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श्रीहरिवंशपुराण
हरिवंश पर्व
द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः


विष्णुं प्रति पृथिव्या वाक्यम्
भगवान् विष्णु तथा सब देवताओंका मेरुपर्वतकी दिव्य सभामें उपस्थित होना और वहाँ पृथ्वीका भगवान्से भार उतारनेके लिये प्रार्थना करना


वैशंपायन उवाच
बाढमित्येव सह तैर्दुर्दिनाम्भोदनिःस्वनः ।
प्रतस्थे दुर्दिनाकारः सदुर्दिन इवाचलः ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! तब 'बहुत अच्छा' कहकर भगवान् विष्णु उन सबके साथ वहाँसे चल दिये । उनकी वाणी वर्षाकालके मेघकी भाँति गम्भीर थी, उनका श्रीविग्रह मेघके समान श्याम था तथा वे मेघयुक्त पर्वतके समान जान पड़ते थे ॥ १ ॥

समुक्तामणिविद्योतं सचन्द्राम्भोदवर्चसम् ।
सजटामण्डलं कृत्स्नं स बिभ्रच्छ्रीधरो हरिः ॥ २ ॥
उनका जटामण्डलमण्डित उदरभाग मुक्तामणियोंकी मालासे उद्दीप्त होकर चन्द्रमाकी प्रभासे युक्त मेधके समान कान्ति धारण करता था । उस उदरको धारण करनेवाले भगवान् श्रीहरि अपूर्व शोभासे सम्पन्न दिखायी देते थे ॥ २ ॥

स चास्योरसि विस्तीर्णे रोमाञ्चोद्‌गतराजिमान् ।
स्रीवत्सो राजते श्रीमांस्तनद्वयमुखाञ्चितः ॥ ३ ॥
उनके विस्तृत वक्षःस्थलमें उठी हुई रोमावलियोंसे युक्त शोभाशाली श्रीवत्स दोनों स्तनोंके मुखतक फैलकर उद्भासित हो रहा था ॥ ३ ॥

पीते वसानो वसने लोकानां गुरुरव्ययः ।
हरिः सोऽभवदालक्ष्यः स संध्याभ्र इवाचलः ॥ ४ ॥
दो पीत वस्त्र धारण किये सम्पूर्ण जगत्के गुरु अविनाशी भगवान् विष्णु संध्याकालिक मेघोंसे युक्त पर्वतके समान मनोहर दिखायी देते थे ॥ ४ ॥

तं व्रजन्तं सुपर्णेन पद्मयोनिगतानुगम् ।
अनुजग्मुः सुराः सर्वे तद्‌गतासक्तचक्षुषः ॥ ५ ॥
ब्रह्माजीके पीछे-पीछे गरुड़पर बैठकर यात्रा करते हुए उन भगवान् नारायणका सभी देवता अनुसरण कर रहे थे । उन सबके नेत्र उन्हींकी और लगे हुए थे ॥ ५ ॥

नातिदीर्घेण कालेन संप्राप्ता रत्नपर्वतम् ।
ददृशुर्देवतास्तत्र तां सभां कामरूपिणीम् ॥ ६ ॥
थोड़े ही समयमें सब देवता रत्नमय मेरुपर्वतपर आ पहुँचे । वहाँ उन्होंने ब्रह्माजीकी उस सभाको देखा, जो इच्छानुसार रूप धारण करनेवाली थी ॥ ६ ॥

मेरोः शिखरविन्यस्तां संयुक्तां सूर्यवर्चसा ।
काञ्चनस्तम्भरचितां वज्रसन्धानतोरणाम् ॥ ७ ॥
मेरुपर्वतके शिखरपर स्थापित हुई वह दिव्य सभा सूर्यके समान तेजसे सम्पन्न थी । उसमें सोनेके खंभे लगे थे तथा उसके फाटकमें रत्र जड़े हुए थे ॥ ७ ॥

मनोनिर्माणचित्राढ्यां विमानशतमालिनीम् ।
रत्नजालान्तरवतीं कामगां रत्नभूषिताम् ॥ ८ ॥
मानसिक संकल्पके अनुसार स्वतः निर्मित हुए विचित्र चित्र उसकी शोभा बढ़ाते थे । सैकड़ों विमानोंकी पंक्तियाँ वहाँ विराजमान थीं । उसमें रत्नोंके बने झरोखे लगे थे । वह इच्छानुसार विचरण करनेवाली सभा नाना प्रकारके दिव्य रनोंसे सजी हुई थी ॥ ८ ॥

कॢप्तरत्नसमाकीर्णां सर्वर्तुकुसुमोत्कटाम् ।
देवमायाधरां दिव्यां विहितां विश्वकर्मणा ॥ ९ ॥
उसमें बहुमूल्य रत्न जड़े हुए थे । सभी ऋतुओंके फूलोंसे वह व्याप्त थी । उस दिव्य सभाका निर्माण साक्षात् विश्वकर्माने किया था । वह देवताओंकी माया धारण करनेवाली थी ॥ ९ ॥

तां हृष्टमनसः सर्वे यथास्थानं यथाविधि ।
यथानिदेशं त्रिदशा विविशुस्ते सभां शुभाम् ॥ १० ॥
समस्त देवता ब्रह्माजीकी आज्ञाके अनुसार प्रसन्नतापूर्वक उस कल्याणमयी सभामें प्रविष्ट हुए और यथायोग्य स्थानपर विधिपूर्वक बैठे ॥ १० ॥

ते निषेदुर्यतोक्तेषु विमानेष्वासनेषु च ।
भद्रासनेषु पीठेषु कुथास्वास्तरणेषु च ॥ ११ ॥
वे वहाँ योग्यतानुसार बताये हुए विमानों, आसनों, भद्रासनों, पीठों, कालीनों तथा दूसरेदूसरे बिछौनोंपर विराजमान हुए ॥ ११ ॥

ततः प्रभञ्जनो वायुर्ब्रह्मणा सधु चोदितः ।
मा शब्दमिति सर्वत्र प्रचक्रामाथ तां सभाम् ॥ १२ ॥
तव ब्रह्माजीके भलीभाँति आज्ञा देनेपर अपने वेगसे बड़े-बड़े वृक्षोंको तोड़ देनेवाले वायुदेव उठे और 'कोई एक शब्द भी मुंहसे न निकाले । सब लोग मौन रहें । ' ऐसा कहते हुए सारी सभामें सब ओर घूम आये ॥ १२ ॥

निःशब्दस्तिमिते तस्मिन्समाजे त्रिदिवौकसां ।
बभाषे धरणी वाक्यं खेदात् करुणभाषिनी ॥ १३ ॥
जब देवताओंका वह समुदाय भलीभाँति नीरव तथा निस्तब्ध हो गया, तब वहाँ करुणाजनक वचन बोलनेवाली पृथ्वीने दुःखपूर्वक यह बात कही ॥ १३ ॥

धरण्युवाच
त्वया धार्या त्वहं देव त्वया वै धार्यते जगत् ।
त्वं धारयसि भूतानि भुवनानि बिभर्षि च ॥ १४ ॥
पृथ्वी बोली-देव ! (मैं रसातलमें धसी जा रही हूँ अतः) आप मुझे धारण करें; क्योंकि आपके आधारपर ही यह सम्पूर्ण जगत् टिका हुआ है । आप ही समस्त भूतोंको धारण और सभी भुवनोंका भरण-पोषण करते हैं ॥ १४ ॥

यत्त्वया धार्यते किञ्चित्तेजसा च बलेन च ।
ततस्तव प्रसादेन मया यत्नाच्च धार्यते । १५ ॥
आप अपने ही तेज और बलसे जो कुछ भी धारण करते हैं, उसीको आपके प्रसादसे मैं भी यत्रपूर्वक धारण करती हूँ ॥ १५ ॥

त्वया धृतं धारयामि नाधृतं धारयाम्यहम् ।
न हि तद् विद्यते भूतं यत्त्वया नानुधार्यते ॥ १६ ॥
आपके धारण किये हुएको हो मैं धारण करती हूँ । जिसे आपने धारण न कर रखा हो, ऐसी कोई वस्तुको मैं धारण नहीं करती । ऐसा कोई भूत नहीं है, जिसे आप निरन्तर धारण न करते हों ॥ १६ ॥

त्वमेव कुरुषे देव नारायण युगे युगे ।
मम भारावतरणं जगतो हितकांयया ॥ १७ ॥
देव ! नारायण ! आप ही प्रत्येक युगमें जगत्के हितको कामनासे मेरा भार उतारते हैं ॥ १७ ॥

तवैव तेजसा क्रान्तां रसातलतलं गताम् ।
त्रायस्व मां सुरश्रेष्ठ त्वामेव शरणं गताम् ॥ १८ ॥
सुरश्रेष्ठ ! आपहीके तेजसे आक्रान्त होकर मैं रसातलको जा पहुँची हूँ और अपने उद्धारके लिये आपकी ही शरणमें आयी हूँ । आप मेरी रक्षा करें ॥ १८ ॥

दानवैः पीड्यमानाहं राक्षसैश्च दुरात्मभिः ।
त्वामेव शरणं नित्यमुपायास्ये सनातनम् ॥ १९ ॥
दानवों तथा दुरात्मा राक्षसोंसे पीड़ित होकर मैं सदा आप सनातन पुरुषकी ही शरणमें आती हूँ और आती रहूँगी ॥ १९ ॥

तावन्मेऽस्ति भयं भूयो यावन्न त्वां ककुद्मिनम् ।
शरणं यामि मनसा शतशो ह्युपलक्षये ॥ २० ॥
मुझे तभीतक अधिक भय रहता है, जबतक कि मैं अपना भार धारण करनेवाले आप परमेश्वरकी मनसे शरण नहीं लेती हूँ । इस बातको मैं सैकड़ों बार देख चुकी हूँ ॥ २० ॥

अहमादौ पुराणस्य संक्षिप्ता पद्मयोनिना ।
मावरुन्धां कृतौ पूर्वं मृन्मयौ द्वौ महासुरौ ॥ २१ ॥
पुरातन युगके प्रारम्भकालमें कमलयोनि ब्रह्माजीने मुझे जलके ऊपर स्थापित किया था और मेरी मृत्तिकाको मुट्ठीमें बाँधकर उसके द्वारा पहले दो बड़ेबड़े असुरोंकी मूर्तियाँ बनायीं ॥ २१ ॥

कर्णस्रोतोद्‌भवौ तौ हि विष्णोरस्य महात्मनः ।
महार्णवे प्रस्वपतः काष्ठकुड्यसमौ स्थितौ ॥ २२ ॥
वे दोनों पहलेपहल महासागरमें सोते हुए इन महात्मा भगवान् विष्णुके कानोंकी मैलसे उत्पन्न हुए थे और काठ एवं दीवारके समान अचेतन अवस्थामें स्थित थे (इन्हींकी आकृतियोंको भगवान्ने मिट्टीसे सँवारा था) ॥ २२ ॥

तौ विवेश स्वयं वायुर्ब्रह्मणा साधु चोदितः ।
दिवं प्रच्छादयन्तौ तु ववृधाते महासुरौ ॥ २३ ॥
फिर ब्रह्माजीकी उत्तम प्रेरणासे स्वयं वायुदेवने उनके भीतर प्रवेश किया । इसके बाद वे दोनों महान् असुर आकाशको आच्छादित करते हुए बढ़ने लगे ॥ २३ ॥

वायुप्राणौ तु तौ गृह्य ब्रह्मा पर्यमृशच्छनैः ।
एकं मृदुतरं मेने कठिनं वेद चापरम् ॥ २४ ॥
वायुरूपी प्राणसे युक्त हुए उन दोनों असुरोंको गोदमें लेकर ब्रह्माजीने उनके अङ्गोंपर धीरे-धीरे हाथ फेरा । उनमेंसे एकका शरीर तो उन्हें अत्यन्त कोमल प्रतीत हुआ और दूसरेका कठोर ॥ २४ ॥

नामनी तु तयोश्चक्रे स विभुः सलिलोद्‌भवः ।
मृदुस्त्वयं मधुर्नाम कठिनः कैटभोऽभवत् ॥ २५ ॥
तब जलजजन्मा भगवान् ब्रह्माने उन दोनोंका नामकरणसंस्कार किया और कहा-यह जो मृदु (कोमल) है, इसका नाम 'मधु' होगा और जो कठोर है, वह 'कैटभ' कहलायेगा ॥ २५ ॥

तौ दैत्यौ कृतनामानौ चेरतुर्बलदर्पितौ ।
सर्वमेकार्णवं लोकं योद्धुकामौ सुदुर्जयौ ॥ २६ ॥
नाम निश्चित हो जानेपर वे दोनों अत्यन्त दुर्जय दैत्य बलके घमंडसे मतवाले होकर युद्धकी इच्छासे समस्त एकार्णव जगतमें विचरने लगे ॥ २६ ॥

तावागतौ समालोक्य ब्रह्मा लोकपितामहः ।
एकार्णवाम्बुनिचये तत्रैवान्तरधीयत ॥ २७ ॥
उन दोनोंको युद्धके लिये आया देख लोकपितामह ब्रह्मा वहीं एकार्णवकी जलराशिमें अदृश्य हो गये ॥ २७ ॥

स पद्मे पद्मनाभस्य नाभिमध्यात् समुत्थिते ।
रोचयामास वसतिं गुह्यां ब्रह्मा चतुर्मुखः ॥ २८ ॥
उन चतुर्मुख ब्रह्माने भगवान् पद्मनाभकी नाभिके मध्यभागसे प्रकट हुए कमलपर ही गुप्तरूपसे निवास करना पसंद किया ॥ २८ ॥

तावुभौ जलगर्भस्थौ नारायणपितामहौ ।
बहून्वर्षगणानप्सु शयानौ न चकम्पतुः ॥ २९ ॥
वे दोनों भगवान् नारायण और ब्रह्मा जलके भीतर स्थित हो बहुत वर्षातक सोते रहे । कभी हिलेतक नहीं ॥ २९ ॥

अथ दीर्घस्य कालस्य तावुभौ मधुकैटभौ ।
आजग्मतुस्तमुद्देशं यत्र ब्रह्मा व्यवस्थितः ॥ ३० ॥
तदनन्तर दीर्घकाल व्यतीत होनेके पश्चात् वे दोनों भाई मधु और कैटभ उस स्थानपर आये, जहाँ ब्रह्माजी विराजमान थे ॥ ३० ॥

दृष्ट्वा तावसुरौ घोरौ महाकायौ दुरासदौ ।
ब्रह्मणा ताडितो विष्णुः पद्मनालेन वै तदा ।
उत्पपाताथ शयनात्पद्मनाभो महाद्युतिः ॥ ३१ ॥
उन दुर्जय, विशालकाय एवं भयंकर असुरोंको देखकर ब्रह्माजीने कमलकी नालसे भगवान् विष्णुको ठोंका (उन्हें जग जानेके लिये संकेत किया) । तब महातेजस्वी भगवान् पदानाभ शय्यासे उछलकर खड़े हो गये ॥ ३१ ॥

तद्युद्धमभवद् घोरं तयोस्तस्य च वै तदा ।
एकार्णवे तदा लोके त्रैलोक्ये जलतां गते ॥ ३२ ॥
उस एकार्णव जगत्में, जब कि तीनों लोक जलमें मिल गये थे, उन दोनों असुरों तथा भगवान् विष्णुमें घोर युद्ध हुआ ॥ ३२ ॥

तदाभूत्तुमुलं युद्धं वर्षसंख्या सहस्रशः ।
न च तावसुरौ युद्धे तदा श्रममवापतुः ॥ ३३ ॥
उस समय सहलों वर्षोंतक वह तुमुल युद्ध चलता रहा, किंतु वे दोनों असुर युद्धमें थके नहीं ॥ ३३ ॥

अथातो दीर्घकालस्य तौ दैत्यौ युद्धदुर्मदौ ।
ऊचतुः प्रीतमनसौ देवं नारायणं हरिम् ॥ ३४ ॥
दीर्घकालतक युद्ध करके वे दोनों रणदुर्मद दैत्य मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए और भगवान् नारायण हरिसे इस प्रकार बोले- ॥ ३४ ॥

प्रीतौ स्वस्तव युद्धेन श्लाघ्यस्त्वं मृत्युरावयोः ।
आवां जहि न यत्रोर्वी सलिलेन परिप्लुता ॥ ३५ ॥
देव ! तुम्हारे युद्धसे हम दोनों भाई बहुत प्रसन्न हैं । तुम हमारे लिये स्पृहणीय मृत्यु हो; किंतु हम दोनोंको वहीं मारो, जहाँकी पृथ्वी जलमें डूबी हुई न हो ॥ ३५ ॥

हतौ च तव पुत्रत्वं प्राप्नुयावः सुरोत्तम ।
यो ह्यावां युधि निर्जेता तस्यावां विहितौ सुतौ ॥ ३६ ॥
सुरश्रेष्ठ ! मारे जानेपर हम दोनों आपके पुत्रभावको प्राप्त होंगे; क्योंकि ब्रह्माजीने विधान बना दिया है कि जो हमें युद्धमें जीत ले, हम उसीके पुत्र हों' ॥ ३६ ॥

स तु गृह्य मृधे दोर्भ्यां दैत्यौ तावभ्यपीडयत् ।
जग्मतुर्निधनं चापि तावुभौ मधुकैटभौ ॥ ३७ ॥
उनकी बात सुनकर भगवान् विष्णुने उस युद्धस्थलमें उन दैत्योंको दोनों हाथोंसे पकड़कर दबाया । इससे मधु और कैटभ दोनोंकी मृत्यु हो गयी ॥ ३७ ॥

तौ हतौ चाप्लुतौ तोये वपुर्भ्यामेकतां गतौ ।
मेदो मुमुचतुर्दैत्यौ मथ्यमानौ जलोर्मिभिः ॥ ३८ ॥
मेदसा तज्जलं व्याप्तं ताभ्यामन्तर्दधे ततः ।
नारायणश्च भगवानसृजत् स पुनः प्रजाः ॥ ३९ ॥
मरनेपर उन दोनोंकी लाशें जलमें डूबकर एक हो गयीं । फिर जलकी लहरोंसे मथित होकर उन दोनों दैत्योंने जो मेद छोड़ा, उससे आच्छादित होकर वहाँका जल अदृश्य हो गया । उसीपर भगवान् नारायणने नाना प्रकारके जीवोंकी सृष्टि की ॥ ३८-३९ ॥

दैत्ययोर्मेधसाच्छन्ना मेदिनीति ततः स्मृता ।
प्रभावात्पद्मनाभस्य शाश्वती जगती कृता ॥ ४० ॥
उन दैत्योंके मेदसे सारी पृथ्वी बक गयी, इसलिये 'मेदिनी' नामसे विख्यात हुई । भगवान् पद्मनाभके प्रभावसे यह जगत्के लिये शाश्वत आधार बन गयी ॥ ४० ॥

वराहेण पुरा भूत्वा मार्कण्डेयस्य पश्यतः ।
विषाणेनाहमेकेन तोयमध्यात्समुद्धृता ॥ ४१ ॥
पूर्वकालमें वाराहरूप धारण करके इन्हीं भगवान् नारायणने मार्कण्डेयजीके देखते-देखते मुझे एक दाढ़पर उठाकर पानीके भीतरसे बाहर निकाला था ॥ ४१ ॥

हृताहं क्रमतो भूयस्तदा युष्माकमग्रतः ।
बलेः सकाशाद्दैत्यस्य विष्णुना प्रभविष्णुना ॥ ४२ ॥
फिर उस दिन आपलोगोंके सामने ही प्रभावशाली भगवान् विष्णुने अपने पग बढ़ाकर त्रिलोकीको नापते हुए मुझे दैत्यराज बलिके पाससे छीन लिया ॥ ४२ ॥

साम्प्रतं खिद्यमानाहमेनमेव गदाधरम् ।
अनाथा जगतो नाथं शरण्यं शरणं गता ॥ ४३ ॥
इस समय भी अत्यन्त कष्टमें पड़कर अनाथ-सी हो रही हूँ और इन्हीं शरणागतवत्सल जगन्नाथ गदाधरकी शरणमें आयी हूँ ॥ ४३ ॥

अग्निः सुवर्णस्य गुरुर्गवां सूर्यो गुरुः स्मृतः ।
नक्षत्राणां गुरुः सोमो मम नारायणो गुरुः ॥ ४४ ॥
अग्नि सुवर्णका गुरु है । सूर्य समस्त किरणोंके गुरु माने गये हैं । नक्षत्रोंके गुरु चन्द्रमा हैं, परंतु मेरे गुरु ये भगवान् नारायण ही हैं ॥ ४४ ॥

यदहं धारयाम्येका जगत्स्थावरजङ्‌गमम् ।
मया धृतं धारयते सर्वमेतद्‌गदाधरः ॥ ४५ ॥
अकेली मैं जिस चराचर जगत्को धारण करती हूँ, मेरे द्वारा धारण किये गये इस समस्त जगत्को (तथा मुझे भी) भगवान् गदाधर ही धारण करते हैं ॥ ४५ ॥

जामदग्न्येन रामेण भारावतरणेप्सया ।
रोषात् त्रिःसप्तकृत्त्वोहं क्षत्रियैर्विप्रयोजिता ॥ ४६ ॥
इन्होंने ही जमदग्निनन्दन परशुरामके रूपमें प्रकट होकर मेरा भार उतारनेकी इच्छासे रोषपूर्वक मुझे इक्कीस बार क्षत्रियोंसे रहित किया था ॥ ४६ ॥

साऽस्मि वेद्यां समारोप्य तर्पिता नृपशोणितैः ।
भार्गवेण पितुः श्राद्धे कश्यपाय निवेदिता ॥ ४७ ॥
मैं वही हूँ, जिसे रणयज्ञकी वेदीमें प्रतिष्ठित करके भगुनन्दन परशुरामने राजाओंके रक्तसे तृप्त किया था और पिताके श्राद्धमें महर्षि कश्यपको मेरा दान कर दिया था ॥ ४७ ॥

मांसमेदोस्थिदुर्गन्धा दिग्धा क्षत्रियशोणितैः ।
रजस्वलेव युवतिः कश्यपं समुपस्थिता ॥ ४८ ॥
मैं क्षत्रियोंके रक्तसे भीगी हुई थी । मेरे शरीरसे (मरे हुए राजाओंके) मांस, मेद और अस्थियोंकी दुर्गन्ध फैल रही थी । उसी दशामें रजस्वला युवतीकी भाँति मैं महर्षि कश्यपकी सेवामें उपस्थित हुई ॥ ४८ ॥

स मां ब्रह्मर्षिरप्याह किमुर्वि त्वमवाङ्मुखी ।
वीरपत्नीव्रतमिदं धारयन्ती विषीदसि ॥ ४९ ॥
उस समय ब्रह्मर्षि कश्यपने मुझसे कहा-'वसुधे ! क्या कारण है, तू नीचे मुख किये वीर-पत्नीके इस व्रतको धारण करके विषादमें डूबी हुई है ? ॥ ४९ ॥

साहं विज्ञापितवती कश्यपं लोकभावनम् ।
पतयो मे हता ब्रह्मन् भार्गवेण महात्मना ॥ ५० ॥
उस समय मैंने लोकपिता कश्यपजीको यह सूचित किया-ब्रह्मन् ! महात्मा परशुरामने मेरे पतियोंको मार डाला है ॥ ५० ॥

साहं विहीना विक्रान्तैः क्षत्रियैः शस्त्रवृत्तिभिः ।
विधवा शून्यनगरा न धारयितुमुत्सहे ॥ ५१ ॥
शस्त्रग्रहण ही जिनकी जीविकाका साधन था, उन पराक्रमी क्षत्रियोंसे होन होकर मैं विधवा हो गयी हूँ । मेरे सारे नगर राजाओंसे शून्य हो गये हैं, अतः अब मुझमें जीवित रहनेका उत्साह नहीं रह गया है ॥ ५१ ॥

तन्मह्यं दीयतां भर्ता भगवंस्त्वत्समो नृपः ।
रक्षेत् सग्रामनगरां यो मां सागरमालिनीम् ॥ ५२ ॥
अत: भगवन् ! मुझे ऐसा कोई नरेश पति दीजिये, जो आपके समान ही शक्तिशाली हो और समुद्रसे घिरी हुई मेरी ग्राम और नगरोंसहित रक्षा कर सके' ॥ ५२ ॥

स श्रुत्वा भगवान् वाक्यं बाढमित्यब्रवीत्प्रभुः ।
ततो मां मानवेन्द्राय मनवे स प्रदत्तवान् ॥ ५३ ॥
प्रभावशाली भगवान् कश्यपने मेरी यह बात सुनकर कहा 'बहुत अच्छा' । फिर उन्होंने मुझे राजा मनुके हाथमें दे दिया ॥ ५३ ॥

सा मनुप्रभवं दिव्यं प्राप्येक्ष्वाकुकुलं नृपम् ।
विपुलेनास्मि कालेन पार्थिवात् पार्थिवं गता ॥ ५४ ॥
इस प्रकार मैं वैवस्वत मनुसे प्रकट हुए दिव्य इक्ष्वाकुकुलमें आ पहुँची । उस कुलके सभी लोग नरेश थे । वहाँ दीर्घकालतक एक राजासे दूसरे राजाके अधिकारमें आती रही ॥ ५४ ॥

एवं दत्तास्मि मनवे मानवेन्द्राय धीमते ।
भुक्ता राजसहस्रैश्च महर्षिकुलसम्मितैः ॥ ५५ ॥
इस प्रकार मैं बुद्धिमान् राजा मनुके हाथमें सौंपी गयी और महर्षिसमुदायके तुल्य तेजस्वी सहनों राजाओंके उपभोगमें आयी ॥ ५५ ॥

बहवः क्षत्रियाः शूरा मां जित्वा दिवमाश्रिताः ।
ते च कालवशं प्राप्य मय्येव प्रलयं गताः ॥ ५६ ॥
बहुत-से शूरवीर क्षत्रिय मुझे जीतकर स्वर्गलोकको चले गये । वे कालके अधीन होकर मुझमें ही लीन हुए थे ॥ ५६ ॥

मत्कृते विग्रहा लोके वृत्ता वर्तन्त एव च ।
क्षत्रियाणां बलवतां संग्रामेष्वनिवर्तिनाम् ॥ ५७ ॥
जगत्में मेरे ही लिये युद्धस्थलोंमें कभी पीठ न दिखानेवाले बलवान् क्षत्रियोंके परस्पर युद्ध हुए हैं और हो रहे हैं । ५७ ॥

एतद् युष्मत्प्रवृत्तेन दैवेन परिपाल्यते ।
जगद्धितार्थं कुरुत राज्ञां हेतुं रणक्षये ॥ ५८ ॥
आपलोगोंके द्वारा परिचालित दैवके द्वारा ही इस जगत्का परिपालन होता है, अतः आप जगत्के हितके लिये ऐसा कोई उपाय कीजिये, जिससे रणभूमिमें राजाओंका संहार हो ॥ ५८ ॥

यद्यस्ति मयि कारुण्यं भारशैथिल्यकारणात् ।
एकश्चक्रधरः श्रीमानभयं मे प्रयच्छतु ॥ ५९ ॥
यदि मुझपर भगवान्की दया हो तो यह एकमात्र चक्रधारी श्रीमान् भगवान् विष्णु मेरा भार शिथिल करनेके लिये मुझे अभयदान दें ॥ ५९ ॥

यमहं भारसंतप्ता संप्राप्ता शरणार्थिनी ।
भारो यद्यवरोप्तव्यो विष्णुरेष ब्रवीतु माम् ॥ ६० ॥
मैं भारसे संतप्त होकर शरण खोजती हुई जिनकी शरणमें आयी हूँ, वे ही ये भगवान् विष्णु यदि मेरा भार उतारना उचित समझें तो इसके लिये मुझे आश्वासन दें ॥ ६० ॥

इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे हरिवंशपर्वणि
धरणीवाक्ये द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीमहाभारत खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें पृथ्वीका वाक्यविषयक बावनवा अध्याय पूरा हुआ । ५२ ॥




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