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श्रीहरिवंशपुराण
हरिवंश पर्व
पञ्चाशत्तमोऽध्यायः


नारायणाश्रमवर्णनम्
नारायणाश्रममें भगवान् विष्णुका शयन और उत्थान तथा पास आये हुए ब्रह्मा आदि देवताओंसे उनके आगमनका प्रयोजन पूछना


वैशंपायन उवाच
ऋषिभिः पूजितस्तैस्तु विवेश हरिरीश्वरः ।
पौराणं ब्रह्मसदनं दिव्यं नारायणाश्रमम् ॥ २ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! उन ऋषियोंसे पूजित होकर सर्वेश्वर भगवान् विष्णुने पुराणप्रसिद्ध दिव्य ब्रह्मधाम (वैकुण्ठ)-में, जो उन श्रीनारायणदेवका आश्रम (विश्रामस्थान) है, प्रवेश किया ॥ १ ॥

स तद् विवेश हृष्टात्मा तानामन्त्र्य सदोगतान् ।
प्रणम्य चादिदेवाय ब्रह्मणे पद्मयोनये ॥ २ ॥
स्वेन नाम्ना परिज्ञातं स तं नारायणाश्रमम् ।
प्रविशन्नेव भगवानायुधानि व्यसर्जयत् ॥ ३ ॥
उन्होंने प्रसन्नचित्तसे उस यज्ञसभामें एकत्र हुए उन सब महर्षियोंसे विदा ले आदिदेव पायोनि ब्रह्माजीको प्रणाम करके अपने ही नामसे प्रसिद्ध हुए उस नारायणाश्रममें प्रवेश किया । उसमें प्रवेश करते ही भगवान्ने सम्पूर्ण आयुधोंको त्याग दिया ॥ २-३ ॥

स तत्रांबुपतिप्रख्यं ददर्शालयमात्मनः ।
स्वधिष्ठितं देवगणैः शाश्वतैश्च महर्षिभिः ॥ ४ ॥
वहाँ उन्हें अपना शयनागार दिखायी दिया, जो समुद्रके समान शोभा पा रहा था । उसमें सनातन देवगण और शाश्वत महर्षि निवास करते थे ॥ ४ ॥

संवर्तकाम्बुदोपेतं नक्षत्रस्थानसंकुलं ।
तिमिरौघपरिक्षिप्तमप्रधृष्यं सुरासुरैः ॥ ५ ॥
संवर्तक (प्रलयकारी) मेघोंके अभिमानी देवता वहाँ विद्यमान थे । वह स्थान नक्षत्रोंके आश्रयभूत ज्योतिमण्डलसे व्याप्त था । जो वहाँ जानेके अधिकारी नहीं हैं, उनके लिये वह दिव्य धाम अन्धकारसे आवृत है अर्थात् उनकी वहाँपर पहुँच नहीं हो पाती है । देवताओं और असुरोंके लिये भी वहाँ पहुँचना अत्यन्त कठिन है ॥ ५ ॥

न तत्र विषयो वायोर्नेन्दोर्न च विवस्वतः ।
वपुषः पद्मनाभस्य स देशस्तेजसाऽऽवृतः ॥ ६ ॥
वहाँ न तो वायुकी, न चन्द्रमाकी और न सूर्यकी ही पहुँच हो पाती है । वह दिव्य देश भगवान् पद्मनाभके सच्चिदानन्दमय श्रीविग्रहकी तेजोराशिसे ही आवृत एवं प्रकाशित है ॥ ६ ॥

स तत्र प्रविशन्नेव जटाभारं समुद्वहन् ।
सहस्रशीर्षो भूत्वा तु शयनायोपचक्रमे ॥ ७ ॥
जो पहले सहस्रों मस्तकोंसे विभूषित विराट-रूपधारी होकर शोभा पाते थे, उन्हीं भगवान्ने उस दिव्य धाममें प्रवेश करते ही जगत्के प्राणियोंकी कर्मवासनामयी जटाका भार सिरपर धारण किये वहाँ सोनेकी तैयारी की ॥ ७ ॥

लोकानामन्तकालज्ञा काली नयनशालिनी ।
उपतस्थे महात्मानं निद्रा तं कालरूपिणी ॥ ८ ॥
तदनन्तर लोकोंके अन्तकालको जाननेवाली कृष्णवर्णा कालरूपिणी निद्रा, जो नेत्रोंका आश्रय लेकर शोभा पाती है, उन परमात्मा श्रीहरिकी सेवामें उपस्थित हुई ॥ ८ ॥

स शिश्ये शयने दिव्ये समुद्राम्भोदशीतले ।
हरिरेकार्णवोक्तेन व्रतेन व्रतिनां वरः ॥ ९ ॥
व्रतधारियोंमें श्रेष्ठ श्रीहरिने समुद्र और मेघोंके जलसे शीतल दिव्य शय्यापर शयन किया । प्रलयकालमें सारे जगत्के एकार्णवमग्न हो जानेपर जिस नियमसे भगवान्के शयनका वर्णन पुराणों में मिलता है, उसीके अनुसार उस समय भी भगवान्ने शयन किया था* ॥ ९ ॥

तं शयानं महात्मानं भवाय जगतः प्रभुम् ।
उपासाञ्चक्रिरे विष्णुं देवाः सर्षिगणास्तथा ॥ १० ॥
जगत्के अभ्युदयके लिये शयन करनेवाले उन सर्वसमर्थ महात्मा विष्णुकी वहाँ रहनेवाले देवता और ऋषि उपासना करने लगे ॥ १० ॥

तस्य सुप्तस्य शुशुभे नाभिमध्यात् समुत्थितम् ।
आद्यं तस्यासनं पद्मं ब्रह्मणः सूर्यवर्चसम् ।
सहस्रपत्रं वर्णाढ्यं सुकुमारं विभूषितम् ॥ ११ ॥
सोये हुए भगवान्की नाभिके मध्यभागसे एक कमल प्रकट होकर शोभा पाने लगा । उसकी कान्ति सूर्यके समान थी । वही ब्रह्माका आदि आसन है । उसमें सहस्त्र दल हैं, वह बीजरूपी विभिन्न वर्गौसे अङ्कित, अत्यन्त कोमल एवं अच्छी तरह खिला हुआ है । ॥ ११ ॥

ब्रह्मसूत्रोद्यतकरः स्वपन्नेव महामुनिः ।
आवर्तयति लोकानां सर्वेषां कालपर्ययम् ॥ १२ ॥
ब्रह्माजीकी जो पूर्वजन्मोंकी वासना (कर्म-संस्कार) है, वही सूत्ररूपसे मानो भगवान्का उठा हुआ हाथ है, उसके द्वारा वे सृष्टि आदिके लिये संकेत करते रहते हैं । इस प्रकार वे महामुनि श्रीहरि सोते हुए ही समस्त लोकोंक कालजनित उलट-फेर (सृष्टिसंहार)-की आवृत्ति किया करते हैं ॥ १२ ॥

विवृतात् तस्य वदनान्निःश्वासपवनेरिताः ।
प्रजानां पञ्क्तयो ह्युच्चैर्निष्पतन्त्युत्पतन्ति च ॥ १३ ॥
उनके खुले हुए मुखसे जो निःश्वास वायु निर्गत होती है, उससे प्रेरित होकर प्रजाओंकी विभिन्न श्रेणियाँ बड़े वेगसे निकलती और उत्पन्न होती रहती हैं ॥ १३ ॥

ते सृष्टाः प्राणिनो मेध्या विभक्ता ब्रह्मणा स्वयं ।
चतुर्धा स्वां गतिं जग्मुः कृतान्तोक्तेन कर्मणा ॥ १४ ॥
वे उत्पन्न हुए पवित्र प्राणी साक्षात् ब्रह्माजीके द्वारा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्ररूपसे चार भागोंमें विभक्त किये जाते हैं । फिर वे चारों वर्गों के लोग अपने-अपने लिये बताये गये वेदोक्त कर्मका (निष्कामभावसे) अनुष्ठान करके अपनी परम गति (परमात्मा)-को प्राप्त कर लेते हैं ॥ १४ ॥

न तं वेद स्वयं ब्रह्मा नापि ब्रह्मर्षयोऽव्ययाः ।
विष्णोर्निद्रामयं योगं प्रविष्टं तमसावृतम् ॥ १५ ॥
योगनिद्राका आश्रय लेकर शयन करनेवाला जो भगवान् विष्णुका योगमायासे समावृत स्वरूप है, उसे स्वयं ब्रह्माजी तथा (ब्रह्मलोकके) अविनाशी ब्रह्मर्षि भी नहीं जान पाते हैं ॥ १५ ॥

ते तु ब्रह्मर्षयः सर्वे पितामहपुरोगमाः ।
न विदुस्तं क्वचित् सुप्तं क्वचिदासीनमासने ॥ १६ ॥
वे ब्रह्मा आदि सभी ब्रह्मर्षि किसी देश-कालमें सोये और किसी देश-कालमें आसनपर बैठकर जागते हुए भगवान्के स्वरूपको यथार्थरूपसे समझ नहीं पाते हैं ॥ १६ ॥

जागर्ति कोऽत्र कः शेते कश्च शक्तश्च नेङ्‌गते ।
को भोगवान् को द्युतिमान् कृष्णात् कृष्णतरश्च कः ॥ १७ ॥
उन्हें यह ज्ञात नहीं होता कि यहाँ कौन जागता है ? कौन सोता है ? कौन सर्वशक्तिमान् होकर भी कोई चेष्टा नहीं करता है ? कौन भोगवान् है ? कौन परम कान्तिमान् है तथा कौन 'कृष्ण (सूक्ष्म)से भी कृष्णतर (अत्यन्त सूक्ष्म) है ? ॥ १७ ॥

विमृशन्ति स्म तं देवा दिव्याभिरुपपत्तिभिः ।
न चैनं शेकुरन्वेष्टुं कर्मतो जन्मतोऽपि वा ॥ १८ ॥
देवता दिव्य युक्तियोंद्वारा इनके विषयमें विचार करते रहते हैं; परंतु वे अबतक इनके जन्म और कर्मके रहस्यका पता नहीं लगा सके हैं ॥ १८ ॥

गाथाभिस्तत्प्रदिष्टाभिर्ये तस्य चरितं विदुः ।
पुराणास्तं पुराणेषु ऋषयः सम्प्रचक्षते ॥ १९ ॥
उन परमात्माने अपने निःश्वासभूत वेदमन्त्रोंके द्वारा जिनका उपदेश किया है, उन वैदिकी गाथाओंद्वारा जो उनके चरित्रको जानते थे, उन पुरातन ऋषियोंने ही पुराणों में उन परमेश्वरके स्वरूपका विशद विवेचन किया है ॥ १९ ॥

श्रूयते चास्य चरितं देवेष्वपि पुरातनम् ।
महापुराणात् प्रभृति परं तस्य न विद्यते ॥ २० ॥
देवताओंके यहाँ भी महापुराण आदिसे इनके पुरातन चरित्रका श्रवण किया जाता है । उनका कहीं अन्त नहीं है ॥ २० ॥

यच्चास्य देवदेवस्य चरितं स्वप्रभावजम् ।
तेनेमाः श्रुतयो व्याप्ता वैदिक्यो लौकिकाश्च याः ॥ २१ ॥
उन देवाधिदेव परमात्माका उनके प्रभावसे (पराक्रम आदिके द्वारा) प्रकट हुआ जो लीला-चरित्र है, उसीसे ये वैदिकी और लौकिकी श्रुतियाँ भरी हुई हैं ॥ २१ ॥

भवकाले भवत्येष लोकानां लोकभावनः ।
दानवानामभावाय जागर्ति मधुसूदनः ॥ २२ ॥
लोकोंकी सृष्टिके समय ये लोकभावन मधुसूदन सगुणरूपसे प्रकट होते हैं और दानवोंके विनाशके लिये सदा जागरूक रहते हैं ॥ २२ ॥

यत्रैनं वीक्षितुं देवा न शेकुः सुप्तमव्ययम् ।
ततः स्वपिति घर्मान्ते जागर्ति जलदक्षये ॥ २३ ॥
जहाँ सो जानेपर इन अविनाशी प्रभुको देवता भी नहीं देख सके थे, वहीं ये वर्षांकालमें (आषाढ़ शुक्ला एकादशीसे कार्तिक शुक्ला एकादशीतक) सोते और वर्षा व्यतीत होनेपर जागते हैं ॥ २३ ॥

स हि वेदाश्च यज्ञाश्च यज्ञाङ्‌गानि च सर्वशः ।
या तु यज्ञगतिः प्रोक्ता स एष पुरुषोत्तमः ॥ २४ ॥
भगवान् विष्णु ही वेद, यज्ञ तथा समस्त यज्ञान (यज्ञके उपकरण) हैं । यज्ञोंद्वारा प्राप्त होनेवाली जो परम गति बतायी गयी है, वह भी ये भगवान् पुरुषोत्तम ही हैं ॥ २४ ॥

तस्मिन्सुप्ते न वर्तन्ते मन्त्रपूताः क्रतुक्रियाः ।
शरत्प्रवृत्तयज्ञोऽयं जागर्ति मधुसूदनः ॥ २५ ॥
भगवान्के शयनकालमें मन्त्रपूत यज्ञकर्मीका अनुष्ठान नहीं होता है । शरद्-ऋतुमें जब ये मधुसूदन जागते हैं, उस समय वाजपेय' आदि यज्ञोंका अनुष्ठान आरम्भ हो जाता है ॥ २५ ॥

तदिदं वार्षिकं चक्रं कारयत्यम्बुदेश्वरः ।
वैष्णवं कर्म कुर्वणः सुप्ते विष्णौ पुरंदरः ॥ २६ ॥
भगवान् विष्णुके शयन करनेपर मेघोंके स्वामी देवराज इन्द्र स्वयं ही प्रजापालनरूप वैष्णवकर्मका सम्पादन करते हैं और वे ही लोगोंसे वर्षां-ऋतुमें होनेवाले जलसम्बन्धी कर्म (उपाकर्म एवं श्राद्ध-तर्पण आदि) का अनुष्ठान करवाते हैं ॥ २६ ॥

या ह्येषा गह्वरा माया निद्रेति जगति स्थिता ।
साकस्माद् द्वेषिणी घोरा कालरात्रिर्महीक्षिताम् ॥ २७ ॥
यह जो गहन तमोमयी माया है, वही संसारमें निद्रारूपसे स्थित है । वह अकारण ही सबसे द्वेष रखनेवाली और भयंकर है तथा युद्धक्षेत्रमें उतरे हुए राजाओंके लिये कालरात्रिके समान है ॥ २७ ॥

तस्यास्तनुस्तमोद्वारा निशा दिवसनाशिनी ।
जीवितार्धहरा घोरा सर्वप्राणभृतां भुवि ॥ २८ ॥
उस तामसी मायाका शरीर है रात्रि, जिसका द्वार है अन्धकार । वह दिनका नाश करनेवाली तथा निद्राद्वारा भूतलके समस्त प्राणियोंके आधे जीवनको हर लेनेवाली है । उसका स्वरूप भयंकर है ॥ २८ ॥

नैतया कश्चिदाविष्टो जृंभमाणो मुहुर्मुहुः ।
शक्तः प्रसहितुं वेगं मज्जन्निव महार्णवे ॥ २९ ॥
इस निशा एवं निद्रारूपिणी मायासे आविष्ट हुआ कोई भी प्राणी बारम्बार जंभाई लेने लगता है और महासागरमें डूबते हुए मनुष्यके समान विवश होकर उसके वेगको सहन नहीं कर पाता है ॥ २९ ॥

अन्नजा भुवि मर्त्यानां श्रमजा वा कथंचन ।
सैषा भवति लोकस्य निद्रा सर्वस्य लौकिकी ॥ ३० ॥
पृथ्वीपर रहनेवाले मरणधर्मा मनुष्योंको यह निद्रा भोजन अथवा किसी प्रकारके परित्रमके कारण प्रास होती है । इस प्रकार यह लौकिकी निद्रा जगत्के सभी प्राणियोंको आती है ॥ ३० ॥

स्वप्नान्ते क्षीयते ह्येषा प्रायशो भुवि देहिनम् ॥ ॥
मृत्युकाले च भूतानां प्राणान्नाशयते भृशम् ॥ ३१ ॥
पृथ्वीपर देहधारियोंको जो निद्रा आती है, वह प्रायः सो लेनेके बाद स्वयं ही नष्ट हो जाती है, परंतु जब प्राणियोंका मृत्युकाल उपस्थित होता है, उस समय यह उनके प्राणोंका प्रबल वेगसे नाश कर डालती है ॥ ३१ ॥

देवेष्वपि दधारैनां नान्यो नारायणादृते ।
सखी सर्वहरस्यैषा माया विष्णुशरीरजा ॥ ३२ ॥
देवताओंमें भी भगवान् नारायणके सिवा दूसरा कोई इसे धारण नहीं कर सका (और न इसपर काबू ही पा सका है) । भगवान् विष्णुके शरीरसे प्रकट हुई यह माया सर्वसंहारकारी कालकी सखी (सहायिका) है ॥ ३२ ॥

सैषा नारायणमुखे दृष्टा कमललोचना ।
लोकानल्पेन कालेन ग्रसते लोकमोहिनी ॥ ३३ ॥
वही यह माया भगवान् नारायणके मुखमण्डलमें उनके नेत्रकमलोंके भीतर स्थित देखी गयी है । यही कमलनयनी नारीके रूपमें भी प्रकट होती है । सम्पूर्ण विश्वको मोहमें डालनेवाली निद्रामयी माया अल्पकालमें ही समस्त लोकोंको ग्रस लेती है ॥ ३३ ॥

एवमेषा हितार्थाय लोकानां कृष्णवर्त्मना ।
ध्रियते सेवनीया हि पत्येव च पतिव्रता ॥ ३४ ॥
जिनका मार्ग सूक्ष्म है, उन परमात्मा श्रीहरिने समस्त लोकोंक हितके लिये (अर्थात् उन्हें विश्राम-सुखका अनुभव करानेके लिये) इस निद्राको धारण किया है । जैसे पति पतिव्रता स्त्रीका सेवन करता है, उसी प्रकार विश्रामसुखकी इच्छावाले प्रत्येक व्यक्तिको समय-समयपर इसका सेवन करना चाहिये ॥ ३४ ॥

स तया निद्रया च्छन्नस्तस्मिन् नारायणाश्रमे ।
स्वपिति स्म तदा विष्णुर्मोहयञ्जगदव्ययम् ॥ ३५ ॥
इस तरह अविनाशी भगवान् विष्णु उस योगनिद्रासे आच्छन हो सम्पूर्ण जगत्को मोहमें डालते हुए उस समय नारायणाश्रममें शयन करने लगे ॥ ३५ ॥

तस्य वर्षसहस्राणि शयानस्य महात्मनः ।
जग्मुः कृतयुगं चैव त्रेता चैव युगोत्तमम् ॥ ३६ ॥
वहाँ सोते हुए महात्मा नारायणके हजारों वर्ष बीत गये । सत्ययुग तथा उत्तम त्रेतायुग भी समाप्त हो गये । ३६ ॥

स तु द्वापरपर्यन्ते ज्ञात्वा लोकान् सुदुःखितान् ।
प्राबुध्यत महातेजाः स्तूयमानो महर्षिभिः ॥ ३७ ॥
द्वापरके अन्तमें समस्त लोकोंको अत्यन्त दुःखसे पीड़ित जान महर्षियोंद्वारा अपनी स्तुति सुनते हुए वे महातेजस्वी भगवान् श्रीहरि जाग उठे ॥ ३७ ॥

ऋषयः ऊचुः
जहीहि निद्रां सहजां भुक्तपूर्वामिव स्रजम् ।
इमे ते ब्रह्मणा सार्धं देवा दर्शनकाङ्‌क्षिणः ॥ ३८ ॥
ऋषि बोले-भगवन् ! जैसे पहलेके उपभोगमें लगी हुई फूलमालाको त्याग दिया जाता है, उसी प्रकार आप अपनी इस सहज निद्राको त्याग दीजिये । ब्रह्माजीके साथ ये समस्त देवता आपके दर्शनकी अभिलाषासे खड़े हैं ॥ ३८ ॥

इमे त्वां ब्रह्मविद्वांसो ब्रह्मसंस्तववादिनः ।
वर्धयन्ति हृषीकेश ऋषयः संशितव्रताः ॥ ३९ ॥
हृषीकेश ! ये उत्तम व्रतका पालन करनेवाले ब्रह्मवेत्ता महर्षि वेदोक्त स्तोत्रोंका पाठ करते हुए आपका अभिनन्दन करते (आपको बधाई देते) हैं ॥ ३९ ॥

एतेषामात्मभूतानां भूतानामात्मभावनः ।
शृणु विष्णो शुभा वाचो भूव्योमाग्न्यनिलाम्भसाम् ॥ ४० ॥
भूतभावन विष्णो ! ये जो आपके ही स्वरूपभूत पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाशरूप महाभूतोंके अधिष्ठाता देवता हैं, इनके शुभ वचन आप सुनें ॥ ४० ॥

इमे त्वां सप्त मुनयः सहिता मुनिमण्डलैः ।
स्तुवन्ति देवा दिव्याभिर्गेयाभिर्गीर्भिरञ्जसा । ४१ ॥
देव ! ये मुनिमण्डलीसहित सप्तर्षि गाने योग्य दिव्य वाणीद्वारा स्वभावतः आपकी स्तुति करते हैं । ४१ ॥

उत्तिष्ठ शतपत्राक्ष पद्मनाभ महाद्युते ।
कारणं किंचिदुत्पन्नं देवानां कार्यगौरवात् ॥ ४२ ॥
कमलनयन । उठिये । महातेजस्वी पद्मनाभ ! देवताओंके गुरुतर कार्यवश आपको जगानेके लिये कुछ कारण उत्पन्न हो गया है ॥ ४२ ॥

वैशंपायन उवाच
स संक्षिप्य जलं सर्वं तिमिरौघं विदारयन् ।
उदतिष्ठद्धृषीकेशः श्रिया परमया ज्वलन् ॥ ४३ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! तब सारे जलको समेटकर तथा अनधिकारियोंके लिये योगमायाने जो तमोमय आवरण लगा दिया था, उसको भी दूर करके भगवान् हषीकेश अपनी उत्कृष्ट शोभासे प्रकाशित होते हुए उठे ॥ ४३ ॥

स ददर्श सुरान् सर्वान् समेतान् सपितामहान् ।
विवक्षतः प्रक्षुभिताञ्जगदर्थे समागतान् ॥ ४४ ॥
उन्होंने देखा, ब्रह्मासहित समस्त देवता उपस्थित हैं । इनके मनमें क्षोभ उत्पन्न हुआ है और उसीके सम्बन्धमें ये कुछ कहना चाहते हैं । उन्हें यह भी ज्ञात हो गया कि ये लोग जगत्के हितके लिये ही यहाँ पधारे हैं ॥ ४४ ॥

तानुवाच हरिर्देवो निद्राविश्रान्तलोचनः ।
तत्त्वदृष्टार्थया वाचा धर्महेत्वर्थयुक्तया ॥ ४५ ॥
निद्राके द्वारा जिनके नेत्रोंको विश्वाम मिल चुका था, उन भगवान् श्रीहरिने धर्मसम्मत, युक्तिसंगत तथा तात्त्विक अर्थसे युक्त वाणीद्वारा उस समय उन देवताओंसे इस प्रकार कहा ॥ ४५ ॥

श्रीभगवानुवाच
कुतो वो विग्रहो देवाः कुतो वो भयमागतम् ।
कस्य वा केन वा कार्यं किं वा मयि न वर्तते ॥ ४६ ॥
श्रीभगवान् बोले-देवताओ ! तुम्हारा किससे युद्ध छिड़ा हुआ है ? कहाँसे तुमपर भय आया है ? अथवा किस देवताको किस वस्तुकी आवश्यकता पड़ गयी है ? बताओ, कौन ऐसी वस्तु है, जो मेरे पास नहीं है ? (अर्थात् मेरे पास सब कुछ है और मैं तुम्हें सब कुछ दूँगा) ॥ ४६ ॥

किं खल्वकुशलं लोके वर्तते दानवोत्थितम् ।
नृणामायासजननं शीघ्रमिच्छामि वेदितुं ॥ ४७ ॥
दानवोंकी ओरसे कौन-सा ऐसा कार्य किया गया है, जो लोकके लिये अमङ्गलकारी और मनुष्योंके लिये कष्टजनक सिद्ध हुआ है ? यह मैं शीघ्र जानना चाहता हूँ ॥ ४७ ॥

एष ब्रह्मविदां मध्ये विहाय शयनोत्तमम् ।
शिवाय भवतामर्थे स्थितः किं करवाणी वः ॥ ४८ ॥
आप सभी ब्रह्मवेत्ताओंके बीचमें इस उत्तम शय्याको त्यागकर यह मैं आपके कल्याणसाधनके लिये तैयार खड़ा हूँ । बताइये, आपको क्या सेवा करूँ ॥ ४८ ॥

इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे हरिवंशपर्वणि
विष्णोर्योगशयनोत्थाने पञ्चाशत्तमोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीमहाभारतके खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें भगवान् विष्णुका योगशय्यासे उत्थानविषयक पचासयाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५० ॥




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