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श्रीहरिवंशपुराण
हरिवंश पर्व
द्विचत्वारिंशोऽध्यायः


विष्णोरीश्वरत्वकथनम्
भगवान् विष्णुके ईश्वरत्वका वर्णन एवं आश्चर्यतारकामय संग्रामकी कथा


वैशंपायन उवाच
विश्वत्वं शृणु मे विष्णोर्हरित्वं च कृते युगे ।
वैकुण्ठत्वं च देवेषु कृष्णत्वं मानुषेषु च ॥ १ ॥
ईश्वरत्वं च तस्येदं गहनां कर्मणां गतिम् ।
संप्रत्यतीतां भाव्यां च शृणु राजन्यथातथम् ॥ २ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-राजन् ! अब तुम मुझसे सत्ययुगमें विष्णुके विश्वत्वको (उनके अभयदायक आश्वासक रूपको), हरित्वको (पापहारी रूपको), देवताओंमें भगवान्के वैकुण्ठत्वको (सर्वसमर्थताको) और पुरुषोंमें उनके श्रीकृष्णत्वको (सच्चिदानन्दताको) तथा उनके ईश्वरत्वको (दण्ड देने और कृपा करनेकी सामर्थ्यको) और उनके भूत, भविष्य एवं वर्तमान कर्मों (लीलाओं)-की गहन गति (दुर्बोधस्वरूप)-को यथार्थरूपसे सुनो ॥ १-२ ॥

अव्यक्तो व्यक्तलिङ्‌गस्थो यत्रैव भगवान्प्रभुः ।
नारायणो ह्यनन्तात्मा प्रभवोऽव्यय एव च ॥ ३ ॥
वे सर्वशक्तिमान् प्रभु अव्यक्त होनेपर भी (अवतार-विग्रह धारण करते समय) अपनी मूर्तिको प्रकट किये रहते हैं, वे नारायण, अनन्तस्वरूप, सबके उत्पत्तिस्थान और अव्यय (अविनाशी) हैं ॥ ३ ॥

एष नारायणो भूत्वा हरिरासीत्कृते युगे ।
ब्रह्मा शक्रश्च सोमश्च धर्मः शुक्रो बृहस्पतिः ॥ ४ ॥
सत्ययुगमें ये नारायणरूप होकर हरि-मोक्षदायक बने और ये ही ब्रह्मा, इन्द्र, चन्द्रमा, धर्म, शुक्र और बृहस्पतिके रूपोंमें प्रकट हुए ॥ ४ ॥

अदितेरपि पुत्रत्वमेत्य यादवनन्दनः ।
एष विष्णुरिति ख्यात इन्द्रादवरजोऽभवत् ॥ ५ ॥
इसके अनन्तर ये यादवनन्दन (श्रीकृष्णरूपसे अवतार लेनेवाले भगवान्) हो विष्णुके नामसे अदितिके पुत्र बनकर उत्पन्न हुए । उस जन्ममें ये इन्द्रके छोटे भाई बने थे ॥ ५ ॥

प्रसादजं ह्यस्य विभोरदित्याः पुत्रजन्म तत् ।
वधार्थं सुरशत्रूणां दैत्यदानवरक्षसाम् ॥ ६ ॥
देवताओंके शत्रु दैत्य, दानव और राक्षसोंका संहार करनेके लिये भगवान् विष्णु अदितिके यहाँ पुत्र बनकर उत्पन्न हुए । यह उन विभुका प्रसाद (वरदान)-रूप जन्म था ॥ ६ ॥

प्रधानात्मा पुरा ह्येष ब्रह्माणमसृजत्प्रभुः ।
सोऽसॄजत् पूर्वपुरुषः पुरा कल्पे प्रजापतीन् ॥ ७ ॥
सृष्टिके आदिमें इन प्रधानात्मा-प्रकृतिके संचालक प्रभुने हो ब्रह्माको उत्पन्न किया और इन्हीं पुराण-पुरुषने पूर्वकल्पमें (मरीचि आदि) प्रजापतियोंकी सृष्टि की ॥ ७ ॥

ते तन्वानास्तनूस्तत्र ब्रह्मवंशाननुत्तमान् ।
तेभ्योऽभवन्महात्मभ्यो बहुधा ब्रह्म शाश्वतम् ॥ ८ ॥
उन प्रजापतियोंने (कश्यप आदिके रूपसे) अपने स्वरूपका विस्तार करके श्रेष्ठ ब्रह्मवंशों (गोत्रों)- को उत्पन्न किया और उन महात्माओंसे सनातन वेद अनेक शाखाओंमें विभक्त हो गया ॥ ८ ॥

एतदाश्चर्यभूतस्य विष्णोर्नामानुकीर्तनम् ।
कीर्तनीयस्य लोकेषु कीर्त्यमानं निबोध मे ॥ ९ ॥
लोकोंमें कीर्तनीय आश्चर्यमय विष्णुके इस (वेदरूप) नामकीर्तनका उल्लेख मेरे द्वारा किया जा रहा है, तुम इसे सुनो ॥ ९ ॥

वृत्ते वृत्रवधे तात वर्तमाने कृते युगे ।
आसीत् त्रैलोक्यविख्यातः संग्रामस्तारकामयः ॥ १० ॥
तात ! वर्तमान सत्ययुगमें वृत्रासुरका वध हो चुकनेपर त्रिलोकीमें प्रसिद्ध तारकामय संग्राम हुआ ॥ १० ॥

तत्रासन् दानवा घोराः सर्वे संग्रामदर्पिताः ।
घ्नन्ति देवगणान् सर्वान् सयक्षोरगराक्षसान् ॥ ११ ॥
उस समय सब-के-सब दानव संग्राममें दर्पभरे एवं भयंकर दिखायी देते थे । उन्होंने यक्ष, राक्षस और साँसहित समस्त देवताओंको मारना आरम्भ कर दिया था ॥ ११ ॥

ते वध्यमाना विमुखाः क्षीणप्रहरणा रणे ।
त्रातारं मनसा जग्मुर्देवं नारायणं हरिम् ॥ १२ ॥
मार खाते-खाते जब उनके आयुध क्षीण हो गये, तब वे रणसे विमुख हो गये और सबकी रक्षा करनेवाले नारायणदेव श्रीहरिके ही मनसे शरण हो गये ॥ १२ ॥

एतस्मिन्नन्तरे मेघा निर्वाणाङ्‌गारवर्षिणः ।
सार्कचन्द्रग्रहगणं छादयन्तो नभस्तलम् ॥ १३ ॥
इसी बीचमें मेघ तपे हुए लोहेके समान ज्वालारहित अंगारे बरसाने लगे । वे सूर्य, चन्द्रमा आदि ग्रहोंसहित आकाशको ढकते हुए दिखायी देते थे ॥ १३ ॥

चञ्चद्विद्युद् गणाविद्धा घोरा निह्रादकारिणः । ॥
अन्योन्यवेगाभिहताः प्रववुः सप्त माRउताः ॥ १४ ॥
कौंधती हुई बिजलियोंसे व्यास हो वे भयंकर बादल बड़े जोरसे गर्जने और परस्पर वेगसे टकराने लगे; क्योंकि उस समय प्रवह आदि सात प्रकारकी हवाएँ चल रही थीं ॥ १४ ॥

दीप्ततोयाशनीपातैर्वज्रवेगानिलाकुलैः ।
ररास घोरैरुत्पातैर्दह्यमानमिवांबरम् ॥ १५ ॥
बिजली और तपे हुए जलके गिरने तथा वजके समान वेगवाली वायुके चलने आदि भयंकर उत्पातोंसे जलता हुआ-सा आकाश मानो कराहने लगा ॥ १५ ॥

पेतुरुल्कासहस्राणि मुहुराकाशगान्यपि ।
न्युब्जानि च विमानानि प्रपतन्त्युत्पतन्ति च ॥ १६ ॥
उस समय हजारों उल्काएँ गिरती और फिर आकाशमें पहुँच जाती थी तथा विमान नीचेको मुख करके गिरते और फिर उलटे ही उड़ जाते थे ॥ १६ ॥

चतुर्युगान्तपर्याये लोकानां यद् भयं भवेत् ।
तादृशान्येव रूपाणि तस्मिन्नुत्पातलक्षणे ॥ १७ ॥
हजार चतुर्युगोंके अन्तमें होनेवाले प्रलयके समय लोकोंको जो भय प्राप्त होता है, इस उत्पातके समय भी वैसे ही चिह्न दीखने लगे ॥ १७ ॥

तमसा निष्प्रभं सर्वं न प्राज्ञायत किञ्चन । ॥
तिमिरौघपरिक्षिप्ता न रेजुश्च दिशो दश ॥ १८ ॥
सारा संसार अन्धकारसे व्यास हो जानेके कारण प्रभाहीन प्रतीत होने लगा कुछ भी सूझता न था । अन्धकारसमूहसे आच्छादित हुई दसों दिशाएँ ज्ञात ही नहीं होती थीं ॥ १८ ॥

निशेव रूपिणी काली कालमेघावगुण्ठिता ।
द्यौर्न भात्यभिभूतार्का घोरेण तमसा वृता ॥ १९ ॥
जैसे काले मेघोंके घिर आनेपर अमावास्याकी रात्रि मूर्तिमती-सी दीख पड़ती है, वैसे ही अन्धकारसे सूर्यके तिरोहित होनेपर घोर अन्धकारसे भरा हुआ आकाश शोभायमान नहीं लगता था ॥ १९ ॥

तान् घनौघान् सतिमिरान् दोर्भ्यामुत्क्षिप्य स प्रभुः ।
वपुः संदर्शयामास दिव्यं कृष्णवपुर्हरिः ॥ २० ॥
उस समय श्यामवर्ण भगवान् श्रीहरिने अपनी दोनों भुजाओंद्वारा अन्धकारसे व्याप्त उन मेघसमूहोंको ऊपरकी और ठेलकर अपने दिव्य स्वरूपका साक्षात्कार कराया ॥ २० ॥

बलाहकाञ्जननिभं बलाहकतनूरुहम् ।
तेजसा वपुषा चैव कृष्णं कृष्णमिवाचलम् ॥ २१ ॥
दीप्तपीतांबरधरं तप्तकाञ्चनभूषणम् ।
धूमान्धकारवपुषा युगान्ताग्निमिवोत्थितम् ॥ २२ ॥
भगवान्के श्रीविग्रहका वर्ण मेघ और अञ्जनके समान था । उनके केश भी मेघके समान (काले) थे । उनका शरीर तो काले पर्वतके समान कृष्णवर्ण था ही, उससे तेज भी कृष्णवर्ण निकल रहा था । वे चमकता हुआ पीताम्बर धारण किये हुए थे और तपे हुए सुवर्णके आभूषण पहने थे । उस समय वे ऐसे लगते थे, जैसे धूमके समान अन्धकारमय शरीरसे आवेष्टित होकर प्रलयकालकी अग्नि प्रकट हुई हो ॥ २१-२२ ॥

चतुर्द्विगुणपीनांसं बलाकापङ्‌क्तिभूषणम् ।
चामीकरकराकारैरायुधैरुपशोभितम् ॥ २३ ॥
चन्द्रार्ककिरणोद्‌द्योतं गिरिकूटं शिलोच्चयम् ।
नन्दकानन्दितकरं शराशीविषधारिणम् ॥ २४ ॥
शक्तिचित्रं हलोदग्रं शङ्धृखचक्रगदाधरम् ।
विष्णुशैलं क्षमामूलं श्रीवृक्षं शार्ङ्‌गधन्विनम् ॥ २५ ॥
हर्यश्वरथसंयुक्ते सुपर्णध्वजशोभिते ।
चन्द्रार्कचक्ररुचिरे मन्दराक्षतान्तरे ॥ २६ ॥
अनन्तरश्मिसंयुक्ते ददृशे मेरुकूबरे ।
तारकाचित्रकुसुमे ग्रहनक्षत्रबन्धुरे ॥ २७ ॥
भयेष्वभयदं व्योम्नि देवा दैत्यपराजिताः ।
ददृशुस्ते स्थितं देवं दिव्यलोकमये रथे ॥ २८ ॥
वे (अष्टभुज होनेके कारण) आठ मांसल बाहुमूलोंसे सुशोभित थे । चमकते हुए आभूषणोंसे युक्त उनका श्रीविग्रह ऐसी शोभा देता था, जैसे बगुलोंकी पंक्तिसे विभूषित मेघ हो । वे सुवर्णकी बनी मूठवाले आयुधोंसे सुशोभित तथा चन्द्रमा और सूर्यको किरणोंसे दमकते हुए पर्वतके समान अचल थे । कटिप्रदेशमें मैनसिलके समान पीले रंगका नारा बाँधे हुए थे । उनका एक हाथ नन्दक नामके खड्गसे सुशोभित था, वे दूसरे हाथमें सर्पाकार (लहरदार) बाण धारण किये हुए थे । शक्तिसे उनकी विचित्र शोभा हो रही थी । तीसरे हाथमें हल लिये रहनेके कारण वे बहुत ऊँचे दिखायी दे रहे थे । अन्य तीन हाथोंमें उन्होंने शङ्ख, चक्र और गदा धारण कर रखी थी । एक हाथमें उनके शाई (सींगका बना) धनुष था । भगवान् विष्णु एक पर्वतके समान दीख रहे थे । उनके अङ्गोंमें जो श्री हैं, वे ही वृक्ष-स्थानीय थीं । जैसे पर्वतका मूलभाग क्षमा (पृथ्वी)-पर प्रतिष्ठित है, उसी तरह श्रीहरिकी प्रासिका मूल क्षमाभाव है । भयके अवसरोंपर अभयदान देनेवाले पर्वतके समान अटल भगवान् विष्णुको दैत्योंसे हारे हुए देवताओंने आकाशके बीच दिव्यलोकमय रथम बैठे देखा । उस रथमें हरे रंगके घोड़े जुते हुए थे । वह गरुड़की ध्वजासे शोभित था । सूर्य और चन्द्रमारूपी पहियोंसे वह सुन्दर दिखायी देता था । उसके भीतरी भागको मन्दराचलरूपी धुरेने धारण कर रखा था । भगवान् शेष ही उसमें रश्मि (लगाम) बने हुए थे । मेरु पर्वत उसका कूबर (आगेका भाग) था । तारे ही उसमें रंग-बिरंगे फूलोंके रूपमें सजे थे तथा ग्रह-नक्षत्र उसमें डोरीके रूपमें लगे थे ॥ २३-२८ ॥

ते कृताञ्जलयः सर्वे देवाः शक्रपुरोगमाः ।
जयशब्दं पुरस्कृत्य शरण्यं शरणं गताः ॥ २९ ॥
उस समय इन्द्र आदि समस्त देवताओंने जय-जय शब्दका उच्चारण किया और हाथ जोड़कर शरण देनेवाले विष्णुभगवान्की शरण ग्रहण की ॥ २९ ॥

स तेषां ता गिरः श्रुत्वा विष्णुर्दयितदेवतः ।
मनश्चक्रे विनाश्य दानवानां महामृधे ॥ ३० ॥
विष्णुको देवता प्रिय हैं, अतएव उन्होंने देवताओंकी उस वाणीको सुनकर महायुद्धमें दानवोंके नाश करनेका अपने मनमें विचार किया ॥ ३० ॥

आकाशे तु स्थितो विष्णुः सोत्तमे पुरुषोत्तमः ।
उवाच देवताः सर्वाः सप्रतिज्ञमिदं वचः ॥ ३१ ॥
उत्तम आकाशमें विराजमान उन पुरुषोत्तम भगवान् विष्णुने सब देवताओंसे प्रतिज्ञापूर्वक यह बात कही- ॥ ३१ ॥

शान्तिं भजत भद्रं वो मा भैष्टा मरुतां गणाः ।
जिता मे दानवाः सर्वे त्राइलोक्यां प्रतिगृह्यताम् ॥ ३२ ॥
'देवताओ ! तुम्हारा कल्याण हो ! अब तुम शान्त हो जाओ, डरो मत । मेरे द्वारा सारे दानव जीत लिये गये-यों समझना चाहिये । (अब) तुम त्रिलोकीका राज्य अपना ही मानो और उसपर अधिकार करो' ॥ ३२ ॥

ते तस्य सत्यसंधस्य विष्णोर्वाक्येन तोषिताः ।
देवाः प्रीतिं परां जग्मुः प्राप्येवामृतमुत्थितम् ॥ ३३ ॥
सत्यप्रतिज्ञ भगवान् विष्णुके बाक्यसे आश्वासित हो देवता अत्यधिक प्रसन्न हुए, मानो उनको क्षीरसागरसे प्रकट हुआ अमृत मिल गया ॥ ३३ ॥

ततस्तमः संह्रियते विनेशुश्च बलाहकाः ।
प्रववुश्च शिवा वाताः प्रासन्नाश्च दिशो दश ॥ ३४ ॥
उस समय अन्धकार दूर हो गया, मेघ विलीन हो गये, सुखदायक वायु चलने लगी और दसों दिशाएँ निर्मल हो गयीं ॥ ३४ ॥

सुप्रभाणि च ज्योतींषि चन्द्रं चक्रुः प्रदक्षिणम् ।
दीप्तिमन्ति च तेजांसि चक्रुरर्कं प्रदक्षिणम् ॥ ३५ ॥
सुन्दर प्रभावाले नक्षत्र चन्द्रमाकी और प्रकाशमान ग्रह सूर्यको प्रदक्षिणा करने लगे ॥ ३५ ॥

न विग्रहं ग्रहाश्चक्रुः प्रसन्नास्चापि सिन्धवः ।
नीरजस्का बभुर्मार्गा नाकमार्गादयस्त्रयः ॥ ३६ ॥
ग्रहोंने आपसमें टकराना छोड़ दिया, नदियोंका जल निर्मल हो गया तथा देवयान, पितृयान और मोक्षमार्ग नामक तीनों मार्ग भी रज (धूल या रजोगुण) से रहित हो गये ॥ ३६ ॥

यथार्थामूहुः सरितो नापि चुक्षुभिरेऽर्णवाः ।
आसञ्छुभानीन्द्रियाणि नराणामन्तरात्मसु ॥ ३७ ॥
नदियाँ ठीक ढंगसे बहने लगी, समुद्रोंका क्षुब्ध होना बंद हो गया, मनुष्योंके मनोंमें इन्द्रियोंको शुभ कामोंमें लगानेकी इच्छा होने लगी ॥ ३७ ॥

महर्षयो वीतशोका वेदानुच्चैरधीयते ।
यज्ञेषु च हविः स्वादु शिवमश्नाति पावकः ॥ ३८ ॥
महर्षि शोकरहित होकर उच्चस्वरसे वेदध्वनि करने लगे, अग्निदेव भी यज्ञोंमें पवित्र और स्वादु हविका भक्षण करने लगे ॥ ३८ ॥

प्रवृत्तधर्माः संवृत्ता लोका मुदितमानसाः ।
प्रीत्या परमया युक्ता देवदेवस्य भूपतेः ।
विष्णोः सत्यप्रतिज्ञस्य श्रुत्वारिनिधने गिरम् ॥ ३९ ॥
पृथ्वीनाथ ! सच्ची प्रतिज्ञा करनेवाले देवपूज्य भगवान् विष्णुके द्वारा की गयी शत्रुनाशकी प्रतिज्ञा सुनकर प्राणी अपने मनमें प्रसन्न होकर परम प्रीतिसे यज्ञ आदि धर्मानुष्ठानमें प्रवृत्त हो गये ॥ ३९ ॥

इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे हरिवंशपर्वणि
विष्णोरीश्वरत्वकथनं नामैद्वित्वारिंशोऽध्यायः ॥
इस प्रकार श्रीमहाभारत खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें आचार्यतारकामम संग्रामविषयक बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ४२ ॥




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