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श्रीहरिवंशपुराण
हरिवंश पर्व
चत्वारिंशोऽध्यायः


वराहोत्पत्तिवर्णनम्
जनमेजयका भगवान्‌‍के वराह, नृसिंह, परशुराम, श्रीकृष्ण आदि अवतारोंका रहस्य पूछना


जनमेजय उवाच
प्रादुर्भावान् पुराणेषु विष्णोरमिततेजसः ।
सतां कथयतामेव वराह इति नः श्रुतम् ॥ १ ॥
जनमेजयने कहा-ब्रह्मन् ! मैंने कथा कहनेवाले सजनोंके मुखसे अमिततेजस्वी विष्णुके अवतारों में वराह अवतारकी भी बात पुराणों में सुनी है (वराह शब्दका आध्यात्मिक अर्थ वर और अह अर्थात् श्रेष्ठ यज्ञ है) ॥ १ ॥

न जाने तस्य चरितं न विधिं नैव विस्तरम् । ॥
न कर्मगुणसंतानं न हेतुं न मनीषितम् ॥ २ ॥
परंतु मैं उन वराह भगवान्के (सर्वकार्यजनकत्वरूप) चरित्रको, (अपूर्वस्वरूपका आविष्कार करनेकी) विधिको, (अनुष्ठानकी आवश्यकतारूप) विस्तारको तथा उनके कर्म (अर्थात् उसके कर्मसे तृप्त होनेवाले देवता आदि) तथा गुण-देश-द्रव्य-काल आदि एवं संतान (प्रयोगविधि)-को, हेतु अर्थात् अधिकारको और वे किस अभिप्रायसे त्यागात्मक स्वरूपको ग्रहण करते हैं, उसे मैं कुछ नहीं समझता (अतः आप मुझे ये सब बातें समझाइये) ॥ २ ॥

किमात्मको वराहः स का मूर्तिः का च देवता ।
किमाचारः प्रभावो वा किं वा तेन पुरा कृतम् ॥ ३ ॥
(इस प्रकार वराहावतारके अधियज्ञस्वरूपकी बात पूछनेके अनन्तर अब राजा जनमेजय उनके आधिदैविक रूपके विषयमें पूछते हैं-) उन वराहका वास्तविक स्वरूप क्या है ? उनकी मूर्ति (बाहरी आकृति) कैसी है ? उनका (अधिष्ठातृ) देवता कौन है ? उनके कर्म क्या हैं ? उनका प्रभाव कैसा है और उन्होंने उस अवतारमें क्या किया था ? ॥ ३ ॥

यज्ञार्थं समवेतानां मिषतां च द्विजन्मनाम् ।
महावराहचरितं कृष्णद्वैपायनेरितम् ॥ ४ ॥
मैंने कृष्णद्वैपायनजीका कहा हुआ महावराहका चरित्र यज्ञमें एकत्रित हुए ब्राह्मणोंके वाद-विवादमें सुना है (परंतु उसका तत्त्व मेरी समझमें नहीं आया) ॥ ४ ॥

यथा नारायणो ब्रह्मन् वाराहं रूपमास्थितः ।
दंष्ट्रया गां समुद्रस्थामुज्जहारारिसूदनः ॥ ५ ॥
ब्रह्मन् ! भगवान् नारायणने जिस प्रकार वराहरूप धारण किया और उन अरिसूदन भगवान्ने जिस प्रकार अपनी दाढ़से समुद्रके गर्भमें पड़ी हुई पृथ्वीका उद्धार किया, यह सब मुझे आप बतानेकी कृपा करें ॥ ५ ॥

विस्तरेणैव कर्माणि सर्वाणि रिपुघातिनः ।
श्रोतुमिच्छाम्यशेषेण हरेः कृष्णस्य धीमतः ॥ ६ ॥
मैं शत्रुसंहारक परम ज्ञानी हरिरूप भगवान् श्रीकृष्णके (वराह आदि सब अवतारोंमें किये हुए) सभी चरित्रोंको विस्तारपूर्वक पूर्णरीतिसे सुनना चाहता हूँ ॥ ६ ॥

कर्मणामानुपूर्व्याच्च प्रादुर्भावाश्च ये विभोः ।
या चास्य प्रकृतिर्ब्रह्मंस्तां मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ ७ ॥
ब्रह्मन् ! लीलाओंके क्रमसे इन सर्वव्यापी भगवान्के जितने भी अवतार हुए हैं उन सबकी और (उन अवतारोंके समय उनकी) जो प्रकृति थी उसकी आप कृपा करके व्याख्या कीजिये ॥ ७ ॥

कथं च भगवान् विष्णुः सुरशत्रुनिषूदनः ।
वसुदेवकुले धीमान् वासुदेवत्वमागतः ॥ ८ ॥
फिर देवताओंके शत्रुओंका नाश करनेवाले परम चतुर भगवान् विष्णु वसुदेवके कुलमें उत्पत्र होकर वासुदेव क्यों कहलाये (अर्थात् वे कर्मबन्धनसे रहित होनेपर भी उत्तम स्थानसे नीचे स्थानमें क्यों आये) ? ॥ ८ ॥

अमरैरावृतं पुण्यं पुण्यकृद्भिर्निषेवितम् ।
देवलोकं समुत्सृज्य मर्त्यलोकमिहागतः ॥ ९ ॥
वे देवताओंसे घिरे हुए एवं पुण्यात्माओंद्वारा सेवित पवित्र देवलोकको छोड़कर इस मृत्युलोकमें क्यों आये ? ॥ ९ ॥

देवमानुषयोर्नेता यो भुवः प्रभवो विभुः ।
किमर्थं दिव्यमात्मानं मानुष्ये संन्ययोजयत् ॥ १० ॥
जो देवता और मनुष्योंके नेता हैं और जो विभु पृथ्वीके भी उत्पत्तिस्थान हैं, उन्होंने अपने दिव्य आत्माको मनुष्य-शरीरमें क्यों स्थापित किया ? ॥ १० ॥

यश्चक्रं वर्तयेत्येको मानुषाणामनामयम् ।
मानुष्ये स कथं बुद्धिं चक्रे चक्रभृतां वरः ॥ ११ ॥
जो अकेले ही सब मनुष्योंके (कर्मसे जन्म और जन्मसे पुनः कर्मरूप) चक्रको निर्विघ्रतापूर्वक चलाते हैं, उन चक्रधारियोंमें श्रेष्ठ श्रीकृष्णने मनुष्य बननेका विचार क्यों किया ? ॥ ११ ॥

गोपायनं यः कुरुते जगतः सार्वलौकिकम् ।
स कथं गां गतो देवो विष्णुर्गोपत्वमागतः ॥ १२ ॥
जो जगत्के सम्पूर्ण लोकोंकी रक्षा करते हैं, वे भगवान् विष्णु पृथ्वीपर आकर गोप कैसे बन गये ? ॥ १२ ॥

महाभूतानि भूतात्मा यो दधार चकार च ।
श्रीगर्भः स कथं गर्भे स्त्रिया भूचरया धृतः ॥ १३ ॥
जो समस्त भूतोंके अन्तरात्मा प्रभु स्वयं महाभूतोंको रचते और धारण करते हैं, उन श्रीगर्भको पृथ्वीपर विचरण करनेवाली स्त्रीने अपने गर्भमें किस प्रकार धारण किया ? ॥ १३ ॥

येन लोकान् क्रमैर्जित्वा त्रिभिस्त्रींस्त्रिदशेप्सया ।
स्थापिता जगतो मार्गास्त्रिवर्गप्रभवास्त्रयः ॥ १४ ॥
जिन्होंने देवताओंकी इच्छा पूर्ण करनेके लिये तीन पैड़ों (डगों)-से तीनों लोकोंको जीतकर जगत्में धर्म, अर्थ और कामसे प्राप्त होनेवाले तीन मार्ग-तीन गतियाँ स्थापित कर दी (धर्मसे स्वर्ग अर्थात् ऊर्ध्वगति, अर्थसे मर्त्यलोक अर्थात् मध्यमगति और कामसे नरकादि अधोलोक अर्थात् अधोगति मिलती है) ॥ १४ ॥

योऽन्तकाले जगत् पीत्वा कृत्वा तोयमयं वपुः ।
लोकमेकार्णवं चक्रे दृश्यादृश्येन वर्त्मना ॥ १५ ॥
जो भगवान् प्रलयकालमें दृश्य और अदृश्य रीतिसे (कारणसहित) सम्पूर्ण जगत्का पान (ग्रास) करके अपने शरीरको जलमय बनाकर सम्पूर्ण जगत्को एक जलमय ही कर देते हैं, ॥ १५ ॥

यः पुराणे पुराणात्मा वाराहं रूपमास्थितः ।
विषाणाग्रेण वसुधामुज्जहारारिसूदनः ॥ १६ ॥
प्राचीन समयमें जिन पुराणात्मा अरिसूदन भगवान ने वराहके रूपमें अपने दाँतोंके अग्रभागसे पृथ्वीका उद्धार किया, ॥ १६ ॥

यः पुरा पुरुहूतार्थे त्रैलोक्यमिदमव्ययः ।
ददौ जित्वासुरगणान् सुराणां सुरसत्तमः ॥ १७ ॥
पहले जिन अविनाशी सुरश्रेष्ठने इन्द्रके लिये असुरोंकी सेनाको जीतकर देवताओंको तीनों लोक (वापस) दिला दिये ॥ १७ ॥

येन सैंहं वपुः कृत्वा द्विधा कृत्वा च तत् पुनः ।
पूर्वं दैत्यो महावीर्यो हिरण्यकशिपुर्हतः ॥ १८ ॥
जिन्होंने पूर्वकालमें सिंहका रूप धारणकर और फिर उसको दो प्रकारका अर्थात् नर-सिंहरूप बनाकर महान् पराक्रमी दैत्य हिरण्यकशिपुको मार डाला ॥ १८ ॥

यः पुरा ह्यनलो भूत्वा और्वः संवर्तको विभुः ।
पातालस्थोऽर्णवगतं पपौ तोयमयं हविः ॥ १९ ॥
जिन विभुने पहले (प्रलयकालमें) पातालमें जाकर और्ववंशी संवर्तक अग्निका स्वरूप धारण कर समुद्रके जलरूप हवि (घी)-का पान कर लिया ॥ १९ ॥

सहस्रशिरसं ब्रह्मन् सहस्रारं सहस्रदम् ।
सहस्रचरणं देवं यमाहुर्वै युगे युगे ॥ २० ॥
ब्रह्मन् ! प्रत्येक युगमें जिन भगवान्को सहस्र अर्थात् अनन्त सिरवाला, अनन्त आँखोंवाला, अनन्त दान करनेवाला और अनन्त चरणोंवाला कहा जाता है ॥ २० ॥

नाभ्यारण्यां समुत्पन्नं यस्य पैतामहं गृहम् ।
एकार्णवजलस्थस्य नष्टे स्थावरजङ्गमे ॥ २१ ॥
स्थावर-जङ्गमात्मक जगतके लीन होनेपर जिन एक समुद्रमय जलमें स्थित पुरुषकी नाभिसे प्रकट होनेवाले कमल-नालरूप अरणि (मन्थनदण्ड)से पितामहका भवन (लोककमल) उत्पन्न हुआ ॥ २१ ॥

येन ते निहता दैत्याः संग्रामे तारकामये ।
सर्वदेवमयं कृत्वा सर्वायुधधरं वपुः ॥ २२ ॥
जिन्होंने तारकामय संग्राममें अपने शरीरको सर्वदेवमय और सर्वायुधधारी बनाकर दैत्योंको मार डाला ॥ २२ ॥

गरुदस्तेन चोत्सिक्तः कालनेमिर्निपातितः ।
निर्जितश्च मयो दैत्यस्तारकश्च महासुरः ॥ २३ ॥
जिन्होंने गरुड़पर बैठकर उद्दण्ड कालनेमिको नष्ट कर दिया तथा मय दैत्य और महान् असुर तारकको मार डाला ॥ २३ ॥

उत्तरान्ते समुद्रस्य क्षीरोदस्यामृतोदधेः ।
तः शेते शाश्वतं योगमास्थाय तिमिरं महत् ॥ २४ ॥
जो क्षीरसमुद्रके उत्तर तटपर स्थित अमृत-समुद्रमें योगमायारूप शाश्वत योगका आश्रय लेकर शयन करते हैं ॥ २४ ॥

सुरारणिर्गर्भमधत्त दिव्यं
    तपः प्रकर्षाददितिः पुराणं ।
शक्रं च यो दैत्यगणावरुद्धं
    गर्भावसाने निभृतं चकार ॥ २५ ॥
देवताओंको उत्पन्न करनेवाली अरणिरूपा अदितिने महान् तप करके जिन पुराणपुरुष (वामन)-रूपी गर्भको धारण किया और जिन्होंने गर्भसे निकलनेके बाद दैत्योंके चक्रमें फंसे हुए इन्द्रको दैत्योंके चक्रसे मुक्त करके पूर्णकाम बना दिया ॥ २५ ॥

पदानि यो लोकमयानि कृत्वा
    चकार दैत्यान् सलिलेशयांस्तान् ।
कृत्त्वा च देवांस्त्रिदिवस्य देवां-
    श्चक्रे सुरेशं त्रिदशाधिपत्ये ॥ २६ ॥
जिन्होंने अपने डगोंको लोकमय करके अर्थात् एकएक डगसे एक-एक लोकको नापकर दैत्योंको पातालमें भेज दिया, देवताओंको स्वर्गका विहार करनेवाला बना दिया और देवराज इन्द्रको देवताओंके सम्राट्-पदपर स्थापित कर दिया ॥ २६ ॥

पात्राणि दक्षिणा दीक्षा चमसोलूखलानि च ।
गार्हपत्येन विधिना अन्वाहार्येण कर्मणा ॥ २७ ॥
जिन्होंने गृह्यसूत्रोंमें कही हुई विधि तथा अन्याहार्यकर्म के साथ (यज्ञोपयोगी) चमस, उलूखल आदि पात्र, दक्षिणा और दीक्षा आदिकी रचना की ॥ २७ ॥

अग्निमाहवनीयं च वेदीं चैव कुशं स्रुवम् ।
प्रोक्षणीयं ध्रुवां चैव आवभृथ्यं तथैव च ॥ २८ ॥
जिन्होंने आहवनीय अग्नि, वेदी, सुवा, कुशाएँ, प्रोक्षणीपात्र, ध्रुवा और अवभृथ स्रानोपयोगी सामग्रीकी कल्पना की ॥ २८ ॥

सुधात्रीणि च यश्चक्रे हव्यकव्यप्रदान् द्विजान् ।
हव्यादांश्च सुरान् यज्ञे क्रव्यादांस्तु पितॄनपि ॥ २९ ॥
जिन्होंने (ऊर्ध्व, मध्य और अधोगतिरूप) सुधा आदि तीन भोग्य पदार्थ बनाकर ब्राह्मणोंको हव्य-कव्य प्रदान करनेवाला, देवताओंको यज्ञमें हवि भक्षण करनेवाला और पितरोंको (श्राद्धादिमें अर्पण किये जानेवाले पिण्ड आदि) कव्य भक्षण करनेवाला बनाया ॥ २९ ॥

भागार्थे मन्त्रविधिना यश्चक्रे यज्ञकर्मणि ।
यूपान् समित् स्रुचं सोमं पवित्रान् परिधीनपि ॥ ३० ॥
जिन्होंने (देवताओंका) भाग निकालनेके लिये मन्त्रके प्रयोगकी विधिके साथ-साथ यज्ञकर्ममें यूप, समिधा, सुवा, सोम, पवित्र (पैंती) एवं परिधियोंकी कल्पना की, ॥ ३० ॥

यज्ञियानि च द्रव्याणि यज्ञांश्च सचयानलान् ।
सदस्यान् यजमानांश्च मेध्यादींश्च क्रतूत्तमान् ॥ ३१ ॥
विबभाज पुरा सर्वं पारमेष्ठ्येन कर्मणा ।
यागानुरूपान् यः कृत्वा लोकाननुपराक्रमत् ॥ ३२ ॥
जिन्होंने यज्ञोपयोगी द्रव्य, यज्ञ, ईंटोंके बने अग्नि-स्थापनके स्थान तथा आहवनीय आदि तीन प्रकारकी अग्नियाँ, सदस्य (यज्ञकर्मका निरीक्षण करनेवाले ब्राह्मण), यजमान, उत्तम यज्ञ एवं मेध्य आदि पदार्थोंका ब्रह्माजीकी प्रचलित की हुई विधिसे विभाग किया और जिन्होंने लोकोंको युगोंके अनुरूप बनाकर फिर अपना हाथ हटा लिया ॥ ३१-३२ ॥

क्षणा लवाश्च काष्ठाश्च कलास्त्रैकाल्यमेव च ।
मुहूर्तास्तिथयो मासाः पक्षाः संवत्सरास्तथा ॥ ३३ ॥
ऋतवः कालयोगाश्च प्रमाणं त्रिविधं त्रिषु ।
आयुः क्षेत्राण्युपचयो लक्षणं रूपसौष्ठवम् ॥ ३४ ॥
जिन्होंने क्षण, लव, काष्ठा, कला, (प्रातः, मध्याह्न और सायंकालरूप) तीन काल, मुहूर्त, तिथि, मास, पक्ष, वर्ष, ऋतु, कालके विविध योग, (नित्य, नैमित्तिक और काम्य इन) तीन प्रकारके (प्रमेय) कोंमें (श्रुति, स्मृति, शिष्टाचाररूप) तीन प्रकारका प्रमाण, आयु, क्षेत्र (स्थावर-जङ्गम शरीर), वृद्धि, (दो पैर, चार पैर आदि) लक्षण और आकृतिकी सुन्दरता रची ॥ ३३-३४ ॥

त्रयो वर्णास्त्रयो लोकास्त्रैविद्यं पावकास्त्रयः ।
त्रैकाल्यं त्रीणि कर्माणि त्रयोऽपायास्त्रयो गुणाः ॥ ३५ ॥
जिन्होंने तीन वर्ण (शूद्रको यज्ञ करनेका अधिकार नहीं है, अतः उसका ग्रहण नहीं किया), (भू आदि) तीन लोक, (ऋक्, यजुः, सामरूप) तीन विद्याएँ, (गार्हपत्य, आहवनीय एवं दक्षिण नामकी) तीन अग्रियाँ, (भूत, भविष्यत्, वर्तमानरूप) तीन काल, (सात्त्विक, राजस और तामसरूप) तीन कर्म, (पुत्रैषणा, वित्तैषणा और लोकैषणारूप) तीन अपाय और (सत्त्व, रज, तमरूप) तीन गुण रचे ॥ ३५ ॥

त्रयो लोकाः पुरा सृष्टा येनानन्त्येन कर्मणा ।
सर्वभूतगणस्रष्टा सर्वभूतगुणात्मकः ॥ ३६ ॥
जिन्होंने (जीवोंके) अनन्त कमौके कारण तीन लोकोंकी रचना की, (साथ ही) जो सब प्राणियोंको रचनेवाले हैं और जिनमें सब भूतोंके गुण रहते हैं, ॥ ३६ ॥

नृणामिन्द्रियपूर्वेण योगेन रमते च यः ।
गतागताभ्यां यो नेता सर्वत्र जगदीश्वरः ॥ ३७ ॥
जो जगदीश्वर समस्त ब्रह्माण्डमें जीवात्माको जन्म-मृत्यु देनेके कारण सबके नेता हैं और जो (जीवरूपसे) इन्द्रियोंका विषयोंके साथ संयोग करके सर्वत्र रमण करते हैं ॥ ३७ ॥

यो गतिर्धर्मयुक्तानामगतिः पापकर्मणाम् ।
चातुर्वर्ण्यस्य प्रभवः चातुर्होत्रस्य रक्षिता ॥ ३८ ॥
जो धर्म करनेवालोंकी गति (गन्तव्य स्थान) हैं और पापकर्म करनेवालोंकी अगति हैं अर्थात् पापकर्म करनेवाले जिनको नहीं पा सकते, जो चारों वर्णोके उत्पत्तिस्थान हैं (यह बात 'ब्राहाणोऽस्य मुखमासीत्' आदि श्रुतिको लक्ष्य करके कही गयी है) और जो (जिसमें चार ऋत्विज् हवन करते हैं ऐसे) चातुर्होत्र (यज्ञ)-के रक्षक हैं, ॥ ३८ ॥

चातुर्विद्यस्य यो वेत्ता चातुराश्रम्यसंश्रयः ।
दिगन्तरो नभोभूतो वायुरापो विभावसुः ॥ ३९ ॥
जो (आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीतिरूप) चार विद्याओंके ज्ञाता हैं, जो (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यासरूप) चारों आश्रमोंके आश्रय हैं (अर्थात् जिनकी प्राप्तिके लिये चारों आश्रमोंके धर्मोका पालन किया जाता है) और दिशाएँ जिनके गर्भमें रहती हैं (अर्थात् जो दिशाओंको भी अवकाश देते हैं) तथा जो वायु, आकाश, जल, अग्नि और पृथ्वीरूप हैं, ॥ ३९ ॥

यश्चन्द्रसूर्यर्ज्योतिर्योगीशः क्षणदान्तकः ।
यत् परं श्रूयते ज्योतिर्यत् परं श्रूयते तपः ॥ ४० ॥
जो चन्द्रमा और सूर्यको भी ज्योति देनेवाले हैं, योगीश्वर हैं, (मोहरूपी) रात्रिका अन्त करनेवाले हैं, जो परम ज्योतिः-स्वरूप सुने जाते हैं अर्थात् जिनका ज्योतिःस्वरूप नेत्र सर्वत्र सब कुछ देखता है और जो परम तपःस्वरूप सुने जाते हैं अर्थात् जो परम तपस्याके द्वारा प्राप्त होते हैं, ॥ ४० ॥

यं परं प्राहुरपरं यः परः परमात्मवान् ।
नारायणपरा वेदा नारायणपराः क्रियाः ॥ ४१ ॥
जिनको पर (सूत्रात्मा) और अपर (विराट्) भी कहते हैं और जो परात्पर हैं अर्थात् सूत्रात्मासे भी पर मायासम्पत्र महेश्वर सगुण ब्रह्म है, आत्मवान् है अर्थात् आत्माके समान ही मायारूपी शरीरवाले हैं । वेद नारायणका ही निरूपण करते हैं । सभी क्रियाओंका पर्यवसान भी नारायणमें ही होता है ॥ ४१ ॥

नारायणपरो धर्मो नारायणपरा गतिः ।
नारायणपरं सत्यं नारायणपरं तपः ॥ ४२ ॥
धर्मका लक्ष्य भी नारायण हैं, सम्पूर्ण गतियोंकी परम गति नारायण हैं, नारायण ही सत्यके आधार हैं और नारायण ही तपके द्वारा प्राप्य हैं ॥ ४२ ॥

नारायणपरो मोक्षो नारायणपरायणम् ।
आदित्यादिस्तु यो दिव्यो यश्च दैत्यान्तको विभुः ॥ ४३ ॥
नारायण ही मोक्षके आधार हैं । नारायण ही परम आश्रयरूप हैं । जो प्रभु आकाशमें विचरण करनेवाले आदित्य आदि ग्रहोंके स्वरूपमें स्थित हैं और दैत्योंका संहार करनेवाले है ॥ ४३ ॥

युगान्तेष्वन्तको यश्च यश्च लोकान्तकान्तकः ।
सेतुर्यो लोकसेतूनां मेध्यो यो मेध्यकर्मणाम् ॥ ४४ ॥
जो प्रलयके समय कालका रूप धारण कर लेते हैं, संसारका अन्त करनेवाले यमके भी यम हैं, मृत्युकी भी मृत्यु हैं, लोकोंकी मर्यादा बाँधनेवाले (मनु आदिके भी) सेतु हैं अर्थात् मनु आदिको भी मर्यादामें रखनेवाले हैं और पवित्र करनेवाले (गङ्गा आदि तीर्थो)को भी पवित्र करनेवाले हैं ॥ ४४ ॥

वेद्यो यो वेदविदुषां प्रभुर्यः प्रभवात्मनाम् ।
सोमभूतस्तु सौम्यानामग्निभूतोऽग्निवर्साम् ॥ ४५ ॥
जो वेदके ज्ञाताओंद्वारा जाननेयोग्य हैं, प्रभुत्व स्वभाववाले (मरीचि आदि)-के भी प्रभु हैं और जो सौम्य पुरुषों में चन्द्रमाकी भाँति प्रियदर्शन हैं, जो अग्निके समान तेजस्वी पुरुषोंमें अग्रिस्वरूप है ॥ ४५ ॥

मनुष्याणां मनोभूतस्तपोभूतस्तपस्विनाम् ।
विनयो नयवृत्तीनां तेजस्तेजस्विनामपि ।
सर्गाणां सर्गकारश्च लोकहेतुरनुत्तमः ॥ ४६ ॥
जो मनुष्योंक मनरूप हैं, तपस्वियोंके तपरूप हैं, जो नीतिमान् पुरुषोंमें नम्रतारूपसे विराजमान रहते हैं और तेजस्वियोंमें तेजःस्वरूप हैं और जो सृष्टियोंके रचनेवाले तथा संसारके सर्वश्रेष्ठ कारण हैं ॥ ४६ ॥

विग्रहो विग्रहार्हाणां गतिर्गतिमतामपि ।
आकाशप्रभवो वायुर्वायुप्राणो हुताशनः ॥ ४७ ॥
जो शरीर धारण करके अवतार लेनेवाले देवताओंके विग्रहरूप हैं, गतिमानोंकी गति हैं, आकाशमें उत्पन्न होनेवाले वायु हैं तथा वायुसे जीनेवाले अग्निस्वरूप हैं ॥ ४७ ॥

देवा हुताशनप्राणाः प्राणोऽग्नेर्मधुसूदनः ।
रसाद् वै शोणितं जातं शोणितान्मांसमुच्यते ॥ ४८ ॥
अग्नि देवताओंके प्राण हैं और मधुसूदन अग्निके भी प्राण हैं । (वे अग्निके प्राण बनकर अग्निके द्वारा क्या करते हैं, इसको स्पष्ट करते हुए कहते हैं, अग्निके द्वारा पृथक् किये हुए अन्नके साररूप) रससे रक्त बनता है (और उससे क्रमशः वीर्य बनकर गर्भ रहता है, इस प्रकार वह अग्निके प्राण बनकर अग्निके द्वारा सारा सृष्टि कार्य चलाते हैं) और रक्तसे मांस बनता है ॥ ४८ ॥

मांसात्तु मेदसो जन्म मेदसोऽस्थीनि चैव हि ।
अस्थ्नो मज्जा समभवन्मज्जातः शुक्रमेव च ॥ ४९ ॥
मांससे मेद (चर्बी) की उत्पत्ति होती है और मेदसे अस्थियोंकी उत्पत्ति होती है, हड्डियोंसे मज्जा बनती है और मजासे वीर्यको उत्पत्ति होती है ॥ ४९ ॥

शुक्राद् गर्भः समभवद् रसमूलेन कर्मणा ।
तत्रापां प्रथमो भागः स सौम्यो राशिरुच्यते ॥ ५० ॥
गर्भोष्मसंभवोऽग्निर्यो द्वितीयो राशिरुच्यते ।
शुक्रं सोमात्मकं विद्यादार्तवं विद्धि पावकम् ।
भागौ रसात्मकौ ह्येषां वीर्यं च शशिपावकौ ॥ ५१ ॥
रसमूल कर्मके द्वारा वीर्यसे गर्भ रहता है, उसमें प्रथम भाग जलका अंश (वीर्य होता है, वह श्वेत होनेसे) सौम्य होता है, जलप्रधान सोमका अंश होता है और गर्भकी गरमीसे अर्थात् जठराग्निसे उत्पन्न हुआ (रक्तरूप) जो दूसरा भाग उसमें रहता है, वह (रक्त-राशि) अग्निका अंश कहलाता है । (इस प्रकार) वीर्यको सोमका अंश और रजको अग्निका अंश समझना चाहिये ॥ ५०-५१ ॥

कफवर्गे भवेच्छुक्रं पित्तवर्गे च शोणितम् ।
कफस्य हृदयं स्थानं नाभ्यां पित्तं प्रतिष्ठितम् ॥ ५२ ॥
देहस्य मध्ये हृदयं स्थानं तन्मनसः स्मृतम् ।
नाभिकोष्ठान्तरं यत्तु तत्र देवो हुताशनः ॥ ५३ ॥
(पूर्वोक्त रीतिसे) ये दोनों रसके ही भाग हैं, क्योंकि शशि और पावक अर्थात् शुक्र और शोणित इन रस आदिके ही सार हैं । (अब जगत्के अग्रीषोमात्मकस्वरूपको सिद्ध करते हैं) शुक्र (वीर्य) कफवर्गमें है और रक्त पित्तवर्गम है । (वीर्यके आश्रवसे रहनेवाले और जिसका देवता सोम है, ऐसे) कफका स्थान हृदय है । (रक्तके आश्रयसे रहनेवाले और जिसका देवता अग्नि है, ऐसे) पित्तका स्थान नाभि है । देहके मध्यमें जो हदय है, वही मनका स्थान कहलाता है और नाभिकोष्ठके भीतर (वाणीका अधिष्ठातृदेवता) अग्नि रहता है ॥ ५२-५३ ॥

मनः प्रजापतिर्ज्ञेयः कफः सोमो विभाव्यते ।
पित्तमग्निः स्मृतं ह्येतदग्नीषोमात्मकं जगत् ॥ ५४ ॥
(मनका अधिष्ठातृदेवता प्रजापति होनेके कारण) मनको प्रजापति समझना चाहिये, कफको सोम समझना चाहिये और पित्तको अग्नि कहा गया है । इस प्रकार सम्पूर्ण जगत् अग्नीषोमात्मक है ॥ ५४ ॥

एवं प्रवर्तिते गर्भे वर्धितेऽम्बुदसन्निभे ।
वायुः प्रवेशं संचक्रे संगतः परमात्मना ॥ ५५ ॥
जैसे धुएँ, ज्योति, जल और पवनसे मेघ बढ़ता है, उसी प्रकार गर्भ भी अन्न, अग्नि, जल और प्राणसे बढ़ता है, अतएव अचेतन है, उसके बढ़नेपर (प्राणवायुका सहचर होनेसे जीवरूप) वायु ईश्वरके साथ उसमें प्रवेश करता है (और उसीके साथ उत्क्रमण करता है) ॥ ५५ ॥

ततोऽङ्गानि विसृजति बिभर्ति परिवर्धयन् ।
स पञ्चधा शरीरस्थो भिद्यते वर्धते पुनः ॥ ५६ ॥
देहमें प्रवेश करनेके अनन्तर वह (प्राणोपाधिक) जीव (सिर आदि) अङ्गोंको रचता है और उनको बढ़ाता हुआ उनको पुष्ट भी करता रहता है । वह (प्राणके पाँच प्रकारका होनेसे स्वयं भी) पाँच भागोंमें बँटकर बढ़ता रहता है ॥ ५६ ॥

प्राणोऽपानः समानश्च उदानो व्यान एव च ।
प्राणः स प्रथमं स्थानं वर्धयन् परिवर्तते ॥ ५७ ॥
वे पाँच भेद इस प्रकार हैं-प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान । इनमें प्राण प्रथम स्थान (हत्-पिण्ड-जदय)-को पुष्ट करता हुआ चलता रहता है ॥ ५७ ॥

अपानः पश्चिमं कायमुदानोर्ध्वं शरीरिणः ।
व्यानो व्यायच्छ्ते येन समानः सन्निवर्तयेत् ।
भूतावाप्तिस्ततस्तस्य जायतेन्द्रियगोचरात् ॥ ५८ ॥
अपान प्राणीके (जङ्घासे लेकर चरणतक) अधःशरीरको और उदान प्राणीके (जङ्घाओंसे ऊपरके) ऊर्ध्व-शरीरको बढ़ाता है तथा व्यान व्यायाम अर्थात् बल-साध्य कर्म करता है (अतएव वह शरीरकी सब संधियोंमें वर्तमान रहता है) एवं समान (नाभिमें रहकर) खायी और पीयी हुई वस्तुओंको समान करता है (यथास्थान पहुँचा देता है) । इस प्रकार प्राणके कर्मोंका विभाग होनेके अनन्तर जीवको इन्द्रियोंके विषय (रूप आदि)-के द्वारा उनके आश्रय (अग्रि आदि) भूतोंका साक्षात्कार होता है ॥। ५८ ॥

पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च पञ्चमम् ।
तस्येन्द्रियाणि विष्टानिस्वं स्वं योगं प्रचक्रिरे ॥ ५९ ॥
(इसका कारण यह है कि) पृथ्वी, जल, तेज, वायु और पाँचवाँ आकाश-ये सब इन्द्रियोंके रूपमें परिणत होकर शरीरके अन्तर्गत अपने-अपने नेत्र-गोलक आदि स्थानोंमें प्रविष्ट हो जाते हैं, इस प्रकार वे अपने-अपने सजातीयको ग्रहण करते हैं (अर्थात् पार्थिव घ्राणेन्द्रिय पृथ्वीके गुण गन्धको ग्रहण करती है, जलीय रसनेन्द्रिय जलके गुण रसको ग्रहण करती है, तैजस् चक्षु तेजके गुण रूपको ग्रहण करती है, वायवीय त्वगिन्द्रिय वायुके गुण स्पर्शको ग्रहण करती है और आकाशीय प्रोत्रेन्द्रिय आकाशके गुण शब्दको ग्रहण करती है) ॥ ५९ ॥

पार्थिवं देहमाहुस्तं प्राणात्मानं च मारुतम् । ॥
छिद्राण्याकाशयोनीनि जलात् स्रावः प्रवर्तते ॥ ६० ॥
देहको अर्थात् इकट्ठे हुए कठिनांशको पृथ्वीका विकार कहते हैं, प्राणको वायुका, शरीरमें स्थित नौ छिद्रोंको आकाशका विकार कहते हैं और शरीरसे निकलनेवाले (मूत्र, पसीना, वीर्य आदि) सभी स्लाव जलके विकार हैं ॥ ६० ॥

ज्योतिश्चक्षुश्च तेजात्मा तेषां यन्ता मनः स्मृतः ।
ग्रामाश्च विषयाश्चैव यस्य वीर्यात् प्रवर्तिताः ॥ ६१ ॥
चक्षुरिन्द्रिय तेजःस्वरूप है, इन सब पृथ्वी आदिके (सम्मिलित) तेजका अंश मन है, यह सभी इन्द्रियोंका नियामक है-इन सबको वशमें रखता है (मनके संयोगसे ही ये सब कार्यक्षम होती हैं) । इस मनके वीर्य-शक्तिसे ही (रूप आदिके आश्रय) पृथ्वी आदिका समूह और गन्ध आदि विषय प्रत्यक्ष होते हैं अथवा ग्राम-नगर सब मनके लगनेपर ही बनाये जाते हैं ॥ ६१ ॥

इत्येवं पुरुषः सर्वान् सृजँल्लोकान् सनातनान् ।
कथं लोके नैधनेऽस्मिन् नरत्वं विष्णुरागतः ॥ ६२ ॥
पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु इस प्रकार इन सनातन लोकोंको रचते रहते हैं । ऐसे विष्णुभगवान् इस मरणशील संसारमें मनुष्य क्यों बने ? ॥ ६२ ॥

एष मे संशयो ब्रह्मन्नेवं मे विस्मयो महान् ।
कथं गतिर्गतिमतामापन्नो मानुषीं तनुम् ॥ ६३ ॥
ब्रह्मन् ! मुझे यही संदेह और बड़ा भारी विस्मय हो रहा है कि गतिमानोंको भी गति देनेवाले भगवान्ने मनुष्य-शरीर किसलिये धारण किया ॥ ६३ ॥

श्रुतो मे स्वस्य वंशस्य पूर्वेषां चैव संभवः ।
श्रोतुमिच्छामि विष्णोस्तु वृष्णीनां च यथाक्रमम् ॥ ६४ ॥
मैंने अपने वंशकी और अपने पूर्वजोंकी उत्पत्ति सुन ली, अब मैं विष्णुकी और वृष्णिवंशियोंकी उत्पत्तिको क्रमानुसार सुनना चाहता हूँ ॥ ६४ ॥

आश्चर्यं परमं विष्णुर्देवैर्दैत्यैश्च कथ्यते ।
विष्णोरुत्पत्तिमाश्चर्यं ममाचक्ष्व महामुने ॥ ६५ ॥
महामुने ! देवता और दैत्य विष्णुको परम अचरजभरा बताते हैं, अतः आप विष्णुको अचरजसे भरी हुई उत्पत्तिका मुझसे वर्णन कीजिये ॥ ६५ ॥

एतदाश्चर्यमाख्यानं कथयस्व सुखावहम् ।
प्रख्यातबलवीर्यस्य विष्णोरमिततेजसः ।
कर्म चाश्चर्यभूतस्य विष्णोस्तत्त्वमिहोच्यताम् ॥ ६६ ॥
आप बल और वीर्यके लिये प्रसिद्ध अमित तेजस्वी भगवान् विष्णुके इस सुख देनेवाले आश्चर्यजनक आख्यानको सुनाइये और आश्चर्यस्वरूप विष्णुके कर्मोंको तथा तत्त्वको भी मुझे सुनाइये ॥ ६६ ॥

इति श्रीमन्महाभारते खिलेषु हरिवंशे हरिवंशपर्वणि
वराहोत्पत्तिवर्णने चत्वारिंशोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीगहाभारत खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें वराहोत्पत्तिविषयक चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ४० ॥




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