श्रीहरिवंशपुराण हरिवंश पर्व पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
ब्रह्मवाक्यम्
भगवान् विष्णुके द्वारा नारदजीके कथनका उत्तर तथा ब्रह्माजीका भगवान्से उनके अवतार लेनेयोग्य स्थान और पिता-माता आदिका परिचय देना
वैशंपायन उवाच नारदस्य वचः श्रुत्वा सस्मितं मधुसूदनः । प्रत्युवाच शुभं वाक्यं वरेण्यः प्रभुरीश्वरः ॥ १ ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! भोग और मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाले पुरुषोंके द्वारा जो एकमात्र वरण करनेयोग्य हैं, वे सर्वशक्तिमान् परमेश्वर मधुसूदन श्रीहरि नारदजीकी पूर्वोक्त बात सुनकर मुसकराये और अपनी कल्याणमयी वाणीद्वारा उन्हें उत्तर देते हुए बोले- ॥ १ ॥
त्रैलोक्यस्य हितार्थाय यन्मां वदसि नारद । तस्य संयक्प्रवृत्तस्य श्रूयतामुत्तरं वचः॥ २ ॥
'नारद ! तुम तीनों लोकोंके हितके लिये मुझसे जो कुछ कह रहे हो, तुम्हारी वह बात उत्तम प्रवृत्तिके लिये प्रेरणा देनेवाली है, अब तुम उसका उत्तर सुनो ॥ २ ॥
विदिता देहिनो जाता मयैते भुवि दानवाः । यां च यस्तनुमादाय दैत्यः पुष्यति विग्रहम् ॥ ३ ॥
अब मुझे भलीभाँति विदित है कि ये दानव भूतलपर मानव-शरीर धारण करके उत्पन्न हो गये हैं । मैं यह भी जानता हूँ कि कौन-कौन दैत्य किस-किस शरीरको ग्रहण करके वैरभावकी पुष्टि कर रहा है ॥ ३ ॥
जानामि कंसं संभूतमुग्रसेनसुतं भुवि । केशिनं चापि जानामि दैत्यं तुरगविग्रहम् ॥ ४ ॥
'मुझे यह भी ज्ञात है कि कालनेमि उग्रसेनपुत्र कंसके रूपमें इस पृथ्वीपर उत्पन्न हुआ है । घोड़ेका शरीर धारण करनेवाले केशी नामक दैत्यसे भी मैं अपरिचित नहीं हूँ ॥ ४ ॥
नागं कुवलयापीडं मल्लौ चाणूरमुष्टिकौ । अरिष्टं चापि जानामि दैत्यं वृषभरूपिणम् ॥ ५ ॥
कुवलयापीड हाथी, चाणूर और मुष्टिक नामक मल तथा वृषभरूपधारी दैत्य अरिष्टासुरको भी मैं अच्छी तरह जानता हूँ ॥ ५ ॥
विदितो मे खरश्चैव प्रलम्बश्च महासुरः । सा च मे विदिता विप्र पूतना दुहिता बलेः ॥ ६ ॥
विप्रवर ! खर और प्रलम्ब नामक महान् असुर भी मुझसे अज्ञात नहीं हैं । राजा बलिकी पुत्री पूतनाको भी मैं जानता हूँ ॥ ६ ॥
कालियं चापि जानामि यमुनाह्रदगोचरम् । वैनतेयभयाद् यस्तु यमुनाह्रदमाविशत् ॥ ७ ॥
यमुनाके कुण्डमें रहनेवाले कालियनागको भी मैं जानता हूँ, जो गरुड़के भवसे उस कुण्डमें जा घुसा है ॥ ७ ॥
विदितो मे जरासन्धः स्थितो मूर्ध्नि महीक्षिताम् । प्राग्ज्योतिषपुरे वापि नरकं साधु तर्कये ॥ ८ ॥
मैं उस जरासंधसे भी परिचित हूँ, जो इस समय समस्त भूमिपालोंके मस्तकपर खड़ा है । प्राग्ज्योतिषपुरमें रहनेवाले नरकासुरको भी मैं भलीभाँति जानता हूँ ॥ ८ ॥
मानुषे पार्थिवे लोके मानुषत्वमुपागतम् । बाणं च शोणितपुरे गुहप्रतिमतेजसम् ॥ ९ ॥ दृप्तं बाहुसहस्रेण देवैरपि सुदुर्जयम् । मय्यासक्तां च जानामि भारतीं महतीं धुरम् ॥ १० ॥
भूतलके मानवलोकमें जो मनुष्यरूप धारण करके उत्पन्न हुआ है, जिसका तेज कुमार कार्तिकेयके समान है, जो शोणितपुरमें निवास करता है और अपनी सहस्र भुजाओंके कारण देवताओंके लिये भी अत्यन्त दुर्जय हो रहा है, उस बलाभिमानी दैत्य बाणासुरको भी मैं जानता हूँ तथा यह भी समझता हूँ कि पृथ्वीपर जो भारती सेनाका महान् भार बढ़ा हुआ है, उसे उतारनेका कार्य मुझपर ही अवलम्बित है ॥ ९-१० ॥
सर्वं तच्च विजानामि यथा यास्यन्ति ते नृपाः । क्षयो भुवि मया दृष्टः शक्रलोके च सत्क्रिया । एषां पुरुषदेहानामपरावृत्तदेहिनाम् ॥ ११ ॥
मैं उन सारी बातोंसे परिचित हूँ कि किस प्रकार वे राजालोग आपसमें युद्ध करेंगे, भूतलपर उनका किस तरह संहार होगा और पुनर्जन्मसे रहित दिव्य पुरुष-देह धारण करनेवाले इन नरेशोंको इन्द्रलोकमें किस प्रकार सत्कार प्राप्त होगा-यह सब कुछ मेरी आँखोंके सामने है ॥ ११ ॥
संप्रवेक्ष्याम्यहं योगमात्मनश्च परस्य च । संप्राप्य पार्थिवं लोकं मानुषत्वमुपागतः ॥ १२ ॥
मैं भूलोकमें पहुँचकर मानवशरीर धारण करके स्वयं तो उद्योगका आश्रय लूँगा ही, दूसरोंको भी इसके लिये प्रेरित करूँगा ॥ १२ ॥
कंसादींश्चापि तान् सर्वान् वधिष्यामि महासुरान् । तेन तेन विधानेन येन यः शान्तिमेष्यति ॥ १३ ॥
जिस-जिस विधिसे जो-जो असुर मर सकेगा, उस-उस उपायसे ही मैं उन सभी कंस आदि बड़े-बड़े असुरोंका वध करूँगा ॥ १३ ॥
अनुप्रविश्य योगेन तास्ता हि गतयो मया । अमीषां हि सुरेन्द्राणां हन्तव्या रिपवो युधि ॥ १४ ॥
मैं योगसे इनके भीतर प्रवेश करके इनकी अन्तर्धान आदि गतियोंको नष्ट कर दूंगा और इस प्रकार युद्धमें इन देवेश्वरोंके शत्रुओंका संहार कर डालूँगा ॥ १४ ॥
जगत्यर्थे कृतो योऽयमंशोत्सर्गो दिवौकसैः । सुरदेवर्षिगन्धर्वैरितश्चानुमते मम ॥ १५ ॥ विनिश्चयो हि प्रागेव नारदायं कृतो मया । निवासं ननु मे ब्रह्मन् विदधातु पितामहः ॥ १६ ॥ यत्र देशे यथा जातो येन वेषेण वा वसन् । तानहं समरे हन्यां तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १७ ॥
नारद ! पृथ्वीके हितके लिये स्वर्गवासी देवताओं, देवर्षियों तथा गन्धर्वोने यहाँसे जो अपने-अपने अंशका उत्सर्ग किया है, यह सब मेरी अनुमतिसे हुआ है; क्योंकि मैंने पहलेसे ही ऐसा निश्चय कर लिया था । 'ब्रह्मन् ! अब यह ब्रह्माजी मेरे लिये निवासस्थानकी व्यवस्था करें । पितामह ! अब आप ही मुझे बताइये कि मैं किस प्रदेशमें कैसे प्रकट होकर अथवा किस वेषमें रहकर उन सब असुरोंका समर-भूमिमें संहार करूँगा ? ॥ १५-१७ ॥
ब्रह्मोवाच नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं शृणु मे विभो । भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति ॥ १८ ॥ यत्र त्वं च महाबाहो जातः कुलकरो भुवि । यादवानां महद् वंशमखिलं धारयिष्यसि ॥ १९ ॥ तांश्चासुरान् समुत्पाट्य वंशं कृत्वाऽऽत्मनो महत् । स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय ॥ २० ॥
ब्रह्माजीने कहा-सर्वव्यापी नारायण ! आप मुझसे इस उपायको सुनिये, जिसके द्वारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो जायगा । महाबाहो ! भूतलपर जो आपके पिता होंगे, जो माता होंगी और जहाँ जन्म लेकर आप अपने कुलकी वृद्धि करते हुए यादवोंके सम्पूर्ण विशाल वंशको धारण करेंगे तथा उन समस्त असुरोंका संहार करके अपने वंशका महान् विस्तार करते हुए जिस प्रकार मनुष्योंके लिये धर्मकी मर्यादा स्थापित करेंगे, वह सब बताता हूँ: सुनिये ॥ १८-२० ॥
पुरा हि कश्यपो विष्णो वरुणस्य महात्मनः । जहार यज्ञिया गा वै पयोदास्तु महामखे ॥ २१ ॥
विष्णो ! पहलेकी बात है, महर्षि कश्यप अपने महान् यज्ञके अवसरपर महात्मा वरुणके यहाँसे कुछ दुधारू गौएँ माँग लाये थे, जो अपने दूध आदिके द्वारा यज्ञकार्यमें बहुत ही उपयोगिनी थीं ॥ २१ ॥
अदितिः सुरभिश्चैते द्वे भार्ये कश्यपस्य तु । प्रदीयमाना गास्तास्तु नैच्छतां वरुणस्य वै ॥ २२ ॥
यज्ञ-कार्य पूर्ण हो जानेपर भी कश्यपकी दो पत्नी अदिति और सुरभिने वरुणको उनकी गौएँ लौटा देनेकी इच्छा नहीं की ॥ २२ ॥
ततो मां वरुणोऽभ्येत्य प्रणम्य शिरसा ततः । उवाच भगवन् गावो गुरुणा मे हृता इति ॥ २३ ॥
तब वरुणदेव मेरे पास आये और मस्तक झुकाकर मुझे प्रणाम करनेके पश्चात् बोले'भगवन् ! पिताजीने मेरी गौएँ लाकर रख ली हैं ॥ २३ ॥
कृतकार्यो हि गास्तास्तु नानुजानाति मे गुरुः । अन्ववर्तत भार्ये द्वे अदितिं सुरभिं तथा ॥ २४ ॥
यद्यपि उन गौओंसे जो कार्य लेना था, वह पूरा हो गया है तो भी पिताजी मुझे उन्हें वापस ले जानेकी आज्ञा नहीं देते हैं । इस विषयमें उन्होंने अपनी दो पत्नियों अदिति और सुरभिके मतका अनुसरण किया है ॥ २४ ॥
मम ता ह्यक्षया गावो दिव्याः कामदुहः प्रभो । चरन्ति सागरान् सर्वान् रक्षिताः स्वेन तेजसा ॥ २५ ॥
प्रभो ! मेरी वे गौएँ दिव्य, अक्षय एवं कामधेनु हैं तथा अपने ही तेजसे सुरक्षित रहकर समस्त समुद्रोंमें विचरण करती हैं ॥ २५ ॥
कस्ता धर्षयितुं शक्तो मम गाः कश्यपादृते । अक्षयं या क्षरन्त्यग्र्यं पयो देवामृतोपमम् ॥ २६ ॥
देव ! जो अमृतके समान उत्तम दूधको अविच्छिन रूपसे देती रहती हैं, मेरी उन गौओंको पिता कश्यपजीके सिवा दूसरा कौन बलपूर्वक रोक सकता है ? ॥ २६ ॥
प्रभुर्वा व्युत्थितो ब्रह्मन् गुरुर्वा यदि वेतरः । त्वया नियम्याः सर्वे वै त्वं हि नः परमा गतिः ॥ २७ ॥
ब्रह्मन् ! कोई कितना ही शक्तिशाली हो, गुरुजन हो अथवा और कोई हो, यदि वह मर्यादाका त्याग करता है तो आप ही ऐसे सब लोगोंपर नियन्त्रण कर सकते हैं; क्योंकि आप हम सब लोगोंके परम आश्रय हैं ॥ २७ ॥
यदि प्रभवतां दण्डो लोके कार्यमजानताम् । न विद्यते लोकगुरो न स्युर्वै लोकसेतवः ॥ २८ ॥
लोकगुरो । यदि संसारमें अपने कर्तव्यसे अनभिज्ञ रहनेवाले शक्तिशाली पुरुषोंके लिये दण्डकी व्यवस्था न हो तो जगत्की सारी मर्यादाएँ नष्ट हो जायेंगी ॥ २८ ॥
यथा वास्तु तथा वास्तु कर्तव्ये भगवन् प्रभुः । मम गावः प्रदीयन्तां ततो गन्तास्मि सागरम् ॥ २९ ॥
'इस कार्यका जैसा परिणाम होनेवाला हो वैसा ही कर्तव्यका पालन करने या कराने में आप ही हमारे प्रभु हैं । मुझे मेरी गौएँ दिलवा दीजिये, तभी मैं समुद्रको जाऊँगा ॥ २९ ॥
या आत्मदेवता गावो या गावः सत्त्वमव्ययम् । लोकानां त्वत्प्रवृत्तानामेकं गोब्राह्मणं स्मृतम् ॥ ३० ॥
इन गौओंके देवता साक्षात् परब्रह्म परमात्मा हैं तथा ये अविनाशी सत्त्वगुणका साकार रूप हैं । आपसे प्रकट हुए जो-जो लोक हैं, उन सबकी दृष्टि में गौ तथा ब्राह्मण एक समान माने गये हैं ॥ ३० ॥
त्रातव्याः प्रथमं गावस्त्रातास्त्रायन्ति ता द्विजान् । गोब्राह्मणपरित्राणे परित्रातं जगद् भवेत् ॥ ३१ ॥
पहले गौओंकी रक्षा करनी चाहिये । फिर सुरक्षित हुई गौएँ ब्राह्मणोंकी रक्षा करती हैं । गौओं और ब्राह्मणोंकी रक्षा होनेपर सम्पूर्ण जगत्की रक्षा हो जाती है' ॥ ३१ ॥
इत्यम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत । गवां करणतत्त्वज्ञः कश्यपे शापमुत्सृजम् ॥ ३२ ॥
अच्युत । जलके स्वामी वरुणके ऐसा कहनेपर गौओंके कारण-तत्त्वको जाननेवाले मैंने कश्यपको शाप देते हुए कहा- ॥ ३२ ॥
येनांशेन हृता गावः कश्यपेन महर्षिणा । स तेनांशेन जगति गत्वा गोपत्वमेष्यति ॥ ३३ ॥
'महर्षि कश्यपने अपने जिस अंशसे गौओंका अपहरण किया है, उस अंशसे वे पृथ्वीपर जाकर गोप होंगे ॥ ३३ ॥
या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारणिः । तेऽप्युभे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यतः ॥ ३४ ॥
वे जो सुरभि नामवाली देवी हैं तथा देवतारूपी अग्निको प्रकट करनेवाली अरणीके समान जो अदिति देवी हैं, वे दोनों पत्नियाँ कश्यपके साथ ही भूलोकमें जायेंगी ॥ ३४ ॥
ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते । स तस्य कश्यपस्यांशस्तेजसा कश्यपोपमः ॥ ३५ ॥ वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले । गिरिर्गोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरतः ॥ ३६ ॥ तत्रासौ गोषु निरतः कंसस्य करदायकः । तस्य भार्याद्वयं जातमदितिः सुरभिश्च ते ॥ ३७ ॥ देवकी रोहिणी चेमे वसुदेवस्य धीमतः । सुरभी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्वभूत् ॥ ३८ ॥
गोपयोनिमें प्रकट हुए कश्यप भूतलपर अपनी उन दोनों पत्नियोंके साथ सुखपूर्वक रहेंगे । कश्यपका जो दूसरा अंश कश्यपके समान ही तेजस्वी है, वह भूतलपर वसुदेव नामसे विख्यात हो गौओं और गोपोंके अधिपति-रूपसे निवास करेंगे । मथुरासे थोड़ी दूरपर गोवर्धन नामक पर्वत है, जहाँ वे गौओंकी रक्षामें तत्पर रहेंगे और कंसको कर देनेवाले होंगे । वहाँ अदिति और सुरभि नामक इनकी दोनों पलियाँ बुद्धिमान् वसुदेवकी देवकी और रोहिणी नामक ही दो भार्याएँ होंगी; उनमें सुरभि तो रोहिणीदेवी कहलायेंगी और अदिति देवकी ॥ ३५-३८ ॥
तत्र त्वं शिशुरेवादौ गोपालकृतलक्षणः । वर्धयस्व महाबाहो पुरा त्रैविक्रमे यथा ॥ ३९ ॥
महाबाहो ! वहाँ आप पहले शिशुरूपमें ही रहकर गोपबालकका चिह्न धारण करके क्रमश: बड़े होइये । ठीक वैसे ही, जैसे त्रिविक्रमावतारके समय आप वामनसे बढ़कर विराट् हो गये थे ॥ ३९ ॥
छादयित्वाऽऽत्मनात्मानं मायया योगरूपया । तत्रावतर लोकानां भवाय मधुसूदन ॥ ४० ॥
मधुसूदन ! योगमायाके द्वारा स्वयं ही अपने स्वरूपको आच्छादित करके आप लोकहितके लिये वहाँ अवतार लीजिये ॥ ४० ॥
जयाशीर्वचनैस्त्वैते वर्धयन्ति दिवौकसः । आत्मानमात्मना हि त्वमवतार्य महीतले ॥ ४१ ॥ देवकीं रोहिणीं चैव गर्भाभ्यां परितोषय । गोपकन्यासहस्राणि रमयंश्चर मेदिनीम् ॥ ४२ ॥
ये देवतालोग विजयसूचक आशीर्वाद देकर आपके अभ्युदयकी कामना करते हैं । आप पृथ्वीपर स्वयं अपने आपको उतारकर दो गर्भक रूपमें प्रकट हो माता देवकी तथा रोहिणीको संतुष्ट कीजिये । साथ ही यथासमय सहस्रों गोपकन्याओंको आनन्द प्रदान करते हुए ब्रजभूमिमें विचरण कीजिये' ॥ ४१-४२ ॥
गाश्च ते रक्षतो विष्णो वनानि परिधावतः । वनमालापरिक्षिप्तं धन्या द्रक्ष्यन्ति ते वपुः ॥ ४३ ॥
'विष्णो ! वहाँ गौओंकी रक्षा करते हुए जब आप वन-वनमें दौड़ते फिरेंगे, उस समय आपके वनमालाविभूषित मनोहर रूपका जो लोग दर्शन करेंगे, वे धन्य हो जायेंगे ॥ ४३ ॥
विष्णौ पद्मपलाशाक्षे गोपालवसतिं गते । बाले त्वयि महाबाहो लोको बालत्वमेष्यति ॥ ४४ ॥
महाबाहो ! विकसित कमलदलके समान नेत्रवाले आप सर्वव्यापी परमेश्वर जब ग्वालबालके रूपमें ब्रजमें निवास करेंगे, उस समय सब लोग आपके बालरूपकी झाँकी करके स्वयं भी बालक बन जायेंगे (बाललीलाके रसास्वादनमें मग्न हो जायेंगे) ॥ ४४ ॥
त्वद्भक्ताः पुण्डरीकाक्ष तव चित्तवशानुगाः । गोषु गोपा भविष्यन्ति सहायाः सततं तव ॥ ४५ ॥
कमलनयन ! आपके चित्तके अनुकूल चलनेवाले आपके भक्तजन वहाँ गौओंकी सेवाके लिये गोप बनकर प्रकट होंगे और सदा आपके साथ-साथ रहेंगे ॥ ४५ ॥
वने चारयतो गाश्च गोष्ठेषु परिधावतः । मज्जतो यमुनायां च रतिं प्राप्स्यन्ति ते त्वयि ॥ ४६ ॥
जब आप वनमें गौएँ चराते होंगे, व्रजमें इधर-उधर दौड़ते होंगे तथा यमुनाजीके जलमें गोते लगाते होंगे, उन सभी अवसरोंपर आपका दर्शन करके वे भक्तजन आपमें उत्तरोत्तर अनुराग प्राप्त करेंगे ॥ ४६ ॥
जीवितं वसुदेवस्य भविष्यति सुजीवितम् ॥ यस्त्वया तात इत्युक्तः स पुत्र इति वक्ष्यति ॥ ४७ ॥
वसुदेवका जीवन वास्तवमें उत्तम जीवन होगा, जो आपके द्वारा 'तात' कहकर पुकारे जानेपर आपसे पुत्र (बेटा) कहकर बोलेंगे ॥ ४७ ॥
अथ वा कस्य पुत्रत्वं गच्छेथाः कश्यपादृते ॥ का च धारयितुं शक्ता त्वां विष्णो अदितिं विना ॥ ४८ ॥
विष्णो ! अथवा आप कश्यपके सिवा दूसरे किसके पुत्र होंगे ? देवी अदितिके विना दूसरी कौन-सी स्त्री आपको गर्भमें धारण कर सकेगी ॥ ४८ ॥
योगेनात्मसमुत्थेन गच्छ त्वं विजयाय वै । वयमप्यालयान् स्वान् स्वान् गच्छामो मधुसूदन ॥ ४९ ॥
मधुसूदन ! आप अपने स्वाभाविक योगबलसे असुरोंपर विजय पानेके लिये यहाँसे प्रस्थान कीजिये और अब हमलोग भी अपने-अपने निवासस्थानको जा रहे हैं' ॥ ४९ ॥
वैशंपायन उवाच स देवानभ्यनुज्ञाय विविक्ते त्रिदिवालये । जगाम विष्णुः स्वं देशं क्षीरोदस्योत्तरां दिशम् ॥ ५० ॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! देवलोकके उस पुण्य प्रदेशमें बैठे हुए भगवान् विष्णु देवताओंको जानेकी आज्ञा देकर क्षीरसागरसे उत्तर दिशामें स्थित अपने निवासस्थानको चले गये ॥ ५० ॥
तत्र वै पार्वती नाम गुहा मेरोः सुदुर्गमा । त्रिभिस्तस्यैव विक्रान्तैर्नित्यं पर्वसु पूजिता ॥ ५१ ॥
वहाँ मेरुपर्वतकी पार्वती नामसे प्रसिद्ध एक अत्यन्त दुर्गम गुफा है, जो | भगवान् विष्णुके तीन चरण-चिहोंसे उपलक्षित होती है । इसीलिये पर्वके अवसरोंपर सदा उसकी पूजा की जाती है ॥ ५१ ॥
पुराणं तत्र विन्यस्य देहं हरिरुदारधीः । आत्मानं योजयामास वसुदेवगृहे प्रभुः ॥ ५२ ॥
उदारबुद्धिवाले भगवान् श्रीहरिने अपने पुरातन विग्रहको वहीं स्थापित करके अपने-आपको वसुदेवजीके घरमें अवतीर्ण होनेके कार्यमें लगा दिया ॥ ५२ ॥
इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे हरिवंशपर्वणि पितामहवाक्ये पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः हरिवंशे हरिवंशपर्व समाप्तम्
इस प्रकार प्रोगहाभारत के खिलभाग हरिवंशके अन्तर्गत हरिवंशपर्वमें ब्रह्माजीका वचनविषयक पचपन्नवाँ अध्याय पूरा हुआ ५५ ॥
॥ हरिवंशपर्व सम्पूर्ण ॥
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