श्रीहरिवंशपुराण हरिवंश पर्व चतुःपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
विष्णुं प्रति देवर्षेर्वाक्यम्
भगवान् विष्णुके प्रति देवर्षि नारदका वचन-भूलोककी वर्तमान अवस्थाका परिचय देकर भगवान्को अवतार ग्रहण करनेके लिये प्रेरित करना
वैशंपायन उवाच कृतकार्ये गते काले जगत्यां च यथानयम् । अंशावतरणे वृत्ते सुराणां भारते कुले ॥ १ ॥ भागेऽवतीर्णे धर्मस्य शक्रस्य पवनस्य च । अश्विनोर्देवभिषजोर्भागे वै भास्करस्य च ॥ २ ॥ पूर्वमेवावनिगते भागे देवपुरोधसः । वसूनामष्टमे भागे प्रागेव धरणीं गते ॥ ३ ॥ मृत्योर्भागे क्षितिगते कलेर्भागे तथैव च । भागे शुक्रस्य सोमस्य वरुणस्य च गां गते ॥ ४ ॥ शंकरस्य गते भागे मित्रस्य धनदस्य च । गन्धर्वोरगयक्षाणां भागांशेषु गतेषु च ॥ ५ ॥ भागेष्वेतेषु गगनादवतीर्णेषु मेदिनीम् । तिष्ठन्नारायणस्यांशे नारदः समदृश्यत ॥ ६ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! जब पृथ्वी और काल दोनों कृतकृत्य होकर चले गये और देवताओंका भरतवंशमें यथोचितरूपसे अंशावतरणका कार्य सम्पन्न हो गया एवं धर्म, इन्द्र, वायु, देववैद्य अश्विनीकुमार तथा सूर्यदेवका पृथक्-पृथक् भाग जब भूतलपर अवतीर्ण हो गया, देवताओंके पुरोहित बृहस्पतिजी जब उनसे भी पहले ही पृथ्वीपर आ गये, वसुओंके अष्टम भाग भीष्म भी पहले ही पृथ्वीपर अवतीर्ण हो गये तथा मृत्यु (यम) और कलिके भाग भी जब पृथ्वीपर आ गये तथा शुक्र, सोम और वरुणके अंश भी भूतलपर अवतीर्ण हो गये, भगवान् शङ्कर, मित्र, कुबेर, गन्धर्व, नाग और यक्षोंके भागांश भी जब पृथ्वीपर आ गये, उपर्युक्त सभी भाग जब आकाशसे पृथ्वीपर उतर आये, तब देवपक्षमें स्थित रहनेवाले देवर्षि नारद भगवान् नारायणके निकट आते हुए दिखायी दिये ॥ १-६ ॥
ज्वलिताग्निप्रतीकाशो बालार्कसदृशेक्षणः । सव्यापवृत्तं विपुलं जटामण्डलमुद्वहन् ॥ ७ ॥
उस समय उनका तेजस्वी शरीर प्रज्वलित अग्निके समान प्रकाशित हो रहा था । दोनों नेत्र प्रभातकालके सूर्यको भौति लाल थे । वे वामावर्त विशाल जटामण्डल धारण किये हुए थे ॥ ७ ॥
चन्द्रांशुशुक्ले वसने वसानो रुक्मभूषितः । वीणां गृहीत्वा महतीं कक्षासक्तां सखीमिव ॥ ८ ॥
उन्होंने अपने शरीरको चन्द्रमाकी किरणोंके समान श्वेतवर्णके दो वस्त्रोंसे आच्छादित कर रखा था । वे सोनेके आभूषणसे विभूषित थे । उन्होंने महती नामक वीणा ले रखी थी, जो उनकी सहचरीकी भाँति बगलमें सटी हुई थी ॥ ८ ॥
कृष्णाजिनोत्तरासङ्गो हेमयज्ञोपवीतवान् । दण्डी कमण्डलुधरः साक्षाच्छक्र इवापरः ॥ ९ ॥
उनके कंधेपर उत्तरीय वस्त्रके रूपमें काला मृगचर्म शोभा पा रहा था । वे सुवर्णमय यज्ञोपवीतसे सुशोभित थे । हाथोंमें दण्डकमण्डलु धारण किये हुए थे तथा देखनेमें साक्षात् दूसरे इन्द्रके समान जान पड़ते थे ॥ ९ ॥
भेत्ता जगति गुह्यानां विग्रहाणां ग्रहोपमः । गाता चतुर्णां वेदानामुद्गाता प्रथमर्त्विजाम् । महर्षिविग्रहरुचिर्विद्वान् गान्धर्वकोविदः ॥ १० ॥
जगत्में गुप्त बातोंका भंडाफोड़ करनेवाले नारदजी युद्ध या विवादकी सूचना देनेवाले ग्रहोंके समान माने जाते हैं । ये चारों वेदोंके गायक तथा मुख्य ऋत्विजोंमें उगाता थे, महर्षि होनेपर भी युद्ध देखनेकी रुचि रखते थे और विद्वान् | होनेके साथ ही सङ्गीतविद्याके मर्मज्ञ थे ॥ १० ॥
वैरिकेलिकिलो विप्रो ब्राह्मः कलिरिवापरः । देवगन्धर्वलोकानामादिवक्ता महामुनिः ॥ ११ ॥
दूसरोंको लड़ा देना उनके लिये खिलवाड़ था । वे ब्राह्मण तथा ब्रह्माजीके पुत्र होकर भी दूसरे कलिके समान माने जाते थे । महामुनि नारद देवलोक तथा गन्धर्वलोकके प्रमुख वक्ता (उपदेशक) थे ॥ ११ ॥
स नारदोऽथ ब्रह्मर्षिर्ब्रह्मलोकचरोऽव्ययः । स्थितो देवसभामध्ये संरब्धो विष्णुमब्रवीत् ॥ १२ ॥
ब्रह्मलोकमें विचरनेवाले वे अविनाशी ब्रह्मर्षि नारद उस समय देव-सभामें खड़े हो रोषावेशमें आकर भगवान् विष्णुसे इस प्रकार बोले- ॥ १२ ॥
अंशावतरणं विष्णोर्यदिदं त्रिदशैः कृतम् । क्षयार्थं पृथिवीन्द्राणां सर्वमेतदकारणम् ॥ १३ ॥
सर्वव्यापी नारायण ! देवताओंने भूतलके राजाओंका विनाश करनेके लिये जो यह अंशावतार ग्रहण किया है, यह सब निष्फल है ॥ १३ ॥
यदेतत्पार्थिवं क्षत्रं स्थितं त्वयि यदीश्वर । नृनारायणयुक्तोऽयं कार्यार्थः प्रतिभाति मे ॥ १४ ॥
'परमेश्वर ! यह जो भूतलके राजाओंका युद्ध है, वह तो आपपर ही निर्भर है । मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि देवताओंके इस प्रयोजनकी सिद्धि नर और नारायणके सहयोगसे ही सम्भव है ॥ १४ ॥
न युक्तं जानता देव त्वया तत्वार्थदर्शिना । देवदेव पृथिव्यर्थे प्रयोक्तुं कार्यमीदृशम् ॥ १५ ॥
देव ! देवाधिदेव ! आप तत्त्वार्थदर्शी हैं, सब कुछ जानते हैं; अतः पृथ्वीका भार उतारनेके लिये ऐसे उपायका प्रयोग करना, जिसमें आप दोनोंका सहयोग न हो, आपके लिये उचित नहीं है ॥ १५ ॥
त्वं हि चक्षुष्मतां चक्षुः श्लाघ्यः प्रभवतां प्रभुः । श्रेष्ठो योगवतां योगी गतिर्गतिमतामपि ॥ १६ ॥
'क्योंकि आप ही नेत्रवानोंके नेत्र हैं, प्रभावशाली पुरुषोंके स्पृहणीय प्रभु हैं, योगवालोंमें श्रेष्ठ योगी हैं तथा गतिशील प्राणियोंकी गति हैं ॥ १६ ॥
देवभागान् गतान् दृष्ट्वा किं त्वं सर्वाश्रयो विभुः । वसुन्धरायाः साह्यार्थमंशं स्वं नानुयुञ्जसे ॥ १७ ॥
आप सबके आश्रयभूत परमेश्वर हैं, फिर देवताओंके अंशोंको पृथ्वीपर गया हुआ देखकर भी आप वसुधाकी सहायताके लिये अपने अंशको क्यों नहीं नियुक्त करते हैं ॥ १७ ॥
त्वया सनाथ देवांशास्त्वन्मयास्त्वत्परायणाः । जगत्यां सञ्चरिष्यन्ति कार्यात् कार्यान्तरं गताः ॥ १८ ॥
'देवताओंके अंश आपके ही स्वरूप तथा आपके ही आश्रित हैं । वे आपसे सनाथ होकर ही पृथ्वीपर एक कार्यसे दूसरे कार्यमें संलग्न रहते हुए विचरण कर सकेंगे ॥ १८ ॥
तदहं त्वरया विष्णो प्राप्तः सुरसभामिमाम् । तव संचोदनार्थं वै शृणु चाप्यत्र कारणम् ॥ १९ ॥
विष्णो ! मैं जो आपको प्रेरित करनेके लिये बड़ी उतावलीके साथ इस देवसभामें आया हूँ, इसका भी एक कारण है; उसे सुनिये ॥ १९ ॥
ये त्वया निहता दैत्याः संग्रामे तारकामये । तेषां शृणु गतिं विष्णो ये गताः पृथिवीतलम् ॥ २० ॥
'विष्णो ! तारकामय-संग्राममें आपके द्वारा जो दैत्य मारे गये थे, वे सब-के-सब पृथ्वीतलपर जा पहुँचे हैं; उनकी क्या अवस्था है, सुनिये ॥ २० ॥
पुरी पृथिव्यां मुदिता मथुरा नामतः श्रुता । निविष्टा यमुनातीरे स्फीता जनपदायुता ॥ २१ ॥
'पृथ्वीपर मथुरा नामसे प्रसिद्ध एक पुरी है, जो परमानन्दमयी है । वह समृद्धिशालिनी नगरी यमुनाके तटपर बसी हुई है । उसके सब ओर बहुत-से जनपद हैं ॥ २१ ॥
मधुर्नाम महानासीद् दानवो युधि दुर्जयः । त्रासनः सर्वभूतानां बलेन महतान्वितः ॥ २२ ॥
'उस पुरीमें पहले मधु नामसे प्रसिद्ध एक महादानव रहता था, जिसे युद्धमें जीतना बहुत ही कठिन था । समस्त प्राणियोंको त्रास देनेवाला वह दानव महान् बलसे सम्पन्न था ॥ २२ ॥
तस्य तत्र महच्चासीन्महापादपसंकुलम् । घोरं मधुवनं नाम यत्रासौ न्यवसत् पुरा ॥ २३ ॥
वहीं उसका विशाल एवं भयंकर मधुवन नामक वन था, जो बड़े-बड़े वृक्षोंसे हरा-भरा रहता था । पूर्वकालमें वह दानव उस मधुवनमें ही निवास करता था' ॥ २३ ॥
तस्य पुत्रो महानासील्लवणो नाम दानवः । त्रासनः सर्वभूतानां महाबलपराक्रमः ॥ २४ ॥
'उसका पुत्र लवण नामसे प्रसिद्ध महान् दानव था । वह भी समस्त प्राणियोंको भयभीत करनेवाला तथा महान् बल-पराक्रमसे सम्पन्न था ॥ २४ ॥
स तत्र दानवः क्रीडन् वर्षपूगाननेकशः । स दैवतगणाँल्लोकानुद्वासयति दर्पितः ॥ २५ ॥
वह दानव बहुत वर्षातक वहाँ क्रीड़ा करता रहा । फिर बलके घमंडमें भरकर देवताओंसहित समस्त लोकोंको उजाड़ने या उद्विग्र करने लगा ॥ २५ ॥
अयोध्यायामयोध्यायां रामे दाशरथौ स्थिते । राजं शासति धर्मज्ञे राक्षसानां भयावहे ॥ २६ ॥ स दानवो बलश्लाघी घोरं वनमुपाश्रितः । प्रेषयामास रामाय दूतं परुषवादिनम् ॥ २७ ॥
जिसपर आक्रमण करना किसीके लिये भी असम्भव था, उस अयोध्यापुरीमें जब राक्षसोंको भय देनेवाले धर्मज्ञ दशरथनन्दन श्रीराम राज्य शासन करते थे, उस समय अपने बलकी प्रशंसा करनेवाले उस लवण नामक दानवने घोर मधुवनका सहारा ले श्रीरामचन्द्रजीके पास एक कटुभाषी दूत भेजा' ॥ २६-२७ ॥
विषयासन्नभूतोऽस्मि तव राम रिपुश्च ह । न च सामन्तमिच्छन्ति राजानो बलदर्पितम् ॥ २८ ॥
(उसके उस दूतने भगवान् श्रीरामसे इस प्रकार कहा-) 'राम ! मैं तुम्हारे राज्यके निकट रहता हूँ और तुम्हारा शत्रु भी हूँ । प्राय: राजा लोग ऐसे सामन्तको जीवित रखना नहीं चाहते, जो बलके घमंडमें भरा रहता हो ॥ २८ ॥
राज्ञा राज्यव्रतस्थेन प्रजानां हितकाम्यया । जेतव्या रिपवः सर्वे स्फीतं विषयमिच्छता ॥ २९ ॥
राजोचित व्रतमें स्थित रहकर अपने राज्यको समृद्धिशाली बनानेकी इच्छा रखनेवाले राजाको उचित है कि वह प्रजाके हितकी कामनासे अपने समस्त शत्रुओंको जीतकर काबूमें कर ले ॥ २९ ॥
अभिषेकार्द्रकेशेन राज्ञा रञ्जनकाम्यया । जेतव्यानीन्द्रियाण्यादौ तज्जये हि ध्रुवो जयः ॥ ३० ॥
जिसके मस्तकके केश राज्याभिषेकसे आई हुए हों तथा जो प्रजाको प्रसन्न रखना चाहता हो, उस राजाका कर्तव्य है कि वह सबसे पहले अपनी इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करे, क्योंकि उनको जीत लेनेके बाद शत्रुऑपर विजय पाना निश्चित है ॥ ३० ॥
सम्यग् वर्तितुकाम्यस्य विशेषेण महीपतेः । नयानामुपदेशेन नास्ति लोकसमो गुरुः ॥ ३१ ॥
जो उत्तम बर्तावकी इच्छा रखता हो, ऐसे पुरुष विशेषतः पृथ्वीपालक नरेशको नीतिका उपदेश करनेके लिये लोकके समान दूसरा कोई गुरु नहीं है ॥ ३१ ॥
व्यसनेषु जघन्यस्य धर्ममध्यस्य धीमतः । फलज्येष्ठस्य नृपतेर्नास्ति सामन्तजं भयम् ॥ ३२ ॥
जो द्यूत और मृगया आदि दुर्व्यसनोंमें दूसरोंकी अपेक्षा निकृष्ट है (अर्थात् जो व्यसनोंसे दूर रहता है), धर्ममें जिसकी मध्यम कोटिकी स्थिति है, परंतु जो बलमें दूसरोंकी अपेक्षा बढ़-चढ़कर है, उस बुद्धिमान् नरेशको कभी सामन्तोंसे भय नहीं प्राप्त होता है ॥ ३२ ॥
सहजैर्बाध्यते सर्वः प्रवृद्धैरिन्द्रियादिभिः । अमित्राणां प्रियकरैर्मोहैरधृतिरीश्वरः ॥ ३३ ॥
अपने शरीरके साथ ही उत्पन्न हुए ये इन्द्रियरूपी शत्रु जब बढ़ जाते हैं, तब मोह उत्पन्न करनेवाले हो जाते हैं और शत्रुओंका प्रिय साधन करने लगते हैं; उस दशामें उनके द्वारा सभी धैर्यहीन पुरुषों अथवा राजाओंको सदा ही बाधा प्राप्त होती है ॥ ३३ ॥
यत्त्वया स्त्रीकृते मोहात् सगणो रावणो हतः । नैतदौपयिकं मन्ये महद्वै कर्म कुत्सितम् ॥ ३४ ॥
तुमने जो मोहवश एक नारीके लिये दल-बलसहित रावणका वध कर डाला है, इसे मैं न्यायसंगत नहीं मानता । यद्यपि पराक्रमकी दृष्टिसे वह महान् कर्म है तो भी वास्तवमें वह निन्दित ही है' ॥ ३४ ॥
वनवासप्रवृत्तेन यत् त्वया व्रतशालिना । प्रहृतं राक्षसानीके नैव दृष्टः सतां विधिः ॥ ३५ ॥
'तुम वनवासमें प्रवृत्त हुए थे । वनवासी मुनियोंके नियोका पालन करनेमें हो तुम्हारी शोभा थी । फिर भी तुमने जो राक्षसोंकी सेनापर प्रहार किया, ऐसा बर्ताव कभी किन्हीं सत्पुरुषोंने किया हो-यह कभी नहीं देखा गया है ॥ ३५ ॥
सतामक्रोधजो धर्मः शुभां नयति सद्गतिम् । यत्त्वया निहता मोहाद् दूषिताश्चाश्रमौकसः ॥ ३६ ॥
क्रोधका परित्याग करके साधुपुरुष जिस धर्मका पालन करते हैं, वह उन्हें शुभ सद्गतिकी प्राप्ति कराता है । तुमने जो मोहवश राक्षसोंका वध किया है, इससे सभी आश्रमवासी कलंकित हो गये (तुम्हारे द्वारा व्रत-नियमका उल्लङ्घन देखकर दूसरे भी ऐसा ही करने लगेंगे; अतः तुम दुराचारके प्रवर्तक हो गये) ॥ ३६ ॥
स एष रावणो धन्यो यस्त्वया व्रतचारिणा । स्त्रीनिमित्ते हतो युद्धे ग्राम्यान् धर्मानवेक्षता ॥ ३७ ॥
यह रावण धन्य था, जो युद्धमें ग्राम्य धर्मपर ही दृष्टि रखनेवाले तुझ-जैसे व्रतधारीके हाथसे एक स्त्रीके कारण मारा गया ॥ ३७ ॥
यदि ते निहतः संख्ये दुर्बुद्धिरजितेन्द्रियः । युद्ध्यस्वाद्य मया सार्धं मृधे यद्यसि वीर्यवान् ॥ ३८ ॥
यदि तुमने खोटी बुद्धिवाले उस अजितेन्द्रिय रावणको युद्ध में मारा है और ऐसा करके तुम पराक्रमी बन रहे हो तो आओ, आज रणक्षेत्रमें मेरे साथ युद्ध करो' ॥ ३८ ॥
तस्य दूतस्य तच्छ्रुत्वा भाषितं तत्त्ववादिनः । धैर्यादसम्भ्रान्तवपुः सस्मितं राघवोऽब्रवीत् ॥ ३९ ॥
'उस कटुवादी दूतका वह भाषण सुनकर रघुनन्दन श्रीराम अपने स्वाभाविक धैर्यके कारण विचलित नहीं हुए, अपितु मुसकराते हुए बोले- ॥ ३९ ॥
असदेतत् त्वया दूत भाषितं तस्य गौरवात् । यन्मां क्षिपसि दोषेण वेदात्मानं च सुस्थिरम् ॥ ४० ॥
'दूत ! तूने उस दानवके प्रति गौरव-बुद्धिके कारण जो कुछ कहा है, वह सब ओछी बात है; क्योंकि तू मुझपर तो दोषारोपण करके आक्षेप करता है और अपनेको न्यायमार्गमें भलीभाँति स्थित समझता है ॥ ४० ॥
यद्यहं तत्पथे मूढो यदि वा रावणो हतः । यदि वा मे हृता भार्या का तत्र परिदेवना ॥ ४१ ॥
यदि मैं सन्मार्गपर चलनेका विवेक खो बैठा था, यदि मेरे द्वारा रावण मारा गया था अथवा यदि मेरी स्त्रीका अपहरण हुआ था तो तू क्यों इन सब बातोंका रोना रो रहा है ? ॥ ४१ ॥
न वाङ्मात्रेण दुष्यन्ति साधवः सत्पथे स्थिताः । जागर्ति च यथा देवः सदा सत्स्वितरेषु च ॥ ४२ ॥
सन्मार्गपर स्थित रहनेवाले साधु पुरुष किसीके कहनेमात्रसे कलङ्कित नहीं होते हैं । सत् और असत् पुरुषोंके भीतर बैठे हुए भगवान् सदा जागते रहते हैं (कौन बुरा है और कौन भला-यह उनकी दृष्टि से छिपा हुआ नहीं है) ॥ ४२ ॥
कृतं दूतेन यत्कार्यं गच्छ त्वं दूत मा चिरम् । नात्मश्लाघिषु नीचेषु प्रहरन्तीह मद्विधाः ॥ ४३ ॥
'दूत ! तुझ-जैसे दूतको जो कुछ करना चाहिये, वह कार्य तूने कर लिया । अब यहाँसे चला जा, विलम्ब न कर । मेरे-जैसे पुरुष यहाँ अपनी झूठी प्रशंसा करनेवाले नीच जनोंपर प्रहार नहीं करते ॥ ४३ ॥
अयं ममानुजो भ्राता शत्रुघ्नः शत्रुतापनः । तस्य दैत्यस्य दुर्बुद्धेर्मृधे प्रतिकरिष्यति ॥ ४४ ॥
यह मेरा छोटा भाई शत्रुन, जो शत्रुओंको पूर्ण संताप देनेवाला है, युद्धमें उस दुर्बुद्धि दैत्यको उसके कुकृत्योंका भरपूर बदला देगा' ॥ ४४ ॥
एवमुक्तः स दूतस्तु ययौ सौमित्रिणा सह । अनुज्ञातो नरेन्द्रेण राघवेण महात्मना ॥ ४५ ॥
'महात्मा राजा रघुकुलनन्दन श्रीरामने ऐसा कहकर जब उसे जानेकी आज्ञा दी, तब वह दूत सुमित्राकुमार शत्रुघ्नके साथ चला गया ॥ ४५ ॥
स शीघ्रयानः संप्राप्तस्तद् दानवपुरं महत् । चक्रे निवेशं सौमित्रिर्वनान्ते युद्धलालसः ॥ ४६ ॥
'सुमित्रानन्दन शत्रुघ्न शीघ्रतापूर्वक रथ हाँकते हुए लवणासुरके उस विशाल नगरमें जा पहुँचे । वहाँ युद्धकी लालसा लेकर उन्होंने उसके बनके समीप ही पड़ाव डाल दिया ॥ ४६ ॥
ततो दूतस्य वचनात् स दैत्यः क्रोधमूर्च्छितः । पृष्ठतस्तद् वनं कृत्वा युद्धायाभिमुखः स्थितः ॥ ४७ ॥
तदनन्तर दूतकी बातोंसे सब कुछ जानकर वह दैत्य क्रोधसे अचेत-सा हो गया और उस वनको पीछे करके युद्धके लिये शत्रुघ्नके सामने आकर खड़ा हो गया ॥ ४७ ॥
तद् युद्धमभवद् घोरं सौमित्रेर्दानवस्य च । उभयोरेव बलिनोः शूरयो रणमूर्धनि ॥ ४८ ॥
सुमित्राकुमार शत्रुघ्न तथा दानव लवणासुर दोनों ही बड़े बलवान् और शूरवीर थे । युद्धके मुहानेपर उन दोनोंमें घोर संग्राम हुआ ॥ ४८ ॥
तौ शरैः साधु निशितैरन्योन्यमभिजघ्नतुः । न च तौ युद्धवैमुख्यं श्रमं वाप्युपजग्मतुः ॥ ४९ ॥
वे तीखे बाणोंद्वारा एक-दूसरेको भलीभाँति चोट पहुंचाने लगे । दोनों ही न तो बुद्धसे विमुख हुए और न उन्हें थकावट ही हुई ॥ ४९ ॥
अथ सौमित्रिणा बाणैः पीडितो दानवो युधि । ततः स शूलरहितः पर्यहीयत दानवः ॥ ५० ॥
तदनन्तर उस युद्धस्थलमें सुमित्राकुमारने दानव लवणको बाणोंद्वारा अधिक पीड़ित किया, इससे उसका शूल हाथसे छूटकर गिर पड़ा । अब वह सर्वथा कमजोर पड़ने लगा ॥ ५० ॥
स गृहीत्वाङ्कुशं चैव देवैर्दत्तवरं रणे । कर्षणं सर्वभूतानां लवणो विररास ह ॥ ५१ ॥
तब उसने युद्ध में अङ्कश उठाया, जिसके लिये उसको देवताओंसे वर प्रास हो चुका था । वह अङ्कश समस्त प्राणियोंको आकर्षित करनेवाला था । उसे लेकर लवणासुर जोर-जोरसे गर्जना करने लगा ॥ ५१ ॥
शिरोधरायां जग्राह सोऽङ्कुशेन चकर्ष ह । प्रवेशयितुमारब्धो लवणो राघवानुजम् ५२ ॥ ॥
उसने वह अङ्कुश श्रीरामके छोटे भाई शत्रुघ्नके गलेमें फंसा दिया और खींचकर उसे उनके कण्ठमें घुसाना आरम्भ किया ॥ ५२ ॥
स रुक्मत्सरुमुद्यम्य शत्रुघ्नः खड्गमुत्तमम् । शिरश्चिच्छेद खड्गेन लवणस्य महामृधे ॥ ५३ ॥
यह देख उस महासमरमें शत्रुघ्नने सोनेकी मूठवाली अच्छी तलवार उठा ली और उसके द्वारा उस दानवका मस्तक काट गिराया ॥ ५३ ॥
स हत्वा दानवं संख्ये सौमित्रिर्मित्रवत्सलः । तद्वनं तस्य दैत्यस्य चिच्छेदास्त्रेण बुद्धिमान् ॥ ५४ ॥
मित्रोंपर स्नेह रखनेवाले बुद्धिमान् शत्रुघ्नने युद्धस्थलमें उस दानवका वध करके उसके उस वनको भी अपने अस्त्रोंद्वारा काट डाला ॥ ५४ ॥
छित्त्वा वनं तत्सौमित्रिर्निवेशं सोऽभ्यरोचयत् । भवाय तस्य देशस्य पुर्याः परमधर्मवित् ॥ ५५ ॥
वनको काटकर परम धर्मज्ञ सुमित्राकुमारने उस देशके अभ्युदयके लिये वहाँ एक नगर बसानेकी इच्छा की ॥ ५५ ॥
तस्मिन् मधुवनस्थाने मथुरा नाम सा पुरी । शत्रुघ्नेन पुरा सृष्टा हत्वा तं दानवं रणे ॥ ५६ ॥
रणभूमिमें उस दानवका वध करके शत्रुघ्नने पूर्वकालमें उसी मधुवनकी जगह उस पुरीका निर्माण किया, जिसका नाम मथुरा है ॥ ५६ ॥
सा पुरी परमोदारा साट्टप्राकारतोरणा । स्फीता राष्ट्रसमाकीर्णा समृद्धबलवाहना ॥ ५७ ॥
वह मथुरापुरी बहुत बड़ी है । उसमें ऊँची अट्टालिकाएँ, चहारदीवारी तथा फाटक यथास्थान बने हुए हैं । वह समृद्धिशालिनी पुरी समूचे राष्ट्रके लोगोंसे भरी रहती है तथा सेना और सवारियोंसे सम्पन्न है ॥ ५७ ॥
उद्यानवनसम्पन्ना सुसीमा सुप्रतिष्ठिता । प्रांशुप्राकारवसना परिखाकुलमेखला ॥ ५८ ॥
नाना प्रकारके उद्यान और वन उसकी शोभा बढ़ाते हैं । उसकी सीमा सुन्दर है । वह अच्छी तरहसे बसायी तथा दृढ़तापूर्वक स्थापित की गयी है । (वह नगरी एक नारीके समान जान पड़ती है) ऊँची-ऊंची चहारदीवारी उसके लिये साड़ीका काम देती है । चारों ओरसे खुदी हुई खाई मेखला (करधनी)-के समान जान पड़ती है' ॥ ५८ ॥
चयाट्टालककेयूरा प्रासादवरकुण्डला । सुसंवृतद्वारमुखी चत्वरोद्गारहासिनी ॥ ५९ ॥
'नगरद्वार और अट्टालिकाएँ उसके केयूर (भुजबंद)-सी प्रतीत होती हैं । श्रेष्ठ प्रासाद सुन्दर कुण्डलके समान शोभा देते हैं । किवाड़रूपी अञ्चलोंसे अच्छी तरह ढका हुआ प्रधान द्वार मानो उसका मुख है तथा भीतरके आँगनका उद्घारित अंश उसकी हँसीका प्रकाश है ॥ ५९ ॥
अरोगवीरपुरुषा हस्त्यश्वरथसंकुला । अर्धचन्द्रप्रतीकाशा यमुनातीरशोभिता ॥ ६० ॥
उस पुरीमें नीरोग वीर पुरुषोंका निवास है । हाथी, घोड़े तथा रथ आदि वाहनोंसे वह भरी रहती है । यमुनाजीके तटपर बसी हुई वह शोभाशालिनी पूरी अर्थचन्द्राकार प्रतीत होती है ॥ ६० ॥
पुण्यापणवती दुर्गा रत्नसंचयगर्विता । क्षेत्राणि सस्यवन्त्यस्याः काले देवश्च वर्षति ॥ ६१ ॥
इसके भीतर सुन्दर एवं पवित्र हाट हैं । इसमें प्रवेश करना दूसरोंके लिये कठिन है तथा इसे अपने स्त्रराशि-संग्रहपर गर्व है । इसके पार्श्ववर्ती जनपदके खेत अनाजके हरे-भरे पौदोंसे शोभा पाते हैं और वहाँ पर्जन्यदेव समयपर वर्षा करते हैं । ६१ ॥
नरनारीप्रमुदिता सा पुरी स्म प्रकाशते । निविष्टविषयश्चैव शूरसेनस्ततोऽभवत् ॥ ६२ ॥
नर-नारियोंके आमोद-प्रमोदसे पूर्ण मथुरापुरी सदा अपनी शोभासे प्रकाशित होती रहती है । इस पुरी और प्रदेशमें किसी समय राजा शूरसेन निवास करते थे ॥ ६२ ॥
तस्यां पुर्यां महावीर्यो राजा भोजकुलोद्वहः । उग्रसेन इति ख्यातो महासेनपराक्रमः ॥ ६३ ॥
उसी पुरीमें इस समय महाबली राजा उग्रसेन हैं, जो भोजवंशका भार वहन करते हैं । उनका पराक्रम कुमार कार्तिकेयके समान है ॥ ६३ ॥
तस्य पुत्रत्वमापन्नो योऽसौ विष्णो त्वया हतः । कालनेमिर्महादैत्यः संग्रामे तारकामये ॥ ६४ ॥
विष्णो ! आपने तारकामय संग्राममें जिस कालनेमि नामक महादैत्यका वध किया था, वह अब उन्हीं राजा उग्रसेनका पुत्र होकर प्रकट हुआ है ॥ ६४ ॥
कंसो नाम विशालाक्षो भोजवंशविवर्धनः । राजा पृथिव्यां विख्यातः सिंहविस्पष्टविक्रमः ॥ ६५ ॥
उसका नाम है कंस । उसके नेत्र बड़े-बड़े हैं । वह भोजवंशकी वृद्धि करनेवाला है । उसकी चाल-ढाल और पराक्रम सिंहके समान है । राजा कंस भूतलपर सर्वत्र विख्यात है ॥ ६५ ॥
राज्ञां भयङ्करो घोरः शङ्कनीयो महीक्षिताम् । भयदः सर्वभूतानां सत्पथाद् बाह्यतां गतः ॥ ६६ ॥
वह राजाओंके लिये अत्यन्त भयंकर है । भूमिपालोंके लिये शनीय हो गया है । समस्त प्राणियोंको भय देनेवाला कंस सदाचारसे गिर गया है ॥ ६६ ॥
दारुणाभिनिवेशेन दारुणेनान्तरात्मना । युक्तस्तेनैव दर्पेण प्रजानां रोमहर्षणः ॥ ६७ ॥
दारुण प्रकृति और क्रूर अन्तरात्मासे युक्त हो वह कंस अपने पूर्वजन्मके दर्पसे ही उन्मत्त हो इस समय प्रजावर्गके लिये रोमाञ्चकारी बन गया है ॥ ६७ ॥
न राजधर्माभिरतो नात्मपक्षसुखावहः । नात्मराज्ये प्रियकरश्चण्डः कररुचिः सदा ॥ ६८ ॥
वह न तो राजधर्ममें अनुराग रखता है, न अपने पक्षके लोगोंको ही सुख देता है और न अपने राज्यमें ही किसीका प्रिय करता है । सदा ही अत्यन्त क्रोधमें भरा रहता है और केवल प्रजासे कर वसूल करनेकी ही रुचि रखता है ॥ ६८ ॥
स कंसस्तत्र सम्भूतस्त्वया युद्धे पराजितः । क्रव्यादो बाधते लोकानासुरेणान्तरात्मना ॥ ६९ ॥
आपने जिसे युद्ध में पराजित किया था, वह कालनेमि ही वहाँ 'कंस' बनकर प्रकट हुआ है । उसकी अन्तरात्मा आसुरभावसे युक्त है, जिसके द्वारा वह मांसभक्षी राक्षस समस्त लोकोंको पीड़ा देता है' ॥ ६९ ॥
योऽप्यसौ हयविक्रान्तो हयग्रीव इति स्मृतः । केशी नाम हयो जातः स तस्यैव जघन्यजः ॥ ७० ॥
'पहले जो घोड़ेके समान चलनेवाला अथवा पराक्रमी हयग्रीव नामसे विख्यात दैत्य था, वही 'केशी' नामक अश्वके रूपमें भूतलपर उत्पन्न हुआ है । इस समय केशी मानो कसका छोटा भाई बना हुआ है ॥ ७० ॥
स दुष्टो हेषितपटुः केसरी निरवग्रहः । वृन्दावने वसत्येको नृणां मांसानि भक्षयन् ॥ ७१ ॥
वह दुष्ट केशी हींसने या हिनहिनानेमें बड़ा पटु है । उसकी गर्दनपर बड़े-बड़े बाल हैं । वह सर्वथा उच्छृङ्खल है । वह मनुष्योंके मांसका ही आहार करता हुआ वृन्दावनमें अकेला ही निवास करता है ॥ ७१ ॥
अरिष्टो बलिपुत्रश्च ककुद्मी वृषरूपधृक् । गवामरित्वमापन्नः कामरूपी महासुरः ॥ ७२ ॥
बलिका पुत्र अरिष्ट ऊँचे पुट्ठोंसे युक्त बैलका रूप धारण करके प्रकट हुआ है । वह कामरूपी महान् असुर गौओंका शत्रु बन गया है ॥ ७२ ॥
रिष्टो नाम दितेः पुत्रो वरिष्ठो दानवेषु यः । स कुञ्जरत्वमापन्नो दैत्यः कंसस्य वाहनः ॥ ७३ ॥
दानवोंमें श्रेष्ठ दितिपुत्र रिष्ट नामक दैत्य हाथीके रूपमें उत्पन्न होकर इस समय कंसका वाहन बना हुआ है । ७३ ॥
लम्बो नामेति विख्यातो योऽसौ दैत्येषु दर्पितः । प्रलम्बो नाम दैत्योऽसौ वटं भाण्डीरमाश्रितः ॥ ७४ ॥
दैत्योंमें अभिमानी जो लम्ब नामसे विख्यात दैत्य था, वह इस समय प्रलम्ब नामसे प्रसिद्ध हो भाण्डीर वटका आश्रय लेकर रहता है ॥ ७४ ॥
खर इत्युच्यते दैत्यो धेनुकः सोऽसुरोत्तमः । घोरं तालवनं दैत्यश्चरत्युद्वासयन् प्रजाः ॥ ७५ ॥
जो खर नामक दैत्य कहा जाता था, वही इस समय असुरोंमें श्रेष्ठ धेनुक बना हुआ है । वह दैत्य प्रजाजनोंको उजाड़ता हुआ भयानक तालवनमें विचरता रहता है ॥ ७५ ॥
वाराहश्च किशोरश्च दानवौ यौ महाबलौ । मल्लौ रङ्गगतौ तौ तु जातौ चाणूरमुष्टिकौ ॥ ७६ ॥
पूर्वकालमें वाराह और किशोर नामवाले जो दो महाबली दानव थे, वे ही चाणूर और मुष्टिकके नामसे उत्पन्न हुए हैं । वे दोनों इस समय कंसके अखाड़ेके प्रमुख मल्ल (पहलवान) हैं ॥ ७६ ॥
यौ तौ मयश्च तारश्च दानवौ दानवान्तक । प्राग्ज्योतिषे तौ भौमस्य नरकस्य पुरे रतौ ॥ ७७ ॥
दानवविनाशक नारायण ! मय और तार नामसे प्रसिद्ध जो दो दानव थे, वे इस समय प्राग्ज्योतिषपुरमें, जो भूमिपुत्र नरकासुरका नगर है, निवास करते हैं ॥ ७७ ॥
एते दैत्या विनिहतास्त्वया विष्णो निराकृताः । मानुषं वपुरास्थाय बाधन्ते भुवि मानुषान् ॥ ७८ ॥
विष्णो ! आपके द्वारा पराजित और निहत हुए ये दैत्य मानव-शरीर धारण करके भूतलपर मनुष्योंको पीड़ा दे रहे हैं ॥ ७८ ॥
त्वत्कथाद्वेषिणः सर्वे त्वद्भक्तान् घ्नन्ति मानुषान् । तव प्रसादात् तेषां वै दानवानां क्षयो भवेत् ॥ ७९ ॥
वे सब-के-सब आपकी कथावार्तासे द्वेष रखते हैं और आपमें भक्ति रखनेवाले मनुष्योंको मार डालते हैं । आपके कृपाप्रसादसे ही उन दानवोंका संहार हो सकता है ॥ ७९ ॥
त्वत्तस्ते बिभ्यति दिवि त्वत्तो बिभ्यति सागरे । पृथिव्यां तव बिभ्यन्ति नान्यतस्तु कदाचन ॥ ८० ॥
वे आकाश या स्वर्गमें रहें तो भी आपसे डरते हैं । समुद्र में रहें तो भी आपसे ही भयभीत होते हैं और पृथ्वीपर रहकर भी केवल आपसे ही भय खाते हैं, दूसरे किसीसे कदापि नहीं डरते हैं ॥ ८० ॥
दुर्वृत्तस्य हतस्यापि त्वया नान्येन श्रीधर । दिवश्च्युतस्य दैत्यस्य गतिर्भवति मेदिनी ॥ ८१ ॥
श्रीधर ! जो आपके ही द्वारा मारा जाता है, दूसरेके द्वारा नहीं, उस दैत्यको, वह दुराचारी ही क्यों न रहा हो, आप ही प्राप्त होते हैं । परंतु जो दूसरेके द्वारा मारा गया है, वह दैत्य स्वर्गसे भ्रष्ट होनेपर पृथ्वीपर ही जन्म लेता है' ॥ ८१ ॥
व्युत्थितस्य च मेदिन्यां हतस्य नृशरीरिणः । दुर्लभं स्वर्गगमनं त्वयि जाग्रति केशव ॥ ८२ ॥
'केशव ! जबतक यमराजसे आप पापियोंको नरकमें गिरानेके लिये जागरूक हैं, तबतक पृथ्वीपर जो दूसरेके हाथसे मारा जाता है, उसे स्वर्गकी प्राप्ति भी दुर्लभ रहती है; (फिर आपकी प्राप्ति तो दूरकी बात है । अतः आप दया करके दैत्योंको मारकर उन्हें सद्गति प्रदान करनेके लिये ही भूतलपर अवतार ग्रहण करें) ॥ ८२ ॥
तदागच्छ स्वयं विष्णो गच्छामः पृथिवीतलम् । दानवानां विनाशाय विसृजात्मानमात्मना ॥ ८३ ॥
अतः विष्णो ! आप स्वयं आइये । चलिये पृथ्वीपर चलें । वहाँ दानवोंके विनाशके लिये आप स्वयं ही अपने-आपको प्रकट करें ॥ ८३ ॥
मूर्तयो हि तवाव्यक्ता दृश्यादृश्याः सुरोत्तमैः । तासु सृष्टास्त्वया देवाः सम्भविष्यन्ति भूतले ॥ ८४ ॥
आपकी बहुत-सी मूर्तियाँ हैं, जो व्यक्त नहीं होती हैं । श्रेष्ठ देवता भी आपकी कुछ मूर्तियोंको देख पाते हैं और कुछको नहीं देख पाते हैं । आपके द्वारा रचे गये देवता उन्हीं मूर्तियोंमें भूतलपर प्रकट होंगे ॥ ८४ ॥
तवावतरणे विष्णो कंसः स विनशिष्यति । सेत्स्यते च स कार्यार्थो यस्यार्थे भूमिरागता ॥ ८५ ॥
विष्णो ! आपके अवतार लेनेपर ही कंसका विनाश होगा और जिसके लिये पृथ्वी यहाँ आयी थी, वह सारा प्रयोजन सिद्ध हो सकेगा ॥ ८५ ॥
त्वं भारते कार्यगुरुस्त्वं चक्षुस्त्वं परायणम् । तदागच्छ हृषीकेश क्षितौ ताञ्जहि दानवान् ॥ ८६ ॥
हृषीकेश ! आपको भारतवर्ष में महान् कार्य करना है । आप ही सबके नेत्र हैं (नेत्रोंकी भाँति सन्मार्गका दर्शन कराते हैं) और आप ही सबके परम आश्रय हैं; अतः आइये, भूतलपर अवतार लेकर उन दानवोंका वध कीजिये' ॥ ८६ ॥
इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे हरिवंशपर्वणि नारदवाक्ये चतुःपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
इस प्रकार श्रीमहाभारतके खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें नारदजीका वाक्यविषयक चौवनयाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५४ ॥
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