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श्रीहरिवंशपुराण
हरिवंश पर्व
चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः


देवसेनावर्णनम्
आश्चर्यतारकामय संग्राममें देव-सेनाकी युद्धके लिये तैयारी


वैशंपायन उवाच -
श्रुतस्ते दैत्यसैन्यस्य विस्तरस्तात विग्रहे ।
सुराणां सर्वसैन्यस्य विस्तरं वैष्णवं शृणु ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-तात ! उस युद्धके समय दैत्य-सेनाका जो विस्तार था, वह तुमने सुन लिया । अब देवताओंकी सम्पूर्ण सेनाका विस्तार, जो भगवान् विष्णुके आश्रित है, सुनो ॥ १ ॥

आदित्या वसवो रुद्रा अश्विनौ च महाबलौ । ॥
सबलाः सानुगाश्चैव संनह्यन्त यथाबलम् ॥ २ ॥
आदित्य, वसु, रुद्र और महाबली अश्विनीकुमार-ये अपने दल-बल और अनुयायियोंको साथ ले यथाशक्ति युद्ध करनेके लिये कवच आदिसे सुसज्जित हो गये ॥ २ ॥

पुरुहूतस्तु पुरतो लोकपालः सहस्रदृक् ॥ ॥
ग्रामणीः सर्वदेवानमारुरोह सुरद्विषम् ॥ ३ ॥
सबसे पहले समस्त देवताओंके नेता सहस्र नेत्रधारी इन्द्र देवताओंके हाथी ऐरावतपर आरूढ़ हुए ॥ ३ ॥

सव्ये चास्य राथः पार्ष्वे पक्षिप्रवरवेगवाn ।
सुचारुचक्रचरणो हेमवज्रपरिष्कृतः ॥ ४ ॥
उनकी बायीं ओर बहुत ही सुन्दर चक्ररूपी चरणोंसे गरुड़के समान वेगपूर्वक चलनेवाला सुवर्ण और हीरोंसे जड़ा हुआ उनका रथ चल रहा था ॥ ४ ॥

देवगन्धर्वयक्षौघैरनुयातः सहस्रशः ।
दीप्तिमद्भिः सदस्यैश्च ब्रह्मर्षिभिरभिष्टुतः ॥ ५ ॥
उनके पीछे देवता, गन्धर्व और यक्षोंकी मण्डलियाँ चल रही थी तथा यज्ञमें सहायता करनेवाले सहसों दीप्तिमान् ब्रह्मर्षि स्तुति करते हुए चल रहे थे ॥ ५ ॥

वज्रविस्फूर्जितोद्धूतैर्विद्युदिन्द्रायुधान्वितैः ।
गुप्तो बलाहकगणैः कामगैरिव पर्वतैः ॥ ६ ॥
वन (गाज)-की गड़गड़ाहटसे फटते हुए तथा बिजली एवं इन्द्रधनुषसे युक्त मेघसमूह देवराजके साथ चल रहे थे । वे ऐसे लगते थे मानो इच्छानुसार चलनेवाले पर्वत हों । इन्द्रका वह रथ उन मेघोंद्वारा सुरक्षित था ॥ ६ ॥

समारूढः स भगवान् पर्येति मघवा गजम् ।
हविर्धानेषु गायन्ति विप्राः सोममखे स्थिताः ॥ ७ ॥
स्वर्गे शक्रानुयानेषु देवतूर्यनिनादिषु ।
इन्द्रं समुपनृत्यन्ति शतशो ह्यप्सरोगणाः ॥ ८ ॥
सोमयागमें भाग लेनेवाले ब्राह्मण हविष्य रखनेके स्थानोंमें हविष्य रखते समय जिनकी स्तुति करते हैं, स्वर्गमें जिनकी सवारियोंके अवसरपर देवताओंकी तुरहियाँ बजती हैं और जिनके साथ अप्सराओंकी सैकड़ों मण्डलियाँ नाचती हुई चलती हैं, वे ही भगवान् इन्द्र हाथीपर सवार होकर चल रहे थे ॥ ७-८ ॥

केतुना वंशजातेन राजमानो यथा रविः ।
युक्तो हरिसहस्रेण मनोमारुतरंहसा ॥ ९ ॥
बाँसकी ध्वजासे सुशोभित तथा मन और वायुके समान वेगवाले हजार घोड़ोंसे खींचा जानेवाला इन्द्रका रथ सूर्यकी तरह दमक रहा था ॥ ९ ॥

स स्यन्दनवरो भाति युक्तो मातलिना तदा ।
कृत्स्नः परिवृतो मेरुर्भास्करस्येव तेजसा ॥ १० ॥
(इन्द्रके सारथि) मातलिसे युक्त वह रथ सूर्यके तेजसे घिरा हुआ सम्पूर्ण मेरुपर्वत-सा दीखता था ॥ १० ॥

यमस्तु दण्डमुद्यम्य कालयुक्तं च मुद्गरम् ।
तस्थौ सुरगणानीके दैत्यान् नादेन भीषयन् ॥ ११ ॥
यमराज मृत्युदेवताके द्वारा अधिष्ठित दण्ड तथा मुद्गरको धारण कर अपने सिंहनादसे दैत्योंको भयभीत करते हुए देवताओंकी सेनाके मुहानेपर डट गये ॥ ११ ॥

चतुर्भिः सागरैर्गुप्तो लेलिहानैश्च पन्नगैः ।
शङ्खमुक्ताङ्‌गदधरो बिभ्रत्तोयमयं वपुः ॥ १२ ॥
कालपाशं समाविध्य हयैः शशिकरोपमैः ।
वाय्वीरितजलोद्गारैः कुर्वंल्लीलाः सहस्रशः ॥ १३ ॥
पाण्डुरोद्धूतवसनः प्रवालरुचिराधरः ।
मणिश्यामोत्तमवपुर्हारभारार्पितोदरः ॥ १४ ॥
वरुणः पाशभृन्मध्ये देवानीकस्य तस्थिवान् ।
युद्धवेलामभिलषन् भिन्नवेल इवार्णवः ॥ १५ ॥
युद्धका अवसर चाहते हुए पाशधारी वरुण किनारेको तोड़कर आगे बढ़नेवाले समुद्रकी भाँति देवताओंकी सेनाके बीचमें आकर डट गये । वे चारों समुद्रों और जीभ लपलपाते हुए सोसे सुरक्षित थे । उन्होंने शख और मोतियोंके बाजूबन्द धारण कर रखे थे । उनका शरीर जलमय था । वे कालपाशको घुमाते हुए चन्द्रमाकी किरणोंके समान श्वेत रंगके घोड़ोंसे और वायुके द्वारा उछाले जानेवाले जलके उद्गारोंसे सहस्रों प्रकारकी क्रीडाएँ कर रहे थे । उनका श्वेत वस्त्र फहरा रहा था । उनके सुन्दर ओठ मूंगे एवं नूतन पल्लवोंके समान लाल-लाल थे । मणिमय आभूषणोंसे विभूषित हुए उनके श्याम अङ्गोंकी बड़ी उत्तम शोभा हो रही थी तथा हारोंका भार उनके उदरपर पड़ रहा था ॥ १२-१५ ॥

यक्षराक्षससैन्येन गुह्यकानां गणैरपि ।
मणिश्यामोत्तमवपुः कुबेरो नरवाहनः ॥ १६ ॥
युक्तश्च शङ्खपद्माभ्यां निधीनामधिपः प्रभुः ।
राजराजेश्वरः श्रीमान् गदापाणिरदृश्यत ॥ १७ ॥
नवों निधियोंके स्वामी, महान् शक्तिशाली, राजराजेश्वर श्रीमान् कुबेर, जिनका उत्तम शरीर नीलमणिके समान श्याम कान्तिसे सुशोभित था और जो मनुष्यों के द्वारा ढोयी जानेवाली पालकीमें सवार होते हैं, मूर्तिमान् शङ्ख और पद्य नामकी निधियोंको साथ लेकर हाथमें गदा धारण किये दिखायी दिये । उनके साथ यक्ष और राक्षसोंकी सेना तथा गह्मकोंके गण विद्यमान थे ॥ १६-१७ ॥

विमानयोधी धनदो विमाने पुष्पके स्थितः ।
स राजराजः शुशुभे युद्धार्थी नरवाहनः ।
प्रेक्ष्यमाणः शिवसखः साक्षादिव शिवः स्वयं ॥ १८ ॥
विमानमें बैठकर युद्ध करनेवाले, शिवजीके मित्र, राजाधिराज नरवाहन कुबेर युद्धके लिये पुष्पक विमानमें स्थित हो बड़ी शोभा पा रहे थे । उस समय वे साक्षात् भगवान् शिवके समान दृष्टिगोचर होते थे ॥ १८ ॥

पूर्वं पक्षं सहस्राक्षः पितृराजस्तु दक्षिणम् ।
वरुणः पश्चिमं पक्षमुत्तरं नरवाहनः ॥ १९ ॥
चतुर्षु युक्ताश्चत्वारो लोक्पाला बलोत्कटाः ।
स्वासु दिक्ष्वभ्यरक्षन् वै तस्य देवबलस्य ह ॥ २० ॥
उस देवसेनाके पूर्व-पक्षकी देखभाल सहस्रलोचन देवराज इन्द्र कर रहे थे । दक्षिण-पक्षकी देखभालका भार पितृराज यमने सम्हाला । पश्चिम-पक्षकी देख-रेख वरुणदेवने की और उत्तर-पक्षका निरीक्षण नरवाहन कुबेरने किया । इस प्रकार चारों दिशाओंमें सावधानीके साथ खड़े हुए चारों उत्कट बलशाली लोकपाल अपनी-अपनी दिशाको ओरसे उस सेनाकी रक्षा कर रहे थे ॥ १९-२० ॥

सूर्यः सप्ताश्वयुक्तेन रथेनाम्बरगामिना ।
श्रिया जाज्वल्यमानेन दीप्यमानैश्च रश्मिभिः ॥ २१ ॥
उदयास्तमयं चक्रे मेरुपर्यन्तगामिना ।
त्रिदिवद्वारचक्रेण तपता लोकमव्ययम् ॥ २२ ॥
सूर्यदेव सात घोड़ोंसे युक्त आकाशगामी रथके द्वारा युद्धभूमिमें आये थे । उनका वह रथ उत्तम शोभा तथा दीप्तिमान् किरणोंसे जगमगा रहा था । वह मेरु पर्वतके चारों ओर चक्कर लगानेवाला, स्वर्गके द्वारपर चक्रकी भाँति घूमनेवाला और जो प्रवाहरूपसे अक्षय बने रहते हैं, उन समस्त लोकोंको प्रकाशित करनेवाला था । उसीके द्वारा सूर्यदेव संसारमें उदय और अस्तको झाँकी कराते हैं ॥ २१-२२ ॥

सहस्ररश्मियुक्तेन भ्राजमानः स्वतेजसा ।
चचार मध्ये देवानां द्वादशात्मा दिनेश्वरः ॥ २३ ॥
सहस्रों किरणोंसे सम्पन्न अपने ही तेजसे प्रकाशित होनेवाले, द्वादश रूपधारी भगवान् दिनेश (सूर्य) पूर्वोक्त रथके द्वारा आकर देव-सेनाके बीच में विचरने लगे ॥ २३ ॥

सोमः श्वेतहयैर्भाति स्यन्दने शीतरश्मिवान् ।
हिमतोयप्रपूर्णाभिर्भाभिराह्लादयञ्जगत् ॥ २४ ॥
शीतल किरणोंवाले चन्द्रमा श्वेत घोड़ोंसे युक्त रथमें बैठे हुए बड़ी शोभा पा रहे थे । वे हिम और जलसे भरी हुई अपनी प्रभाओंद्वारा सम्पूर्ण जगत्को आहाद प्रदान करते थे ॥ २४ ॥

तमृक्षयोगानुगतं शिशिरांशुं द्विजेश्वरम् ।
जगच्छायाङ्‌किततनुं नैशस्य तमसः क्षयम् ॥ २५ ॥
ज्योतिषामीश्वरं व्योम्नि रसानां रसनं प्रभुम् ।
औषधीनां परित्राणं निधानममृतस्य च ॥ २६ ॥
जगतः प्रथमं भागं सौम्यं शीतमयं रसम् ।
ददॄशुर्दानवाः सोमं हिमप्रहरणस्थितम् ॥ २७ ॥
नक्षत्र और योग जिनका अनुसरण करते हैं, जो शीतल किरणोंसे सुशोभित हैं, ब्राह्मणोंके राजा हैं, जिनका शरीर नीले धब्बेके रूपमें पृथ्वीको छायासे अङ्कित रहता है, जो रात्रिके अन्धकारका नाश करनेवाले हैं, आकाशमें स्थित ज्योतिर्मयी तारिकाओंके अधीश्वर हैं, रसोंके आश्रय एवं प्रभु हैं, ओषधियोंके रक्षक तथा अमृतकी निधि हैं, (अग्नीषोमात्मक) जगत्के प्रथम (मुख्य) भाग हैं और सौम्य तथा शीतल रस हैं, उन्हीं चन्द्रमाको दैत्योंने हिमका आयुध ग्रहण करके खड़ा हुआ देखा ॥ २५-२७ ॥

यः प्राणः सर्वभूतानां पंचधा भिद्यते नृषु ।
सप्तस्कन्धगतो लोकांस्त्रीन् दधार चराचरान् ॥ २८ ॥
यमाहुरग्नेर्यन्तारं सर्वप्रभवमीश्वरम् ।
सप्तस्वरगता यस्य योनिर्गीतिरुदीर्यते ॥ २९ ॥
यं वदन्त्युत्तमं भूतं यं वदन्त्यशरीरिणम् ।
यमाहुराकाशगमं शीघ्रगं शब्दयोनिजम् ॥ ३० ॥
स वायुः सर्वभूतायुरुद्धतः स्वेन तेजसा ।
ववौ प्रव्यथयन् दैत्यान् प्रतिलोमः सतोयदः ॥ ३१ ॥
जो समस्त भूतोंके प्राण हैं, मनुष्य आदि जीवोंके भीतर प्राण, अपान, व्यान, समान और उदान-इन पाँचों रूपोंमें विभक्त होकर निवास करते हैं, आवह, प्रवह आदि सात स्कन्धोंमें स्थित हो त्रिलोकीके चराचर जीवोंको धारण करते हैं, जिन्हें अग्निका सारथि कहा जाता है, जो सबके उत्पत्तिस्थान और ईश्वर हैं, जिनके कारणभूत आकाशकी शब्दतन्मात्रा निषाद, ऋषभ आदि स्वरों में उतर आनेपर गीति कहलाती है, जिन्हें पाँच महाभूतोंमें उत्तम तथा शरीररहित बताते हैं, जिनको आकाशचारी और शीघ्रगामी भी कहते हैं तथा शब्दयोनि (आकाश)-से जिनकी उत्पत्ति बतायी गयी है, वे समस्त प्राणियोंके जीवनरूप वायुदेव अपने तेजसे दैत्योंको व्यथित करते हुए वहाँ मेघोंके साथ प्रतिकूल एवं प्रचण्ड गतिसे प्रवाहित होने लगे ॥ २८-३१ ॥

मरुतो देवगन्धर्वा विद्याधरगणैः सह ।
चिक्रीडुरसिभिः शुभ्रैर्निर्मुक्तैरिव पन्नगैः ॥ ३२ ॥
उनचास मस्त, देवता और गन्धर्व, विद्याधरगणोंके साथ आकर केंचुलसे निकले हुए सपॉके समान, म्यानसे बाहर निकाली हुई चमचमाती तलवारोंसे खेलने लगे ॥ ३२ ॥

सृजन्तः सर्पपतयस्तीव्रं रोशमयं विषम् ।
शरभूताः सुरेन्द्राणां चेरुर्व्यात्तमुखा दिवि ॥ ३३ ॥
देवेश्वरोंके बाण बने हुए बहुसंख्यक नागराज अपने मुखको फैलाकर तीव्र रोषमय विष उगलते हुए आकाशमें घूमने लगे ॥ ३३ ॥

पर्वतास्तु शिलाशृङ्‌गैः शतशाखैश्च पादपैः ।
उपतस्थुः सुरगणान् प्रहर्तुं दानवं बलम् ॥ ३४ ॥
पर्वतोंके अधिष्ठाता देवता भी बहुत-सी चट्टानों, शिखरों तथा सौ-सौ डालियाँवाले वृक्षाद्वारा दानवदलपर प्रहार करनेके लिये देवगणोंकी सेवामें उपस्थित थे ॥ ३४ ॥

यः स देवो हृषीकेशः पद्मनाभस्त्रिविक्रमः ।
कृष्णवर्त्मा युगान्ताभो विश्वस्य जगतः प्रभुः ॥ ३५ ॥
समुद्रयोनिर्मधुहा हव्यभुक्‌क्रतुसत्कृतः ।
भूरापोव्योमभूतात्मा समः शान्तिकरोऽरिहा ॥ ३६ ॥
जगद्योनिर्जगद्‌बीजो जगद्गुरुरुदारधीः ।
सोऽर्कमग्निमिवोद्यन्तमुद्यम्योत्तमतेजसम् ॥ ३७ ॥
अरिघ्नममरानीके चक्रं चक्रगदाधरः ।
सपरीवेषमुद्यन्तं सवितुर्मण्डलं यथा ॥ ३८ ॥
जो हषीकेशके नामसे प्रसिद्ध हैं, सबके आराध्यदेव हैं, सृष्टिके आरम्भमें जिनकी नाभिसे कमल प्रकट हुआ था, जो अपने तीन डगोंसे सम्पूर्ण त्रिलोकीको नाप चुके हैं, प्रलयकालमें प्रकाशित होनेवाले अग्निदेवके समान जिनका सहज तेज है, जो सम्पूर्ण जगत्के स्वामी हैं, नारायणरूपसे समुद्र में शयन करते हैं, इसलिये समुद्र जिनकी शयनस्थली है, जिन्होंने मधु नामक दैत्यका नाश किया है, जो हविष्यके भोक्ता और यज्ञोंमें पूजित एवं सम्मानित होनेवाले हैं, पृथ्वी, जल, आकाश तथा अन्यान्य भूत जिन विराट-रूपधारी प्रभुके अङ्ग हैं, जो सर्वत्र समभावसे रहते और समता रखते हैं, जो शान्तिका विस्तार करनेवाले और शत्रुनाशक हैं, जगत्की योनि (उत्पत्तिस्थान), जगत्के बीज (आदि कारण) तथा जगत्के गुरु हैं, जिनकी बुद्धिमें सदा उदारता भरी रहती है, वे चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् विष्णु अग्नि तथा उगते हुए सूर्यके समान उत्तम तेजसे सम्पन्न शत्रुनाशक चक्र उठाये हुए देव-सेनाके मध्यभागमें विराजमान थे । उन्हें देखकर ऐसा लगता था, मानो वे परिधिसहित उगते हुए सूर्यमण्डलको ही पकड़कर ले आये हों ॥ ३५-३८ ॥

सव्येनालम्ब्य महतीं सर्वासुरविनाशिनीम् ।
करेण कालीं वपुषा शत्रुकालप्रदां गदाम् ।
शेषैर्भुजैः प्रदीप्तानि भुजगारिध्वजः प्रभुः ॥ ३९ ॥
दधारायुधजालानि शार्ङ्‌गादीनि महायशाः ।
स कश्यपस्यात्मभवं द्विजं भुजगभोजनम् ॥ ४० ॥
सौके शत्रु गरुड़ जिनके ध्वज हैं, उन महायशस्वी भगवान् श्रीहरिने अपने बायें हाथमें समस्त असुरोंका विनाश करनेवाली तथा शत्रुओंको कालके गालमें भेजनेवाली काले रंगकी विशाल गदा ले रखी थी और शेष भुजाओंमें वे अत्यन्त दीसिमान् शाङ्ग आदि आयुध धारण किये हुए थे ॥ ३९-४० ॥

पवनाधिकसंपातं गगनक्षोभणं खगम् ।
भुजगेन्द्रेण वदने निविष्टेन विराजितम् ॥ ४१ ॥
अमृतारंभनिर्मुक्तं मन्दराद्रिमिवोच्छ्रितम् ।
देवासुरविमर्देषु शतशो दृष्टविक्रमम् ॥ ४२ ॥
सबके पाप और दुःखका अपहरण करनेवाले श्रीमान् भगवान् नारायण सोका भक्षण करनेवाले, कश्यपकुमार एवं अरुणके छोटे भाई पक्षिश्रेष्ठ गरुड़पर सवार होकर वहाँ आये थे । गरुड़जीके पंख बड़े सुन्दर थे तथा वे अपने सुन्दर शरीरसे सुवर्णके समान मनोरम कान्ति फैला रहे थे । आकाशमें विचरनेवाले पक्षिप्रवर गरुड वायकी अपेक्षा भी अधिक वेगसे उड़ते थे, उनके वेगपूर्वक चलते समय आकाशमें खलबली मच जाती थी । वे अपने मुखमें एक नागराजको दबाये हुए थे, इससे उनकी बड़ी शोभा हो रही थी । अमृत निकालनेके लिये प्रारम्भमें ही क्षीरसागरमें छोड़े गये मन्दराचलके समान वे ऊँचे दिखायी देते थे । देवासुर-संग्रामके अवसरोंपर सैकड़ों बार उनका पराक्रम देखा जा चुका था ॥ ४१-४२ ॥

महेन्द्रेणामृतस्यार्थे वज्रेण कृतलक्षणम् ।
शिखिनं चूडिनं चैव तप्तकुण्डलभूषणम् ।
विचित्रपक्षवसनं धातुमन्तमिवाचलम् ॥ ४३ ॥
स्फीतक्रोडावलम्बेन शीतांशुसमतेजसा।
भोगिभोगावसक्तेन मणिरत्नेन भास्वता ॥ ४४ ॥
पक्षाभ्यां चारुपत्राभ्यामावृत्य दिवि लीलया ।
युगान्ते सेन्द्रचापाभ्यां तोयदाभ्यामिवाम्बरम् ॥ ४५ ॥
नीललोहितपीताभिः पताकाभिरलंकृतम् ।
केतुवेषप्रतिच्छन्नं महाकायनिकेतनम् ॥ ४६ ॥
अरुणावरजं श्रीमानारुह्य समरे हरिः ।
स देवः स्वेन वपुषा सुपर्णं खेचरोत्तमम् ॥ ४७ ॥
जब वे स्वर्गमें अमृत लेने गये थे, उस समया इन्द्रने उस अमृतकी रक्षाके लिये उनपर वज्रसे प्रहार किया था, जिसकी चोटका चिह्न उस समय भी दीख रहा था, उनके सिरपर मोरकी-सी कलँगी और चोटौ थी तथा वे तपे हुए सुवर्णके कुण्डलोंसे विभूषित थे । रंग-बिरंगे पंख ही उन्होंने वस्त्ररूपमें धारण कर रखे थे, जिनके कारण वे विविध धातुओंसे मण्डित पर्वतके समान प्रतीत होते थे । उनका वक्षःस्थल चौड़ा था, उसपर (मुखमें आधे निगले हुए) सर्पके मस्तकमें चिपकी हुई श्रेष्ठमणि लटकती थी, जो अपने तेजसे शीतल किरणवाले चन्द्रमाकी भौति उद्भासित हो रही थी । वे अपने मनोहर एवं विचित्र पंखोंसे लीलापूर्वक आकाशको घेरकर इस तरह खड़े थे, मानो प्रलयकालमें इन्द्रधनुषसे युक्त हुए दो मेघखण्डोंसे आकाश घिर गया हो । श्रीहरिकी ध्वजामें चिटके रूपमें छिपे हुए पक्षिराज गरुड़ नीली, पीली और लाल रंगकी पताकाओंसे अलंकृत थे । उनका आधारभूत ध्वजदण्ड बहुत विशाल था ॥ ४३-४७ ॥

तमन्वयुर्देवगणा मुनयश्च तपोधनाः ।
गीर्भिः परममन्त्राभिस्तुष्टुवुश्च गदाधरम् ॥ ४८ ॥
उस समय समस्त देवता और तपोधन मुनि भगवान् गदाधरके पीछे-पीछे चलने और श्रेष्ठ मन्त्रमयी स्तुतियोंद्वारा उनका स्तवन करने लगे ॥ ४८ ॥

तद्वैश्रवणसंश्लिष्टं वैवस्वतपुरःसरम् ।
वारिराजपरिक्षिप्तं देवराजविराजितम् ॥ ४९ ॥
चन्द्रप्रभाभिर्विमलं युद्धाय समुपस्थितम् ।
पवनाविद्धनिर्घोषं संप्रदीप्तहुताशनम् ॥ ५० ॥
देवताओंकी वह सेना कुबेरके द्वारा सुसङ्गठित की गयी थी । यमराज उसके आगे-आगे चलनेवाले सेनानायक थे । जलके स्वामी वरुणने समुद्ररूपसे उसको सब ओरसे घेर रखा था तथा देवराज इन्द्र स्वयं उपस्थित होकर उसकी शोभा बढ़ा रहे थे । चन्द्रमाकी प्रभाओंसे वह सारा सैन्यसमूह उज्ज्वल एवं निर्मल दिखायी देता था । वायुके वेगपूर्वक चलनेसे उसमें बड़ा गम्भीर शब्द होता था और उस सेनामें खड़े हुए अग्निदेव बड़े वेगसे प्रज्वलित हो रहे थे । ऐसी देवसेना वहाँ दैत्योंके साथ युद्ध करनेके लिये उपस्थित हुई ॥ ४९-५० ॥

विष्णोर्जिष्णोः सहिष्णोश्च भ्राजिष्णोस्तेजसा वृतम् ।
बलं बलवदुद्भूतं युद्धाय समवर्तत ॥ ५१ ॥
जो नित्य विजयशील, सब कुछ सहन करनेमें समर्थ और नित्य प्रकाशमान हैं, उन भगवान् विष्णुके तेजसे व्याप्त हुई देवताओंकी वह बलवती सेना उत्साहसम्पन्न हो युद्धके लिये तैयार हो गयी ॥ ५१ ॥

स्वस्त्यस्तु देवेभ्य इति स्तुत्वा तत्राङ्‌गिराब्रवीत् ।
स्वस्त्यस्तु दैत्येभ्य इति उशना वाक्यमाददे ॥ ५२ ॥
उस समय अङ्गिराके पुत्र देवगुरु बृहस्पतिने स्तुति करके कहा-'देवताओंका कल्याण हो । ' फिर दैत्योंके गुरु शुक्राचार्य भी बोल उठे-'दैत्योंका मङ्गल हो' ॥ ५२ ॥

इति श्रीमन्महाभारते खिलेषु हरिवंशे हरिवंशपर्वणि
देवसेनावर्णनं नाम चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः
इस प्रकार बीमहाभारत खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें आभयंतारकप्पय संग्रामविषयक चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ




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