श्रीहरिवंशपुराण हरिवंश पर्व त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
अंशावतरणम्
ब्रह्माजीकी आज्ञासे देवताओंका अंशावतरण
वैशंपायन उवाच ते श्रुत्वा पृथिवीवाक्यं सर्व एव दिवौकसः । तदर्थकृत्यं संचिन्त्य पितामहमथाब्रुवन् ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! पृथ्वीकी यह बात सुनकर वे सभी देवता उसके प्रयोजनको सिद्ध करनेवाले कर्तव्यका चिन्तन करते हुए ब्रह्माजीसे इस प्रकार बोले- ॥ १ ॥
भगवन्ह्रियतामस्या धरण्या भारसंततिः । शरीरकर्ता लोकानां त्वं हि लोकस्य चेश्वरः ॥ २ ॥
'भगवन् ! आप इस पृथ्वीके बढ़े हुए भारको उतारिये; क्योंकि आप ही सब लोगोंके शरीरकी सृष्टि करनेवाले तथा सम्पूर्ण जगत्के ईश्वर हैं ॥ २ ॥
यत्कर्तव्यं महेन्द्रेण यमेन वरुणेन च । यद्वा कार्यं धनेशेन स्वयं नारायणेन वा ॥ ३ ॥
इस विषयमें देवराज इन्द्र, वरुण और यमको क्या करना चाहिये ? धनाध्यक्ष कुबेर अथवा साक्षात् भगवान् नारायणका भी क्या कर्तव्य है ? ॥ ३ ॥
यद्वा चन्द्रमसा कार्यं भास्करेणानिलेन वा । आदित्यैर्वसुभिर्वापि रुद्रैर्वा लोकभावनैः ॥ ४ ॥
चन्द्रमा, सूर्य, वायु, बारह आदित्य, आठ वसु तथा लोकोंका कल्याण करनेवाले ग्यारह रुद्रोंको भी इस विषयमें क्या करना चाहिये ? ॥ ४ ॥
अश्विभ्यां देववैद्याभ्यां साध्यैर्वा त्रिदशालयैः । बृहस्पत्युशनोभ्यां वा कालेन कलिनापि वा ॥ ५ ॥
दोनों देववैद्य अश्विनीकुमार, स्वर्गवासी साध्यगण, बृहस्पति, शुक्राचार्य, काल तथा कलिका भी इस समय क्या कर्तव्य है ? ॥ ५ ॥
महेश्वरेण वा ब्रह्मन् विशाखेन गुहेन वा । यक्षराक्षसगन्धर्वैश्चारणैर्वा महोरगैः ॥ ६ ॥
ब्रह्मन् ! भगवान् महेश्वर, विशाख, स्वामिकार्तिकेय, यक्ष, राक्षस, गन्धर्व, चारण तथा बड़े-बड़े नागोंको भी इस कार्यके सम्बन्धमें क्या करना है ? ॥ ६ ॥
पतङ्गैः पर्वतैश्चापि सागरैर्वा महोर्मिभिः । गङ्गामुखाभिर्दिव्याभिः सरिद्भिर्वा सुरेश्वर ॥ ७ ॥
सुरेश्वर ! पक्षी, पर्वत, बड़ी-बड़ी लहरोंसे युक्त समुद्र तथा गङ्गा आदि दिव्य सरिताएँ भी इस विषयमें क्या कर सकती हैं ?' ॥ ७ ॥
शीघ्रमाज्ञापय विभो कथमंशः प्रयुज्यताम् । यदि ते पार्थिवं कार्यं कार्यं पार्थिवविग्रहे ॥ ८ ॥
'प्रभो ! शीघ्र आज्ञा दें, हम अपने अंशक र किस प्रकार करें ? यदि आपको पृथ्वीके हितका कार्य अवश्य करना है तो बताइये, राजाओंमें युद्धकी चान्ना जगानेके लिये हम सब किस उपायसे काम लें ? ॥ ८ ॥
कथमंशावतरणं कुर्मः सर्वे पितामह । अन्तरिक्षगता ये च पृथिव्यां पार्थिवाश्च ये ॥ ९ ॥ सदस्यानां च विप्राणां पर्थिवानां कुलेषु च । अयोनिजाश्चैव तनूः सृजामो जगतीतले ॥ १० ॥
पितामह ! हम सब लोग किस प्रकार अंशावतार ग्रहण करें । हममेंसे जो देवता अन्तरिक्षमें रहते हैं तथा जो पृथ्वीपर पार्थिवरूपसे विराजमान हैं, वे सब सदस्य (ऋत्विज्) ब्राह्मणों तथा राजाओंके कुलमें अवतीर्ण हों तथा हमलोग भूतलपर अपने अयोनिज शरीरोंकी भी सृष्टि करें ॥ ९-१० ॥
सुराणामेककार्याणां श्रुत्वैतन्निश्चितं मतम् । देवैः परिवृतैः प्राह वाक्यं लोकपितामहः ॥ ११ ॥
एक कार्यके लिये यत्नशील हुए देवताओंका यह निश्चित मत सुनकर उन देवताओंसे घिरे हुए लोकपितामह ब्रह्माजाने यह बान कही- ॥ ११ ॥
रोचते मे सुरश्रेष्ठा युष्माकमपि निश्चयः । सृजध्वं स्वशरीरांशांस्तेजसाऽऽत्मसमान् भुवि ॥ १२ ॥
'सुर श्रेष्ठगण ! तुमलोगोंका जो निकर है. वह मुझे भी अच्छा लगता है । तुमलोग भूतनपर अग्ने हो समान तेजस्वी अपने शरीरके अंशोको प्रकट कर ॥ १२ ॥
सर्व एव सुरश्रेष्ठास्तेजोभिरवरोहत । भावयन्तो भुवं देवीं लब्ध्वा त्रिभुवनश्रियम् ॥ १३ ॥
श्रेष्ठ देवताओ ! तुम सभी लोग अपने-भने नरम अवतार लो और तीनों लोकोंकी लक्ष्मी के भूदेवांकी रक्षा करते हुए वहाँ रहो ॥ १३ ॥
पार्थिवे भारते वंशे पूर्वमेव विजानता । पृथिव्यां सम्भ्रममिमं श्रूयतां यन्मया कृतम् ॥ १४ ॥
मैं छग आनेवाले इस भयको पहलेसे ही जानता था । - भूजलपर स्थित भरतवंशके लिये मैंने जो कुछ । विचार किया है, उसे सुनो ॥ १४ ॥
समुद्रेऽहं पुरा पूर्वे वेलामासाद्य पश्चिमाम् । आसे सार्धं तनूजेन कश्यपेन महात्मना ॥ १५ ॥ कथाभिः पूर्ववृत्ताभिर्लोकवेदानुगामिभिः । इतिवृत्तैश्च बहुभिः पुराणप्रभवैर्गुणैः ॥ १६ ॥
पहलेकी बात है. मैं पूर्व मुद्रक पश्चिम तटपर अपने पुत्र महात्मा कश्यपक मध टा था । उस समय लोक और वेदका अनुसरण कामवाली प्राचीन कथाओं तथा बहुत-से उत्तम गुणवालं बारिक इतिहासोंकी चर्चाद्वारा मैं समय बिता रहा था ॥ १५-१६ ॥
कुर्वतस्तु कथास्तास्ताः समुद्रः सह गङ्गया । समीपमाजगामाशु युक्तस्तोयदमारुतैः ॥ १७ ॥
उन-उन कथावार्ताओंको कहते-सुनते हुए मेरे समंप मूर्तिमती गङ्गाके साथ मूर्तिमान् समुद्र शीघ्रतापूर्वक आया । उसके साथ मेघोंकी घटा तथा वायुका में अगमन हुआ था ॥ १७ ॥
स वीचिविषमां कुर्वन् गतिं वेगतरङ्गिणीम् । यादोगणविचित्रेण संछन्नस्तोयवाससा ॥ १८ ॥
वह ऊँची-नीची लहरोकै कारण वेग एवं तरङ्गोंसे युक्त अपनी गतिको विषम बनाता हुआ आया था । जलजन्तुओंके कारण विचित्र दिखायी देनेवाले जलरूपी वस्त्रसे उसका शरीर डका हुआ था ॥ १८ ॥
शङ्खमुक्तामलतनुः प्रवालद्रुमभूषणः । युक्तचन्द्रमसा पूर्णः साभ्रगम्भीरनिःस्वनः ॥ १९ ॥
उसके शरीरकी कान्ति शङ्ख और मुक्ताओंसे अत्यन्त निर्मल दिखायी देती थी । वह मूंग और मणियोंके आभूषणोंसे विभूषित तथा पूर्ण चन्द्रमासे संयुक्त होनेके कारण उद्वेलित हो मेधके समान गम्भीर गर्जना कर रहा था ॥ १९ ॥
स मां परिभवन्नेव स्वां वेलां समतिक्रमन् । क्लेदयामास चपलैर्लावणैरम्बुविस्रवैः ॥ २० ॥
उसने मेरा तिरस्कार-सा करते हुए अपनी मर्यादाका उल्लङ्घन करके अपने चञ्चल एवं नमकीन जलबिन्दुओंसे मुझे भिगो दिया' ॥ २० ॥
तं च देशं व्यवसितः समुद्रोऽद्भिर्विमर्दितुम् । उक्तः संरब्धया वाचा शान्तोऽसीति मया तदा ॥ २१ ॥
'जब समुद्र अपने उमड़े हुए जलसे उस स्थानको नष्ट-भ्रष्ट करनेके लिये उद्यत हुआ, तब मैंने क्रोधभरी वाणीमें उससे कहा-'तू शान्त हो जा' ॥ २१ ॥
शान्तोऽसीत्युक्तमात्रस्तु तनुत्वं सागरो गतः । संहतोर्मितरङ्गौघः स्थितो राजश्रिया ज्वलन् ॥ २२ ॥
'शान्त हो जा' इतना कहते ही समुद्र तनुता (सूक्ष्मता)-को प्राप्त हो गया । उसकी ऊर्मि और तरङ्गोंका प्रभाव दब गया और वह राजलक्ष्मीसे प्रकाशित होता हुआ मेरे समीप खड़ा हो गया ॥ २२ ॥
भूयश्चैव मया शप्तः समुद्रः सह गङ्गया । सकारणां मतिं कृत्वा युष्माकं हितकाम्यया ॥ २३ ॥
फिर मैंने मन-ही-मन पृथ्वीके भार उतारनेके हेतुका विचार करके तुमलोगोंके हितकी कामनासे गङ्गासहित समुद्रको पुनः शाप देते हुए कहा' ॥ २३ ॥
यस्मात् त्वं राजतुल्येन वपुषा समुपस्थितः । गच्छार्णव महीपालो राजैव त्वं भविष्यसि ॥ २४ ॥
समुद्र ! तू राजाके समान शरीर धारण करके मेरे निकट आया है, अतः जा, तू इस पृथ्वीका पालन करनेवाला राजा ही होगा ॥ २४ ॥
तत्रापि सहजां लीलां धारयन् स्वेन तेजसा । भविष्यसि नृणां भर्ता भारतानां कुलोद्वहः ॥ २५ ॥
वहाँ भी अपनी सहज लीलाको धारण किये अपने तेजसे तू मनुष्योंका भरण-पोषण करनेवाला तथा भरतवंशका भार वहन करनेमें समर्थ होगा ॥ २५ ॥
शान्तोऽसीति मयोक्तस्त्वं यच्चासि तनुतां गतः । सुतनुर्यशसा लोके शन्तनुस्त्वं भविष्यसि ॥ २६ ॥
'शान्त हो जा' मेरे इतना कहते ही जो तू शान्त होकर तनुता (सूक्ष्मता)को प्राप्त हुआ है, इसलिये तू सुन्दर शरीरसे युक्त एवं यशस्वी होकर संसारमें 'शान्तनु' नामसे विख्यात होगा ॥ २६ ॥
इयमप्यायतापाङ्गी गङ्गा सर्वाङ्गशोभना । रूपिणी च सरिच्छ्रेष्ठा तत्र त्वामुपयास्यति ॥ २७ ॥
यह विशाल-लोचना, सर्वाङ्गसुन्दरी, सरिताओंमें श्रेष्ठ मूर्तिमती गङ्गा भी वहाँ तुम्हारी सेवामें उपस्थित होगी ॥ २७ ॥
एवमुक्तस्तु मां क्षुब्धः सोऽभिवीक्ष्यार्णवोऽब्रवीत् । मां प्रभो देवदेवानां किमर्थं शप्तवानसि २८ ॥
मेरे ऐसा कहनेपर क्षोभमें भरा हुआ समुद्र मेरी ओर देखकर बोला-'देवदेवेश्वर ! आपने मुझे शाप क्यों दिया ? ॥ २८ ॥
अहं तव विधेयात्मा त्वत्कृतस्त्वत्परायणः । अशपोऽसदृशैर्वाक्यैरात्मजं मां किमात्मना ॥ २९ ॥
मेरा यह शरीर तो आपकी आज्ञाका पालक है । आपने ही इसकी रचना की है और यह सदा आपकी सेवामें ही तत्पर रहता है । मैं आपका पुत्र हूँ । आपने स्वयं ही मुझे ऐसे वचनोंद्वारा, जो आपके और मेरे अनुरूप नहीं हैं, शाप कैसे दे दिया ? ॥ २९ ॥
भगवंस्त्वत्प्रसादेन वेगात्पर्वणि वर्धितः । यद्यहं चलितो ब्रह्मन् कोऽत्र दोषो ममात्मनः ॥ ३० ॥
भगवन् ! आपकी ही कृपासे पूर्णिमाके दिन मैं बड़े वेगसे बढ़ जाता हूँ । ब्रह्मन् ! इस सहज नियमसे प्रेरित होकर यदि मैं अपनी मर्यादासे विचलित हो गया तो इसमें मेरा अपना दोष क्या है ? ॥ ३० ॥
क्षिप्ताभिः पवनैरद्भिः स्पृष्टो यद्यसि पर्वणि । अत्र मे किं नु भगवन् विद्यते शापकारणम् ॥ ३१ ॥
भगवन् ! आज पूर्णिमाके दिन प्रबल वायुद्वारा फेंके गये मेरे जलसे यदि आपका स्पर्श हो गया, आप भीग गये तो इसमें मुझे शाप प्राप्त होनेका क्या कारण है ? ॥ ३१ ॥
उद्धतैश्च महावातैः प्रवृद्धैश्च बलाहकैः । पर्वणा चेन्दुयुक्तेन त्रिभिः क्षुब्धोऽस्मि कारणैः ॥ ३२ ॥
उठी हुई प्रचण्ड आँधी, बढ़े हुए महान् मेघ और उगे हुए चन्द्रमासे युक्त पूर्णिमाका पर्व-इन तीन कारणोंसे मैं क्षुब्ध (उद्वेलित) | हो उठा था । ॥ ३२ ॥
एवं यद्यपराद्धोऽहं कारणैस्त्वत्प्रकल्पितैः । क्षन्तुमर्हसि मे ब्रह्मञ्छापोऽयं विनिवर्त्यताम् ॥ ३३ ॥
'ब्रह्मन् ! इस तरह आपके बनाये हुए कारणों (नियमों)-से ही क्षुब्ध होकर यदि मैंने अपराध किया है तो आप उसके लिये मुझे क्षमा कर दें और इस शापको लौटा लें ॥ ३३ ॥
एवं मयि निरालम्बे शापाच्छिथिलतां गते । कारुण्यं कुरु देवेश प्रमाणं यद्यवेक्षसे ॥ ३४ ॥
देवेश्वर ! मुझे दूसरा कोई सहारा देनेवाला नहीं है । मैं शापसे शिथिल हो गया हूँ । यदि आप शरणागतकी रक्षाका प्रतिपादन करनेवाले प्रमाणपर दृष्टि रखते हैं तो मुझपर अवश्य दया करें ॥ ३४ ॥
अस्यास्तु देवगङ्गाया गां गतायास्त्वदाज्ञया । मम दोषात् सदोषायाः प्रसादं कर्तुमर्हसि ॥ ३५ ॥
यह देवनदी गङ्गा आपकी ही आज्ञासे इस भूतलपर अवतीर्ण हुई है । (इसका कोई दोष नहीं है) इसे मेरे दोषसे ही दोषको भागिनी होना पड़ा है, अतः आप इसपर कृपा करें ॥ ३५ ॥
तमहं श्लक्ष्णया वाच महार्णवमथाब्रुवम् । अकारणज्ञं देवानां त्रस्तं शापानलेन तम् ॥ ३६ ॥
महासागर देवताओंके भूभार-हरणरूप उद्देश्यको नहीं जानता था; अतः मेरी शापाग्निसे भयभीत हो उठा था । उस समय मैंने मधुर वाणीद्वारा उसे सान्त्वना देते हुए कहा- ॥ ३६ ॥
शान्तिं व्रज न भेतव्यं प्रसन्नोऽस्मि महोदधे । शापेऽस्मिन् सरितां नाथ भविष्यं शृणु कारणम् ॥ ३७ ॥
महोदधे ! शान्त हो जाओ । तुम्हें डरना नहीं चाहिये । मैं तुमपर प्रसन्न हूँ । नदीश्वर इस शापमें जो भावी कारण (उद्देश्य) है, उसे बताता हूँ, सुनो- ॥ ३७ ॥
त्वं गच्छ भारते वंशे स्वं देहं स्वेन तेजसा । आधत्स्व सरितां नाथ त्यक्त्वेमां सागरीं तनुम् ॥ ३८ ॥
सरिताओंके स्वामी समुद्र ! तुम अपने तेजसे इस सागर-शरीरको छोड़कर अर्थात् योगबलसे अपने-आपको दो रूपोंमें विभक्त करके (एकसे तो यहाँ रह जाओ और दूसरे रूपसे) जाओ और भरतवंशमें अपने शरीरको गर्भमें स्थापित करो ॥ ३८ ॥
महोदधे महीपालस्तत्र राजश्रिया वृतः । पालयंश्चतुरो वर्णान्व्रंस्यसे सलिलेश्वर ॥ ३९ ॥
जलके स्वामी महासागर ! उस भरतवंशमें भूपाल बनकर राजलक्ष्मीसे सम्पन्न हो तुम चारों वर्णीका पालन करते हुए बड़े सुखसे रहोगे ॥ ३९ ॥
इयं च ते सरिच्छ्रेष्ठा बिभ्रती रूपमुत्तमम् । तत्कालं रमणीयाङ्गी गङ्गा परिचरिष्यति ॥ ४० ॥
यह जो तुम्हारी प्रिया सरिताओंमें श्रेष्ठ गङ्गा है, यह भी उस समय रमणीय अङ्गोंसे सुशोभित परम सुन्दर रूप धारण करके वहाँ तुम्हारी सेवा करेगी ॥ ४० ॥
अनया सह जाह्नव्या मोदमानो ममाज्ञया । इमं सलिलसंक्लेदं विस्मरिष्यसि सागर ॥ ४१ ॥
सागर ! तुम मेरी आज्ञासे वहाँ इस जाह्नवीके साथ आनन्दपूर्वक रहते हुए मुझे जलसे भिगोनेके कारण मिले हुए इस शापके दुःखको भूल जाओगे ॥ ४१ ॥
त्वरता चैव कर्तव्यं त्वयेदं मम शासनम् । प्राजापत्येन विधिना गङ्गया सह सागर ॥ ४२ ॥
समुद्र ! तुम्हें बहुत शीघ्र मेरी इस आज्ञाका पालन करना चाहिये । वहाँ इस गङ्गाके साथ तुम्हारा प्राजापत्यविधिसे विवाह होगा ॥ ४२ ॥
वसवः प्रच्युताः स्वर्गात् प्रविष्टाश्च रसातलम् । तेषामुत्पादनार्थाय त्वं मया विनियोजितः ॥ ४३ ॥
आठों वसु स्वर्गसे भ्रष्ट होकर रसातलमें जा पहुंचे हैं । उन्हें मनुष्यरूपमें उत्पन्न करनेके लिये मैंने तुम्हें नियुक्त किया है ॥ ४३ ॥
अष्टौ ताञ्जाह्नवी गर्भानपत्यार्थं दधात्वियम् । विभावसोस्तुल्यगुणान्सुराणां प्रीतिवर्धनान् ॥ ४४ ॥
अग्निदेवके समान गुणशाली तथा देवताओंकी प्रसन्नताको बढ़ानेवाले उन आठों वसुओंको संतानरूपसे उत्पन्न करनेके लिये यह गङ्गा तुमसे गर्भ धारण करे' ॥ ४४ ॥
उत्पाद्य त्वं वसूञ्छीघ्रं कृत्वा कुरुकुलं महत् । प्रवेष्टासि तनुं त्यक्त्वा पुनः सागर सागरीम् ॥ ४५ ॥
'सागर ! तुम वसुओंको शीघ्र ही जन्म देकर कुरुकुलकी महत्ता बढ़ानेके अनन्तर उस मानव-शरीरका त्याग करके पुनः अपने समुद्ररूपमें प्रवेश करोगे ॥ ४५ ॥
एवमेतन्मया पूर्वं हितार्थं वः सुरोत्तमाः । भविष्यं पश्यतां भारं पृथिव्याः पार्थिवात्मकम् ॥ ४६ ॥
सुरश्रेष्ठगण ! इस प्रकार मैंने भविष्यमें होनेवाले पृथ्वीके राजसमूहरूपी भारको देखकर तुम्हारे हितके लिये पहले ही यह कार्य कर दिया है । ॥ ४६ ॥
तदेष शन्तनोर्वंशः पृथिव्यां रोपितो मया । वसवो ये च गङ्गायामुत्पन्नास्त्रिदिवौकसः ॥ ४७ ॥ अद्यापि भुवि गाङ्गेयस्तत्रैव वसुरष्टमः । सप्तेमे वसवः प्राप्ताः स एकः परिलम्बते ॥ ४८ ॥
इस तरह भूतलपर शान्तनुके वंशका बीजारोपण मैंने कर दिया है । स्वर्गमें रहनेवाले जो वसु थे, वे गङ्गाके गर्भसे उत्पन्न हो चुके और उनमेंसे ये सात वसु यहाँ आ गये, परंतु एकमात्र आठवाँ वसु गङ्गाका पुत्र होकर अबतक वहाँ पृथ्वीपर ही लटक रहा है ॥ ४७-४८ ॥
द्वितीयायां स सृष्टायां द्वितीया शन्तनोस्तनुः । विचित्रवीर्यो द्युतिमानासीद् राजा प्रतापवान् ॥ ४९ ॥
शान्तनुकी दूसरी पत्नी सत्यवतीके साथ पतिका समागम होनेपर भीष्मकी अपेक्षा जो दूसरा पुत्र उत्पन्न हुआ था, उसका नाम विचित्रवीर्य था । वह कुरुकुलका तेजस्वी एवं प्रतापी राजा था ॥ ४९ ॥
वैचित्र्यवीर्यौ द्वावेव पार्थिवौ भुवि साम्प्रतम् । धृतराष्ट्रश्च पाण्डुश्च विख्यातौ पुरुषर्षभौ ॥ ५० ॥
विचित्रवीर्यके दो ही पुत्र इस समय पृथ्वीपर वर्तमान हैं । वे दोनों ही राजा एवं पुरुषोंमें श्रेष्ठ हैं । धृतराष्ट्र और पाण्डु नामसे उनकी ख्याति है ॥ ५० ॥
तत्र पाण्डोः श्रिया जुष्टे द्वे भार्ये सम्बभूवतुः । शुभे कुन्ती च माद्री च देवयोषोपमे तु ते ॥ ५१ ॥
उनमेंसे पाण्डुकी दो शोभासम्पन्न सुन्दरी पलियाँ हैं, जो देवाङ्गनाओंके समान रूपवती हैं । उनके नाम हैं-कुन्ती और माद्री ॥ ५१ ॥
धृतराष्ट्रस्य राज्ञस्तु भार्यैका तुल्यचारिणी । गान्धारी भुवि विख्याता भर्तुर्नित्यं व्रते स्थिता ॥ ५२ ॥
राजा धृतराष्ट्रकी एक ही पत्नी है, जो इस भूतलपर गान्धारीके नामसे विख्यात है । वह पतिके समान आचारसे रहनेवाली और सदा पातिव्रत्यधर्मका पालन करनेवाली है ॥ ५२ ॥
तत्र वंशा विभज्यन्तां विपक्षाः पक्ष एव च । पुत्राणां हि तयो राज्ञोर्भविता विग्रहो महान् ॥ ५३ ॥
उन दोनों राजाओंके पुत्रोंमें महान् युद्ध होनेवाला है । तुमलोग उन्हींके पक्ष और विपक्षमें पृथक्-पृथक् अपने वंश उत्पन्न करो ॥ ५३ ॥
तेषां विमर्दे दायाद्ये नृपाणां भविता क्षयः । युगान्तप्रतिमं चैव भविष्यति महद्भयम् ॥ ५४ ॥
उनके पैतृक राज्यके बँटवारेके सम्बन्ध में विवाद होनेपर बड़ा भारी संग्राम छिड़ जायगा और उसमें बहुत से नरेशोंका विनाश होगा । वह महान् युद्ध प्रलयकालके समान भयंकर एवं संहारकारी होगा ॥ ५४ ॥
सबलेषु नरेन्द्रेषु शान्तयस्त्वितरेतरम् । विविक्तपुरराष्ट्रौघा क्षितिः शैथिल्यमेष्यति ॥ ५५ ॥
जब सेनासहित राजालोग उस युद्ध में उपस्थित होंगे, उस समय एक-दूसरेसे लड़-भिड़कर उन सबकी शान्ति (मृत्यु) हो जायगी । उस दशामें इस भूतलके सभी नगर और राष्ट्र निर्जन-से हो जायेंगे और यह पृथ्वी शिथिलताको प्राप्त हो जायगी ॥ ५५ ॥
द्वापरस्य युगस्यान्ते मया दृष्टं पुरातनम् । क्षयं यास्यन्ति शस्त्रेण मानवैः सह पार्थिवाः ॥ ५६ ॥
द्वापरयुगके अन्तमें घटित होनेवाले इस भावी विनाशको मैंने पहलेसे ही देख लिया है । उस समय अपने सैनिक मनुष्योसहित समस्त भूपाल शस्त्रोंद्वारा विनष्ट हो जायेंगे ॥ ५६ ॥
तत्रावशिष्टान् मनुजान् सुप्तान् निशि विचेतसः । धक्ष्यते शङ्करस्यांशः पावकेनास्त्रतेजसा ॥ ५७ ॥
उस युद्धसे जो लोग बच जायेंगे, उन्हें रातमें अचेत होकर सोते समय भगवान् शङ्करका अंशभूत अश्वत्थामा अग्नितुल्य अस्त्रके तेजसे जलाकर भस्म कर डालेगा ॥ ५७ ॥
अन्तकप्रतिमे तस्मिन् निवृत्ते क्रूरकर्मणि । समाप्तमिदमाख्यास्ये त्रितीयं द्वापरं युगम् ॥ ५८ ॥
'प्रलयकालके समान वह क्रूरतापूर्ण विनाश-काण्ड जब समाप्त हो जायगा, तब मैं यह कहूँगा कि तीसरा द्वापरयुग समाप्त हो गया ॥ ५८ ॥
महेश्वरांशेऽपसृते ततो माहेश्वरं युगम् । शिष्यं प्रवर्तते पश्चाद् युगं दारुणदर्शनम् ॥ ५९ ॥
परमेश्वर विष्णुके पूर्णतम अंशस्वरूप भगवान् श्रीकृष्णके परमधामको पधारनेपर अत्यन्त भयंकर अन्तिम युग कलिकी प्रवृत्ति होगी, जो देखनेमें बड़ा ही दारुण है ॥ ५९ ॥
अधर्मप्रायपुरुषं स्वल्पधर्मप्रतिग्रहम् । उत्सन्नसत्यसंयोगं वर्धितानृतसंचयम् ॥ ६० ॥
उस समय मनुष्यों में प्राय: अधर्मकी स्थिति होगी । धर्मको बहुत कम लोग ग्रहण करेंगे । उनमें सत्यका संयोग नहीं रहेगा और सबमें असत्यका संग्रह बढ़ेगा ॥ ६० ॥
महेश्वरं कुमारं च द्वौ च देवौ समाश्रिताः । भविष्यन्ति नराः सर्वे लोके न स्थविरायुषः ॥ ६१ ॥
रुद्र और कुमार कार्तिकेय इन्हीं दो देवताओंका प्रायः सब लोग आश्रय लेंगे । संसारमें वृद्धावस्थातक जीनेवाले (अधिक) न होंगे ॥ ६१ ॥
तदेष निर्णयः श्रेष्ठः पृथिव्यां पार्थिवान्तकः । अंशावतरणं सर्वे सुराः कुरुत मा चिरम् ॥ ६२ ॥
देवताओ ! अतः यही निर्णय सबसे श्रेष्ठ है कि पृथ्वीपर रहनेवाले राजाओंका अन्त कर दिया जाय । इसलिये तुम सब लोग अपने-अपने अंशसे अवतार लो, देर न करो ॥ ६२ ॥
धर्मस्यांशस्तु कुन्त्यां वै माद्र्यां च विनियुज्यताम् । विग्रहस्य कलिर्मूलं गान्धार्यां विनियुज्यताम् ॥ ६३ ॥
धर्मके पक्षमें जो देवता हों, उन्हें कुन्ती और माद्रींके गर्भसे उत्पन्न होनेकी आज्ञा दी जाय । विवाद या युद्धका मूल है कलि, उसे सहायकोंसहित गान्धारीके गर्भसे उत्पन्न होनेके लिये प्रेरित किया जाय ॥ ६३ ॥
एतौ पक्षौ भविष्यन्ति राजानः कालचोदिताः । जातरागाः पृथिव्यर्थे सर्वे संग्रामलालसाः ॥ ६४ ॥
कालसे प्रेरित हुए राजा इन दोनों पक्षों से किसी एकका आश्रय लेंगे और पृथ्वीके राज्यकी प्राप्तिके लिये लोभासक्त होकर वे सब-केसब संग्रामकी लालसा रखेंग ॥ ६४ ॥
नागायुतबलाः केचित्केचिदोघबलान्विताः । गच्छत्वियं वसुमती स्वां योनिं लोकधारिणी । सृष्टोऽयं नैष्ठिको राज्ञामुपायो लोकविश्रुतः ॥ ६५ ॥
सम्पूर्ण जगत्को धारण करनेवाली यह पृथ्वी अब अपने स्थानको चली जाय । इसके भारभूत राजाओंके विनाशके लिये इस लोकप्रसिद्ध उपायका अनुष्ठान आरम्भ कर दिया गया है' ॥ ६५ ॥
श्रुत्वा पितामहवचः सा जगाम यथागतम् । पृथिवी सह कालेन वधाय पृथिवीक्षिताम् ॥ ६६ ॥
ब्रह्माजीकी यह बात सुनकर पृथ्वी भूमिपालोंके वधके लिये कालके साथ जैसे आयी थी, वैसे ही लौट गयी ॥ ६६ ॥
देवानचोदयद् ब्रह्मा निग्रहार्थे सुरद्विषाम् । नरं चैव पुराणर्षिं शेषं च धरणीधरम् ॥ ६७ ॥ सनत्कुमारं साध्यांश्च सुरांश्चाग्निपुरोगमान् । वरुणं च यमं चैव सूर्याचन्द्रमसौ तदा ॥ ६८ ॥ गन्धर्वाप्सरसश्चैव रुद्रादित्यांस्तथाश्विनौ । ततोंऽशानवनिं देवाः सर्व एवावतारयन् ॥ ६९ ॥
तदनन्तर ब्रह्माजीने देवद्रोही दानवोंका दमन करनेके लिये देवताओंको प्रेरित किया । उन्होंने पुरातन ऋषि नर, पृथ्वीको धारण करनेवाले शेषनाग, सनत्कुमार, साध्यगण, अग्नि आदि देवता, वरुण, यम, सूर्य, चन्द्रमा, गन्धर्व, अप्सरा, रुद्र, आदित्य तथा दोनों अश्विनीकुमार-इन सबको अवतार लेनेके लिये प्रेरणा दी । तत्पश्चात् समस्त देवताओंने पृथ्वीपर अपनाअपना अंश उत्पन्न किया ॥ ६७-६९ ॥
यथा ते कथितं पूर्वमंशावतरणं मया । अयोनिजा योनिजाश्च ते देवाः पृथिवीतले ॥ ७० ॥ दैत्यदानवहन्तारः संभूताः पुरुषेश्वराः । क्षीरिकावृक्षसंकाशा वज्रसंहननास्तथा ॥ ७१ ॥ नागायुतबलाः केचित् केचिदोघबलान्विताः । गदापरिघशक्तीनां सहाः परिघबाहवः ॥ ७२ ॥
राजन् । मैंने तुम्हें पहले (आदिपर्व) अंशावतरणके प्रसङ्गमें जैसा बताया है, उसके अनुसार दैत्यों और दानवोंका विनाश करनेवाले वे देवता योनिज और अयोनिजरूपसे पृथ्वीपर राजा होकर उत्पन्न हुए । उनके शरीर पिण्डखजूरके समान पुष्ट और वजके तुल्य सुदृढ़ थे । उनमेंसे कितने ही दस हजार हाथियोंके समान बलवान् थे । कितने ही बलके अटूट प्रवाहसे सम्पन्न थे । वे गदा, परिघ और शक्तियोंके आघात सह लेने में समर्थ थे । उनकी भुजाएँ परिघोंके समान मोटी एवं सुदृढ़ थीं ॥ ७०-७२ ॥
गिरिशृङ्गप्रहर्तारः सर्वे परिघयोधिनः । वृष्णिवंशसमुत्पन्नाः शतशोऽथ सहस्रशः ॥ ७३ ॥ कुरुवंशे च ते देवाः पञ्चालेषु च पार्थिवाः । याज्ञिकानां समृद्धानां ब्राह्मणानां च योनिषु ॥ ७४ ॥
वे सब-के-सब पर्वत-शिखरोद्वारा प्रहार करनेवाले तथा परिघोंसे युद्ध करनेमें कुशल थे । उनमेंसे सैकड़ों-हजारों वीर देवता वृष्णिवंश, कुरुवंश तथा पाशालवंशमें राजा एवं राजकुमारोंके रूपमें उत्पन्न हुए थे । कितने ही देवता समृद्धिशाली याज्ञिक ब्राह्मणों के कुलोंमें प्रकट हुए थे ॥ ७३-७४ ॥
सर्वास्त्रज्ञा महेष्वासा वेदव्रतपरायणाः । सर्वर्धिगुणसम्पन्ना यज्वानः पुण्यकर्मिणः ॥ ७५ ॥ आचालयेयुर्ये शैलान् क्रुद्धा भिन्द्युर्महीतलम् । उत्पतेयुरथाकाशं क्षोभयेयुर्महोदधिम् ॥ ७६ ॥
वे सम्पूर्ण अस्त्रोंके ज्ञाता, महाधनुर्धर, वैदिक व्रतके अनुष्ठानमें तत्पर, समस्त समृद्धिकारी गुणोंसे सम्पन्न, यज्ञकर्ता तथा पुण्यकर्मीका अनुष्ठान करनेवाले थे, जो कुपित होनेपर पर्वतोंको भी हिला सकते थे, पृथ्वीको विदीर्ण कर सकते थे, आकाशमें उड़ सकते थे और समुद्रोंको भी विक्षुब्ध कर सकते थे ॥ ७५-७६ ॥
एवमादिश्य तान् सर्वान् भूतभव्यभवत्प्रभुः । नारायणे समावेश्य लोकाञ्छान्तिमुपागमत् ॥ ७७ ॥
भूत, भविष्य और वर्तमानके स्वामी ब्रह्माजी उन देवताओंको उपर्युक्त आदेश दे भगवान् नारायणको समस्त लोकोंकी रक्षाका भार सौंपकर शान्त हो गये ॥ ७७ ॥
भूयः शृणु यथा विष्णुरवतीर्णो महीतले । प्रजानां वै हितार्थाय प्रभुः प्राणिहितेश्वरः ॥ ७८ ॥
जनमेजय ! समस्त प्राणियोंका हित-साधन करनेमें समर्थ भगवान् विष्णु प्रजावर्गके हितके लिये इस भूतलपर जिस प्रकार अवतीर्ण हुए थे, वह प्रसंग फिर सुनो ॥ ७८ ॥
ययातिवंशजस्याथ वसुदेवस्य धीमतः । कुले पूज्ये यशस्कर्मा जज्ञे नारायणः प्रभुः ॥ ७९ ॥
राजा ययातिके वंशज बुद्धिमान् वसुदेवके आदरणीय कुलमें यशोवर्धक कर्म करनेवाले भगवान् नारायणने जन्म ग्रहण किया था ॥ ७९ ॥
इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे हरिवंशपर्वणि देवानामंशावतरणे त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीमहाभारतके खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें नारदजीका वाक्यविषयक तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५३ ॥
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