
अक्रूरस्तु ततो रत्नमादाय भरतर्षभ । समयं कारयांचक्रे नावेद्योऽहं त्वयेत्युत ॥ ४ ॥
भरतर्षभ ! उस समय अक्रूरने रल लेकर शतधन्वासे प्रतिज्ञा करा ली कि आप किसीको यह न बतायें कि मणि मेरे पास है ॥ ४ ॥
वयमभ्युपयास्यामः कृष्णेन त्वामभिद्रुतम् । ममाद्य द्वारका सर्वा वशे तिष्ठत्यसंशयम् ॥ ५ ॥
जब श्रीकृष्ण (श्वशुरके वधसे क्रोधमें भरकर) आपके पीछे पड़ेंगे, तब हम भी आपके साथ खड़े होकर लड़ेंगे । आजकल सारी द्वारका मेरे वशमें है, इसमें आप कुछ संदेह न समझें ॥ ५ ॥
हते पितरि दुःखार्ता सत्यभामा यशस्विनी । प्रययौ रथमारुह्य नगरं वारणावतम् ॥ ६ ॥
यशस्विनी सत्यभामा पिताके मारे जानेपर बड़ी दःखी हई और रथपर चढकर हस्तिनापरको चली गयीं ॥ ६ ॥
सत्यभामा तु तद्वृत्तं भोजस्य शतधन्वनः । भर्तुर्निवेद्य दुःखार्ता पार्श्वस्थाश्रूण्यवर्तयत् ॥ ७ ॥
वहाँ दुखिया सत्यभामाने अपने पतिसे भोजवंशी शतधन्वाकी करतूत कह सुनायी और वे उनके पास खड़ी होकर नेत्रोंसे आँसू बहाने लगीं ॥ ७ ॥
पाण्डवानां तु दग्धानां हरिः कृत्वोदकक्रियाम् । कुल्यार्थे चापि पाण्डूनां न्ययोजयत सात्यकिम् ॥ ८ ॥
उस समय श्रीकृष्ण (हस्तिनापुरमें थे और लाक्षागृहमें) भस्म हुए पाण्डवोंकी उदक-क्रिया कर चुके थे, इसके उपरान्त उन्होंने पाण्डवोंका अस्थि-संचयन करनेका कार्य सात्यकिको सौंप दिया ॥ ८ ॥
ततस्त्वरितमागत्य द्वारकां मधुसूदनः । पूर्वजं हलिनं श्रीमानिदं वचनमब्रवीत् ॥ ९ ॥
तदनन्तर श्रीमान् कृष्णचन्द्रने तुरंत ही द्वारकापुरीमें आकर अपने बड़े भाई हलधरसे यह बात कही- ॥ ९ ॥
हतः प्रसेनः सिंहेन सत्राजिच्छतधन्वना । स्यमन्तकः स मद्गामी तस्य प्रभुरहं विभो ॥ १० ॥
'प्रभो ! प्रसेनको सिंहने मार डाला था, शतधन्वाने सत्राजित्को मार डाला । अब इस मणिका उत्तराधिकार मुझे प्रास होता है । अब मैं उसका स्वामी हूँ ॥ १० ॥
तदारोह रथं शीघ्रं भोजं हत्वा महाबलम् । स्यमन्तको महाबाहो ह्यस्माकं स भविष्यति ॥ ११ ॥
महाबाहो ! इसलिये अब आप शीघ्र ही रथपर चढ़िये; महाबली भोज (वंशी शतधन्वा)को मारनेके बाद वह स्यमन्तकमणि नि:संदेह हमारी होगी' ॥ ११ ॥
ततः प्रववृते युद्धं तुमुलं भोजकृष्णयोः । शतधन्वा ततोऽक्रूरमवैक्षत् सर्वतो दिशम् ॥ १२ ॥
तदनन्तर भोजवंशी शतधन्वा और श्रीकृष्णमें घमासान युद्ध आरम्भ हुआ । उस समय शतधन्वा सब दिशाओंमें अक्रूरको देखने लगा ॥ १२ ॥
संरब्धौ तावुभौ दृष्ट्वा तत्र भोजजनार्दनौ । शक्तोऽपि शाठ्याद्धार्दिक्यमक्रूरो नाभ्यपद्यत ॥ १३ ॥
शतधन्वा और श्रीकृष्णको क्रोधमें भरा हुआ देखकर अक्रूर समर्थ होनेपर भी शठताके कारण हृदीकके पुत्र शतधन्वाकी सहायता करने नहीं गये ॥ १३ ॥
अपयाने ततो बुद्धिं भोजश्चक्रे भयार्दितः । योजनानां शतं साग्रं हयया प्रत्यपद्यत ॥ १४ ॥
तब तो भयसे घबराया हुआ शतधन्वा भागनेका विचार करने लगा और वह घोड़ीपर चढ़कर चार सौ कोससे अधिक दूर निकल गया ॥ १४ ॥
विख्याता हृदया नाम शतयोजनगामिनी । भोजस्य वडवा राजन् यया कृष्णमयोधयत् ॥ १५ ॥
राजन् ! शतधन्वाने जिस घोड़ीपर चढ़कर श्रीकृष्णके साथ युद्ध किया था, उस घोड़ीका नाम हृदया था और वह चार सौ कोसका धावा मारनेवालीके रूपमें प्रसिद्ध थी ॥ १५ ॥
क्षीणां जवेन च हयामध्वनः शतयोजने । दृष्ट्वा रथस्य तां वृद्धिं शतधन्वा समत्यजत् ॥ १६ ॥
घोड़ी वेगसे चलनेके कारण चार सौ कोसका मार्ग तय करनेके बाद थकने लगी । इधर शतधन्वाने श्रीकृष्णके रथको बढ़ते देखकर घोड़ीको छोड़ दिया (और वह पैदल भागने लगा) ॥ १६ ॥
ततस्तस्या हयायास्तु श्रमात् खेदाच्च भारत । खमुत्पेतुरथ प्राणाः कृष्णो राममथाब्रवीत् ॥ १७ ॥
भारत ! तदनन्तर उस घोड़ीने श्रम और खेदके कारण अपने प्राणोंको छोड़ दिया । उस समय श्रीकृष्णने बलदेवजीसे कहा- ॥ १७ ॥
तिष्ठस्वेह महाबाहो दृष्टदोषा हया मया । पद्भ्यां गत्वा हरिष्यामि मनीरत्नं स्यमन्तकम् ॥ १८ ॥
'महाबाहो ! घोड़े थक गये हैं, उनका यह दोष मैंने देख लिया है; अत: आप यहीं ठहरिये, मैं पैदल ही जाकर मणियोंमें रत्लस्वरूप स्यमन्तकमणिको छीन लाऊँगा' ॥ १८ ॥
पद्भ्यामेव ततो गत्वा शतधन्वानमच्युतः । मिथिलामभितो राजन् जघान परमास्त्रवित् ॥ १९ ॥
राजन् ! तदनन्तर अस्वविद्याके पारगामी श्रीकृष्णने पैदल ही जाकर शतधन्वाको मिथिलानगरीके समीप मार डाला ॥ १९ ॥
स्यमन्तकं स नापश्यद्धत्वा भोजं महाबलम् । निवृत्तं चाब्रवीत् कृष्णं रत्नं देहीति लाङ्गली ॥ २० ॥
महाबली भोजवंशी शतधन्वाको मारनेपर भी श्रीकृष्णको स्यमन्तकमणि न मिली । श्रीकृष्णके वापस आनेपर बलदेवजीने उनसे कहा कि 'वह मणि-रत्न दीजिये ॥ २० ॥
नास्तीति कृष्णश्चोवाच ततो रामो रुषान्वितः । धिक्छब्दमसकृत् कृत्वा प्रत्युवाच जनार्दनम् ॥ २१ ॥
तब श्रीकृष्णने कहा-'मणि तो वहाँ नहीं मिली' तब तो बलदेवजीने क्रोधमें भरकर बारम्बार ‘धिक्कार है ! धिक्कार है ! !' कहकर श्रीकृष्णसे कहा- ॥ २१ ॥
भ्रातृत्वान्मर्षयाम्येष स्वस्ति तेऽस्तु व्रजाम्यहम् । कृत्यं न मे द्वारकया न त्वया न च वृष्णिभिः ॥ २२ ॥
'भाई होनेके कारण आपकी इस करतूतको मैं सह रहा हूँ, आपका कल्याण हो ! मैं चलता हूँ । अब मुझे द्वारकासे, आपसे और वृष्णिवंशियोंसे भी कोई काम नहीं है' ॥ २२ ॥
प्रविवेश ततो रामो मिथिलामरिमर्दनः । सर्वकामैरुपचितैर्मैथिलेनाभिपूजितः ॥ २३ ॥
तदनन्तर शत्रमर्दन बलदेवजी मिथिलापुरीमें चले गये । वहाँ मिथिलानरेशने बहुत-से पदार्थोकी भेंट देकर बलदेवजीका स्वागत किया ॥ २३ ॥
एतस्मिन्नेव काले तु बभ्रुर्मतिमतां वरः । नानारूपान् क्रतून् सर्वानाजहार निरर्गलान् ॥ २४ ॥
इसी समय बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ बभ्रु (वंशी अक्रूरजी भी) अनेक प्रकारके बहुत-से यज्ञको धड़ल्लेके साथ करने लगे ॥ २४ ॥
दीक्षामयं स कवचं रक्षार्थं प्रविवेश ह । स्यमन्तककृते प्राज्ञो गान्दीपुत्रो महायशाः ॥ २५ ॥
महायशस्वी बुद्धिमान् गान्दीपुत्रने स्यमन्तकके लिये दीक्षारूपी कवचको अपनी रक्षाके लिये पहिन लिया (अर्थात् यज्ञमें दीक्षा लेनेवालेको युद्ध करनेका अधिकार नहीं होता, इसलिये उन्होंने युद्धसे बचनेका यह मार्ग निकाल लिया) ॥ २५ ॥
अथ रत्नानि चाग्र्याणि द्रव्याणि विविधानि च । षष्टिं वर्षाणि धर्मात्मा यज्ञेषु विनियोजयत् ॥ २६ ॥
उसके बाद धर्मात्मा अक्रूरने साठ वर्षांतक यज्ञोंमें अनेक प्रकारके द्रव्य और उत्तम रन दक्षिणारूपमें दिये ॥ २६ ॥
अक्रूरयज्ञा इति ते ख्यातास्तस्य महात्मनः । बह्वन्नदक्षिणाः सर्वे सर्वकामप्रदायिनः ॥ २७ ॥
उन महात्माके किये हुए वे सब यज्ञ अक्रूरयज्ञोंके नामसे प्रसिद्ध हैं, उनमें बहुत-सा अन्न और बहुतसी दक्षिणाएँ दी गयों तथा उन सभी यज्ञोंमें ऋत्विजोंकी सब प्रकारकी कामनाएँ पूर्ण की गयीं ॥ २७ ॥
अथ दुर्योधनो राजा गत्वा तु मिथिलां प्रभुः । गदाशिक्षां ततो दिव्यां बलभद्रादवाप्तवान् ॥ २८ ॥
इसी समय शक्तिशाली राजा दुर्योधनने मिथिलापुरीमें जाकर बलदेवजीसे दिव्य गदा-विद्याकी शिक्षा ग्रहण की ॥ २८ ॥
प्रसाद्य तु ततो रामो वृष्ण्यन्धकमहारथैः । आनीतो द्वारकामेव कृष्णेन च महात्मना ॥ २९ ॥
तदनन्तर वृष्णि और अन्धकवंशी महारथी तथा महात्मा श्रीकृष्ण बलरामजीको प्रसन्न करके द्वारकामें ही बुला लाये ॥ २९ ॥
अक्रूरस्त्वन्धकैः सार्धमपायाद् भरतर्षभ । हत्वा सत्राजितं युद्धे सहबन्धुं महाबलम् ॥ ३० ॥ ज्ञातिभेदभयात् कृष्णस्तमुपेक्षितवानथ । अपयाते तथाक्रूरे नावर्षत् पाकशासनः ॥ ३१ ॥
भरतश्रेष्ठ ! रात्रिमें सोये हुए महाबली सत्राजित् और उनके बन्धुओंको शतधन्वाके द्वारा मरवाकर अक्रूर (अपने कुटुम्बी कतिपय) अन्धकवंशियोंको साथ लेकर भाग गये थे, किंतु श्रीकृष्णने जातिमें फूट पड़नेके भयसे उनकी उपेक्षा कर दी, परंतु अक्रूरके चले जानेपर इन्द्रदेवने वर्षा करना बंद कर दिया ॥ ३०-३१ ॥
अनावृष्ट्या यदा राज्यमभवद् बहुधा कृशम् । ततः प्रसादयामासुरक्रूरं कुकुरान्धकाः ॥ ३२ ॥
जब अनावृष्टि होनेसे राज्यके मनुष्य प्रायः दुर्बल होने लगे, तब कुकुर और अन्धकवंशियोंने अक्रूरको अनुनयविनय करके (द्वारका लौटनेके लिये) राजी कर लिया ॥ ३२ ॥
पुनर्द्वारवतीं प्राप्ते तस्मिन् दानपतौ ततः । ॥ प्रववर्षे सहस्राक्षः कच्छे जलनिधेस्तदा ॥ ३३ ॥
फिर क्या था, उन दानपति अक्रूरके द्वारकापुरीमें वापस आते ही सहस्राक्ष इन्द्रने समुद्रके तटवर्ती प्रदेशपर जोरोंसे वर्षा करनी आरम्भ कर दी ॥ ३३ ॥
कन्यां च वासुदेवाया स्वसारं शीलसम्मताम् । अक्रूरः प्रददौ धीमान् प्रीत्यर्थं कुरुनन्दन ॥ ३४ ॥
कुरुनन्दन ! बुद्धिमान् अक्रूरजीने अपनी शीलवती बहिनका, जो कुमारी थी, श्रीकृष्णके साथ उनको प्रसन्न करनेके लिये विवाह कर दिया ॥ ३४ ॥
अथ विज्ञाय योगेन कृष्णो बभ्रुगतं मणिम् । सभामध्ये गतं प्राह तमक्रूरं जनार्दनः ॥ ३५ ॥
तदनन्तर जनार्दन श्रीकृष्णने योगके द्वारा यह जानकर कि मणि अक्रूरके पास है, सभामें बैठे हुए अक्रूरसे (एक दिन) कहा- ॥ ३५ ॥
यत् तद् रत्नं मणिवरं तव हस्तगतं विभो । तत्प्रयच्छस्व मानार्हं मयि मानार्यकं कृथाः ॥ ३६ ॥
'माननीय विभो ! जो मणिरत्न स्यमन्तक आपके पास है, आप उसे दे दीजिये, अनार्यताका व्यवहार न कीजिये ॥ ३६ ॥
षष्टिवर्षे गते काले यद्रोषोऽभून्ममानघ । स संरूढोऽसकृत्प्राप्तस्ततः कालात्ययो महान् ॥ ३७ ॥
निष्पाप अक्रूरजी ! साठ वर्ष पहले (मणिके कारणसे) जो रोष मुझे चढ़ा था, वही रोष बहुत समय बीतनेपर भी मुझे फिर बार-बार आ रहा है (अतः उस मणिको मुझे दे दीजिये) ॥ ३७ ॥
ततः कृष्णस्य वचनात् सर्वसात्त्वतसंसदि । प्रददौ तं मणिं बभ्रुरक्लेशेन महामतिः ॥ ३८ ॥
इस प्रकार श्रीकृष्णके कहनेपर महाबुद्धिमान् अक्रूरजीने सम्पूर्ण सात्वतोंकी सभामें वह मणि बिना कष्ट पाये ही श्रीकृष्णको अर्पण कर दी ॥ ३८ ॥
ततस्तमार्जवप्राप्तं बभ्रोर्हस्तादरिंदमः । ददौ हृष्टमनाः कॄष्णस्तं मणिं बभ्रवे पुनः ॥ ३९ ॥
तदनन्तर अक्रूरजीके हाथसे सरलतापूर्वक मणि पा जानेपर अरिदमन श्रीकृष्णने मनमें प्रसन्न होकर वह मणि फिर अक्रूरजीको दे दी ॥ ३९ ॥
स कृष्णहस्तात् संप्राप्तं मणिरत्नं स्यमन्तकम् । आबध्य गान्धिनीपुत्रो विरराजांशुमानिव ॥ ४० ॥
तब श्रीकृष्णके हाथसे मिली हुई मणिरत्न स्यमन्तकमणिको गलेमें बाँधकर गान्दिनीपुत्र अक्रूर सूर्यके समान सुशोभित हुए ॥ ४० ॥
यस्त्वेवं शृणुयान्नित्यं शुचिर्भूत्वा समाहितः । सुखानां सकलानां च फलभागीह जायते ॥ ४१ ॥
इस प्रकार जो मनुष्य पवित्र होकर सावधानतापूर्वक इस कथाको नित्यप्रति सुनता है, उसको फलरूपमें सम्पूर्ण सुख प्राप्त होते हैं ॥ ४१ ॥
आब्रह्मभुवनाच्चापि यशः ख्यातिर्न संशयः । भविष्यति नृपश्रेष्ठ सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ॥ ४२ ॥
नृपश्रेष्ठ ! उसकी कीर्ति ब्रह्मलोकतक पहुँचती है, इसमें कुछ संदेह नहीं है, यह मैं आपसे सत्य कह रहा हूँ ॥ ४२ ॥
इति श्रीमन्महाभारते खिलेषु हरिवंशे हरिवंशपर्वण्येकोनचत्वारिंशोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीमहाभारत खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें (बलदेवजीके द्वारा दुर्योधनको गदा-विद्याकी शिक्षाविषयक) उनतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३९ ॥
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