श्रीहरिवंशपुराण हरिवंश पर्व एकचत्वारिंशोऽध्यायः
विष्ण्ववतारवर्णनम्
भगवान् विष्णुके वराह, नृसिंह, वामन, दत्तात्रेय, परशुराम, श्रीराम, श्रीकृष्ण, व्यास तथा कल्कि-अवतारोंकी संक्षिप्त कथा
प्रश्नभारो महांस्तात त्वयोक्तः शार्ङ्गधन्वनि । यथाशक्ति तु वक्ष्यामि श्रूयतां वैष्णवं यशः ॥ १ ॥
वैशम्पायनजीने कहा-तात ! तुमने शार्ङ्ग धनुष धारण करनेवाले भगवान् विष्णुके विषयमें यह प्रश्नका महान् भार मेरे ऊपर रख दिया । तथापि मैं यथाशक्ति तुम्हारे प्रश्नोंका उत्तर दूंगा । तुम श्रीहरिकी यशोगाथालीला-कथाका श्रवण करो ॥ १ ॥
विष्णोः प्रभावश्रवणे दिष्ट्या ते मतिरुत्थिता । हन्त विष्णोः प्रवृत्तिं च शृणु दिव्यां मयेरिताम् ॥ २ ॥
भगवान् विष्णुके प्रभावको सुननेमें जो तुम्हारे मनकी प्रवृत्ति हुई है, यह बड़े सौभाग्यकी बात है । अतः मैं हर्षपूर्वक श्रीहरिकी दिव्य लीला-कथाका वर्णन करता हूँ । तुम ध्यान देकर उसे सुनो ॥ २ ॥
सहस्राक्षं सहस्रास्यं सहस्रभुजमव्ययम् । सहरशिरसं देवं सह्स्रकरमव्ययम् ॥ ३ ॥ सहस्रजिह्वं भास्वन्तं सहस्रमुकुटं प्रभुम् । सहस्रदं सहस्रादिं सहस्रभुजमव्ययम् ॥ ४ ॥ सवनं हवनं चैव हव्यं होतारमेव च । पात्राणि च पवित्राणि वेदिं दीक्षां चरुं स्रुवम् ॥ ५ ॥ स्रुक्सोमं शूर्पमुसलं प्रोक्षणं दक्षिणायनम् । अध्वर्युं सामगं विप्रं सदस्यं सदनं सदः ॥ ६ ॥ यूपं समित्कुशं दर्वीं चमसोलूखलानि च । प्राग्वंशं यज्ञभूमिं च होतारं चयनं च यत् ॥ ७ ॥ ह्रस्वान्यतिप्रमाणानि चराणि स्थावराणि च । प्रायश्चित्तानि चार्थं च स्थण्डिलानि कुशांस्तथा ॥ ८ ॥ मन्त्रं यज्ञवहं वह्निं भागं भागवहं च यत् । अग्रेभुजं सोमभुजं घृतार्चिषमुदायुधम् ॥ ९ ॥ आहुर्वेदविदो विप्रा यं यज्ञे शाश्वतं विभुम् । तस्य विष्णोः सुरेशस्य श्रीवत्साङ्कस्य धिमतः ॥ १० ॥ प्रादुर्भावसहस्राणि अतीतानि न संशयः । भूयश्चैव भविष्यन्तीत्येवमाह प्रजापतिः ॥ ११ ॥
वेदवेत्ता ब्राह्मण जिन्हें सहलमख, सहस्रनेत्र, सहस्रचरण, सहनशिर, सहस्रकर, अविनाशी देव, सहनों जिह्वाओंसे युक्त, प्रकाशमान, सहस्सों मुकुटोंसे सुशोभित प्रभु, सहनोंका दान करनेवाले, सहसों प्राणियोंके आदिलष्टा, सहस्रबाहु, अविकारी, सवन (यज्ञोपयोगी काल), हवनरूप कर्म, हव्य (हवनीय पदार्थ), होता (यजमान), यज्ञपात्र, पवित्रक, वेदी, दीक्षा, चरु, खुवा, सुक्, सोम, सूप, मुसल, प्रोक्षणी (पात्र), दक्षिणायन, अध्वर्यु (यजुर्वेदी), साम गान करनेवाला ब्राह्मण, सदस्य, पत्नीशाला, सभा, यूप, समिधा, कुशा, दीं, चमस, ऊखल, प्राग्वंश (यज्ञमण्डपमें स्थित यजमानगृह), यज्ञभूमि, होता (ऋत्विज्), चयन (ईंटोंकी बनी हुई वेदी), छोटे-बड़े चराचर जीव, प्रायश्चित्त, प्रयोजन या फल, स्थण्डिल (वेदी), कुश, मन्त्र, यज्ञवाहक अग्नि, देवताओंका भाग, भागवाहक, अग्रासनभोजी, सोमभोक्ता, घीकी आहुतिसे उठनेवाली ज्वाला, उदायुध (यज्ञसमाप्तिके समय की जानेवाली उदयनीय नामक इष्टि) तथा यज्ञमें विद्यमान सनातन प्रभु कहते हैं, उन श्रीवत्सचिहविभूषित देवेश्वर बुद्धिमान् भगवान् विष्णुके सहस्रों अवतार हो चुके हैं और भविष्यमें भी समयसमयपर बारम्बार होते रहेंगे-इसमें संशय नहीं है । ऐसा प्रजापति ब्रह्माजीका कथन है ॥ ३-११ ॥
यत् पृच्छसि महाराज पुण्यां दिव्यां कथां शुभाम् । यदर्थं भगवान् विष्णुः सुरेशो रिपुसूदनः । देवलोकं समुत्सृज्य वसुदेवकुलेऽभवत् ॥ १२ ॥ तत्तेहं संप्रवक्ष्यामि शृणु सर्वमशेषतः । वासुदेवस्य माहात्म्यं चरितं च महाद्युतेः ॥ १३ ॥
महाराज ! तुम जिस पवित्र, दिव्य एवं मङ्गलमयी कथाको पूछ रहे हो, उसका तथा जिस उद्देश्यकी सिद्धिके लिये देवताओंके स्वामी शत्रुनाशक भगवान् विष्णु देवलोकको त्यागकर वसुदेवके कुलमें अवतीर्ण हुए थे, उसका भी मैं तुमसे भलीभाँति वर्णन करूँगा, तुम वह सब प्रसङ्ग पूर्णरूपसे सुनो । साथ ही महातेजस्वी वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णका माहात्म्य एवं चरित्र भी श्रवण करो ॥ १२-१३ ॥
हितार्थं सुरमर्त्यानां लोकानां प्रभवाय च । बहुशः सर्वभूतात्मा प्रादुर्भवति कार्यतः ॥ १४ ॥
समस्त भूतोंके आत्मा भगवान् श्रीहरि देवता और मनुष्योंका कल्याण तथा लोकोंका अभ्युदय करनेके लिये आवश्यकतावश बारम्बार अवतीर्ण होते हैं ॥ १४ ॥
प्रादुर्भावांश्च वक्ष्यामि पुण्यान् दिव्यगुणैर्युतान् । छान्दसीभिरुदाराभिः श्रुतिभिः समलङ्कृतान् ॥ १५ ॥
मैं भगवान्के उदार वैदिक श्रुतियोंद्वारा वर्णित दिव्य गुणवाले पवित्र अवतारोंका वर्णन करूँगा ॥ १५ ॥
शुचिः प्रयतवाग् भूत्वा निबोध जनमेजय । इदं पुराणं परमं पुण्यं वेदैश्च सम्मितम् ॥ १६ ॥ हन्त ते कथयिष्यामि विष्णोर्दिव्यां कथां शृणु । यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । धर्मसंस्थापनार्थाय तदा सम्भवति प्रभुः ॥ १७ ॥
जनमेजय ! यह पवित्र एवं श्रेष्ठ पुराण वेदोंके समान सम्मानित है । तुम पवित्र एवं मौन होकर इसे सुनो । मैं बड़े हर्षके साथ तुमसे भगवान् विष्णुको यह दिव्य कथा कहता हूँ । इसे श्रवण करो । भारत ! जबजब धर्मका वास होता है, तब-तब प्रभु धर्मको दृढ़रूपमें स्थापित करनेके लिये अवतार ग्रहण करते हैं ॥ १६-१७ ॥
तस्य ह्येका महाराज मूर्तिर्भवति सत्तमा । नित्यं दिविष्ठा या राजंस्तपश्चरति दुश्चरम् ॥ १८ ॥
राजन् ! महाराज ! उनकी एक श्रेष्ठतम सात्त्विकी मूर्ति है, जो दिव्यलोकमें रहकर सदा दुष्कर तप करती है ॥ १८ ॥
द्वितीया चास्य शयने निद्रायोगमुपाययौ । प्रजासंहारसर्गार्थं किमध्यात्मविचिन्तकम् ॥ १९ ॥
उनकी दूसरी मूर्ति प्रजाके संहार और सृष्टि के लिये योगनिद्राका आश्रय ले शेषशय्यापर शयन करती है । वह योगनिद्रा अध्यात्मचिन्तकोंकी समाधिसे भी उत्कृष्ट है ॥ १९ ॥
सुप्त्वा युगसहस्रं स प्रादुर्भवति कार्यवान् । पूर्णे युगसहस्रे तु देवदेवो जगत्पतिः ॥ २० ॥ पितामहो लोकपालाश्चन्द्रादित्यौ हुताशनः । ब्रह्मा च कपिलश्चैव परमेष्ठी तथैव च ॥ २१ ॥ देवाः सप्तर्षयश्चैव त्र्यंबकश्च महायशाः । वायुः समुद्राः शैलाश्च तस्य देहं समाश्रिताः ॥ २२ ॥
एक सहस्र चतुर्युगोतक शयन करके वे सृष्टि-संचालनके कार्यसे पुनः विभिन्न (देवता आदिके) रूपोंमें प्रकट होते हैं । सहल युग पूर्ण हो जानेपर वे देवाधिदेव जगदीश्वर विष्णु ही पितामह ब्रह्मा, इन्द्रादि लोकपाल, चन्द्रमा, सूर्य, अग्नि, कपिल, परमेष्ठी (दक्ष), देवता, सप्तर्षि और महायशस्वी त्रिनेत्रधारी शिव आदिके रूपमें प्रादुर्भूत होते हैं । वायु, समुद्र और पर्वत-ये सब-के-सब उन्हींके विराट-रूपका आश्रय लेकर स्थित हैं ॥ २०-२२ ॥
सनत्कुमारश्च महानुभावो मनुर्महात्मा भगवान् प्रजाकरः । पुराणदेवोऽथ पुराणि चक्रे प्रदीप्तवैश्वानरतुल्यतेजाः ॥ २३ ॥
महान् प्रभावशाली सनत्कुमार और प्रजाकी सृष्टि करनेवाले ऐश्वर्यशाली महात्मा मनु भी उन्हींके स्वरूप हैं । प्रदीप्त अग्निके समान तेजस्वी उन पुराणदेव श्रीहरिने ही समस्त देहधारियोंके शरीरोंकी रचना की है ॥ २३ ॥
येन चार्णवमध्यस्थौ नष्टे स्थावरजङ्गमे । नष्टे देवासुरगणे प्रणष्टोरगराक्षसे ॥ २४ ॥ योद्धुकामौ सुदुर्धर्षौ दानवौ मधुकैटभौ । हतौ प्रभवता तेन तयोर्दत्त्वामितं वरम् ॥ २५ ॥
महाप्रलयके समय जब कि देवता, असुरगण. नाग तथा राक्षस आदि समस्त चराचर प्राणी नष्ट हो गये थे, एकार्णवके जलमें दो अत्यन्त दुर्धर्ष दानव प्रकट हुए । उनके नाम थे मधु और कैटभ । वे दोनों युद्ध चाहते थे । सर्वशक्तिमान् भगवान् विष्णुने ही उन दोनोंको मोक्षका अनुपम वर देकर मार डाला था ॥ २४-२५ ॥
पुरा कमलनाभस्य स्वपतः सागराम्भसि । पुष्करे यत्र सम्भूता देवाः सर्षिगणाः पुरा ॥ २६ ॥
पूर्वकालमें जब कमलनाभ भगवान् विष्णु समुद्रके जलमें शयन कर रहे थे, उनकी नाभिसे एक कमल प्रकट हुआ, जिसमें पहले ऋषियोंसहित सम्पूर्ण देवताओंका प्रादुर्भाव हुआ ॥ २६ ॥
एष पौष्करको नाम प्रादुर्भावो महात्मनः । पुराणे कथ्यते यत्र वेदः श्रुतिसमाहितः ॥ २७ ॥
पुराणमें यह परमात्मा विष्णुका पौष्कर नामका अवतार या सर्ग कहा जाता है । पुराण वह विद्या है, जिसमें मन्त्र एवं ब्राह्मण-भागकी श्रुतियोंसे सम्पन्न सम्पूर्ण वेद ही प्रतिष्ठित हैं (पुराणोंमें वेदार्थका ही विस्तार किया गया है) ॥ २७ ॥
वाराहस्तु श्रुतिमुखः प्रादुर्भावो महात्मनः । यत्र विष्णुः सुरश्रेष्ठो वाराहं रूपमास्थितः । महीं सागरपर्यन्तां सशैलवनकाननाम् ॥ २८ ॥
उन परमात्माका जो वाराह नामक अवतार है, वह श्रुतिमें वर्णित है । उस अवतारके समय सुरश्रेष्ठ भगवान् विष्णुने बाराहरूप धारणकर पर्वत और वनसहित समुद्रतककी सारी पृथ्वीका जलसे उद्धार किया था ॥ २८ ॥
वेदपादो यूपदंष्ट्रः क्रतुदन्तश्चितीमुखः । अग्निजिह्वो दर्भरोमा ब्रह्मशीर्षो महातपाः ॥ २९ ॥
चारों वेद उनके चार चरण और यूप उनकी दाढ़ें हैं । यज्ञ दाँत और श्येनचित् आदि चिति (इष्टिका चयन) मुख है । साक्षात् अग्नि ही उनकी जिला, कुशा रोमावलि और ब्रह्म मस्तक है । उनका तप महान् है ॥ २९ ॥
अहोरात्रेक्षणो दिव्यो वेदाङ्गश्रुतिभूषणः । आज्यनासः स्रुवातुण्डः सामघोषस्वनो महान् ॥ ३० ॥
दिन और रात्रि उनके नेत्र हैं, वे दिव्यस्वरूप हैं । वेद उनका अङ्ग और श्रुतियाँ आभूषण हैं । हविष्य (घृत) नासिका, सुवा थूथन और सामवेदका गम्भीर घोष ही उनका स्वर है । वे महान् हैं ॥ ३० ॥
धर्मसत्यमयः श्रीमान्क्रमविक्रमसत्कृतः । प्रायश्चित्तनखो धीरः पशुजानुर्महाभुजाः ॥ ३१ ॥
धर्म और सत्य उनका स्वरूप है । वे श्रीसम्पन्न तथा क्रम (गति) और विक्रम (पराक्रम)-के द्वारा सम्मानित हैं । प्रायश्चित्त उनके नख और पशु उनके घुटने हैं । वे धीर तथा विशाल भुजाओंसे युक्त हैं ॥ ३१ ॥
उद्गात्रन्तो होमलिन्ङ्गः फलबीजमहौषधिः । वाय्वन्तरात्मा मन्त्रस्फिग्विकृतः सोमशोणितः ॥ ३२ ॥
उगाता अन्त्र (आँत), होम लिङ्ग तथा बड़ी-बड़ी ओषधियाँ उनके अण्डकोश और वीर्य हैं । वायु अन्तरात्मा, मन्त्र नितम्ब और किन्नड़कर निकाला हुआ सोमरस ही उनक रक्त है ॥ ३२ ॥
वेदिस्कन्धो हविर्गन्धो हव्यकव्यातिवेगवान् । प्राग्वंशकायो द्युतिमान् नानादीक्षाभिराचितः ॥ ३३ ॥
वेदी ही स्कन्ध, हविष्य गन्ध तथा हव्य और कव्य उनका प्रचण्ड वेग है । प्राग्वंश (यजमान् गृह) उनका शरीर है । वे परम कान्तिमान् और प्रकारको दीक्षाओंसे सम्पन्न हैं ॥ ३३ ॥
दक्षिणाहृदयो योगी महासत्रमयो महान् । उपाकर्मोष्ठरुचकः प्रवर्ग्यावर्तभूषणाः ॥ ३४ ॥
दक्षिणा ही उनका हृदय है । महान् सत्र (लम्बे कालतक चलनेवाले यज्ञ) उन महान् योगीका स्वरूप है । वेदोंका स्वाध्याय उनके ओठोंका आभूषण है और प्रवर्य नामक कर्मकी आवृत्ति ही उनका भूषण है ॥ ३४ ॥
नानाछन्दोगतिपथो गुह्योपनिषदासनः । छायापत्नीसहायो वै मेरुशृङ्ग इवोच्छ्रितः ॥ ३५ ॥
अनेक प्रकारके छन्दोंकी गति उनका मार्ग है और वे गोपनीय उपनिषद्पी आसनपर विराजमान रहते हैं । जलमें पड़नेवाली छाया (परछाई) ही पत्नीको भांति उस समय उनकी सहायिका थी और वे मेरुपर्वतके शिखरके समान ऊँचे जान पड़ते थे ॥ ३५ ॥
महीं सागरपर्यन्तां सशैलवनकाननाम् । एकार्णवजले भ्रष्टामेकार्णवगतां प्रभुः ॥ ३६ ॥ दंष्ट्रया यः समुद्धृत्य लोकानां हितकाम्यया । सहस्रशीर्षो देवादिश्चकार पृथिवीं पुनः ॥ ३७ ॥
उन सहस्रों सिरवाले भगवान् वाराहने, जो देवताओंके आदिकारण हैं, एकार्णवके जलमें प्रवेश करके उसमें डूबी हुई पर्वत, वन और काननासहित समुद्रतककी सारी पृथ्वीको अपनी दाढ़से ऊपर उठाकर सम्पूर्ण लोकोंके हितकी कामनासे पुनः उसे जलके ऊपर स्थिरतापूर्वक स्थापित कर दिया ॥ ३६-३७ ॥
एवं यज्ञवराहेण भूत्वा भूतहितार्थिना । उद्धृता पृथिवी सर्वा सागरांबुधरा पुरा ॥ ३८ ॥
इस प्रकार प्रकट होकर समस्त प्राणियों का हित चाहनेवाले यज्ञात्मा भगवान् वाराहने समुद्र-जलको धारण करनेवाली समूची पृथ्वीका पूर्वकालमें उद्धार किया था ॥ ३८ ॥
वाराह एष कथितो नारसिंहमतः शृणु । यत्र भूत्वा मृगेन्द्रेण हिरण्यकशिपुर्हतः ॥ ३९ ॥
यह वाराह-अवतारकी कथा कही गयी । इसके बाद नरसिंह-अवतार हुआ, उसका वर्णन सुनो । उस अवतारमें भगवान्ने नरसिंहरूप धारण करके हिरण्यकशिपु नामक दैत्यका वध किया था ॥ ३९ ॥
पुरा कृतयुगे राजन्सुरारिर्बलदर्पितः । दैत्यानामादिपुर्षश्चचार तप उत्तमम् ॥ ४० ॥ दश वर्षसहस्राणि शतानि दश पञ्च च । जपोपवासनिरतः स्थानमौनदृढव्रतः ॥ ४१ ॥
राजन् ! पहले सत्ययुगमें देवताओंका शत्रु हिरण्यकशिपु समस्त दैत्योंका आदि पुरुष था । उसे अपने बलका बड़ा घमंड था । उसने साढ़े ग्यारह हजार वर्षांतक बड़ी भारी तपस्या की । वह सदा जप और उपवासमें संलग्न रहता था । दृढ़ आसन लगाकर मौनावलम्बनपूर्वक दृढ़ताके साथ उत्तम व्रतका पालन करता था ॥ ४०-४१ ॥
ततः शमदमाभ्यां च ब्रह्मचर्येण चानघ । ब्रह्मा प्रीतोऽभवत् तस्य तपसा नियमेन च ॥ ४२ ॥
निष्पाप नरेश ! तदनन्तर उसके इन्द्रियसंयम, मनोनिग्रह, ब्रह्मचर्य, तपस्या और शौच-संतोषादि नियमोंके पालनसे ब्रह्माजी उसके ऊपर बहुत प्रसन्न हुए ॥ ४२ ॥
तं वै स्वयंभूर्भगवान् स्वयमागत्य भूपते । विमानेनार्कवर्णेन हंसयुक्तेन भास्वता ॥ ४३ ॥
भूपाल ! स्वयम्भू भगवान् ब्रह्माजी हंससे युक्त सूर्यके समान तेजस्वी विमानद्वारा स्वयं वहाँ पधारे ॥ ४३ ॥
आदित्यैर्वसुभिः साध्यैर्मरुद्भिर्दैवतैः सह । रुद्राइर्विश्वसहायैश्च यक्षराक्षसकिन्नरैः ॥ ४४ ॥ दिशाभिर्विदिशाभिश्च नदीभिः सागरैस्तथा । नक्षत्रैश्च मुहूर्तैश्च खेचरैश्च महाग्रहैः ॥ ४५ ॥ देवर्षिभिस्तपोवृद्धैः सिद्धैः सप्तर्षिभिस्तथा । राजर्षिभिः पुण्यतमैर्गन्धर्वैश्चाप्सरोगणैः ॥ ४६
उनके साथ आदित्य, वसु, साध्य, मरुद्रण, अन्य देवगण, रुद्रगण, विश्वेदेव, यक्ष, राक्षस, किंनर, दिशाएँ, विदिशाएँ, नदियाँ, समुद्र, नक्षत्र, मुहूर्त, आकाशचारी महान् ग्रह, तपस्यामें बड़ेचढ़े देवर्षि, सिद्ध, सप्तर्षि, परम पुण्यात्मा राजर्षि, गन्धर्व तथा अप्सराएँ भी थीं ॥ ४४-४६ ॥
चराचरगुरुः श्रीमान् वृतः सर्वैः सुरैस्तथा । ब्रह्मा ब्रह्मविदां श्रेष्ठो दैत्यं वचनमब्रवीत् ॥ ४७ ॥
सम्पूर्ण देवताओंसे घिरे हुए ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ चराचर-गुरु श्रीमान् ब्रह्मा उस दैत्यसे इस प्रकार बोले- ॥ ४७ ॥
प्रीतोऽस्मि तव भक्तस्य तपसानेन सुव्रत । वरं वरय भद्रं ते यथेष्टं काममाप्नुहि ॥ ४८ ॥
'उत्तम व्रतका पालन करनेवाले दैत्यराज ! तुम मेरे भक्त हो । तुम्हारी इस तपस्यासे मैं बहुत प्रसन्न हूँ, तुम्हारा भला हो । तुम कोई वर माँगो और मनोवाञ्छित भोग प्राप्त करो' ॥ ४८ ॥
हिरण्यकशिपुरुवाच न देवासुरगन्धर्वा न यक्षोरगराक्षसाः । न मानुषाः पिशाशाश्च निहन्युर्मां कथंचन ॥ ४९ ॥ ऋषयो वा न मां शापैः क्रुद्धा लोकपितामह । शपेयुस्तपसा युक्ता वरमेतं वृणोम्यहम् ॥ ५० ॥
हिरण्यकशिपु बोला-लोकपितामह ! मुझे देवता, असुर, गन्धर्व, यक्ष, नाग, राक्षस, मनुष्य और पिशाच किसी तरह मार न सकें । तपस्वी ऋषि-महर्षि कुपित होकर मुझे शाप न दें, मैं आपसे यही वर माँगता हूँ ॥ ४९-५० ॥
न शस्त्रेण न चास्त्रेण गिरिणा पादपेन वा । न शुष्केण न चार्द्रेण स्यान्न चान्येन मे वधः ॥ ५१ ॥
न शस्त्रसे, न अस्त्रसे, न पर्वत अथवा वृक्षसे, न सूखेसे, न गीलेसे और न दूसरे ही किसी आयुधसे मेरा वध हो ॥ ५१ ॥
पाणिप्रहारेणैकेन सभृत्यबलवाहनम् । यो मां नाशयितुं शक्तः स मे मृत्युर्भविष्यति ॥ ५२ ॥
जो मेरे सेवक, सेना और वाहनोंसहित मुझे एक ही थप्पड़से मार डालनेमें समर्थ हो, उसीके हाथसे मेरी मृत्यु हो ॥ ५२ ॥
भवेयमहमेवार्कः सोमो वायुर्हुताशनः । सलिलं चान्तरिक्षं च नक्षत्राणि दिशो दश ॥ ५३ ॥
मैं ही सूर्य, चन्द्रमा, वायु, अग्नि, जल, आकाश, नक्षत्र और दसों दिशाओंके रूपमें स्थित रहूँ ॥ ५३ ॥
अहं क्रोधश्च कामश्च वरुणो वासवो यमः । धनदश्च धनाध्यक्षो यक्षः किंपुरुषाधिपः ॥ ५४ ॥
मैं ही काम और क्रोधका अधिष्ठाता होऊँ । मैं ही वरुण, इन्द्र, यम, धनाध्यक्ष कुबेर, यक्ष एवं किम्पुरुषोंका स्वामी होऊँ ॥ ५४ ॥
एवमुक्तस्तु दैत्येन स्वयंभूर्भगवांस्तदा । उवाच दैत्यराजं तं प्रहसन् नृपसत्तम ॥ ५५ ॥
नृपश्रेष्ठ ! उस दैत्यके यों कहनेपर स्वयम्भू भगवान् ब्रह्मा उठाकर हँस पड़े और उस समय उस दैत्यराजसे इस प्रकार बोले ॥ ५५ ॥
ब्रह्मोवाच एते दिव्या वरास्तात मया दत्तास्तवाद्भुताः । सर्वान्कामानिमांस्तात प्राप्स्यसि त्वं न संशयः ॥ ५६ ॥
ब्रह्माजीने कहा-तात ये दिव्य और अद्धत वर मैंने तुम्हें दे दिये । तुम इन सम्पूर्ण अभीष्टोंको प्राप्त कर लोगे, इसमें संशय नहीं है ॥ ५६ ॥
एवमुक्त्वा तु भगवाञ्जगामाकाशमेव हि । वैराजं ब्रह्मसदनं ब्रह्मर्षिगणसेवितम् ॥ ५७ ॥
यों कहकर भगवान् ब्रह्मा आकाशमें स्थित, ब्रह्मर्षिगणोंसे सेवित वैराजपद नामक ब्रह्मधामको चले गये ॥ ५७ ॥
ततो देवाश्च नागाश्च गन्धर्वा मुनयस्तथा । वरप्रदानं श्रुत्वा ते पितामहमुपस्थिताः ॥ ५८ ॥
तदनन्तर देवता, नाग, गन्धर्व और मुनि वह वरदान सुनकर पितामह ब्रह्माजीके पास गये ॥ ५८ ॥
विभुं विज्ञापयामासुर्देवा इन्द्रपुरोगमाः ॥ ५९ ॥
वहाँ पहुँचकर इन्द्र आदि देवताओंने भगवान् ब्रह्मासे अपने मानसिक भयको इस प्रकार सूचित किया ॥ ५९ ॥
देवा ऊचुः वरेणानेन भगवन् बाधयिष्यति नोऽसुरः । ततः प्रसीद भगवन्वधोऽप्यस्य विचिन्त्यताम् ॥ ६० ॥ भगवान् सर्वभूतानां स्वयंभूरादिकृद् विभुः । स्रष्टा च हव्यकव्यानामव्यक्तः प्रकृतिर्ध्रुवः ॥ ६१ ॥
देवताओंने कहा-भगवन् । इस वरके प्रभावसे तो वह असुर हमलोगोंको सदा ही महान् कष्ट पहुँचाता रहेगा । अतः आप प्रसन्न होइये और उसके वधका भी कोई उपाय सोचिये; क्योंकि आप ही सम्पूर्ण भूतोंके आदिलष्टा, स्वयम्भू, सर्वव्यापी, हव्य-कव्यके निर्माता, अव्यक्तप्रकृति और ध्रुवस्वरूप हैं ॥ ६०-६१ ॥
ततो लोकहितं वाक्यं श्रुत्वा देवः प्रजापतिः । प्रोवाच भगवान् वाक्यं सर्वान् देवगणांस्तदा ॥ ६२ ॥
उस समय देवताओंका यह लोकहितकारी वचन सुनकर उन प्रजापतिदेव भगवान् ब्रह्माने समस्त देवताओंसे इस प्रकारकी बात कही- ॥ ६२ ॥
अवश्यं त्रिदशास्तेन प्राप्तव्यं तपसः फलम् । तपसोऽन्तेऽस्य भगवान्वधं विष्णुः करिष्यति ॥ ६३ ॥
'देवताओ ! उस असुरको अपनी तपस्याका फल अवश्य प्राप्त होगा । (फल-भोगके द्वारा) जब तपस्याकी समाप्ति हो जायगी, तब भगवान् विष्णु स्वयं ही उसका वध करेंगे' ॥ ६३ ॥
एतच्छ्रुत्वा सुराः सर्वे वाक्यं पङ्कजसंभवात् । स्वानि स्थानानि दिव्यानि जग्मुस्ते वै मुदान्विताः ॥ ६४ ॥
कमलयोनि ब्रह्माजीके मुखसे यह बात सुनकर समस्त देवता प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने दिव्य स्थानोंको चले गये ॥ ६४ ॥
लब्धमात्रे वरे चापि सर्वाः सोऽबाधत प्रजाः । हिरण्यकशिपुर्दैत्यो वरदानेन दर्पितः ॥ ६५ ॥
वह बर पाते ही दैत्य हिरण्यकशिपु समस्त प्रजाको कष्ट देने लगा; क्योंकि ब्रह्माजीके उस वरदानसे उसका घमंड बहुत बढ़ गया था ॥ ६५ ॥
आश्रमेषु महाभागान् मुनीन् वै शंसितव्रतान् । सत्यधर्मरतान् दान्तान् पुरा धर्षितवांस्तु सः ॥ ६६ ॥
सबसे पहले आश्रमोंमें रहनेवाले उत्तम व्रतके पालक, सत्यधर्मपरायण तथा जितेन्द्रिय महाभाग मुनियोंको उसने पीड़ा देना आरम्भ किया ॥ ६६ ॥
देवांस्त्रिभुवनस्थांस्तु पराजित्य महासुरः । त्रैलोक्यं वशमानीय स्वर्गे वसति दानवः ॥ ६७ ॥
तीनों लोकोंमें रहनेवाले देवताओंको हराकर त्रिलोकीके राज्यको अपने वशमें करके वह महान् असुर दानव स्वर्गमें रहने लगा ॥ ६७ ॥
यदा वरमदोन्मत्तो न्यवसद्दानवो भुवि । यज्ञियान् कृतवान् दैत्यान् देवांश्चैवाप्ययज्ञियान् ॥ ६८ ॥
वरदानके मदसे उन्मत हुआ वह दानव जब देवलोकमें निवास करता था, उन दिनों उसने दैत्योंको तो यज्ञका भागी बनाया और देवताओंको उससे वशित कर दिया ॥ ६८ ॥
आदित्याश्च ततो रुद्रा विश्वे च मरुतस्तथा । शरण्यं शरणं विष्णुमुपाजग्मुर्महाबलम् ॥ ६९ ॥ वेदयज्ञमयं ब्रह्म ब्रह्मदेवं सनातनम् । भूतं भव्यं भविष्यं च प्रभुं लोकनमस्कृतम् । नारायणं विभुं देवाः शरणं शरणागताः ॥ ७० ॥
तब आदित्य, रुद्र, विश्वेदेव और मरुद्गण आदि मिलकर शरणागतवत्सल, वेद एवं यज्ञस्वरूप, ब्रह्माजीके भी आराध्यदेव, सनातन ब्रह्मरूप महाबली भगवान् विष्णुकी शरणमें गये । भूत, वर्तमान और भविष्य जिनका स्वरूप है, जो सब कुछ करने में समर्थ तथा समस्त लोकोंद्वारा वन्दित हैं, उन्हीं सर्वव्यापी नारायणकी उन शरणागत देवताओंने शरण ली ॥ ६९-७० ॥
देवा ऊचुः त्रायस्व नोऽद्य देवेश हिरण्यकशिपोर्भयात् । त्वं हि नः परमो धाता ब्रह्मादीनां सुरोत्तम ॥ ७१ ॥
देवताओंने कहा-देवेश्वर ! आप हिरण्यकशिपुके भयसे अब हमारी रक्षा करें । सुरश्रेष्ठ ! आप हम ब्रह्मा आदि देवताओंके भी परम पालक हैं ॥ ७१ ॥
त्वम् हि नः परमो देवस्त्वं हि नः परमो गुरुः । उत्फुल्लाम्बुजपत्राक्षः शत्रुपक्षभयङ्करः । क्षयाय दितिवंशस्य शरण्यस्त्वं भवस्व नः ॥ ७२ ॥
आप ही हमारे परम देवता और आप ही हमारे परम गुरु हैं । आपके नेत्र प्रफुल्ल कमलदलके समान शोभा पाते हैं । आप शत्रुपक्षको भय देनेवाले हैं । प्रभो ! आप दैत्योंके विनाशके लिये हमारे शरणदाता हो ॥ ७२ ॥
विष्णुरुवाच भयं त्यजध्वममरा ह्यभयं वो ददाम्यहम् । तथैवं त्रिदिवं देवाः प्रतिपत्स्यथ माचिरम् ॥ ७३ ॥
भगवान् विष्णुने कहा-देवताओ ! भय छोड़ दो । मैं तुम्हें अभय देता हूँ । तुम शीघ्र ही पहलेकी भाँति स्वर्गलोक प्राप्त कर लोगे ॥ ७३ ॥
एष तं सगणं दैत्यं वरदानेन दर्पितम् । अवध्यममरेन्द्राणां दानवेन्द्रं निहन्म्यहम् ॥ ७४ ॥
जो वरदान पाकर घमंडमें भर गया है तथा जो देवेश्वरोंके लिये अवध्य हो गया है, उस दितिपुत्र दानवराज हिरण्यकशिपुको उसके सेवकोंसहित मार डालता हूँ ॥ ७४ ॥
वैशंपायन उवाच एवमुक्त्वा स भगवान् विसृज्य त्रिदशेश्वरान् । हिरण्यकशिपो राजन्नाजगाम हरिः सभाम् ॥ ७५ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-राजन् ! यों कहकर भगवान् विष्णुने उन देवेश्वरोंको तो विदा कर दिया और स्वयं हिरण्यकशिपुके सभाभवनमें पधारे ॥ ७५ ॥
नरस्य कृत्वार्धतनुं सिंहस्यार्धतनुं प्रभुः । नारसिंहेण वपुषा पाणिं संस्पृश्य पाणिना ॥ ७६ ॥
उस समय उन प्रभुने अपना आधा शरीर मनुष्यकासा बना लिया था और आधा सिंहका-सा । इस प्रकार नृसिंहरूप धारण करके वे एक हाथसे दूसरे हाथको रगड़ते हुए वहाँ आये ॥ ७६ ॥
जीमूतघनसंकाशो जीमूतघननिःस्वनः । जीमूतघनदीप्तौजा जीमूत इव वेगवान् ॥ ७७ ॥
उनके शरीरका वर्ण सजल मेघके समान श्याम था । उनका शब्द भी जलपूर्ण मेघकी गर्जनाके समान ही गम्भीर था । उनके उद्दीप्त तेज और वेग भी बरसनेवाले बादलके ही तुल्य थे ॥ ७७ ॥
दैत्यं सोऽतिबलं दीप्तं दृप्तशार्दूलविक्रमम् । दृप्तैर्दैत्यगणैर्गुप्तं हतवानेकपाणिना ॥ ७८ ॥
यद्यपि दैत्य हिरण्यकशिपु अत्यन्त बलवान्, तेजस्वी, दर्पमें भरे हुए सिंहके समान पराक्रमी तथा बलाभिमानी दैत्योंद्वारा सुरक्षित था तो भी भगवान् नृसिंहने उसे एक ही थप्पड़से मारकर यमलोक पहुंचा दिया ॥ ७८ ॥
नृसिंह एष कथितो भूयोऽयं वामनोऽपरः । यत्र वामनमाश्रित्य रूपं दैत्यविनाशकृत् ॥ ७९ ॥
यह नृसिंहावतारकी कथा कही गयी । अब दूसरे वामन अवतारका वर्णन सुनो, जिसमें वामनरूप धारण करके भगवान्ने दैत्योंका विनाश किया था ॥ ७९ ॥
बलेर्बलवतो यज्ञे बलिना विष्णुना पुरा । विक्रमैस्त्रिभिरक्षोभ्याः क्षोभितास्ते महासुराः ॥ ८० ॥
पूर्वकालमें सर्वशक्तिमान् भगवान् विष्णु (वामनरूप धारणकर) बलवान् बलिके यज्ञमें गये और वहाँ उन्होंने अपने तीन ही पगोंसे (त्रिलोकीको नापकर) किसीसे क्षुब्ध न होनेवाले बड़े-बड़े असुरोंको क्षुब्ध कर डाला ॥ ८० ॥
विप्रचित्तिः शिबिः शङ्कुरयः शङ्कुस्तथैव च । अयःशिरा शंकुशिरा हयग्रीवश्च वीर्यवान् ॥ ८१ ॥ वेगवान् केतुमानुग्रः सोमव्यग्रो महासुरः । पुष्करः पुष्कलश्चैव वेपनश्च महारथः ॥ ८२ ॥ बृहत्कीर्तिर्महाजिह्वः साश्वोऽश्वपतिरेव च । प्रह्लादोऽश्वशिराः कुंभः संह्रादो गगनप्रियः । अनुह्रादो हरिहरौ वराहः शङ्करो रुजः ॥ ८३ ॥ शरभः शलभश्चैव कुपनः कोपनः क्रथः । बृहत्कीर्तिर्महाजिह्वः शङ्कुकर्णो महास्वनः ॥ ८४ ॥ दीर्घजिह्वोऽर्कनयनो मृदुचापो मृदुप्रियः । वायुर्यविष्ठो नमुचिः शंबरो विज्वरो महान् ८५ ॥ चन्द्रहन्ता क्रोधहन्ता क्रोधवर्धन एव च । कालकः कालकेयश्च वृत्रः क्रोधो विरोचनः ॥ ८६ ॥ गरिष्ठश्च वरिष्ठश्च प्रलम्बनरकावुभौ । इन्द्रतापनवातापी केतुमान्बलदर्पितः ॥ ८७ ॥ असिलोमा पुलोमा च वाक्कलः प्रमदो मदः । स्वसृमः कालवदनः करालः कैशिकः शरः ॥ ८८ ॥
जिस समय भगवान् हषीकेश अपने डग बढ़ा रहे थे, उस समय विप्रचित्ति, शिवि, शंकुरय और शंकु, अयःशिरा तथा शंकुशिरा, पराक्रमी हयग्रीव, वेगवान्, केतुमान्, उग्र, महान् असुर सोमव्यग्र, पुष्कर और पुष्कल तथा महारथी वेपन, बृहत्कीर्ति, महाजिल तथा अश्वसहित अश्वपति, प्रह्लाद, अश्वशिरा, कुम्भ, संहाद, गगनप्रिय, अनुहाद, हरि और हर, वराह, शंकर, रुज, शरभ तथा शलभ, कुपन, कोपन, क्रय, बृहत्कीर्ति, महाजिह्न शंकुकर्ण, महास्वन, दीजिए, अर्कनयन, मृदुचाप, मृदुप्रिय, वायु, यविष्ठ, नमुचि, शम्बर, महाकाय विज्वर, चन्द्रहन्ता, क्रोधहन्ता एवं क्रोधवर्धन, कालक तथा कालकेय, वृत्र, क्रोध, विरोचन, गरिष्ठ और वरिष्ठ, प्रलम्ब और नरक नामक दो दैत्य, इन्द्रतापन और बातापि, बलाभिमानी केतुमान, असिलोमा तथा पुलोमा, वाकल, प्रमद, मद, खसृम, कालवदन कराल, कैशिक, शर, ॥ ८१-८८ ॥
एकाक्षश्चन्द्रहा राहुः संह्रादः सृमरः स्वनः । शतघ्नीचक्रहस्ताश्च तथा परिघपाणयः ॥ ८९ ॥ महाशिलाप्रहरणाः शूलहस्ताश्च दानवाः । अश्वयन्त्रायुधोपेता भिन्दिपालायुधास्तथा ॥ ९० ॥ शूलोलूखलहस्ताश्च परश्वधधरास्तथा । पाशमुद्गरहस्ता वै तथा मुद्गलपाणयः ॥ ९१ ॥ नानाप्रहरणा घोरा नानावेषा महाजवाः । कूर्मकुक्कुटवक्त्राश्च शशोलूकमुखास्तथा ॥ ९२ ॥ खरोष्ट्रवदनाश्चैव वराहवदनास्तथा । भीमा मकरवक्त्राश्च क्रोष्टुवक्त्राश्च दानवाः । आखुदर्दुरवक्त्राश्च घोरा वृकमुखास्तथा ॥ ९३ ॥ मार्जारगजवक्त्राश्च महावक्त्रास्तथापरे । नक्रमेषानना शूरा गोऽजाविमहिषाननाः ॥ ९४ ॥ गोधाशल्यकवक्त्राश्च क्रौञ्चवक्त्राश्च दानवाः । गरुडाननाः खड्गमुखा मयूरवदनास्तथा ॥ ९५ ॥ गजेन्द्रचर्मवसनास्तथा कृष्णाजिनांबराः । चीरसंवृतदेहाश्च तथा वल्कलवाससः । उष्णीषिणो मुकुटिनस्तथा कुण्डलिनोऽसुराः ॥ ९६ ॥ किरीटिनो लम्बशिखाः कम्बुग्रीवाः सुवर्चसः । नानावेषधरा दैत्या नानामाल्यानुलेपनाः ॥ ९७ ॥ स्वान्यायुधानि संगृह्य प्रदीप्तान्यतितेजसा । क्रममाणं हृषीकेशमुपावर्तन्त सर्वशः ॥ ९८ ॥ प्रमथ्य सर्वान् दैतेयान् पादहस्ततलैः प्रभुः । रूपं कृत्वा महाभीमं जहाराशु स मेदिनीम् ॥ ९९ ॥
एकाक्ष, चन्द्रहा, राहु, संहाद, सृमर और खन आदि दैत्य चारों ओरसे भगवान्को घेरकर खड़े हो गये । उनमेंसे किसीके हाथमें शतनी (बंदूक) थी और किसीके हाथमें चक्र । बहुतेरे अपने हाथों में परिघ लिये खड़े थे । कुछ दानव बड़ी-बड़ी शिलाओंसे प्रहार करते थे । कितनोंके हाथोंमें शूल थे । कितने ही पत्थरके गोले फेंकनेवाले यन्त्ररूपी आयुधसे सम्पन्न थे । बहुतेरे भिन्दिपाल नामक अस्त्रका प्रयोग करते थे । कितने ही दैत्योंने अपने हाथोंमें शूल, ऊखल, फरसे, पाश, मुद्गर और मुसल ले रखे थे । इस प्रकार वे भौतिभौतिके आयुध धारण किये हुए थे । उनके वेष भी कई तरहके थे । वे सब-के-सब महान् वेगशाली और भयंकर थे । किन्हींके मुख कछुओं और मुगौंके समान थे तो किन्हींके खरहे और घूघुओंके सदृश । कितने ही दानवोंके मुख गदहे, ऊँट, सूअर, मगर और सियारोंके समान थे । वे सभी बड़े भयानक जान पड़ते थे । कुछ घोर रूपधारी दैत्योंके मुख चूहों और मेढकोंके समान थे । कितनोंके मुख भेड़ियोंसे मिलते-जुलते थे । किन्हींके मुख बिलाव-जैसे थे तो किन्हींके हाथियों के समान । कोई-कोई इससे भी बड़े मुखवाले थे । बहुतोंके मुख नक्र (नाके), मेड़े, बैल, बकरे, भेड़, भैंसे, गोह, साही, क्रौंच (कुरर), गरुड़, गैंडे और मोरोंसे मिलतेजुलते थे । कुछ दैत्योंने गजराजके चमड़े ओढ़ रखे थे और कितनोंने वस्त्रकी जगह काले मृगचर्मको ही लपेट रखा था । बहुतोंके शरीर चीरसे ढके थे, और कितने ही बल्कल वस्त्र पहने थे किन्हींके मस्तकपर पगड़ी शोभा पाती थी और किन्हींक मुकुट । कितने ही असुर किरीट और कुण्डलोंसे सुशोभित थे, किन्हीके सिरपर लम्बी शिखाएँ शोभा पाती थीं । बहुत-से दैत्योंकी गर्दने शखके समान थीं । वे अत्यन्त तेजस्वी दैत्य नाना प्रकारके वेष धारण किये भाँति-भाँतिकी मालाओं और चन्दनोंसे अलंकृत थे । वे अत्यन्त तेजसे चमकते हुए अपने-अपने आयुध लिये खड़े थे । उन सर्वशक्तिमान् भगवान्ने महाभयानक रूप धारण करके समस्त दैत्योंको लातों और थप्पड़ोंसे मथ डाला और शीघ्र ही इस पृथ्वीको उनसे छीन लिया ॥ ८९-९९ ॥
तस्य विक्रमतो भूमिं चन्द्रादित्यौ स्तनान्तरे । नभः प्रक्रममाणस्य नाभ्यां किल समास्थितौ ॥ १०० ॥
कहते हैं-जब वे भूमिको नाप रहे थे, उस समय चन्द्रमा और सूर्य उन विराट-रूपधारी भगवान्के स्तनोंके बीचमें आ गये थे और जब वे आकाश (स्वर्गलोक)को नापने लगे, तब चन्द्रमा और सूर्य उनकी नाभिमें आ गये ॥ १०० ॥
परं प्रक्रममाणस्य जानुदेशे स्थितावुभौ । विष्णोरतुलवीर्यस्य वदन्त्येवं द्विजातयः ॥ १०१ ॥
वे अतुलपराक्रमी भगवान् विष्णु जब स्वर्गसे भी ऊपरके (मह, जन, तप और सत्य नामक) लोकोंको नाप रहे थे, उस समय सूर्य और चन्द्रमा उनके दोनों घुटनोंमें स्थित दिखायी दिये-इस प्रकार ब्राह्मणलोग कहते हैं ॥ १०१ ॥
हृत्वा स पृथिवीं कृत्स्नां जित्वा चासुरपुङ्गवान् । ददौ शक्राय त्रिदिवं विष्णुर्बलवतां वरः ॥ १०२ ॥
इस प्रकार बलवानोंमें श्रेष्ठ श्रीविष्णुने सारी पृथ्वीका अपहरण करके बड़े-बड़े असुरोंको हराकर स्वर्गलोकका राज्य इन्द्रको दे दिया ॥ १०२ ॥
एष ते वामनो नाम प्रादुर्भावो महात्मनः । वेदविद्भिर्द्विजैरेवं कथ्यते वैष्णवं यशः ॥ १०३ ॥
जनमेजय ! इस प्रकार मैंने तुम्हें परमात्मा श्रीहरिके वामन नामक अवतारकी कथा सुनायी । वेदवेत्ता ब्राह्मण इसी तरह भगवान् विष्णुके यश (लीला-चरित्र)-का वर्णन करते हैं ॥ १०३ ॥
भूयो भूतात्मनो विष्णोः प्रादुर्भावो महात्मनः । दत्तात्रेय इति ख्यातः क्षमया परया युतः ॥ १०४ ॥
इसके बाद भूतात्मा परमात्मा विष्णुका फिर जो अवतार हुआ, वह दत्तात्रेयके नामसे विख्यात है । भगवान् दत्तात्रेय बड़े ही क्षमाशील थे ॥ १०४ ॥
तेन नष्टेषु वेदेषु प्रक्रियासु मखेषु च । चातुर्वर्ण्ये तु संकीर्णे धर्मे शिथिलतां गते ॥ १०५ ॥ अभिवर्धति चाधर्मे सत्ये नष्टेऽनृते स्थिते । प्रजासु शीर्यमाणासु धर्मे चाकुलतां गते ॥ १०६ ॥
उस समय वेद लुप्त हो गये थे, वैदिकी प्रक्रिया और यज्ञ भी नष्टप्राय हो गये थे, चारों वर्गों में संकरता आ गयी थी, धर्म शिथिल हो चला था, अधर्म बड़े जोरोंके साथ बढ़ रहा था । सत्य मिटता जा रहा था और सब ओर असत्यका बोलबाला था । प्रजा क्षीण हो रही थी और धर्म पाखण्डसे मिश्रित हो गया था ॥ १०५-१०६ ॥
सहयज्ञक्रिया वेदाः प्रत्यानीता हि तेन वै । चातुर्वर्ण्यमसंकीर्णं कृतं तेन महात्मना ॥ १०७ ॥
ऐसे समयमें भगवान् दत्तात्रेयने बज्ञों और क्रियाओंसहित वेदोंका पुनरुद्धार किया और चारों वर्गों को पृथक्-पृथक् करके उन्हें व्यवस्थित कर दिया ॥ १०७ ॥
तेन हैहयराजस्य कार्तवीर्यस्य धीमतः । वरदेन वरो दत्तो दत्तात्रेयेण धीमता ॥ १०८ ॥
वरदायक एवं ज्ञाननिष्ठ भगवान् दत्तात्रेयने हैहयवंशी बुद्धिमान् राजा कार्तवीर्यको यह वर दिया था- ॥ १०८ ॥
एतद् बाहूद्वयं यत्ते मृधे मम कृतेऽनघ । शतानि दश बाहूनां भविष्यन्ति न संशयः ॥ १०९ ॥
'निष्पाप नरेश ! ये जो तुम्हारी दो भुजाएँ हैं, मेरे वरदानके प्रभावसे युद्धके समय निःसंदेह एक हजार भुजाओंके रूपमें परिणत हो जायेंगी' १०९ ॥
पालयिष्यसि कृत्स्नां च वसुधां वसुधाधिप । दुर्निरीक्ष्योऽरिवृन्दानां धर्मज्ञश्च भविष्यसि ॥ ११० ॥
'पृथ्वीनाथ ! तुम सारी पृथ्वीका पालन करोगे, शत्रुओंके समुदाय तुम्हारी ओर बड़ी कठिनतासे देख सकेंगे तथा तुम धर्मके ज्ञाता होओगे' । ११० ॥
एष ते वैष्णवः श्रीमान्प्रादुर्भावोऽद्भुतः शुभः । कथितो वै महाराज यथाश्रुतमरिंदम । भूयश्च जामदग्न्योऽयं प्रादुर्भावो महात्मनः ॥ १११ ॥
शत्रुओंका दमन करनेवाले महाराज ! मैंने जैसा सुना था, उसके अनुसार तुमसे भगवान् विष्णुके इस अद्भुत, शुभ एवं तेजस्वी अवतारका वर्णन किया है ॥ १११ ॥
यत्र बाहुसहस्रेण विस्मितं दुर्जयं रणे । रामोऽर्जुनमनीकस्थं जघान नृपतिं प्रभुः ॥ ११२ ॥
फिर परमात्मा श्रीहरिका जमदग्निनन्दन परशुरामके रूपमें अवतार हुआ । उस अवतारमें भगवान् परशुरामने सेनाके बीचमें खड़े उस राजा अर्जुनका वध किया था, जो अपनी सहस्र भुजाओंके कारण घमंडमें भरा रहता था और समराङ्गणमें शत्रुओंके लिये दुर्जय बना हुआ था ॥ ११२ ॥
रथस्थं पार्थिवं रामः पातयित्वार्जुनं भुवि । धर्षयित्वा यथाकामं क्रोशमानं च मेघवत् ॥ ११३ ॥ कृत्स्नं बाहुसहस्रं च चिच्छेद भृगुनन्दनः । परश्वघेन दीप्तेन ज्ञातिभिः सहितस्य वै ॥ ११४ ॥
राजा अर्जुन रथपर बैठा था, परंतु भृगुनन्दन परशुरामजीने उसे धरतीपर गिरा दिया और इच्छानुसार छातीपर चढ़कर चमकते हुए फरसेसे उसकी सम्पूर्ण सहस्रों भुजाएँ काट डाली । यद्यपि वह जाति-भाइयों एवं कुटुम्बीजनोंके साथ था तो भी उसकी यह दशा हो गयी । उस समय कार्तवीर्य मेघके समान गम्भीर स्वरमें जोर-जोरसे चीखता-चिल्लाता रहा ॥ ११३-११४ ॥
कीर्णा क्षत्रियकोटीभिर्मेरुमन्दरभूषणा । त्रिःसप्तकृत्वः पॄथिवी तेन निःक्षत्रिया कृता ॥ ११५ ॥
उन्होंने मेरु और मन्दराचलसे विभूषित समस्त पृथ्वीपर करोड़ों क्षत्रियोंकी लाशें बिछा दी तथा इक्कीस बार भूतलको क्षत्रियोंसे शून्य कर दिया ॥ ११५ ॥
कृत्वा निःक्षत्रियां चैव भार्गवः सुमहातपाः । सर्वपापविनाशाय वाजिमेधेन चेष्टवान् ॥ ११६ ॥
पृथ्वीको क्षत्रियहीन करके महातपस्वी भृगुनन्दन परशुरामने अपने सम्पूर्ण पापोंका नाश (प्रायश्चित्त) करनेके लिये अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान किया ॥ ११६ ॥
तस्मिन् यज्ञे महादाने दक्षिणां भृगुनन्दनः । मारीचाय ददौ प्रीतः कश्यपाय वसुंधराम् ॥ ११७ ॥
जिसमें बड़ा भारी दान किया जाता है, उस अश्वमेध यज्ञमें भृगुनन्दन परशुरामने प्रसन्न होकर मरीचिकुमार कश्यपको दक्षिणारूपसे यह सारी पृथ्वी दे दी थी ॥ ११७ ॥
वारुणांस्तुरगाञ्छीघ्रान् रथं च रथिनां वरः । हिरण्यमक्षयं धेनूर्गजेन्द्रांश्च महामनाः । ददौ तस्मिन् महायज्ञे वाजिमेधे महायशाः ॥ ११८ ॥
महायशस्वी, महामनस्वी, रथियोंमें श्रेष्ठ परशुरामने उस अश्वमेध नामक महायज्ञमें वरुणके यहाँसे प्राप्त हुए शीघ्रगामी घोड़े, रथ, अक्षय सुवर्णराशि, धेनु और गजराज भी दानमें दिये थे ॥ ११८ ॥
अद्यापि च हितार्थाय लोकानां भृगुनन्दनः । चरमाणस्तपो दीप्तं जामदग्न्यः पुनः पुनः । तिष्ठते देववद् धीमान् महेन्द्रे पर्वतोत्तमे ॥ ११९ ॥
आज भी समस्त लोकोंके हितके लिये बारम्बार तीव्र तपस्य करते हुए भृगुकुलनन्दन जमदग्निकुमार बुद्धिमान् परशुराम उत्तम महेन्द्रपर्वतपर देवताओंके समान निवास करते हैं ॥ ११९ ॥
एष विष्णोः सुरेशस्य शाश्वतस्याव्ययस्य च । जामदग्न्य इति ख्यातः प्रादुर्भावो महात्मनः ॥ १२० ॥
जनमेजय ! समस्त देवताओंके स्वामी सनातन एवं अविनाशी पुरुष परमात्मा विष्णुके इस परशुराम नामक अवतारका वर्णन किया गया ॥ १२० ॥
चतुर्विंशे युगे चापि विश्वामित्रपुरःसरः । राज्ञो दशरथस्याथ पुत्रः पद्मायतेक्षणः ॥ १२१ ॥
चौबीसवें त्रेतायुगमें भगवान् विष्णु राजा दशरथके पुत्र कमलनयन श्रीरामके रूपमें प्रकट हुए और कुछ कालतक विश्वामित्रके अनुयायी रहे ॥ १२१ ॥
कृत्वाऽऽत्मानं महाबाहुश्चतुर्धा प्रभुरीश्वरः । लोके राम इति ख्यातस्तेजसा भास्करोपमः ॥ १२२ ॥
उस समय सर्वसमर्थ महाबाहु भगवान् अपनेको चार रूपोंमें प्रकट करके स्वयं श्रीराम नामसे विख्यात हुए । वे श्रीराम सूर्यके समान तेजस्वी थे ॥ १२२ ॥
प्रसादनार्थं लोकस्य रक्षसां निधनाय च । धर्मस्य च विवृद्ध्यर्थं जज्ञे तत्र महायशाः ॥ १२३ ॥
महायशस्वी श्रीराम सब लोगोंको प्रसन्न रखने, राक्षसोंको मारने और धर्मकी वृद्धि करनेके लिये उस समय अवतीर्ण हुए थे ॥ १२३ ॥
तमप्याहुर्मनुष्येन्द्रं सर्वभूतपतेस्तनुम् । यस्मै दत्तानि चास्त्राणि विश्वामित्रेण धीमता ॥ १२४ ॥ वधार्थं देवशत्रूणां दुर्धराणि सुरैरपि । यज्ञविघ्नकरो येन मुनीनां भावितात्मनाम् ॥ १२५ ॥ मारीचश्च सुबाहुश्च बलेन बलिनां वरौ । निहतौ च निराशौ च कृतौ तेन महात्मना ॥ १२६ ॥
ज्ञानी पुरुष उन नरेन्द्र श्रीरामको समस्त भूतोंके स्वामी भगवान् विष्णुका अबतार-विग्रह बताते हैं, जिन्हें परम बुद्धिमान् विश्वामित्रजीने देव-द्रोही असुरोंका वध करनेके लिये ऐसे दिव्यास्त्र प्रदान किये थे, जिन्हें धारण करना देवताओंके लिये भी कठिन था । महात्मा श्रीरामने पवित्र अन्तःकरणवाले मुनियोंके यज्ञमें विघ्न डालनेवाले बलवानोंमें श्रेष्ठ मारीच और सुबाहुको अपने बाणोंका निशाना बनाया और उनकी आशा पूर्ण होने नहीं दी ॥ १२४-१२६ ॥
वर्तमाने मखे येन जनकस्य महात्मनः । भग्नं माहेश्वरं चापं क्रीडता लीलया पुरा ॥ १२७ ॥
पूर्वकालमें जब महात्मा राजा जनकके यहाँ यज्ञ हो रहा था, उस समय उन्हीं श्रीरामने खेलसा करते हुए महादेवजीके धनुषको अनायास ही तोड़ डाला था ॥ १२७ ॥
यः समाः सर्वधर्मज्ञश्चतुर्दश वनेऽवसत् । ॥ लक्ष्मणानुचरो रामः सर्वभूतहिते रतः ॥ १२८ ॥
वे सम्पूर्ण धर्मोके ज्ञाता तथा समस्त प्राणियोंके हितमें तत्पर रहनेवाले थे । उन्होंने लक्ष्मणको साथ ले चौदह वर्षांतक वनमें निवास किया ॥ १२८ ॥
रूपिणी यस्य पार्श्वस्था सीतेति प्रथिता जनैः । पूर्वोचिता तस्य लक्ष्मीर्भर्तारमनुगच्छति ॥ १२९ ॥
उस समय उनके साथ मूर्तिमती लक्ष्मी भी थीं, जो लोगोंमें 'सीता' के नामसे प्रसिद्ध थीं । वे उनकी पूर्वोचित पत्नी थीं और पतिके पीछे-पीछे वनमें गयी थीं ॥ १२९ ॥
चतुर्दश तपस्तप्त्वा वने वर्षाणि राघवः । जनस्थाने वसन् कार्यं त्रिदशानां चकार ह ॥ १३० ॥
चौदह वर्षांतक वनमें तपस्या करके जनस्थानमें निवास करते हुए रघुनन्दन श्रीरामने देवताओंका अभीष्ट कार्य सिद्ध किया ॥ १३० ॥
सीतायाः पदमन्विच्छँल्लक्ष्मणानुचरो विभुः । विराधं च कबन्धं च राक्षसौ भीमविक्रमौ । जघान पुरुषव्याघ्रौ गन्धर्वौ शापवीक्षितौ ॥ १३१ ॥
उन भगवान् श्रीरामने (रावणके द्वारा अपहत) सीताका पता लगाते हुए लक्ष्मणके साथ जाकर भयानकपराक्रमी राक्षस विराध और कबन्धको मार डाला । वे दोनों वास्तवमें पुरुषसिंह गन्धर्व थे, किंतु शाप-ग्रस्त होकर राक्षस हो गये थे ॥ १३१ ॥
हुताशनार्केन्दुतडिद्घनाभैः ॥ प्रतप्तजाम्बूनदचित्रपुङ्खैः । महेन्द्रवज्राशनितुल्यसारैः ॥ शरैः शरीरेण वियोजितौ बलात् ॥ १३२ ॥
इन राक्षसोंपर श्रीरामचन्द्रजीने ऐसे बाणोंद्वारा प्रहार किया, जो अनि. सूर्य, चन्द्रमा, बिजली और मेषके समान प्रकाशित होते थे, जिनके विचित्र पछु तपाये हुए जाम्बूनद नामक सुवर्णके बने हुए थे और जो इन्द्रके वन तथा विद्युत्के समान शक्तिशाली थे । उन बाणोंद्वारा उन्होंने बलपूर्वक उन दोनों राक्षसोंको शरीरसे विलग कर दिया ॥ १३२ ॥
सुग्रीवस्य कृते येन वानरेन्द्रो महाबलः । वाली विनिहतो युद्धे सुग्रीवश्चाभिषेचितः ॥ १३३ ॥
श्रीरामने अपने मित्र सुग्रीव (-की भलाई)-के लिये युद्धमें महाबली वानरराज बालीको मार डाला और उसके राज्यपर सुग्रीवका अभिषेक कर दिया ॥ १३३ ॥
देवासुरगणानां हि यक्षगन्धर्वभोगिनाम् । अवध्यं राक्षसेन्द्रं तं रावणं युधि दुर्जयम् ॥ १३४ ॥ युक्तं राक्षसकोटीभिर्नीलाञ्जनचयोपमम् । त्रैलोक्यरावणं घोरं रावणं राक्षसेश्वरम् ॥ १३५ ॥
उन दिनों राक्षसराज रावण देवता, असुर, यक्ष, गन्धर्व और नागोंके लिये अवध्य हो रहा था । युद्धमें वह उन्मत्त होकर लड़ता था । करोड़ों राक्षस उसके सहायक थे । उसका शरीर काले अञ्जनके ढेरके समान था । त्रिलोकीको रुलानेवाला वह भयंकर राक्षसराज रावण दुर्जय और दुर्द्धर्ष था ॥ १३४-१३५ ॥
दुर्जयं दुर्धरं दृप्तं शार्दूलसमविक्रमम् । दुर्निरीक्ष्यं सुरगणैर्वरदानेन दर्पितम् ॥ १३६ ॥ जघान सचिवैः सार्धं ससैन्यं रावणं युधि । महाभ्रघनसंकाशं महाकायं महाबलम् ॥ १३७ ॥
उसका पराक्रम सिंहके समान था । उसका घमंड बहुत बढ़ा हुआ था । वरदानके कारण वह और भी घमंडी हो गया था । देवताओंके लिये उसकी ओर देखना भी कठिन था । उसका शरीर मेघोंकी घटाके समान काला था । भगवान् श्रीरामने उस महाकाय महाबली रावणका युद्धमें मन्त्रियों तथा सेनाओंसहित संहार कर डाला ॥ १३६-१३७ ॥
तमागस्कारिणं घोरं पौलस्त्यं युधि दुर्जयम् । सभ्रातृपुत्रसचिवं ससैन्यं क्रूरनिश्चयम् ॥ १३८ ॥ रावणं निजघानाशु रामो भूतपतिः पुरा । ॥ मधोश्च तनयो दृप्तो लवणो नाम दानवः ॥ १३९ ॥ हतो मधुवने वीरो वरदृप्तो महासुरः । समरे युद्धशौण्डेन तथ चआन्ये.पि राक्षसाः ॥ १४० ॥
पुलस्त्य-पौत्र रावण भयानक अपराधी था, उसका प्रत्येक निश्चय क्रूरतासे पूर्ण होता था; युद्ध में उसपर विजय पाना कठिन था तो भी सम्पूर्ण भूतोंके पालक भगवान् श्रीरामने पूर्वकालमें उसे भाई, पुत्र, मन्त्री और सेनाओंसहित शीघ्रतापूर्वक मार डाला । उन्हीं दिनों मधुवन (मथुरा)-में लवण नामक दानव रहता था, जो मधुका पुत्र था । वह महान् असुर वीर तो था ही, मनोवाञ्छित वर पा जानेके कारण और भी घमंडमें भर गया था । वह श्रीरामके ही स्वरूपभूत शत्रुघ्रके हाथसे मारा गया । युद्धकुशल श्रीराम (तथा उनके भाइयों)ने समराङ्गणमें और भी बहुत-से राक्षसोंका संहार किया ॥ १३८-१४० ॥
एतानि कृत्वा कर्माणि रामो धर्मभृतां वरः । दशाश्वमेधाञ्जारूथ्यानाजहार निरर्गलान् ॥ १४१ ॥
इन सब (पराक्रमपूर्ण) काँका सम्पादन करके धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ श्रीरामने तीनगुनी दक्षिणासे युक्त दस अश्वमेध यज्ञ किये जो बिना किसी विघ्न-बाधाके पूर्ण हो गये ॥ १४१ ॥
नाश्रूयन्ताशुभा वाचो नाकुलं मारुतो ववौ । न वित्तहरणं त्वासीद् रामे राज्यं प्रशासति ॥ १४२ ॥
श्रीरामचन्द्रजी जब राज्यका शासन करते थे, उन दिनों कहीं अशुभ बातें नहीं सुनी जाती थीं, वायु प्रचण्ड वेगसे नहीं चलती थी तथा कोई किसीके धनका अपहरण नहीं करता था ॥ १४२ ॥
पर्यदेवन्न विधवा नानर्थाश्चाभवंस्तदा । सर्वमासीज्जगद् दान्तम् रामे राज्यं प्रशासति ॥ १४३ ॥
श्रीरामके राज्य-शासनकालमें कभी विधवाओंका करुण क्रन्दन नहीं सुना गया । कहीं भी अनर्थपूर्ण घटनाएँ नहीं घटित हुई । सारे जगत्के लोग (मन और इन्द्रियोंका संयम रखकर) विनीत एवं अनुशासित रहते थे ॥ १४३ ॥
न प्राणिनां भयं चापि जलानिलनिघातजम् । न च स्म वृद्धा बालानां प्रेतकार्याणि कुर्वते ॥ १४४ ॥
श्रीरामके राज्यकालमें प्राणियोंको जल और अग्निसे मृत्युका भय कभी नहीं होता था और बूढ़ोंको बालकोंकी प्रेतक्रिया नहीं करनी पड़ती थी ॥ १४४ ॥
ब्रह्म पर्यचरत् क्षत्रं विशः क्षत्रमनुव्रताः । शूद्राश्चैव हि वर्णांस्त्रीञ्छुष्रूषन्त्यनहंकृताः । नार्यो नात्यचरन् भर्तॄन् भार्यां नात्यचरत् पतिः ॥ १४५ ॥
क्षत्रिय ब्राह्मणोंकी परिचर्या करते थे, वैश्य क्षत्रियोंके प्रति श्रद्धा रखते थे और शूद्र अहंकार छोड़कर ब्राह्मण आदि तीनों वर्गों की सेवा करते थे । श्रीरामके राज्यमें स्त्रियाँ अपने पतिको छोड़कर दूसरे किसी पुरुषमें आसक्त नहीं होती थीं और पुरुष भी अपनी पत्नीके सिवा दूसरी किसी स्वीपर आसक्तिपूर्ण दृष्टि नहीं डालते थे ॥ १४५ ॥
सर्वमासीज्जगद् दान्तं निर्दस्युरभवन्मही । राम एकोऽभवद् भर्ता रामः पालयिताभवत् ॥ १४६ ॥
उस समय सारा जगत् जितेन्द्रिय था । पृथ्वीपर डाकुओंका कहीं नाम भी नहीं था । एकमात्र श्रीराम ही सबके स्वामी और संरक्षक थे ॥ १४६ ॥
आयुर्वर्षसहस्राणि तथा पुत्रसहस्रिणः । अरोगाः प्राणिनश्चासन् रामे राज्यं प्रशासति ॥ १४७ ॥
श्रीरामके शासनकालमें मनुष्योंकी आयु हजारों वर्षकी होती थी । वे सहस्रों पुत्रोंके पिता होते थे और किसी भी प्राणीको रोग नहीं सताता था ॥ १४७ ॥
देवतानामृषीणां च मनुष्याणां च सर्वशः । पृथिव्यां समवायोऽभूद् रामे राज्यं प्रशासति ॥ १४८ ॥
भगवान् श्रीराम जब यहाँ राज्यशासन करते थे, उन दिनों इस भूतलपर देवता, ऋषि और मनुष्योंका सब ओर समागम होता रहता था ॥ १४८ ॥
गाथा अप्यत्र गायन्ति ये पुराणविदो जनाः । रामे निबद्धतत्त्वार्था माहात्म्यं तस्य धीमतः ॥ १४९ ॥
श्रीरामके विषयमें वे ही परम तत्त्व हैं' ऐसी दृढ़ आस्था रखनेवाले पुराणवेत्ता पुरुष इस प्रसङ्गमें निम्नाङ्कित गाथाएँ गाया करते हैं, जो उन बुद्धिमान् श्रीरघुनाथजीके माहात्म्यको सूचित करती हैं- ॥ १४९ ॥
श्यामो युवा लोहिताक्षो दीप्तास्यो मितभाषिता । आजानुबाहुः सुमुखः सिंहस्कन्धो महाभुजः ॥ १५० ॥ दश वर्षसहस्राणि दश वर्षशतानि च । अयोध्याधिपतिर्भूत्वा रामो राज्यमकारयत् ॥ १५१ ॥
श्रीरामचन्द्रजीका वर्ण श्याम था, वे सदा तरुण दिखायी देते थे, उनके नेत्र (कुछ-कुछ) लालिमा लिये हुए थे, मुखसे तेज बरसता रहता था, वे बहुत कम बोलते थे, उनकी लम्बी भुजाएँ घुटनोंतक पहुँचती थीं, उनका मुख बड़ा सुन्दर था, कंधे सिंहके-से जान पड़ते थे, महाबाहु श्रीरामने अयोध्याके अधिपति होकर ग्यारह हजार वर्षांतक राज्य किया था ॥ १५०-१५१ ॥
ऋक्सामयजुषां घोषो ज्याघोषश्च महात्मनः । अव्युच्छिन्नोऽभवद् राज्ये दीयतां भुज्यतामिति ॥ १५२ ॥
उनके राज्यमें सदा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेदका घोष सुनायी देता था । धनुषकी प्रत्यश्चा खींचनेसे उसकी टंकार-ध्वनि भी सदा श्रवणगोचर होती रहती थी तथा दान देने और भोजन करानेका उपदेश कभी बंद नहीं होता था ॥ १५२ ॥
सत्त्ववान्गुणसंपन्नो दीप्यमानः स्वतेजसा । अतिचन्द्रं च सूर्यं च रामो दाशरथिर्बभौ ॥ १५३ ॥
दशरथनन्दन श्रीराम सत्त्ववान् और गुणवान् होनेके साथ ही सदा अपने तेजसे देदीप्यमान रहते थे । उनकी सूर्य और चन्द्रमासे भी अधिक शोभा होती थी ॥ १५३ ॥
ईजे क्रतुशतैः पुण्यैः समाप्तवरदक्षिणैः । हित्वायोध्यां दिवं यातो राघवः स महाबलः ॥ १५४ ॥
श्रीरघुनाथजीने पर्याप्त एवं उत्तम दक्षिणाओंसे युक्त सैकड़ों पवित्र यज्ञोंका अनुष्ठान किया था । अन्तमें वे अयोध्याके महान् जन-समुदायको साथ ले अपनी उस पुरीको छोडकर साकेत धामको पधारे' ॥ १५४ ॥
एवमेषा महाबाहुरिक्ष्वाकुकुलनन्दनः । रावणं सगणं हत्वा दिवमाचक्रमे प्रभुः ॥ १५५ ॥
इस प्रकार इक्ष्वाकुकुलका आनन्द बढ़ानेवाले ये महाबाहु भगवान् श्रीराम दलबलसहित रावणका संहार करके अपने परमधामको चले गये ॥ १५५ ॥
वैशंपायन उवाच अपरः केशवस्यायं प्रादुर्भावो महात्मनः । विख्यातो माथुरे कल्पे सर्वलोकहिताय वै ॥ १५६ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-(जनमेजय !) इसके बाद परमात्मा भगवान् केशवका 'श्रीकृष्ण' नामक अवतार माथुर कल्प (मथुरामण्डल) में हुआ, जो सर्वत्र विख्यात है । भगवान्का यह अवतार सम्पूर्ण जगत्के हितके लिये हुआ था ॥ १५६ ॥
यत्र शाल्वं च मैन्दं च द्विविदं कंसमेवच । अरिष्टमृषभं केशिं पूतनां दैत्यदारिकाम् ॥ १५७ ॥ नागं कुवलयापीडं चाणूरं मुष्टिकं तथा । दैत्यान्मानुषदेहस्थान् सूदयामास वीर्यवान् ॥ १५८ ॥
इस अवतारमें परम पराक्रमी हरिने शाल्व, मैन्द, द्विविद, कंस, अरिष्ट, ऋषभ, केशी, दैत्य-कन्या पूतना, कुवलयापीड़ हाथी, चाणूर तथा मुष्टिक आदि मनुष्य शरीरधारी दैत्योंका संहार किया था ॥ १५७-१५८ ॥
छिन्नं बाहुसहस्रं च बाणस्याद्भुतकर्मणः । नरकस्य हतः संख्ये यवनश्च महाबलः ॥ १५९ ॥
इसके अतिरिक्त उन्होंने अद्भुत कर्म करनेवाले बाणासुरकी सहल भुजाएँ काट डाली, युद्ध में नरकासुरका नाश किया और महाबली कालयवनको भस्म करा दिया ॥ १५९ ॥
हृतानि च महीपानां सर्वरत्नानि तेजसा । दुराचाराश्च निहताः पार्थिवाश्च महीतले ॥ १६० ॥
इतना ही नहीं, उन्होंने अपने तेजसे भूमिपालोंके सभी रत्न छीन लिये और भूतलके दुराचारी राजाओंको मौतके घाट उतार दिया ॥ १६० ॥
नवमे द्वापरे विष्णुरष्टाविंशे पुराभवत् । वेदव्यासस्तथा जज्ञे जातूकर्ण्यपुरःसरः ॥ १६१ ॥
(यहाँतक जो सात अवतार बताये गये, उनमें मत्स्य-कच्छप अवतारोंका भी अन्तर्भाव करके उन्हें नौ समझना चाहिये । ) अट्ठाईसवें द्वापरमें भगवान् विष्णुका यह (श्रीकृष्ण नामक) नवम अवतार हुआ था । इससे कुछ पहले ही उनका दसवाँ अवतार भी हो गया था, जो जातूकय॒के साथ प्रकट हुआ था । वह वेदव्यासके नामसे प्रसिद्ध है ॥ १६१ ॥
एको वेदश्चतुर्धा तु कृतस्तेन महात्मना । जनितो भारतो वंशः सत्यवत्याः सुतेन च ॥ १६२ ॥
उन सत्यवतीपुत्र महात्मा व्यासने एक वेदके चार विभाग किये और उन्होंने ही भरतवंशकी लुप्त हुई परम्पराको पुनः प्रचलित किया ॥ १६२ ॥
एते लोकहितार्थाय प्रादुर्भावा महात्मनः । अतीताः कथिता राजन्कथ्यन्ते चाप्यनागताः ॥ १६३ ॥
राजन् ! समस्त जगत्का कल्याण करनेके लिये प्रकट हुए परमात्मा श्रीहरिके जो उक्त (दस) अवतार बीत गये हैं, उनकी चर्चा यहाँ की गयी । अब उनके भविष्यमें होनेवाले अवतार बताये जाते हैं ॥ १६३ ॥
कल्किर्विष्णूयशा नाम शंभलं ग्रामके द्विजः । सर्वलोकहितार्थाय भूयश्चोत्पत्स्यते प्रभुः ॥ १६४ ॥
(भावी अवतारोंमें पहले 'बुद्ध' का प्राकट्य होगा । ) इसके बाद विष्णुयशा नामसे प्रसिद्ध कल्कि अवतार होनेवाला है । भगवान् विष्णु शम्भल नामक ग्राममें सम्पूर्ण जगत्के हितके लिये पुनः एक ब्राह्मणके रूपमें प्रकट होंगे ॥ १६४ ॥
दशमो भाव्यसंपन्नो याज्ञवल्क्यपुरःसरः । क्षपयित्वा च तान् सर्वान् भाविनार्थेन चोदितान् ॥ १६५ ॥ गङ्गायमुनयोर्मध्ये निष्ठां प्राप्स्यति सानुगः । ततः कुले व्यतीते तु सामात्ये सहसैनिके ॥ १६६ ॥ नृपेष्वथ प्रनष्टेषु तदा त्वप्रग्रहाः प्रजाः । रक्षणे विनिवृत्ते च हत्वा चान्योन्यमाहवे ॥ १६७ ॥ परस्परहृतस्वाश्च निराक्रन्दाः सुदुःखिताः । एवं कष्टमनुप्राप्ताः कलिसन्ध्यांशकं तदा ॥ १६८ ॥
पूर्वोक्त दशम अवतारका समय बीत जानेपर याज्ञवल्क्य ऋषिको साथ लेकर प्रकट होनेवाला यह अवतार भावी प्रयोजन (दुष्टोंके संहार और धर्मको संस्थापना)-को सिद्ध करनेकी शक्तिसे सम्पन्न होगा । भगवान् कल्कि भवितव्यतासे प्रेरित होकर अधर्मके पथपर चलनेवाले उन समस्त पापाचारियोंका संहार करके अपने अनुयायियोसहित गङ्गा और यमुनाके मध्यवर्ती देशमें अपने अवतारकार्यको समाप्त करेंगे । तदनन्तर मन्त्री और सैनिकोंसहित राजवंशके विनष्ट हो जानेपर जब कोई शासक नरेश नहीं रह जायगा, तब सारी प्रजा बेलगाम होकर स्वेच्छाचारमें प्रवृत हो जायगी । रक्षाकी राजकीय व्यवस्था समाप्त हो जानेपर लोग (आपसमें लड़ेंगे और) उस युद्ध में एक-दूसरेको मारकर नष्ट हो जायेंगे । आपसमें एक-दूसरेका धन लूटकर असहाय एवं अत्यन्त दुःखी हो जायेंगे । उस समय कलियुगका संध्यांश बीत रहा होगा, उन दिनों इस प्रकार कष्टमें पड़ी हुई सारी प्रजा कलियुगके साथ ही नष्ट हो जायगी-ऐसी बात कही जाती है ॥ १६५-१६८ ॥
प्रजाः क्षयं प्रयास्यन्ति सार्धं कलियुगेन ह । क्षीणे कलियुगे तस्मिंस्ततः कृतयुगं पुनः । प्रपत्स्यते यथान्यायं स्वभावादेव नान्यथा ॥ १६९ ॥
कलियुगके समाप्त हो जानेपर फिर स्वभावसे ही सत्ययुगकी यथोचितरूपसे प्रवृत्ति होगी, दूसरे किसी प्रकारसे नहीं ॥ १६९ ॥
एते चान्ये च बहवो दिव्या देवगुणैर्युताः । प्रादुर्भावाः पुराणेषु गीयन्ते ब्रह्मवादिभिः ॥ १७० ॥
राजन् ! ये तथा और भी भगवान्के बहुत-से दिव्य अवतार हुए हैं, जो देवोचित गुणोंसे सम्पन्न थे । ब्रह्मवादी मुनियोंने पुराणोंमें उनका गान किया है ॥ १७० ॥
यत्र देवापि मुह्यन्ति प्रादुर्भावानुकीर्तने । पुराणं वर्तते यत्र वेदश्रुतिसमाहितम् ॥ १७१ ॥
भगवान्के इन अवतारोंका वर्णन करनेमें देवता भी चकरा जाते हैं-इस विषयमें पुराण ही प्रमाण है, जिसका वैदिक श्रुतियोंद्वारा समर्थन होता है ॥ १७१ ॥
एतदुद्देशमात्रेण प्रादुर्भावानुकीर्तनम् । कीर्तितं कीर्तनीयस्य सर्वलोकगुरोः प्रभोः ॥ १७२ ॥
सम्पूर्ण जगत्के गुरु तथा कीर्तन करनेयोग्य सर्वशक्तिमान् भगवान्के अवतारोंका यह वर्णन संक्षेपसे ही किया गया है ॥ १७२ ॥
प्रीयन्ते पितरस्तस्य प्रादुर्भावानुकीर्तनात् । विष्णोरतुलवीर्यस्य यः शृणोति कृताञ्जलिः ॥ १७३ ॥
अनुपम शक्तिशाली भगवान् विष्णुके अवतारोंकी बारम्बार चर्चा करनेसे पितरोंको प्रसन्नता होती है । जो हाथ जोड़कर आदर-पूर्वक इस अवतार-कथाको सुनता है, उसके पितरोंको भी अक्षय तृप्ति प्राप्त होती है ॥ १७३ ॥
एतास्तु योगेश्वरयोगमायाः श्रुत्वा नरो मुच्यति सर्वपापैः । ऋद्धिं समृद्धिं विपुलांश्च भोगान् प्राप्नोति सर्वं भगवत्प्रसादात् ॥ १७४ ॥
जो मनुष्य योगेश्वर भगवान् श्रीहरिकी योगमाया द्वारा प्रकट हुए अवतारोंकी इन लीला-कथाओंको सुनता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है तथा भगवान्की कृपासे शीघ्र ही उसे ऋद्धि, समृद्धि एवं प्रचुर भोग-सबकी प्राप्ति हो जाती है ॥ १७४ ॥
इति श्रीमन्महाभारते खिलेषु हरिवंशे हरिवंशपर्वणि प्रादुर्भावानुसङ्ग्रहो नामैकचत्वारिंशोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीमहाभारा खिलभाग हरिवंशके अनागत हरिवंशपर्वणे अवतारोंका संग्रह नामक इकतालीसा अध्याय पूरा हुआ ॥ ४१ ॥
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