Menus in CSS Css3Menu.com



श्रीहरिवंशपुराण
हरिवंश पर्व
त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः


दैत्यसेनावर्णनम्
देवताओंके साथ युद्धके लिये उद्यत हुई दैत्यसेनाका वर्णन


वैशंपायन उवाच
ततो भयं विष्णुमयं श्रुत्वा दैतेयदानवाः ।
उद्योगं विपुलं चक्रुर्युद्धाय युधि दुर्जयाः ॥ १ ॥
मयस्तु काञ्चनमयं त्रिनल्वान्तरमव्ययम् ।
चतुश्चक्रं विक्रमन्तं सुकल्पितमहायुधम् ॥ २ ॥
किंकिणीजालनिर्घोषं द्वीपिचर्मपरिष्कृतम् ।
खचितं रत्नजालैश्च हेमजालैश्च भूषितम् ॥ ३ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! तदनन्तर मुख्यतः भगवान् विष्णुकी ओरसे भय प्राप्त हुआ है, यह सुनकर रण-दुर्जय दैत्यों और दानवोंने युद्धके लिये बड़ा भारी उद्योग किया । मयासुर एक सुवर्णमय रथपर आरूढ़ हुआ, जिसका विस्तार बारह सौ हाथका था । उसमें चार पहिये लगे थे । वह रथ टूटने या बिगड़नेवाला नहीं था । कैसी ही विषम भूमि क्यों न हो, उसमें वह आगे बढ़ जाता था । उस रथमें बड़े-बड़े आयुध सुन्दर ढंगसे सजाकर रखे गये थे । उसमें छोटी-छोटी घंटियोंसे युक्त झालरें लगी थीं, जिनसे मधुर ध्वनिका विस्तार होता रहता था । रथके ऊपरी भागमें उसकी रक्षाके लिये चीतेकी खाल मढ़ी गयी थी । उस रथमें भाँति-भाँतके रत्न जड़े गये थे तथा सोनेकी जालियाँ उसकी शोभा बढ़ा रही थीं ॥ १-३ ॥

स्वक्षं रथवरोदग्रं सूपस्थानमगोपमम् ।
ईहामृगगणाकीर्णं पक्षिभिश्च विराजितम् ।
दिव्यास्त्रतूणीरधरं पयोधरनिनादितम् ॥ ४ ॥
गदापरिघसंपूर्णं मूर्तिमन्तमिवार्णवम् ।
हेमकेयूरवलयं स्वर्णमण्डलकूबरम् ॥ ५ ॥
सपताकध्वजोदग्रं सादित्यमिव मन्दरम् ।
गजेन्द्राम्भोदसदृशं लम्बकेसरवर्चसम् ॥ ६ ॥
युक्तमृक्षसहस्रेण सहस्राम्बुदनादितम् ।
दीप्तमाकाशगं दिव्यं रथं पररथारुजम् ॥ ७ ॥
अध्यतिष्ठद् रणाकाङ्‌क्षी मेरुं दीप्तमिवांशुमान् ।
तारस्तु क्रोशविस्तारमायसं वायसध्वजम् ॥ ८ ॥
शैलोत्करसमाकीर्णं नीलाञ्जनचयोपमम् ।
काललोहाष्टचरणं लोहेषायुगकूबरम् ।
तिमिराङ्‌गारकिरणं गर्जन्तमिव तोयदम् ॥ ९ ॥
लोहजालेन महता सगवाक्षेण दंशितम् ।
आयसैः परिघैः कीर्णं क्षेपणीयैस्तथाश्मभिः ॥ १० ॥
प्रासैः पाशैश्च विततैरवसक्तैश्च मुद्गरैः ।
शोभितं त्रासनीयैश्च तोमरैः सपरश्वधैः ॥ ११ ॥
उद्यन्तं द्विषतां हेतोर्द्वितीयमिव मन्दरम् । ॥
युक्तं खरसहस्रेण सोऽध्यारोहद्‌रथोत्तमम् ॥ १२ ॥
उसका धुरा बहुत अच्छा था । वह रथ अच्छी श्रेणीके रथोंमें भी सबसे अच्छा था । उसकी बैठक बड़ी सुन्दर थी । वह देखने में पर्वत-जैसा जान पड़ता था । उसमें जीव-जन्तुओंके चित्र अङ्कित थे । भाँतिभौतिके पक्षियोंके चित्र भी उसकी शोभा बढ़ा रहे थे । उसके भीतर दिव्यास्त्र और तरकस रखे गये थे । उस रथसे मेघगर्जनाके समान गम्भीर धर्धर-शब्द होता रहता था । गदाओं और परिघोंसे परिपूर्ण वह विशाल रथ मूर्तिमान् समुद्र-सा जान पड़ता था । उस रथमें जहाँजहाँ संधिस्थलोंको बाँधे रखनेके लिये पट्टियाँ लगी थीं, वहाँ-वहाँ वे पट्टिकाएँ सुवर्णनिर्मित केयूर और वलयके सदृश शोभा पाती थीं । उसका कूबर सोनेका मण्डल-सा जान पड़ता था । ध्वजा-पताकाओंसे सुशोभित वह ऊँचा रथ सूर्यमण्डलसे विभासित मन्दराचल-सा जान पड़ता था । दूरसे देखनेपर उसका रंग बड़े-बड़े गजराजों, मेघोंको घटाओं तथा भालुओंके समान जान पड़ता था । उसमें एक हजार रीछ जुते हुए थे । उसकी घरघराहट सहस्रों मेघोंकी गर्जनाको तिरस्कृत किये देती थी । वह दीतिमान् दिव्य रथ आकाशमें भी चल सकता था और शत्रु-पक्षके रथोंको तोड़-फोड़ डालनेमें समर्थ था । युद्धकी आकाङ्क्षा रखनेवाला मयासुर उस स्थपर सवार हुआ मानो अंशुमाली सूर्य दीप्तिमान् मेरु पर्वतपर आरूढ़ हुए हों । तार नामक दैत्व लोहेके बने हुए उत्तम रथपर आरूढ़ हुआ, जिसका विस्तार एक कोसका था; उसके ऊपर कौएके चिह्नसे सुशोभित ध्वजा फहरा रही थी । उसके भीतर शिलाखण्डोंके समूह भरे हुए थे । वह नीली कजलराशिके समान प्रतीत होता था । उसमें काले लोहेके आठ पहिये लगे थे । उसके ईषादण्ड (हरसे या बम), जुआ और कूबर भी लोहेके ही बने हुए थे । उसकी कान्ति काले कोयलेके समान काली थी, वह अपनी घरघराहटसे गरजता हुआ मेघ-सा जान पड़ता था । उसके ऊपर लोहेकी बहुत बड़ी जाली लगी हुई थी, जिसमें झरोखे शोभा पाते थे । वह रथ लोहेके परिधों तथा फेंकने योग्य पत्थरोंके गोलोंसे भरा था । बहुत-से भाले, विस्तृत पाश, बहुसंख्यक लटकते हुए मुद्र, डरावने तोमर और फरसे उसकी शोभा बढ़ाते थे । वह शत्रुओंके लिये दूसरे मन्दराचलकी भाँति उदित हुआ था, उस श्रेष्ठ रथमें एक हजार गधे जुते हुए थे ॥ ४-१२ ॥

विरोचनस्तु संक्रुद्धो गदापाणिरवस्थितः ।
प्रमुखे तस्य सैन्यस्य दीप्तशृङ्‌ग इवाचलः ॥ १३ ॥
क्रोधमें भरा हुआ विरोचन नामक दैत्य हाथमें गदा लिये उस सेनाके मुहानेपर खड़ा हो गया । वह देखनेमें ऐसा जान पड़ता था, मानो कान्तिमान् शिखरसे युक्त कोई पर्वत खड़ा हो ॥ १३ ॥

युक्तं हयसहस्रेण हयग्रीवस्तु दानवः ।
स्यन्दनं वाहयामास सपत्नानीकमर्दनः ॥ १४ ॥
दानव हयग्रीव शत्रुओंकी सेनाको कुचल डालने में समर्थ था । उसने एक हजार घोड़ोंसे जुते हुए रथको अपना वाहन बनाया ॥ १४ ॥

व्यायतं बहुसाहस्रं धनुर्विस्फारयन् महत् ।
वराहः प्रमुखे तस्थौ सावरोह इवाचलः ॥ १५ ॥
वराह नामक दानव कई हजार हाथ लम्बा विशाल धनुष टंकारता हुआ दैत्य-सेनाके अग्रभागमें खड़ा हो गया, उस समय वह बरोहों (जटाओं)-से युक्त बरगदके समान प्रतीत होता था ॥ १५ ॥

खरस्तु विक्षरन् दर्पान्नेत्राभ्यां रोषजं जलम् ।
स्फुरद्दन्तौष्ठवदनः संग्राअमं सोऽभ्यकाङ्‌क्षत ॥ १६ ॥
खर नामक दैत्य अपने नेत्रोंसे रोषजनित आँसू बहाता हुआ बड़े दर्पके साथ आया और युद्धकी इच्छासे डट गया, उस समय उसके दाँत, ओठ और मुख क्रोधसे कड़क रहे थे ॥ १६ ॥

त्वष्टा त्वष्टादशहयं यानमास्थाय दानवः ।
व्यूहितो दानवैर्व्यूहैः परिचक्राम वीर्यवान् ॥ १७ ॥
त्वष्टा नामक बलशाली दानव अठारह घोड़ोंसे जुते हुए स्थपर सवार होकर आया और व्यूहमें खड़े हुए दानवोंके साथ स्वयं भी व्यूहका एक अङ्ग बनकर सब ओर घूमने लगा ॥ १७ ॥

विप्रचित्तिसुतः श्वेतः श्वेतकुण्डलभूषणः ।
श्वेतशैलप्रतीकाशो युद्धायाभिमुखः स्थितः ॥ १८ ॥
विप्रचित्तिका पुत्र घेत सफेद कुण्डलोंसे विभूषित हो युद्धके लिये सामने आकर डट गया, वह श्वेतपर्वतके समान दिखायी देता था ॥ १८ ॥

अरिष्टो बलिपुत्रस्तु वरिष्ठोऽद्रिशिलायुधैः ।
युद्धायातिष्ठदायस्तो धराधर इवापरः ॥ १९ ॥
बलिका ज्येष्ठ पुत्र अरिष्ट पर्वतीय शिलाखण्डोंको आयुधके रूपमें धारण किये शत्रुओंका सामना करनेके लिये खड़ा हुआ, उसने युद्धकी कलामें विशेष परिश्रम किया था । वह दूसरे पर्वतके समान प्रतीत होता था ॥ १९ ॥

किशोरस्त्वतिसंहर्षात् किशोर इव चोदितः ।
अभवद् दैत्यसैन्यस्य मध्ये रविरिवोदितः ॥ २० ॥
किशोर नामक दैत्य चाबुकसे हाँके गये बछेड़ेके समान बड़े हर्ष और उत्साहके साथ आकर दैत्यसेनाके मध्यभागमें खड़ा हो गया । वह नवोदित सूर्यके समान शोभा पा रहा था ॥ २० ॥

लम्बस्तु लम्बमेघाभः प्रलम्बाम्बरभूषणः ।
दैत्यव्यूहगतो भाति सनीहार इवांशुमान् ॥ २१ ॥
लम्ब नामक दानव बरसनेके लिये झुके हुए मेघोंकी काली घटाके समान काला दिखायी देता था, उसके वस्त्र और आभूषण बड़े बड़े थे । दैत्य-सेनाके व्यूहमें खड़ा होकर वह कुहासेसे ढके हुए सूर्यके समान सुशोभित होता था ॥ २१ ॥

स्वर्भानुर्वक्रयोधी च दशनौष्ठेक्षणायुधः ।
हसंस्तिष्ठति दैत्यानां प्रमुखे स महाग्रहः ॥ २२ ॥
मुखसे युद्ध करनेवाला राहु नामक महान् ग्रह हंसता हुआ आकर दैत्य-सेनाके मुहानेपर डट गया । वह अपने दाँतों, नेत्रों और ओठोंसे भी आयुधका काम लेता था ॥ २२ ॥

अन्ये हयगता भान्ति नागस्कन्धगताः परे ।
सिंहव्याघ्रगताश्चान्ये वराहर्क्षगताः परे ॥ २३ ॥
कुछ दानव घोड़ोंपर सवार दिखायी देते थे और कुछ गजराजोंकी पीठपर । दूसरे बहुत-से दैत्य सिंह, व्याघ्र, सूअर और रीछोपर चढ़े हुए थे ॥ २३ ॥

केचित्खरोष्ट्रयातारः केचित्तोयदवाहनाः ।
नानापक्षिगताश्चान्ये केचित् पवनवाहनाः ॥ २४ ॥
कोई गधों और कैंटोंपर चढ़कर जा रहे थे, तो कोई बादलोंको ही अपना वाहन बनाये हुए थे । दूसरे दैत्य नाना प्रकारके पक्षियोंपर बैठे थे और कितने ही दानव वायुके सहारे ही उड़ रहे थे ॥ २४ ॥

पत्तयश्चापरे दैत्या भीषणा विकृताननाः ।
एकपादा द्विपादाश्च नर्दन्तो युद्धकाङ्‌क्षिणः ॥ २५ ॥
दूसरे विकराल मुखवाले भीषण दैत्य पैदल ही चल रहे थे । किन्हींके एक पैर थे तो किन्हींके दो पैर, वे सभी युद्धको अभिलाषासे गरज रहे थे ॥ २५ ॥

प्रक्ष्वेडमाना बहवः स्फोटयन्तश्च ते भुजान् । ॥
दृप्तशार्दूलनिर्घोषा नेदुर्दानवपुङ्‌गवाः ॥ २६ ॥
बहुत से दानवराज उछलते-कूदते और ताल ठोंकते हुए बलोन्मत्त सिंहोंके समान दहाड़ रहे थे ॥ २६ ॥

ते गदापरिघैरुग्रैर्धनुर्व्यायामशालिनः ।
बाहुभिः परिघाकारैस्तर्जयन्ति स्म देवताः ॥ २७ ॥
धनुष खींचनेके परिश्रमसे सुशोभित होनेवाले वे दैत्य अपनी गदाओं, भयंकर परिधों तथा परिष-जैसी मोटी एवं बलिष्ठ भुजाओंद्वारा देवताओंको डाँट बता रहे थे ॥ २७ ॥

प्रासैः पाशैश्च खड्गैश्च तोमराङ्‌कुशपट्टिशैः ।
चिक्रीडुस्ते शतघ्नीभिः शतधारैश्च मुद्गरैः ॥ २८ ॥
वे भालों, पाशों, खड्गों, तोमरों, अंकुशों, पट्टिशों, शतभ्रियों और सौ धारवाले मुद्रोंसे खेल रहे थे ॥ २८ ॥

गण्डशैलैश्च शैलैश्च परिघैश्चोत्तमायुधैः ।
चक्रैश्च दैत्यप्रवराश्चक्रुरानन्दितं बलं ॥ २९ ॥
वे श्रेष्ठ दैत्यवीर पहाड़ोंसे टूटकर गिरी हुई बड़ी-बड़ी चट्टानों, शैलशिखरों, परिधों, चक्रों तथा अन्य उत्तमोत्तम आयुधोंसे अपनी सेनाको आनन्दित कर रहे थे ॥ २९ ॥

एवं तद्दानवं सैन्यं सर्वं युद्धबलोत्कटम् ।
देवताभिमुखं तस्थौ मेघानीकमिवोत्थितम् ॥ ३० ॥
इस प्रकार युद्धके लिये बलाभिमानसे उन्मत्त हुई वह दानवोंकी सम्पूर्ण सेना मेघोंकी घिरी हुई घटाके समान देवताओंके सम्मुख डटकर खड़ी थी ॥ ३० ॥

तदभुतं दैत्यसहस्रगाढं
    वाय्वग्नितोयाम्बुदशैलकल्पम् ।
बलं रणौघाभ्युदयावकीर्णं
    युयुत्सयोन्मत्तमिवाबभासे ॥ ३१ ॥
वह अद्भुत दैत्य-सेना सहस्रों दैत्यवीरोंसे उसाठस भरी थी । वायु, अग्नि, जल, मेष एवं पर्वतमालाओंके समान दिखायी देती थी । युद्धके प्रवाहको बढ़ानेके लिये सब ओर फैली हुई थी और लड़नेकी इच्छासे उन्मत्त हुई-सी प्रतीत होती थी ॥ ३१ ॥

इति श्रीमन्महाभारते किलेषु हरिवंशे
हरिवंशपर्वणि त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीमहाभारत खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें तैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ४३ ॥




GO TOP