श्रीहरिवंशपुराण हरिवंश पर्व एकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
विष्णुदेवसंवादः
ब्रह्माजीका भगवान् विष्णुसे जगत्की वर्तमान अवस्थाका वर्णन करते हुए पृथ्वीका भार उतारनेके लिये मन्त्रणा करनेका अनुरोध
वैशंपायन उवाच तच्छ्रुत्वा विष्णुगदितं ब्रह्मा लोकपितामहः । उवाच परमं वाक्यं हितं सर्वदिवौकसाम् ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-'जनमेजय ! भगवान् विष्णुका वह कथन सुनकर लोकपितामह ब्रह्माने समस्त देवताओंके लिये हितकारक उत्तम बात कही- ॥ १ ॥
नास्ति किंचिद् भयं विष्णो सुराणामसुरान्तक । येषां भवानभयदः कर्णधारो रणे रणे ॥ २ ॥
असुरोंका संहार करनेवाले विष्णुदेव ! युद्धके अवसरोंपर जिनके आप-जैसे अभयदायक कर्णधार हों, उन देवताओंको कोई भय नहीं ॥ २ ॥
शक्रे जयति देवेशे त्वयि चासुरसूदने । धर्मे प्रयतमानानां मानवानां कुतो भयम् ॥ ३ ॥
जबतक देवराज इन्द्र विजयी हैं और असुरोंका संहार करनेवाले आप रक्षाके लिये उद्यत हैं, तबतक धर्मके लिये प्रयत्नशील रहनेवाले मनुष्योंको भी किससे भय हो सकता है ॥ ३ ॥
सत्ये धर्मे च निरतान् मानवान् विगतज्वरान् । नाकाले धर्मिणो मृत्युः शक्नोति प्रसमीक्षितुम् ॥ ४ ॥
जो मनुष्य सत्य और धर्ममें तत्पर रहकर चिन्तारहित हो धर्मक अनुष्ठानमें लगे हुए हैं, उनकी ओर अकालमृत्यु आँख उठाकर देख भी नहीं सकती है ॥ ४ ॥
मानवानां च पतयः पार्थिवाश्च परस्परम् । षद्भागमुपभुञ्जाना न भयं कुर्वते मिथः ॥ ५ ॥
मनुष्योंके अधिपति जो पृथ्वीपालक नरेश हैं, वे भी प्रजाको आयके छठे भागका 'कर'के रूपमें उपभोग करते हुए आपसमें कभी भेद या कलह नहीं करते हैं' ॥ ५ ॥
ते प्रजानां शुभकराः करदैरविगर्हिताः । सुकरैर्विप्रयुक्तर्थाः कोशमापूरयन्त्युत ॥ ६ ॥
'वे सदा ही प्रजाकी भलाई करते हैं, इसलिये 'कर' देनेवाले लोग उनकी निन्दा नहीं करते । राजाओंको जब अर्थकी कमी पड़ती है, तब वे न्यायोचित करोंके द्वारा ही अपना खजाना भरते हैं ॥ ६ ॥
स्फीताञ्जनपदान् सर्वान् पालयन्तः क्षमापराः । अतीक्ष्णदण्डांश्चतुरो वर्णाञ्जुगुपुरञ्जसा ॥ ७ ॥
वे क्षमापरायण हो अपने समस्त समृद्धिशाली जनपदोंका पालन करते हैं । कभी किसीको कठोर दण्ड नहीं देते हैं तथा चारों वोंकी यथोचित रीतिसे रक्षा करते हैं ॥ ७ ॥
नोद्वेजनीया भूतानां सचिवैः साधुपूजिताः । चतुरङ्गबलैर्गुप्ताः षड्गुणानुपयुञ्जते ॥ ८ ॥
(वे स्वयं किसीको उद्विग्न नहीं करते हैं, इसलिये) कोई भी प्राणी उन्हें उद्वेगमें नहीं डालते हैं । मन्त्रियोंद्वारा वे भलीभाँति सम्मानित होते हैं तथा चतुरङ्गिणी सेनाओंसे सुरक्षित होकर (सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रय-इन) छ: गुणोंका यथावसर उपयोग करते रहते हैं ॥ ८ ॥
धनुर्वेदपराः सर्वे सर्वे वेदेषु निष्ठिताः ॥ यजन्ते च यथाकालं यज्ञैर्विपुलदक्षिणैः ॥ ९ ॥
सभी नरेश धनुर्वेदके अभ्यासमें तत्पर हैं, सभी वेदोंके परिनिष्ठित विद्वान् हैं और यथासमय प्रचुर दक्षिणायुक्त यज्ञोंद्वारा भगवान्की आराधना करते रहते हैं ॥ ९ ॥
वेदानधीत्य दीक्षाभिर्महर्षीन् ब्रह्मचर्यया । श्राद्धैश्च मेध्यैः शतशस्तर्पयन्ति पितामहान् ॥ १० ॥
वे दीक्षा ग्रहण एवं ब्रह्मचर्यके पालनपूर्वक वेदोंका अध्ययन करके महर्षियोंको तथा पवित्र श्राद्धकर्मोद्वारा सैकड़ों बार पितरोंको तृप्त करते रहते हैं ॥ १० ॥
नैषामविदितं किञ्चित् त्रिविधं भुवि दृश्यते । वैदिकं लौकिकं चैव धर्मशास्त्रोक्तमेव च ॥ ११ ॥
भूतलपर जो वैदिक, लौकिक तथा धर्मशास्त्रकथित तीन प्रकारके कर्म दृष्टिगोचर होते हैं, उनमेंसे कोई भी कर्म इन राजाओंको अज्ञात नहीं है ॥ ११ ॥
ते परावरदृष्टार्था महर्षिसमतेजसः । भूयः कृतयुगं कर्तुमुत्सहन्ते नराधिपाः ॥ १२ ॥
उन्हें परावरतत्वका साक्षात्कार हो चुका है । वे सभी नरेश महर्षियोंके समान तेजस्वी हैं और पुनः इस पृथ्वीपर सत्ययुगको लानेका उत्साह रखते हैं ॥ १२ ॥
तेषामेव प्रभावेण शिवं वर्षति वासवः । यथार्थं च ववुर्वाता विरजस्का दिशो दश ॥ १३ ॥
उन्हींके प्रभावसे देवराज इन्द्र जगत्में कल्याणकारी जलकी वर्षा करते हैं, वायु यथोचित गतिसे प्रवाहित होती है और दसों दिशाएँ स्वच्छ रहती हैं ॥ १३ ॥
निरुत्पाता च वसुधा सुप्रचाराश्च खे ग्रहाः । चन्द्रमाश्च सनक्षत्रः सौम्यं चरति योगतः ॥ १४ ॥
पृथ्वीपर कोई उत्पात नहीं होता, आकाशमें सभी ग्रह समुचित गतिसे विचरण करते हैं तथा नक्षत्रोंसहित चन्द्रमा भी उनके साथ संयुक्त होकर सौम्यगतिसे विचरण कर रहे हैं ॥ १४ ॥
अनुलोमकरः सूर्यस्त्वयने द्वे चचार ह । हव्यैश्च विविधैस्तृप्तः शुभगन्धो हुताशनः ॥ १५ ॥
जगत्के लिये अनुकूल किरणोंसे युक्त हुए भगवान् सूर्य दोनों अपनोंमें विचरते हैं तथा उत्तम गन्धसे सुवासित अग्निदेव नाना प्रकारके हविष्योंकी आहुति पाकर तृस होते हैं ॥ १५ ॥
एवं संयक् प्रवृत्तेषु विवृद्धेषु मखादिषु । तर्पयत्सु महीं कृत्स्नां नृणां कालभयं कुतः ॥ १६ ॥
जब इस प्रकार राजालोग भलीभाँति सत्कर्मोमें प्रवृत्त हैं, यज्ञ आदि कर्म दिनोंदिन बढ़ रहे हैं और वे नरेश समस्त भूमण्डलको निरन्तर तृप्त एवं संतुष्ट कर रहे हैं, तब मनुष्योंको कालका भय कैसे हो सकता है' ॥ १६ ॥
तेषां ज्वलितकीर्तीनामन्योन्यवशवर्तिनाम् । राज्ञां बलैर्बलवतां पीड्यते वसुधातलम् ॥ १७ ॥
'परंतु जिनकी कीर्ति सब ओर जगमग हो रही है तथा जो एक-दूसरेके वशवर्ती होकर मेल-मिलापसे रहते हैं, उन बलवान् राजाओंके पास जो असंख्य सेनाएँ हैं, उनके भारसे पृथ्वीको बड़ी पीड़ा हो रही है ॥ १७ ॥
सेयं भारपरिश्रान्ता पीड्यमाना नराधिपैः । पृथिवी समनुप्राप्ता नौरिवासन्नविप्लवा ॥ १८ ॥
इस प्रकार भारसे थकी हुई यह पृथ्वी उन नरेशोंसे पीड़ित होकर आपकी शरणमें आयी है । इसकी दशा उस नावकी-सी हो रही है, जिसके डूबनेका समय अत्यन्त निकट हो ॥ १८ ॥
युगान्तसदृशै रूपैः शैलोच्चलितबन्धना । जलोत्पीडाकुला स्वेदं धारयन्ती मुहुर्मुहुः ॥ १९ ॥
उन राजाओंके रूप प्रलयकालकी अग्निके समान तेजस्वी हैं । उनसे पीड़ित होनेके कारण इस पृथ्वीके पर्वतरूपी बन्धन ढीले पड़ने लगे हैं अर्थात् इस नौकारूपिणी पृथ्वीमें जो कीलें ठुकी हुई थीं, वे अब उखड़ने लगी हैं, अतः यह रसातलकी जलराशिमें डूबनेकी आशङ्कासे व्याकुल हो उठी है और इसके शरीरमें बारम्बार पसीना आ रहा है ॥ १९ ॥
क्षत्रियाणां वपुर्भिश्च तेजसा च बलेन च । नृणां च राष्ट्रैर्विस्तीर्णैः श्राम्यतीव वसुन्धरा ॥ २० ॥
क्षत्रियोंके शरीर, तेज और बलसे तथा मनुष्योंके दूरतक फैले हुए राज्योंसे यह पृथ्वी थकती-सी जा रही है ॥ २० ॥
पुरे पुरे नरपतिः कोटिसंख्यैर्बलैर्वृतः । राश्ट्रे राष्ट्रे च बहवो ग्रामाः शतसहस्रशः ॥ २१ ॥
नगरनगरमें वहाँका नरेश एक-एक करोड़ सैनिकोंसे सम्पन्न है तथा प्रत्येक राज्यमें कई लाख ग्राम हैं ॥ २१ ॥
भूमिपानां सहस्रैश्च तेषां च बलिनां बलैः । ग्रामायुताढ्यै राष्ट्रैश्च भूमिर्निर्विवरा कृता ॥ २२ ॥
सहस्रों भूपालों, उन बलवान् भूपालोंकी सेनाओं तथा दस-दस हजार गाँवोंसे युक्त उनके राष्ट्रोंसे यह भूमि इतनी भर गयी है कि कहीं थोड़ी-सी भी जगह खाली नहीं है ॥ २२ ॥
सेयं निरामयं कृत्वा निश्चेष्टा कालमग्रतः । प्राप्ता ममालयं विष्णो भवांश्चास्याः परा गतिः ॥ २३ ॥
विष्णुदेव ! यह पृथ्वी निश्चेष्ट होकर निरामय कालको आगे करके मेरे निवासस्थानमें आयी थी । अब आप इसकी परम गति हैं ॥ २३ ॥
कर्मभूमिर्मनुष्याणां भूमिरेषा व्यथां गता । यथा न सीदेत् तत् कार्यं जगत्येषा हि शाश्वती ॥ २४ ॥
जगत्की आधारभूता यह सदा रहनेवाली भूमि, जो मनुष्योंकी कर्मभूमि है, बड़ा कष्ट पा रही है । यह अधिक भारके कारण दबकर बिखर न जाय, ऐसा कोई उपाय करना चाहिये ॥ २४ ॥
अस्या हि पीडने दोषो महान् स्यान्मधुसूदन । क्रियालोपश्च लोकानां पीडितं च जगद्भवेत् ॥ २५ ॥
मधुसूदन ! इसके पीड़ित होनेपर महान् दोष प्राप्त हो सकता है । सब लोगोंकी सारी क्रियाएँ लुप्त हो जायँगी और सारा जगत् पीड़ित होने लगेगा ॥ २५ ॥
श्राम्यते व्यक्तमेवेयं पार्थिवौघप्रपीडिता । सहजां या क्षमाम् त्यक्त्वा चलत्वमचला गता ॥ २६ ॥
निश्चय ही यह राजाओंके भारी सैन्यसमुदायसे पीड़ित होकर थकती चली जा रही है । यह बात इसीसे स्पष्ट है कि यह अचला भूमि अपनी स्वाभाविक क्षमाको त्यागकर विचलित हो उठी है । ॥ २६ ॥
तदस्याः श्रुतवन्तः स्म तच्चापि भवता श्रुतम् । भारावतरणार्थं हि मन्त्रयाम सह त्वया ॥ २७ ॥
हमने इसीसे इसकी सारी बातें सुनी हैं और आपने भी उन्हें सुन लिया, अतः हम इसका भार दूर करनेके लिये आपके साथ मन्त्रणा (विचार) करना चाहते हैं ॥ २७ ॥
सत्पथे हि स्थिताः सर्वे राजानो राष्ट्रवर्धनाः । नराणां च त्रयो वर्णा ब्राह्मणाननुयायिनः ॥ २८ ॥
भूतलके समस्त राजा सन्मार्गमें स्थित हो अपने राष्ट्रोंकी वृद्धि कर रहे हैं । मनुष्योंके क्षत्रिय आदि तीनों वर्ण ब्राह्मणोंके अनुगामी हैं ॥ २८ ॥
सर्वं सत्यपरं वाक्यं वर्णा धर्मपरास्तथा । सर्वे वेदपरा विप्राः सर्वे विप्रपरा नराः ॥ २९ ॥
'मनुष्योंकी सारी बातें सत्यके ही आश्रित हैं । सभी वर्ण अपने-अपने धर्ममें तत्पर हैं । समस्त ब्राह्मण वेदोंके स्वाध्यायमें लगे हुए हैं तथा सभी मनुष्य ब्राह्मणोंकी सेवामें संलग्न रहते हैं ॥ २९ ॥
एवं जगति वर्तन्ते मनुष्या धर्मकारणात् । यथा धर्मवधो न स्यात् तथा मन्त्रः प्रवर्त्यताम् ॥ ३० ॥
इस प्रकार संसारके सभी मानव धर्मपूर्वक बर्ताव करते हैं । अतः ऐसी कोई मन्त्रणा की जाय, जिससे पृथ्वीका भार तो कम हो जाय, परंतु धर्मको हानि न पहुँचे ॥ ३० ॥
सतां गतिरियं नान्या धर्मश्चास्याः सुसाधनम् । राज्ञां चैव वधः कार्यो धरण्या भारनिर्णये ॥ ३१ ॥
यही सत्पुरुषोंकी गति है, दूसरी नहीं और धर्म ही इसका उत्तम साधन है । इस पृथ्वीका भार दूर करनेके लिये राजाओंका वध आवश्यक कार्य है ॥ ३१ ॥
तदागच्छ महाभाग सह वै मन्त्रकारणात् । व्रजामो मेरुशिखरं पुरस्कृत्य वसुंधराम् ॥ ३२ ॥
अत: महाभाग ! आइये, हम सब लोग इस विषयपर एक साथ विचार करनेके लिये पृथ्वीको आगे करके मेरुपर्वतके शिखरपर चलें' ॥ ३२ ॥
एतावदुक्त्वा राजेन्द्र ब्रह्मा लोकपितामहः । पृथिव्या स विश्वात्मा विरराम महाद्युतिः ॥ ३३ ॥
महाराज जनमेजय ! सम्पूर्ण विश्वके आत्मा महातेजस्वी लोकपितामह ब्रह्मा, जो पृथ्वीके साथ आये थे, भगवान्से इतनी बात कहकर चुप हो गये ॥ ३३ ॥
इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे हरिवंशपर्वणि भारावतरणे एकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीमहाभारतके खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें (पृथ्वी-) भारावतरणविषयक इक्यावनों अध्याय पूरा हुआ ॥ ५१ ॥
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